अरविंद गुप्ते
आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को देखना कितना अच्छा लगता है! पक्षियों के रंग-बिरंगे शरीर और मधुर आवाजें तो इंसान को हमेशा लुभाती रही हैं। उनकी उड़ान को देखकर ही इंसान में भी उड़ने की चाह पैदा हुई। समय-समय पर कई लोगों ने अपने शरीर पर पिच्छ लगाकर ऊंचे स्थानों से यह सोचकर छलांग लगा दी कि वे पक्षी के समान उड़ते हुए जमीन पर आ जाएंगे। किन्तु नतीजा वही हुआ जो होना था। वे
* इस लेख में पिछ और पंख माग्दों का प्रयोग क्रमशः (Feathe) और (Wing) के लिए किया गया है। पक्षी के दो पंख होते हैं और उसका शरीर पिच्चों से इंका रहता है।
सीमेन्ट से भरे हुए बोरे की तरह नीचे आ गिरे। पक्षियों के सरलता से उड़ सकने का कारण यह है कि पक्षी का शरीर एक ऐसी मशीन है जिसे 'जैव विकास' नाम के कुशल कारीगर ने लाखों वर्षों तक तराशकर उड़ान के लिए उत्कृष्ट बनाया है।
तराशा हुआ शरीर
पक्षी के शरीर का आकार ऐसा (स्ट्रीमलाइन्ड) होता है कि उड़ते समय पक्षी को हवा के प्रतिरोध का कम - से-कम सामना करना पड़ता है। पनडुब्बी और हवाई जहाज़ का आकार भी इसी तरह का होता है। पक्षी के शरीर का भार कम होने के कई कारण हैं। उनके शरीर की सभी हड्डियां बिल्कुल हल्की और खोखली होती हैं। कई बड़ी हड्डियों के भीतर तक हवा पहुंचाने की व्यवस्था होती है ताकि उन्हें और भी हल्का किया जा सके। मुंह से दांतों की छुट्टी हो गई है और जबड़े एक हल्की किन्तु कड़ी चोंच में परिवर्तित हो गए हैं।
उड़ने के लिए आवश्यक बहुत अधिक ऊर्जा के उत्पादन के लिए पक्षियों में चयापचय (मेटाबोलिज्म) की दर अन्य जंतुओं की तुलना में बहुत अधिक होती है। चयापचय की तेज़ दर को बनाए रखने के लिए पक्षियों को अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। उनके फेफड़ों का विकास इस आवश्यकता के अनुरूप हुआ है। फेफड़ों का आकार शरीर के अनुपात में काफी बड़ा तो होता ही है, उन से वायुकोष नामक शाखाएं निकली रहती हैं। कुछ वायुकोष शरीर के आंतरिक अंगों के बीच में फैले रहते हैं तो कुछ बड़ी हड्डियों के भीतर पहुंचते हैं। वायुकोषों की उपस्थिति से कई फायदे होते हैं। एक तो फेफड़ों की हवा ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। दूसरे, पक्षी के शरीर का आपेक्षिक घनत्व कम हो जाने से वह काफी हल्का हो जाता है। तीसरा फायदा यह होता है कि शरीर के ऊंचे तापक्रम के कारण जिन अंगों को हानि पहुंचने की संभावना होती है, वायुकोष की शाखा उनके पास से गुजरती है ताकि वायुकोष में बहती हवा के कारण उनका तापक्रम कम हो सके। इसका एक उदाहरण वृषण है।
ऑक्सीजन की बढ़ी हुई मात्रा को शरीर की सब कोशिकाओं तक पहुंचाने के लिए यह जरूरी है कि शरीर में रक्त का संचार तेज़ी से हो। चूंकि शरीर में रक्त के संचरण का काम हृदय करता है, पक्षियों का हृदय बहुत तेज़ गति से धड़कता है। मनुष्य का हृदय एक मिनिट में औसतन 72 बार धड़कता है। नीचे तालिका में दी गई पक्षियों की धड़कन की दर देखने से दोनों में अंतर समझ में आता है।
चयापचय की ऊंची दर के कारण पक्षियों के शरीर का तापक्रम अन्य जंतुओं के शरीर के तापक्रम की तुलना में अधिक होता है। जहां मनुष्य में यह 37 डिग्री सेल्सियस होता है वहीं पक्षियों में 40 डिग्री से 42 डिग्री सेल्सियस होता है। ऊंचे तापक्रम को बनाए रखने के लिए पक्षियों के शरीर पर पिच्छों के रूप में बहुत अच्छे तापरोधी आवरण का विकास हुआ है। ये पिच्छ पक्षी को गर्मी, सर्दी और वर्षा से तो बचाते ही हैं, उड़ान भी इन्हीं के कारण संभव हो पाती है। पक्षियों के अतिरिक्त जंतुओं के अन्य किसी समूह में पिच्छ नहीं पाए जाते।
उड़ते समय पक्षी को अपने पंख लगातार ऊपर-नीचे हिलाते रहना पड़ता है। इसके लिए वक्ष पर स्थित मांसपेशियां बहुत बड़ी और शक्तिशाली होती हैं। इन बड़ी मांसपेशियों को सहारा देने के लिए अंशमेखला (पेक्टोरल गर्डल) भी बहुत बड़ी और मज़बूत होती है।
उड़ने वाले जंतु के आंतरिक अंग यदि बिखरे हुए और ढीले-ढाले हों तो वे उड़ने में बाधा बन सकते हैं। अतः पक्षियों के आंतरिक अंग (आहारनाल, यकृत आदि) काफी कम जगह में व्यवस्थित होते हैं ताकि वे हिर्ले-डुलें नहीं। इसी कारण पक्षियों में द्रव से भरी हुई थैली यानी मूत्राशय नहीं पाया जाता। इनका मूत्र यूरिया के घोल के रूप में न होकर ठोस यूरिक अम्ल के रूप में होता है। यही यूरिक अम्ल पक्षी की बीट का सफेद भाग होता है।
उड़ने वाले जंतु की दृष्टि बहुत पैनी और कार्यक्षम होना जरूरी है। पक्षी की आंख एक अद्भुत अंग है। जो दूरदर्शी यंत्र (टेलीस्कोप) के समान दूर तक देख सकती है और पल भर में सूक्ष्मदर्शी यंत्र (माइक्रोस्कोप) में और फिर सूक्ष्मदर्शी से दूरदर्शी में बदल सकती है।
सरीसृपों से पक्षियों का विकास
हैरानी की बात यह है कि इतनी सारी खूबियों से लैस पक्षियों का विकास ज़मीन पर रेंगने वाले सरीसृप (रेप्टीलिया) वर्ग के जंतुओं से हुआ है। यदि हम सांप, छिपकली, मगर, कछुआ जैसे सरीसृप जंतुओं को देखते हैं तो यह विश्वास करना कठिन हो जाता है कि इन जैसे जंतुओं या इनके संबंधियों से पक्षियों जैसे सुंदर, तेज़
पंच की छापः बावेरिया (जर्मनी) की चूनापत्थर खदान में खुदाई के दौरान मिली एक पिच्छ की छाप वाला जीवाश्म। इसकी उम्र लगभग 15 करोड़ साल आंकी गई।
उड़ने वाले और मधुर आवाज़ वाले जंतु विकसित हुए हैं। किंतु यदि हम आज हमारे आसपास पाए जाने वाले सरीसृप जंतुओं में पक्षियों के पूर्वजों को खोजने का प्रयास करेंगे तो यह कुछ ऐसी ही बात होगी कि आजकल पृथ्वी पर पाए जाने वाले बंदरों में मनुष्य के पूर्वजों को खोजना।
पक्षियों के विकास की गुत्थी सुलझाने में सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनकी हड्डियां हल्की और नरम होने के कारण उनका जीवाश्म के रूप में सुरक्षित रहना कठिन होता है। इसी प्रकार मृत पक्षी के पिच्छ भी जल्दी गलकर नष्ट हो जाते हैं। यदि पक्षी का शरीर ऐसी मिट्टी में दफन हो जाए जिसके कण महीन हों और कणों के बीच ऑक्सीजन न हो तभी उसके जीवाश्म के रूप में सुरक्षित रहने की संभावना होती है।
फिर यह कैसे पता चला कि पक्षियों का विकास सरीसृप वर्ग के जंतुओं से हुआ? इस रोचक, रोमांचक और रहस्यमय कहानी को जानने के लिए हमें जर्मनी के बावेरिया प्रांत के सोलन होफन गांव में स्थित चूने के पत्थर की खदानों में जाना होगा। यह पत्थर बढ़िया किस्म का होने के कारण इसकी मांग बहुत अधिक है और इसे सदियों से इन खदानों से निकाला जाता रहा है। इन चट्टानों की परतें आसानी से खुल जाती हैं और इनमें दबे हुए जीवाश्म प्रायः सतह पर आ जाते हैं। सन् 1860 में इन चट्टानों में लगभग 7 से.मी. लंबा एक पिच्छ मिला। इस पिच्छ ने जीव विज्ञान की दुनिया में सनसनी फैला दी। सनसनी का कारण यह था कि ये चट्टानें 15 करोड़ बर्ष पहले बनी थीं और उस समय पृथ्वी पर पक्षियों का कहीं अता-पता ही नहीं था। आखिर पिच्छ था तो पक्षी । भी जरूर होगा, किन्तु उस युग में यह किस प्रकार का पक्षी रहा होगा? खैर, वैज्ञानिकों ने उस अकेले पिच्छ के आधार पर ही पक्षी की उस प्रजाति का नाम रख दिया ‘आर्कियोप्टेरिक्स'
आर्कियोप्टेरिक्त का जीवाश्मः सन् 1861 में बावेरिया में मिला यह जीवाश्म ही वह पहली कड़ी साबित हुआ जो डायनोसोर और पक्षियों के बीच के अंतरसंबंधों को बताता था। इन शुरुआती पंछियों के बारे में माना जाता है कि इनकी गिरगिट की तरह लंबी पूंछ होती थी और मजबूत जबड़ों में दांत होते थे। और ये बहुत थोड़ी दूरी तक उड़ान भर पाते थे। इस जीवाश्म की आयु 15 करोड़ साल आंकी गई।
यानी प्राचीन पिच्छ।
इस घटना के एक वर्ष बाद की एक अन्य खदान में आर्कियोप्टेरिक्स निर्विवाद था कि यह जंतु था तो पक्षी का लगभग पूरा कंकाल मिला। इस कंकाल के चारों ओर उसके पिच्छों के निशान चट्टान पर बने हुए थे। पिच्छों की उपस्थिति के कारण ये तो निर्विवाद था कि किन्तु यह पूरी तरह आज के पक्षियों के
पक्षियों के विकास का रास्ताः ऊपर के रेखाचित्र में सरीसृप से पक्षियों के विकास को दिखाने की एक कोशिश है। इसमें एक छोर पर डायनोसोर हैं जिनमें क्रमिक विकास होता गया और वे आरकियोप्टेरिक्स के रूप में सामने आए जिन्हें साफतौर पर पक्षी कहा जा सकता था। यहां से पक्षियों को स्वतंत्र विकास होता है।
वर्ग के कई लक्षण थे। उसकी लंबी पूंछ में कई मनके थे जैसे छिपकलियों की पूंछ में पाए जाते हैं। अगली टांगें पंखों के रूप में तो तब्दील हो चुकी थीं किन्तु इन पर और पिछली टांगों पर नाखून थे।
इसके बाद आर्कियोप्टेरिक्स के दो और कंकाल मिले जिनसे पता चला कि इस जंतु के जबड़ों में वैसे ही दांत थे जैसे सरीसृपों में पाए जाते हैं। टांगों, सिर ओर गर्दन के ऊपरी भाग को छोड़ शेष शरीर पिच्छों से ढंका था।
ये सब घटनाएं चार्ल्स डार्विन की पुस्तक 'दी ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़' के प्रकाशन के दो वर्षों के भीतर हुई। इस पुस्तक में डार्विन ने विकासवाद का वह क्रांतिकारी सिद्धांत प्रस्तुत किया था जिसने जीवशास्त्र की दिशा ही बदल दी। इसके अनुसार एक समूह के जंतुओं से दूसरे समूह के जंतुओं का विकास होता है। रोचक बात यह है कि डार्विन के कट्टर अनुयायी टॉमस हक्सले ने सरीसृपों और पक्षियों के अध्ययन के आधार पर कहा था कि पक्षियों का विकास सरीसृपों से हुआ है और इन दोनों समूहों को जोड़ने वाली कड़ी का जीवाश्म कभी-न-कभी प्राप्त होगा। उसने इस जंतु की शरीर
डायनोसोर में बदलाव: अब लगभग इस बात को खासी मान्यता मिल चुकी है कि पक्षियों का सीधा संबंध कुछ खास प्रजातियों के डायनोसोर से है। दक्षिण आफ्रिका से मिले एक छोटे डायनोसोर का शरीर पिच से ढंका हुआ था। जीवाश्म के आधार पर यहां बिना पिच्छ वाला और पिच्छ से ढका हुआ डायनोसोर दिखाया गया है। हालांकि ऐसा लगता है कि इस समय तक उनमें उड़ने की क्षमता नहीं थी।
आर्कियोप्टेरिक्स का काल्पनिक चित्रः आर्कियोप्टेरिक्स के जीवाश्म काफी मिले हैं लेकिन पक्षी कैसा दिखता होगा इसका अनुमान लगाने के लिए चित्रकार की कल्पना ही काम आती है। एक चित्रकार ने जीवाश्मों के आधार पर आर्कियोप्टेरिक्स की यह कल्पना की है। जिसमें पक्षी के मुंह में दांत, पंखों पर एक जोड़ी पंजों की मौजूदगी आदि हम पहलू हैं।
रचना का विवरण भी दिया था जो आर्कियोप्टेरिक्स से काफी मिलता है।
नई बहसः किस सरीसृप से
आर्कियोप्टेरिक्स की खोज ने यह तो निर्विवाद रूप से प्रमाणित कर दिया कि पक्षियों का विकास सरीसृप जंतुओं से ही हुआ है, किन्तु अब वैज्ञानिकों में बहस इस बात को लेकर छिड़ गई कि सरीसृप वर्ग के कौन-से जंतुओं से पक्षियों का विकास हुआ है। हक्सले का मत था कि डायनोसोर समूह के जंतु ही पक्षियों के पूर्वज हो। सकते हैं। आज से कोई 10-20 करोड़ वर्षों पहले इस समूह के जंतु अन्य सब जंतुओं की तुलना में प्रबल थे और बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे। ये छोटे, बड़े, शाकाहारी, मांसाहारी, हवा में उड़ने वाले, पानी में रहने वाले, ज़मीन पर रहने वाले और पिछली दो टांगों के बल खड़े होकर सरपट दौड़ने वाले, आदि सभी प्रकार के होते थे और सभी महाद्वीपों पर पाए जाते थे।
1926 तक अधिकांश वैज्ञानिक हुक्सले से सहमत थे, किन्तु इसी साल गेरहार्ड हाइलमन नामक वैज्ञानिक की 'पक्षियों की उत्पत्ति' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसमें कुछ प्रमाणों के आधार पर हाइलमन ने यह तर्क दिया कि पक्षी और डायनोसोर आपस में संबंधी तो हो सकते हैं, किन्तु यह कहना गलत होगा कि पक्षियों की उत्पत्ति डायनोसोरों से हुई है। इन दोनों समूहों का विकास ऐसे सरीसृप जंतुओं से हुआ है जो पिछली टांगों के बल न केवल धरती पर सरपट दौड़ते थे अपितु पेड़ों पर भी चढ़ जाते थे और एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाते थे। जैसे-जैसे ये छलांगें लम्बी होती गई, इन्होंने उड़ानों का रूप ले लिया और उड़ान में सहायता करने के लिए शरीर पर पिच्छों का विकास हुआ; और इस प्रकार हुआ पक्षियों का विकास।
चीन में: जीवश्मों का खज़ाना
इसके बाद वैज्ञानिक जगत में हाइलमन का पलड़ा भारी हो गया और लगभग आधी शताब्दी तक यही स्थिति बनी रही। पिछले 6-7 वर्षों में चीन के उत्तर-पूर्वी लियाओनिंग प्रांत से जीवाश्म का ऐसा खज़ाना प्राप्त हुआ है जिससे पक्षियों के विकास पर पड़ा हुआ परदा कुछ हद तक हटा है। कोई 12 करोड़ वर्ष पहले इस भाग में स्थित झीलें विविध प्रकार के जीवों से भरी पड़ी थीं। अचानक पूर्व में स्थित भीतरी मंगोलिया में एक के बाद एक भीषण ज्वालामुखी विस्फोट हुए। इनसे निकली विषैली गैसें जब लियाओनिंग प्रांत पहुंचीं तो इनके प्रभाव से सारे जंतु तुरन्त मर गए और फिर ज्वालामुखी से निकली राख में दफन हो गए।
इन जंतुओं में कई डायनोसोर समूह के थे। इनमें से कुछ के शरीर पर पिच्छ होने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। डायनोसोर और पिच्छ? है तो अनोखी बात, किन्तु यह सच है कि थीरोपॉड समूह के, पिछली टांगों के बल चलने वाले इन मांसाहारी जंतुओं के शरीर पर पिच्छ थे। इस समूह का सबसे भयानक जंतु टायरेनो-सॉरस रेक्स था जो 45 फीट लंबा और 20 फीट ऊंचा होता था। खैर, टायरेनोसॉरस तो उत्तरी अमेरिका में रहता था, किन्तु लियाओनिंग प्रांत में पाए जाने वाले थीरोपॉड डायनोसोर छोटे आकार के होते थे। इन जंतुओं का उड़ने से दूर तक कोई संबंध नहीं था। फिर इन के शरीर पर पिच्छों का क्या औचित्य हो सकता है?
कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि अन्य सरीसृप जंतुओं की तुलना में डायनोसोर के शरीर का तापक्रम काफी ऊंचा यानी लगभग स्तनधारियों के शरीर के तापक्रम के बराबर होता है। शरीर के इस ऊंचे तापक्रम को बनाए रखने के लिए उन्हें शायद शल्कों से बेहतर तापरोधी आवरण की ज़रूरत थी।
मुमकिन है ग्लाइड करते करते उड़ने लगे हों
पिछले कुछ सालों में यह परिकल्पना कि पक्षियों का विकास डायनोसोर से हुआ है, विवाद के घेरे में आ गई है। यह बात तब उठी जब जीवाश्म वैज्ञानिकों द्वारा यह दावा किया गया कि उन्हें आर्कियोप्टेरिक्स से भी सात करोड़ साल पहले के एक छिपकलीनुमा सरीसृप ‘लोंगिस्क्यूमा' के शरीर पर पिच्छ थे यह दिखाता हुआ जीवाश्म मिला है। इस जीवाश्म के बारे में। जानकारी तो बहुत साल से थी; लगभग तीस साल पहले रूस में इसकी खोज हुई थी परन्तु विवाद का विषय यह है कि उसमें दिखने वाली धारीदार पट्टियां पिच्छ हैं या कोई और ही रचना है।
इस जीवाश्म में इस जीव के शरीर का केवल आगे का पांच से.मी. हिस्सा दिखाई देता है। साथ ही लगभग एक से.मी. चौड़ी और चौदह से.मी. लंबी 6 से 8 जोड़ी रचनाएं हैं जिन्हें बहुत सारे जीव विज्ञानी स्पष्ट तौर पर पिच्छ मानते हैं। उनका कहना है कि इनके बीच की शाफ्ट पोली है और उनमें से दोनों तरफ रचनाएं निकलती दिखाई देती हैं। यह जरूर है कि आज के पक्षियों के पिच्छ की तुलना में ये कुछ फर्क हैं।
दूसरी ओर कुछ अन्य जीव वैज्ञानिकों का मत है कि ये रचनाएं पारदर्शी हैं जबकि अभी के पक्षियों में पाए जाने वाले पिच्छ पारदर्शी नहीं होते। उनका यह भी कहना है कि दरअसल ये विशेष किस्म के शल्क हैं जिनमें खूब सारी झुर्रियां पड़ी हुई है और उनके बीच में एक मध्य शिरा जैसी रचना होने की वजह से वे पिच्छ जैसे नजर आते हैं।
जो लोग मानते हैं कि ये पिच्छ ही हैं, उनका कहना है कि यह जीव इन्हें खोल कर बखूबी ग्लाइड कर पाता होगा। जबकि विपरीत मत रखने वालों का मानना है कि ये सरीसृप इन्हें मादा को रिझाने या किसी को डराने के लिए इस्तेमाल करते होंगे।
चाहे ये रचनाएं पिच्छ हों या न हों, इतना तो पक्का है कि इनका विकास सरिसृपों के शल्क से हुआ और सरीसृपों के करोड़ों सालों के इतिहास में ऐसी कोई और रचना देखने को नहीं मिलती।
(1 जुलाई, 2000 के न्यू सायंटिस्ट' में छपे लेख पर आधारित)
संभव है कि उनके शरीर पर मौजूद पिच्छ उनके शरीर के तापक्रम को बरकरार रखने में मदद करते होंगे, किन्तु अच्छे तापरोधी होने के अलावा पिच्छों में एक विशेषता यह थी कि वे लंबी छलांग लगाते समय शरीर का संतुलन बनाए रखने में विशेष सहायता करते थे।
लंबी छलांग लगाते-लगाते इन जंतुओं ने उड़ना शुरू कर दिया होगा और साथ ही उनके शरीर में वे सारे परिवर्तन होने लगे जिनके कारण ज़मीन पर दौडने वाले मांसाहारी डायनोसोरों से कालातांर में मोर, बाज़, तोता और मैना जैसे पक्षी विकसित हो पाए।
यह संभव है कि भविष्य में नए जीवाश्मों की खोज हो और पक्षियों के विकास की कहानी कोई नया मोड़ ले ले। किन्तु अभी तो यह एक सुखद विचार है कि किसी समय दूसरे जंतुओं को आतंकित करने वाले डरावने डायनोसोर पूरी तरह विलुप्त नहीं हुए हैं और आज उनसे बहुत ही फर्क परन्तु फिर भी उनके वंशज पक्षियों के रूप में हमारे आसपास मौजूद हैं।
अरविंद गुप्तेः एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन में रुचि।