सुवीर सरकार
एक थाल मोतियों से भरा
सबके सर पर औंधा धरा!
अमीर खुसरो की यह पहेली आप और हम कई बार हल कर चुके हैं। पर क्या आपने कभी सोचा है कि मोतियों के इस थाल के बावजूद रात को अंधेरा क्या होता है? पहली नज़र में तो आपको लगेगा कि क्या बेवकूफी भरा सवाल है। कोई बच्चा भी बता देगा कि रात में सूर्य नहीं निकलता है। या जो इस तथ्य से परिचित हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, वे कहेंगे ---इस गति के दौरान पृथ्वी का जो हिस्सा सूर्य के सामने पड़ना है वह प्रकाशमान होता है और बाकी 'अंधकार में डूबा रहता है। हां, आकाश में कुछ तारों की मद्धीम रोशनी अवश्य फैली रहती है।
पर इन तारों की रोशनी इतनी मद्धीम क्यों होती है? इसका उत्तर भी बड़ा सहज है -- कि वे हमसे बहुत दूर हैं। हमारे पास यह जानकारी भी है कि ये तारे हमारे सूर्य के समान ही विशाल और चमकीले हैं, बल्कि कई तो सूर्य में भी बड़े। अगर ये तारे हमसे उतने ही पास होते जितना कि सूर्य है, तो हमारी आंखें उनकी रोशनी में वैसे ही चौंधियातीं जैसी की सूर्य के आगे। सूर्य पृथ्वी से लगभग पंद्रह करोड़ किलोमीटर दूर है। जबकि हमारा सब से नज़दीकी तारा अल्फा सेन्टॉरी Alpha (Centauri) सूर्य की दूरी में ढाई लाख गुना अधिक दूर है। अन्य तारों की तो बात ही छोड़िए।
पर वास्तव में क्या यह उत्तर संतोषजनक है? यह सच है कि तारे एक-दूसरे से बहुत दूर-दूर है, मगर उनकी संख्या भी बहुत अधिक है। सैद्धांतिक रूप से यह मान लिया गया है कि तारे एक-दूसरे से अत्यधिक दूर होते हुए भी ब्राह्मांड में चारों ओर फैले हुए हैं और ब्रह्मांड असीम है। ऐसी स्थिति में हम जिस दिशा में देखेंगे, हमें अंतत: एक तारा तो दिखेगा ही दिखेगा। चाहे वह कितनी ही दूर क्यों न हो। इस हिसाव से तो रात को किसी भी दिशा में आकाश भी उतना ही चमकीला दिखना चाहिए जितना कि एक तारा। या हम यूं कहें कि आकाश तारों से सटा हुआ होना चाहिए। पर हमें जो आकाश दिखता है वह तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी विशाल काली चादर में छोटे छोटे प्रकाश बिंदु टंके हों। क्यों नहीं आकाश तारों से जगमगाता?
दरअसल किसी भी दिशा में उस दिशा का हमारे सबसे नज़दीक का तारा, उन तारों की रोशनी हम तक पहुंचने से रोक देता है जो ठीक उसके पीछे की ओर होते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो हम जिस दिशा में देखते हमें खूब सारे तारे दिखते। यदि ब्रह्मांड असीम है तो रोशनी भी असीम होती!
सदियों से यह सवाल एक रहस्यमय पहेली की तरह जिज्ञासुओं को परेशान करता रहा है। व्यापक रूप से यह पहेली सन् 1720 में चर्चा का विषय बनी। जान-माने ब्रिटिश खगोलशास्त्री एडमंड हैली ने इसे सामने रखा। 1744 ई. में एक स्विस खगोलशास्त्री फिलिप लॉ डे चेसो पुनः इसे सुर्खियों में लाए। लेकिन इसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय एक जर्मन डॉक्टर व शौकिया खगोलशास्त्री हेनरिक विल्हेला मथाऊस अल्बिर्स को जाता है। उन्होंने सन् 1823 में अपने एक लेख के जरिए इस मुद्दे को उठाया। तब से यह पहेली ‘आल्बर्स का विरोधाभास' के नाम से जानी जाती है। ब्रह्मांड विज्ञानी एडवर्ड हॅरिसन द्वारा हाल ही में किए गए शोध से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि लोग इस पहेली के बारे में बहुत पहले से जानते थे। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री जोहनस केपलर और कवि एडगर एलन पो ने अपने लेख और साहित्य में इसका उल्लेख किया है। इसलिए हॅरिसन महोदय का सुझाव है कि इतिहास की यथार्थता का ध्यान रखते हुए इस पहेली को ‘चमकीले आकाश का विरोधाभास कहना अधिक उचित होगा।
क्या आपको अभी भी नहीं लगता कि यह एक बुनियादी समस्या है। वैसे इस समस्या को समझने का सबसे बढ़िया तरीका है - गणना, सिर्फ साधारण गणना। अगर आप गणना से भी घबराते हैं तो एक और तरीका है - अनुरूपता का।
पेड़ और तारे
कल्पना कीजिए कि आप एक ऐसे वन में खड़े है जो कि अनंत में फैला हुआ है। अब आप जिस दिशा में देखेंगे उस ओर आपको एक-न-एक पेड़ तो दिखेगा ही। हां, वह पेड़ नज़दीक या दूर हो सकता है। पेड़ों के बीच की दूरी इस बात पर निर्भर करती है कि वन कितना घना है। अगर वन अत्यंत घना है तो पेड़ भी एक-दूसरे के अत्यंत करीब होंगे। यदि वन ज़्यादा घना नहीं है तो आपकी दृष्टि में बाधा पहुंचाने वाले पेड़ भी दूर-दूर स्थित होंगे। अगर हम मानकर चल रहे हैं कि वन-क्षेत्र अनंत तक फैला हुआ है तो आपसे पेड़ों की दूरी अधिक मायने नहीं रखती। अब आप कल्पना कीजिए कि ऐसे वन के सारे पेड़ों के तने सफेदी से पुते हों तो आप को क्या नज़र आएगा। सिर्फ एक सफेद दीवार जैसी रचना। संभव है अब आप कहें कि अगर हम अपने चारों ओर चमकीले तारों से भरे वन से घिरे हैं तो हमें हर दिशा में एक समान चमकीला प्रकाश दिखना चाहिए। समस्या यही है कि वास्तव में ऐसा क्यों नहीं होता? क्यों रात अंधेरे में डूबी रहती है?
दरअसल इससे भी अधिक व्यापक सवाल पूछा जा सकता है। ऑल्बर्स एवं अन्य वैज्ञानिकों की गणनाओं के अनुसार, रात में आकाश दिन के मुकाबले पचास हजार गुना अधिक चमकीला होना चाहिए। और फिर तारे तो हर वक्त आसमान में मौजूद हैं - क्या रात और क्या दिन। अब तो हमारा प्रश्न और भी विस्मयकारी हो सकता है। हम पूछ सकते हैं कि आकाश दिन में भी इतना अंधकारमय क्यों होता है? चकरा गए न! इसका भी उत्तर है कि चमकीले सूर्य के बावजूद दिन में आकाश हर दिशा में उतना चमकीला नहीं होता जितना कि सूर्य की दिशा में। जबकि हर दिशा में प्रकाशवान तारे उपस्थित हैं। चलिए वापस आते हैं वन वाली अनुरूपता पर। मान लीजिए कि उस वन में आप के एकदम करीब ही एक पेड़ है जिसे हम थोड़ी देर के लिए ‘सूर्य पेड़ का नाम दे देते हैं। अब यदि आप अपनी जगह पर खड़े रहकर इस तरह घूमने लगते हैं जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है; तब आप उस ‘सूर्य पेड़' को प्रत्येक चक्कर में कुछ समय के लिए ही देख पाएंगे। ठीक! परंतु फिर भी वन में ऐसे पेड़ मौजूद रहेंगे जो आपकी दृष्टिरेखा में बाधा पहुंचाएंगे। कहने का मतलब यह है कि हर समय आपकी दृष्टि में एक न एक पेड़ जरूर रहेगा, चाहे आप ‘सूर्य पेड़ को देख पा रहे हों या नहीं! इस आधार पर अब हम कहें कि कोई फर्क नहीं पड़ता, चाहे दिन हो या रात! कोई न कोई तारा हमारे आकाश को आलोकित किए रहेगा।
अब तो आप हमसे सहमत होंगे कि समस्या वास्तविक है और गहरी भी। इसे कैसे सुलझाया जाए। हमारी अपेक्षा और हमारे अवलोकन दोनों में स्पष्ट विरोधाभास है! संभव है हमारी बुनियादी मान्यताओं में कुछ गड़बड़ है। पहले मान्यताओं पर ही बात कर ली जाए।
बिखरे हैं तारों के समूह
सबसे पहले तो हमने यह माना कि तारे ब्रह्मांड में चारों ओर समान रूप से बिखरे हुए हैं। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। तारे समूहों में बंटे हुए हैं। इन समूहों को हम मंदाकिनी कहते हैं। हमारी पृथ्वी भी एक मंदाकिनी का हिस्सा है। ब्रह्मांड में अनेक मंदाकिनियां हैं। किन्हीं भी दो मंदाकिनियों के बीच की दूरी किसी एक मंदाकिनी में मौजूद दो तारों के बीच की दूरी से कई गुना अधिक होती है। हमारी यह मान्यता कि तारे ब्रह्मांड में चारों ओर बिखरे हैं सही बनी रहेगी यदि हम ‘तारे' के बजाय ‘मंदाकिनी' शब्द का उपयोग करें।
दूसरी मान्यता यह है कि सारे तारे समान रूप से चमकीले होते हैं। जबकि हकीकत में उनकी चमक बराबर नहीं होती। इससे आसमान किसी दिशा में थोड़ा अधिक चमकीला होगा या कहीं थोड़ा कम। पर इस तथ्य से इस बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि आकाश को चमकीला होना चाहिए या कि रात को अंधेरा क्यों होता है?
तीसरी और अंतिम महत्वपूर्ण मान्यता यह रही है कि तारों की संख्या एवं ब्रह्मांड दोनों ही अमीम हैं। इमी आधार पर हम विश्वासपर्वक कहते हैं कि चाहे हम किसी भी दिशा में दृष्टि दौड़ाएं -- हमें एक न एक तारा अवश्य नज़र आएगा। अब प्रश्न उठता है कि किसी भी दिशा में हमें कितनी दूरी पर यह एक तारा मिलेगा या दिखेगा। स्पष्ट है कि यह तारों के बीच की औसत दूरी पर निर्भर करेगा। अब हम पुनः अपने वन-क्षेत्र में वापस चलते हैं।
फिर पेड़ों के बीच
यदि पेड़ काफी पास-पास उगे हुए हैं तो हमारी दृष्टि रेखा में हर दिशा में ऐसे पेड़ों के कारण बाधा पहुंचेगी जो हमारे काफी नज़दीक हैं। इसके विपरीत यदि पेड़ एक-दूसरे से काफी दूर-दूर स्थित हैं तो हमें किसी एक दिशा में एक पेड़ देख पाने के लिए दूर तक दृष्टि दौड़ानी पड़ेगी। यहां पेड़ के तने की चौड़ाई भी महत्व रखती है। अगर तने विशाल हैं तो चंद पेड़ ही काफी होंगे हमारे दृष्टि-क्षेत्र को पूरी तरह ढांकने के लिए। लेकिन अगर तने काफी पतले हैं तो ज्यादा पेड़ों की जरूरत पड़ेगी और ये पेड़ अपेक्षाकृत दूर होंगे। अतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि एक विशेष दिशा में एक पेड़ (या तारा) देखने के लिए जिस दूरी तक हमें देखना होगा वह दूरी पेड़ों (या तारों) के बीच की औसत दूरी की समानुपाती एवं पेड़ के तने के व्यास (या तारे के तल क्षेत्र ) के विलोमानुपाती होगी।
साधारण गणना के द्वारा यह दूरी निकाली जा सकती है। मान लीजिए इस दूरी को हम s से दर्शाते हैं। पेड़ के तने (या तारे के) अर्धव्यास को हम R कहें और संकेत n द्वारा हम प्रति इकाई क्षेत्र में पेड़ों की संख्या (या प्रति इकाई आयतन में तारों की संख्या) को दर्शाते हैं। तब पेड़ों के लिए - जो एक द्वि-आयामी समतल में हैं - सूत्र है:
S = 2 Rn
अब तारों के लिए जो एक त्रि-आयामी अंतरिक्ष में फैले हुए हैं सूत्र होगाः
S = πR2n
उदाहरणतः यदि किसी वन में पेड़ों के बीच की औसत दूरी 10 मीटर है। और पेड़ों के तने का औसत व्यास एक मीटर है, तो किसी भी दिशा में हमारी दृष्टि रेखा को बाधा पहुंचाने वाले अधिकांश पेड़ कम से कम 100 मीटर की दूरी पर स्थित होंगे। अगर पेड़ों के तनों की चौड़ाई आधी हो या उनके बीच की दूरी दुगनी हो तो दूरी S भी दुगनी हो जाएगी। यह गणना हम तारों के लिए भी कर सकते हैं, अगर हमें उनका औसत आकार और उनके बीच की दूरी ज्ञात हो। किसी एक तारे का औसत व्यास हम सूर्य के व्यास के बराबर मान सकते हैं। सूर्य को व्यास सात लाख किलोमीटर है। अब सवाल उठता है कि औसत दूरी कितनी मानें? जैसा कि आपने इस लेख की शुरुआत में पढ़ा, हमारा सबसे निकटतम तारा अल्फा सेन्टोरी है जो तकरीबन 40 लाख करोड़ किलोमीटर दूर है। और यह दूरी इतनी अधिक है। कि प्रकाश को भी, जो कि ब्रह्मांड में सबसे तेज गति से चलने वाली चीज़ है, हम तक पहुंचने में चार वर्ष लग जाएंगे। (प्रकाश वर्ष विशाल खगोलीय दूरियों को नापने की सुलभ इकाई है। प्रकाश की गति एक सेकंड में लगभग तीन लाख किलोमीटर होती है। इस गति से प्रकाश एक वर्ष में जितनी दूरी तय करता है, उसे एक प्रकाश वर्ष कहते हैं। जबकि सूर्य से प्रकाश को हम तक पहुंचने में मात्र आठ मिनिट से कुछ अधिक समय लगता है। इस तरह हम कहते हैं कि अल्फा सेन्टोरी हमसे चार प्रकाश वर्ष दूर है। देखा जाए तो खगोलशास्त्र में चार प्रकाश वर्ष की दूरी भी अपेक्षाकृत एक छोटी दूरी है। हमारी मंदाकिनी आकाशगंगा (मिल्की वे) के अधिकांश तारों के बीच की दूरी ही कई प्रकाश वर्ष का पहाड़ा पढ़ा देती है। और तो और ब्रह्मांड की कोई भी दो मंदा किनियों के बीच की दूरी दस लाख प्रकाश वर्ष से कम नहीं है। तो यदि हम सारी मंदाकिनियों के तारों के बीच की औसत दूरी निकालें तो वह तकरीबन एक हजार प्रकाश वर्ष आएगी। अब हम ऊपर बताए गए सूत्र का उपयोग कर वह दूरी निकालें जो हमारी नज़र को किसी दिशा में बाधा पहुंचाने वाले तारे को देखने के लिए तय करनी होगी। तो वह आएगी लगभग 101 प्रकाश वर्ष यानी एक लाख महाशंख प्रकाश वर्ष। या यूं कहें कि '1' के बाद 24' शून्य और रखने होंगे।
आखिर तारे की उम्र कितनी
इस दूरी की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते। प्रकाश को भी इतनी लंबी दूरी तय करने में 10 वर्ष लगे जाएंगे। इस तथ्य से हमारा प्रश्न एक नया मोड़ ले लेता है। क्या कोई भी तारा इतने वर्ष अस्तित्व में रहेगा जितना कि उसके प्रकाश को हम तक पहुंचने में लगेगा? और क्या ब्रह्मांड भी इतने अधिक सालों से अस्तित्व में है? क्या होगी भला ब्रह्मांड की उम्र?
एक से बढ़कर एक जटिल सवाल उठे रहे हैं। पर घबराने की बात नहीं है। वास्तव में इन जटिल सवालों के उत्तरों में ही छुपा है हमारे सीधे-सादे सवाल का उत्तर। अब तक कहीं आप सवाल तो नहीं भूल गए - सवाल था कि रात को अंधेरा क्यों होता है? हम पलटकर यह मांग भी कर सकते हैं। कि सृष्टि की विवेचना ऐसी हो कि हमारा यह छोटा-सा अवलोकन भी उस विवेचन में स्पष्ट हो जाए। चलिए, थोड़ी देर के लिए पहला रास्ता ही अपनाते हैं और देखते हैं कि जितना हम ब्रह्मांड के बारे में जानते हैं, क्या वह पर्याप्त है रात के अंधेरे को समझने के लिए। वास्तव में हमारे पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि ब्रह्मांड का अस्तित्व अनंत काल से है या नहीं? आज प्रचलित आम धारणा यह है कि ब्रह्मांड का अस्तित्व अनंतकाल से नहीं है! लेकिन दूसरी ओर इस संभावना को भी निरस्त नहीं किया जा सकता कि ब्रह्मांड का अस्तित्व अनंतकाल से ही है! बहरहाल, चलिए थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि ब्रह्मांड का अस्तित्व अनंतकाल से रहा है। लेकिन क्या तारे भी अनंतकाल से अस्तित्व में हैं? खगोल वैज्ञानिकों के प्रयास से इसका उत्तर हमें पता है। हम यह जानते हैं कि तारे अनंतकाल तक नहीं जीते - बल्कि उनकी कुछ सीमित आयु होती है। जब उनका ईंधन खत्म हो जाता है तो वे जगमगाना छोड़ देते हैं और मर जाते हैं। यह प्रक्रिया कई सौ करोड़ वर्षों तक चलती रहती है। जो तारा जितना अधिक विशाल एवं चमकीला होगा उतना ही ज्यादा ईंधन वह खपाएगा। ऐसे तारे अपना जीवन बड़े ही भव्य धमाके के साथ समाप्त करते हैं। इन चमकदार धमाकों को अधिनवतारे (Supernova) के नाम से जाना जाता है। ऐसा ही एक धमाका फरवरी 1987 में 'मैग्लेन के बड़े बादल' नामक मंदाकिनी में हुआ है।
अब प्रश्न यह है कि तारों की औसत आयु कितनी है? यही कुछेक सौ करोड़ वर्ष! जब हम देख चुके हैं कि प्रकाश को तारों से हम तक पहुंचने में कम से कम औसतन 1024 वर्ष लगते हैं, जो हमारी दृष्टि रेखा को हर दिशा में सीमित कर देते हैं। या यूं कहें कि इस दूरी पर हमें तारों से पटा आकाश ही दिखाई देगा। दूसरे शब्दों में तारे उतने समय तक नहीं जीते हैं जिससे यह तय हो पा सके कि उनका प्रकाश निरंतर हम तक पहुंचे, और वह भी उतनी दूर से जहां हम उन्हें आकाश को पीटता हुआ देख पाएं। इसलिए रात को अंधेरा होता है। क्योंकि जो तारे आकाश को जगमगाने वाले थे वे वास्तव में मर चुके हैं। यद्यपि मरे हुए तारों से नए तारे भी बनते हैं और यह क्रम चलता रहता है। पर फिर भी तारे कभी भी इतनी मात्रा में नहीं होते हैं कि उनकी रोशनी से ब्रह्मांड जगमगा सके।
रात अंधेरी इसलिए
उपरोक्त तर्क को पलटकर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि रात को अंधेरा इसलिए रहता है क्योंकि तारे अनंतकाल तक नहीं जीते। इस पलटे हुए तर्क की शक्ति यह है कि इसके लिए यह जानना आवश्यक नहीं कि ब्रह्मांड का अस्तित्व कब से है? अगर ब्रह्मांड की आयु को सीमित मान भी लिया जाए तो वह किसी भी हालत में उन तारों की आयु से कम नहीं हो सकती जो कि स्वयं उसी बह्मांड के एक अंश हैं। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि तारों की सीमित आयु ही रात के अंधकार का मुख्य कारण नज़र आती है। और भी कारण हो सकते हैं। जो ब्रह्मांड की प्रकृति पर निर्भर होते हैं। जैसे कि ब्रह्मांड फैल रहा है, इसके कारण भी दूर के तारों की रोशनी तीन-चार गुना कम हो जाती है।
इस बहस से यह बात तो स्पष्ट होती है कि वैज्ञानिक प्रगति या खोज के लिए जटिल उपकरण या गणित के बड़े-बड़े सूत्र आवश्यक नहीं हैं; बल्कि इन उपकरणों और सूत्रों की जड़ में बसे वे मासूम सवाल आवश्यक हैं जो हम कुछ जानने की प्रक्रिया में लगातार पूछते हैं। जरूरत है तो सही प्रश्नों को उठा पाने की क्षमता, और इससे भी ज्यादा ज़रूरी है इन प्रश्नों से निकले उत्तरों को स्वीकारने की। चाहे ये उत्तर हमारे अब तक के विश्वास को, समझ को कितना भी बड़ा धक्का क्यों न पहुंचाएं। हां, इन उत्तरों को खोजने की प्रक्रिया में उपकरण और सूत्र अवश्य ही अपनी पूरी जटिलता के साथ उपस्थित हो सकते हैं, लेकिन वे रहेंगे अंततः साधन मात्र ही।
तो अगली बार आप जब अंधियारी रात में घर से बाहर निकलें और ऊपर आसमान में चमकते तारों का झुंड देखें तब वह सीधा-सा प्रश्न अवश्य पूछे जो कि प्रसिद्ध ब्रह्मांडशास्त्री हरमन बोंडी के अनुसार ‘सुदूर ब्रह्मांड से हमारी नाता जोड़ने वाली पहली कड़ी' बना।
सुवीर सरकार: खगोलशास्त्री; खगोलशास्त्र की समसामयिक ज्वलंत समस्याओं पर शोधकार्य। स्रोत फीचर सेवा में दो वर्षों तक कार्य। फिलहाल इंग्लैण्ड में रहते हुए शोधकार्य कर रहे हैं।
यह लेख ‘स्रोत फीचर सेवा' के फरवरी 1989 अंक से लिया गया है।