सवालीराम
सवालः सवालीराम ने आपसे पिछली बार सवाल किया था कि ऊंचाई पर जाने के साथ तापमान कम क्यों होता जाता है - जबकि धरती से ऊपर उठने का सीधा अर्थ यह है कि हम सूरज के करीब जा रहे हैं। इस वजह से तो हमें पहाड़ पर ज्यादा गर्मी महसूस होनी चाहिए।
जवाबः गर्मी का मौसम शबाब पर है। इन दिनों कई लोग गर्मी से निजात पाने के लिए पहाड़ों पर आरामगाहों की ओर रुख कर लेते हैं। पहाड़ों से लौटे हुए लोग अपने अनुभव सुनाते समय यह बताना नहीं भूलते कि मैदानी इलाकों के मुकाबले में वहां बड़ी ठंड़क होती है।
ज़रा ठंड के दिनों को याद कीजिए जब हम अलाव ताप रहे होते हैं। अलाव तापते समय हमारा अनुभव कुछ और ही होता है। जैसे-जैसे हम अलाव के करीब आते हैं हमें गर्मी ज्यादा महसूस होती है। इस अनुभव के आधार पर तो यह सोचना एकदम वाजिब है कि यदि हम माउंट एवरेस्ट पर खड़े हों, जिसकी ऊंचाई समुद्र सतह से 8848 मीटर है, तो हमें ज्यादा गर्मी महसूस होनी चाहिए क्योंकि यहां हम सूरज के ज्यादा करीब हैं। लेकिन होता इसका एकदम उल्टा है - माऊंट एवरेस्ट पर न सिर्फ बारह महीनों बर्फ जमी होती है बल्कि तापमान भी शुन्य डिग्री सेंटीग्रेड से कम ही बना रहता है। ज़रा सोचिए ऐसा क्यों होता है?
दरअसल इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए पहले यह समझना ज़रूरी है कि पृथ्वी का वातावरण गर्म कैसे होता है। सूर्य में नाभिकीय संलयन से जो ऊर्जा पैदा होती है वो हम तक केवल एक ही तरीके से पहुंच सकती है - विकिरण के द्वारा क्योंकि पृथ्वी व सुर्य के बीच का करोड़ों किलोमीटर का फासला एकदम खाली है, इसलिए उष्मा न तो चलन की विधि से हम तक पहुंच सकती है, न संवहन की विधि से। तो बस केवल विकिरण का तरीका ही बचता है।
विकिरण के द्वारा सूर्य से तरह-तरह की किरणें धरती तक पहुंचती हैं - एक्स किरणें, पराबैंगनी किरणें, दृश्य प्रकाश किरणें, अवरक्त किरणें ... और भी बहुत-सी। धरती पर आने वाले सूर्य प्रकाश में ये सभी किरणें होती हैं जो वायुमंडल से होती हुई धरती की सतह तक पहुंचती हैं। हमारे वायुमंडल की एक विशेषता है। कि जब ये किरणें वायु मंडल से होकर गुज़रती हैं तब वायुमंडल गर्म नहीं होता क्योंकि इनमें से ज्यादातर किरणें वातावरण की हवा के साथ कोई अंतक्रिया नहीं करती और आकर धरती की सतह से टकराती हैं। जैसे कि टकराने पर होता है इनका कुछ हिस्सा परावर्तित हो जाता है और कुछ धरती की ऊपरी सतह में अवशोषित।
इस अवशोषित हिस्से को धरती पुनः विकिरण के रूप में छोड़ती है परन्तु जो हिस्से अवशोषित हुए थे वे वैसे के वैसे नहीं छोड़े जाते - पुनः छोड़े गए ज्यादातर हिस्से अवरक्त किरणों के रूप में होते हैं। अवरक्त किरणें वर्णक्रम का वह हिस्सा है जो हमें गर्मी का अहसास देता है। यही अवरक्त किरणें पृथ्वी की सतह के आसपास के वातावरण की हवा को भी गर्म कर देती हैं जिससे धीरे-धीरे पूरा वातावरण गर्म होने लगता है।
यानी कि वातावरण की हवा सूर्य की किरणों से टकराने की वजह से गर्म नहीं होती, बल्कि सूर्य की किरणों की वजह से गर्म हो गई धरती की सतह के संपर्क में आने से गर्म होती है। फिर हवा में संवहन की धाराएं बहने से धीरे-धीरे हवा की ऊपरी पर्ते भी गर्म होने लगती हैं। यह गर्म हवा ऊपर की ओर उठती है और आसपास की ठंडी हवा इसका स्थान लेती है। धरती की गर्म सतह से दूर जाते हुए गर्म हवा अपनी उष्मा खोती जाती है और ठंडी होती जाती है।
इस तरह हम समुद्र सतह से जैसे-जैसे ऊंचाई की ओर बढ़ते हैं तापमान लगभग 6 डिग्री से टीग्रेड प्रति किलोमीटर की दर से कम होता जाता है। हालांकि यह कोई पत्थर की लकीर की तरह का नियम नहीं है, इसमें कुछ अपवाद भी मिलते हैं जिन पर थोड़ी देर बाद चर्चा करेंगे।
दिल्ली गर्म और शिमला
शायद अब यह समझ पाना थोड़ा आसान होगा कि कांक्रीट से घिरी दिल्ली या मरुस्थलीय शहर जैसलमेर का तापमान जब जून के महीने में 45 डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुंच जाता है तब शिमला में तापमान 30 डिग्री सेंटीग्रेड़ से भी नीचे होता है।
जेम्स ग्लेशर की बैलून यात्रा वायुमंडल की ऊपरी परत ठंडी होती है इसका अहसास तो इंसान ने पहाड़ों के मार्फत कई बार किया था लेकिन यह कितनी ठंडी होती है इसका सिलसिलेवार अध्ययन 1860 के बाद ही शुरू हो सका। जून 1862 की बादलों से आच्छादित एक दोपहरी को इंग्लैंड के जेम्स ग्लेशर और उसके एक सहायक ने गैस बैलून की सहायता से एक उड़ान भरी। इस उड़ान का एक उद्देश्य था वायुमंडल में ऊंचाई के हिसाब से तापमान में आने वाले परिवर्तनों को पता करना। उड़ान भरने के पहले ज़मीनी तापमान 19 डिग्री सेंटीग्रेड था। उड़ते हुए उनका बैलून 7050 मीटर की ऊंचाई पर जा पहुंचा। इस ऊंचाई पर तापमान धाः -8.3 डिग्री सेंटीग्रेड। इस तरह उन्होंने अपनी इस उड़ान में साधारण गर्मी में कड़ाके की सर्दी तक को बर्दाश्त किया था। जेम्स ग्लेशर ने इस उड़ान के बाद तापमान की गिरावट का पूरा ब्यौरा दिया। जेम्स ने 1862 से 1866 के दौरान कई उड़ानें भरीं और यह पक्का किया कि निस्संदह ऊंचाई बढ़ने के साथ-साथ तापमान और दबाव में गिरावट आती है। वैसे आज हम यह जानते हैं कि वायुमंडल के ट्रोपोस्फीयर और मिसोस्फीयर नामक परतों में ही ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान में गिरावट दर्ज होती है। स्ट्रेटोस्फीयर और थर्मोस्फीयर में इसका उल्टा होता है यानी ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान बढ़ता है। टोपोस्फीयर से ठीक ऊपर वाली परत होती है स्टेटोस्फीयर। इस परत में ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान बढ़ता जाता है - औसतन कम-से-कम तापमान -60 डिग्री सेंटीग्रेड होता है और अधिकम तापमान 0 डिग्री सेंटीग्रेड। इस परत में ऊंचाई के साथ तापमान के बढ़ने का प्रमुख कारण ओज़ोन की मौजूदगी बताया जाता है। हमें मालूम है कि ओज़ोन के अणु कुछ पराबैंगनी किरणों को सोख लेते हैं जिसकी वजह से इस परत में ऊंचाई के साथ-साथ तापमान बढ़ता जाता है। |
इसका कारण यह है कि मैदानी इलाके में बसी दिल्ली में आपको चारों ओर इमारतें ही इमारतें दिखाई देती हैं तो जैसलमेर में दूर-दूर तक फैला हुआ रेगिस्तान। यानी दोनों ही जगहों पर सूर्य प्रकाश से गर्म होकर वहां की हवा को गर्म करने की संभावना कहीं ज्यादा है। मिट्टी, सड़कें, इमारतें, झीलें, सागर, रोशनी को सोखकर आसपास की हवा को गर्म कर देते हैं। जितना ज्यादा वनस्पति रहित इलाका होगा, जहां सूरज की सीधी रोशनी लंबे समय तक पड़े वहां उतना ही अधिक तापमान होगा।
अब शिमला की बात करें तो यहां से आपको किसी भी ओर आसमान आसानी से दिखाई दे जाएगा। पहाड़ों की एक विशेषता यह है कि तेज़ ढलानों के कारण किसी भी एक स्थान पर भू-भाग का विस्तार कम होता है और ऊंचाई के साथ यह कम होता जाता है। और दूसरा, पहाड़ों के ढलानों की वजह से सुर्य एकदम सिर पर हो तो भी ढलानों पर सूर्य की किरणें तिरछी ही पड़ती हैं जिससे धरती ज्यादा गर्म नहीं हो पाती। आपने गौर किया होगा कि दिसंबर में सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने के कारण भर दोपहर को भी धूप तीखी नहीं लगती। जबकि जून की दोपहर की सीधी पड़ने वाली सूर्य किरणें असहनीय होती हैं।
जैसा कि ऊपर बताया गया है। वायुमंडल नीचे से गर्म होना शुरू होता हैं और यह गर्मी धीरे-धीरे ऊपरी वायुमंडल तक पहुंचती है। इस दौरान नीचे से ऊपर उठने वाली गर्म हवा अपनी गर्मी खोती जाती है जिसकी वजह से ऊंचाई पर वह गर्मी नहीं होती जो मैदानी इलाकों में सामान्यतः होती है। इसलिए गणित के हिसाब से तो पहाड़ होने का मतलब सुरज से कुछ मीटर या किलोमीटर पास होना है लेकिन देखा जाए तो पहाड़ों पर आप वायुमंडल को वास्तव में गर्माने वाले स्रोत ( यानी कि धरती की सतह ) के करीब नहीं बल्कि कुछ दूरी पर हैं।
इसी तरह ऊपर यह भी कहा गया है कि समुद्र सतह से जैसे-जैसे ऊंचाई की ओर बढ़ते हैं तापमान 6 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति किलोमीटर की दर से कम होता जाता है। लेकिन नियम के भी अपवाद मिलते हैं जैसे लेह जो काफी ऊंचाई (औसतन पांच हज़ार मीटर) पर बसा है। जब भी आप लेह जाएंगे तो आपको महसूस होगा कि अन्य पहाड़ी आरामगाहों के मुकाबले लेह में तुलनात्मक रूप से गर्मी ज्यादा है। सोचिए ऐसा क्यों होता होगा?
शिमला, मसुरी, नैनीताल की ढालों वाली पहाड़ी के मुकाबले लेह ऊंचाई पर स्थित एक पठा। इलाका है। यहां लगभग समतल भूभाग है। जैसा कि पठारी इलाकों में अमूमन होता है दिन के समय सूरज के विकिरणों को सोखकर यहां दिन का सामान्य तापमान कुछ बढ़ जाता है। इसलिए ऊंचे पहाड़ी हिल स्टेशन के विपरीत लेह काफी गरम रहता है। पर रात का तापमान फिर गिर जाता है
का यह जवाब राकेश मोहन हनन, नई दिल्ली के एक लेख पर आधारित है।