शिक्षक कार्यशाला

कैरन हेडॉक

दरअसल विज्ञान का मतलब होता है सवाल पूछना, अनुमान लगाना, सवालों के जवाब ढूंढने के तरीके खोजना, अवलोकन दर्ज करना, परिणामों का विश्लेषण करना, और निष्कर्ष तक पहुंचना। क्या हमारी विज्ञान की कक्षाओं में इतना सब कर पाने के लिए शिक्षक मानसिक रूप से तैयार हो पाते हैं?

अगर आप विज्ञान में रुचि न ग रखते हों तो शायद आपने भारत के विज्ञान शिक्षण की स्थिति के बारे में रोना-गाना नहीं सुना होगा। हो सकता है आपको लगता हो कि हम विज्ञान पढ़ाने में बहुत ही बढ़िया काम कर रहे हैं - ज़रा प्रथम दर्जे के सभी अप्रवासी भारतीय वैज्ञानिकों को तो देखिए!
लेकिन अगर आपको इन अच्छे अप्रवासी भारतीय वैज्ञानिकों में से किसी से बात करने का मौका मिले तो आप सुनेंगे - वे सभी भारतीय स्कूलों के विज्ञान शिक्षण की मौजूदा स्थिति को कोसते रहते हैं। वे यह जानकर चकित रह जाते हैं कि विज्ञान को अब भी याद करने के लिए तथ्यों के एक पुलिन्दे की तरह समझा जाता है। विद्यार्थियों को इस बात का बिल्कुल अन्दाज़ नहीं मिलता कि विज्ञान असल में होता क्या है। उन्हें पता ही नहीं चलता कि दरअसल विज्ञान सवाल पूछना, अनुमान लगाना, सवालों के जवाब ढूंढने के तरीके खोजना, अवलोकन करना व उसे दर्ज करना, परिणामों का विश्लेषण करना, निष्कर्ष निकालना और सवालों को दोबारा गढ़ना है। उलटे विद्यार्थी सोचते हैं कि विज्ञान सिर्फ सवालों के जवाब देना (किताबों में दिए गए 'सही', ‘तथ्यात्मक जवाब देना) है, जबाबों पर सवाल उठाना नहीं!
 
ऐसा सिर्फ ग्रामीण स्कूलों या सरकारी स्कूलों में नहीं होता। यह एक ऐसी मान्यता है जो हर कहीं पाई जाती है। यह सही है कि भारत अकेला देश नहीं है जहां विज्ञान शिक्षण की हालत इतनी बुरी है। पश्चिमी देशों के स्कूल भी अपनी (कुछ अलग तर की) समस्याओं से ग्रस्त हैं।
तो, जब हम किसी स्कूल में नवाचारी, गतिविधि आधारित विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के तरीके सुझाने की कोशिश करते हैं; तब क्या होता है? इस संदर्भ में चण्डीगढ़ के एक संभ्रान्त अंग्रेजी माध्यम स्कूल में आयोजित कार्यशाला के दौरान मिले अनुभवों का वर्णन मैं यहां कर रही हूं।

शिक्षकों के लिए कार्यशाला
एक दिन शिक्षकों के लिए आयोजित एक विज्ञान शिक्षण कार्यशाला के अनुभव सुनिए। हम कैलेण्डर, मौसम और तापमान के एक अध्याय पर काम कर रहे थे। मैं शिक्षक की भूमिका अदा कर रही थी और शिक्षक विद्यार्थी बने थे ताकि इन नए तरीकों का उन्हें सीधा अनुभव हो सके। पाठ के एक हिस्से में मेरी यह योजना थी कि विद्यार्थी एक बड़ा कैलेण्डर चार्ट बनाएं जिसमें वे हर दिन के तापमान को नापकर दर्ज करें।
एक मौके पर मैंने हर शिक्षक से कमरे के वर्तमान तापमान का अनुमान लगाने को कहा। फिर मैंने एक थर्मामीटर देकर प्रत्येक शिक्षक से कहा कि वे कमरे का तापमान पढ़े और नोट करें, परन्तु एक-दूसरे को बताएंगे नहीं। अंत में जब मैंने उनसे उनका अनुमान और थर्मामीटर पर पढ़े गए तापमान के बारे में पूछा, तो हमें पता चला कि थर्मामीटर पर पढ़े गए तापमान संबंधी अवलोकन 24 डिग्री सेंटीग्रेड व 25 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच में झूल रहे थे।
हालांकि फर्क मामूलीं था फिर भी मैंने शिक्षकों से पूछा कि इस भिन्नता के क्या कारण हो सकते हैं? उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए हो सकता है। क्योंकिः
-- अलग-अलग कोण से देखते हुए पढ़ने के कारण थर्मामीटर पढ़ने में हुई गलती या तापमान की डिग्री गिनने में हुई गलती।
-- हो सकता है कि हाथों की गर्मी से तापमान वास्तव में बढ़ गया हो। या यह भी संभव है कि कमरे के अलग-अलग हिस्सों में तापमान फर्क रहा हो।

तब मैंने शिक्षकों से पूछा कि उन्हें क्या लगता है कि कमरे के विभिन्न भागों में तापमान अलग-अलग क्यों हो सकता है? क्या ऐसा हवा के कारण हो सकता है या पंखे के कमरे के एक भाग में होने के कारण? शिक्षक कुछ अधीर होने लगे थे कि मैं इतनी गैर-ज़रूरी बारीकियों को लेकर पीछे ही पड़ गई थी।
बहरहाल, मैंने अध्याय संबंधी मूल योजना से अलग जाने का तय किया ताकि इस सवाल का जवाब, शिक्षकों द्वारा वैज्ञानिक तरीके से ढूंढवाने की कोशिश कर सकें। मैंने उनसे यह सवाल अपनी कॉपी में लिखने को कहा। फिर उसका जबाब सोचने और एक तरीका सुझाने को कहा जिससे हम सवाल का जवाब पा सकें। फिर मैंने निम्नलिखित बातें बोर्ड पर लिख दीं:
प्रश्न: क्या पंखे के कारण हवा के तापमान में अन्तर आ सकता है?
अभिमतः कुछ शिक्षक सोचते हैं कि पंखे के कारण हवा का तापमान बदल सकता है, और कुछ सोचते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता।
तरीकाः शिक्षकों का सुझाव था कि थर्मामीटर को पंखे के ठीक नीचे पकड़ा जाए और उससे दूर पकड़ा जाए और फिर ऐसी दोनों रीडिंग की तुलना की जाए। मैंने थर्मामीटर को पंखे के ठीक नीचे 2 मिनट तक पकड़ा और एक शिक्षक को तापमान की रीडिंग पढ़ने को कहा। फिर तापमान की एक और रीडिंग हमने पंखे से दूर जाकर ली।
परिणामः पंखे के नीचे तापमान 24.8 डिग्री सेंटीग्रेड था जबकि पंखे से दूर सिर्फ 23.8 डिग्री सेंटीग्रेड!
निष्कर्षः थोड़ी चर्चा के बाद शिक्षकों को लगा कि तापमान का यह अनपेक्षित अन्तर ऊंचाई के अन्तर के कारण आया होगा। थर्मामीटर पंखे के नीचे लगभग 2 मीटर की ऊंचाई पर पकड़ा गया था जबकि पंखे से दूर वह सिर्फ 1 मीटर की ऊंचाई पर ही था। तब मैंने सुझाव दिया कि हम अपने तरीके में सुधार करके फिर से कोशिश करते हैं।

अब तक शिक्षक काफी परेशान होने लगे थे कि हम इतनी फालतू-सी बात पर इतना समय बर्बाद कर रहे हैं। खैर, मैंने फिर भी जोर दिया और हमने कुछ और मापन किए।
अंत में सब किसी एक बात पर राज़ी नहीं हो सके कि यह प्रयोग क्या दर्शाता है। कुछ को लग रहा था कि इससे यह पता चलता है कि पंखे के कारण तापमान कम होता है जबकि कुछ को लगा कि पंखे का कोई असर नहीं होता। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए और प्रयोग करने की जरूरत थी।

शिक्षकों के सुझाव
अगले दिन हमने इस पाठ के बारे में चर्चा की। सभी शिक्षकों को लग रहा था कि पंखे वाले प्रयोग को पाठ के एक अंग के रूप में करवाना ठीक नहीं था। उनका कहना था कि उन्हें कक्षा में इस तरह की चीजें नहीं करवानी चाहिए, और न वे ऐसा करवाएंगे। उन्होंने कहा कि मुझे थर्मामीटर को अलग-अलग ऊंचाई पर पकड़ने की गलती नहीं करनी चाहिए थी। मुझे पहले से ही अच्छी तरह से सोच लेना चाहिए था। एक शिक्षक ने कहा, "मैं कक्षा में कोई गलती नहीं करती क्योंकि इससे बच्चे और ज्यादा भ्रमित हो जाते हैं - इसलिए पाठ की रूपरेखा में कोई गलती नहीं होनी चाहिए।'' एक और शिक्षक ने कहा, "विद्यार्थी शोध (रिसर्च) नहीं कर सकते, वे निष्कर्ष नहीं निकाल सकते, इसका कोई फायदा नहीं।'' कुछ और प्रतिक्रियाएं थीं - "जो महत्वपूर्ण है वह है मूल ज्ञान।" "अगर आप गलतियां करें तो बच्चों को आप पर भरोसा नहीं होता।" ऐसा एक अन्य शिक्षक का मत था।
फिर मैंने शिक्षकों से पूछा कि कक्षा में ऐसा एक प्रयोग करवाने के उद्देश्य क्या थे। हमने निम्नलिखित सूची बनाई:
1. यह देखने के लिए कि हवा के तापमान पर पंखे का क्या असर होता है?
2. यह जानने के लिए कि हमें अनपेक्षित परिणाम भी मिल सकते हैं। अनुमान हमेशा सही नहीं होते।
3. सोचने की प्रक्रियाओं को गति देने के लिए।
4. यह जानने के लिए कि हम गलतियां कर सकते हैं।
5. नियंत्रित चर (Variables) का महत्त्व समझने के लिए।
6. यह समझने के लिए कि नपाई में अन्तर होता है।
7. वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ावा देने के लिए।
 
फिर भी, शिक्षकों ने विरोध किया कि - यह सिलेबस में नहीं है, और हमें प्रयोग सिर्फ आधारभूत अवधारणाओं को समझने के लिए ही करने चाहिए। एक शिक्षक ने बहुत ज़ोर देकर विरोध किया कि इस पूरे पाठ में हमने सबसे जरूरी चीज़ तो छोड़ ही दी - वह यह कि थर्मामीटर के नीचे बल्ब क्यों बना होता है। उसमें पारा या अल्कोहल क्यों भरा जाता है, उससे जुड़ी कांच की पतली नली ....... इत्यादि और उसके बनावट संबंधी पहलू पर तो कोई बात ही नहीं की। हमने थर्मामीटर पर बने अलग-अलग पैमानों के बारे में भी कोई चर्चा नहीं की।

मैंने पूछा, "उन्हें क्या लगता है। कि विद्यार्थियों को किस कक्षा से। थर्मामीटर का उपयोग करना चाहिए?'' थोड़ी चर्चा के बाद उन्होंने तय किया कि चौथी के विद्यार्थी थर्मामीटर का उपयोग तो कर सकते हैं, पर उसकी बनावट के बारे में अभी पढ़ने की जरूरत नहीं। वह बाद में पढ़ा जा सकता है, शायद कक्षा छह में।
अन्ततः शिक्षकों ने तय किया कि कैलेण्डर का यह अध्याय; अतिरिक्त प्रयोग हटाने के बाद कक्षा 4, 5 और 6 के लिए उपयुक्त है। लेकिन, जब हमने उस प्रयोग को करने के उद्देश्यों को एक-एक करके दोहराया तो उन्होंने यह ज़रूर माना कि ये उद्देश्य महत्वपूर्ण थे, और वे विज्ञान का ही हिस्सा हैं।
एक शिक्षक ने ध्यान दिलाया कि वे अपनी कक्षा में विद्यार्थियों से प्रयोग करवाती रही हैं, पर वे कभी भी प्रयोग को वैसे रिकॉर्ड नहीं कर पाते हैं जैसे प्रयोग करते हैं। उन्होंने यह ज़रूर माना कि प्रयोगों को दर्ज (रिकॉर्ड) करना महत्वपूर्ण है, और कहा कि यह शायद प्रयोग करने के अगले दिन किया जा सकता है। एक और शिक्षक ने कहा कि चौथी के विद्यार्थी आंकड़ों के विश्लेषण के लिए ग्राफ तो बना लेते हैं, पर उन्होंने शिकायत की, "हम बच्चों को चौथी कक्षा में ग्राफ बनाने को क्यों मजबूर करें ?''

कई सारे शिक्षक इस बात से काफी नाखुश थे कि हम उद्देश्यों की बात पर इतना समय क्यों लगा रहे हैं। उन उद्देश्यों का इतना गहरा विश्लेषण क्यों किया जाए, यह नहीं समझ पा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि जो कुछ पुरानी किताबों में दिया था, क्यों न बस वही पढ़ा दिया जाए?
तब एक शिक्षक ने कहा कि असल में विज्ञान में तुक्का लगाना या अनुमान लगाने की कोई ज़रूरत नहीं होती। इसलिए अनुमान लगाना क्यों सीखा जाए? इस विषय पर चर्चा छिड़ गई। शिक्षक ने कहा कि बच्चों में अनुमान लगाने की क्षमता तो होती है। यह ऐसी चीज़ नहीं जो सीखी जा सके। उसे पढ़ाया नहीं जा सकता।'
मैंने पूछा, “क्या इससे वैज्ञानिक तरीके से सीखने में मदद मिलती है?" कुछ शिक्षकों ने कहा कि हमें अनुमान लगाने के बजाए कक्षा में अचूकता (Accuracy) सिखानी चाहिए। एक शिक्षक ने कहा कि अनुमान सिखाना 'एक बीज बोने' जैसा है। किसी और ने कहा, 'अनुमान लगाना सिखाने के लिए आपको कक्षा की ज़रूरत नहीं होती।'

मैंने शिक्षकों से पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि अनुमान लगाने का कौशल अभ्यास से सुधारा जा सकता है? उन्हें इस बात पर शंका थी। मैंने सबसे कहा कि वे इस समय के कक्षा के तापमान का अनुमान लगाएं। ठीक वैसे ही जैसा उन्होंने पिछले दिन किया था। हरेक ने अन्दाज़ लगाया और सबने 24 से 28 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच सोचा था। फिर उन्होंने थर्मामीटर पढ़ा और पाया कि तापमान 24.5 डिग्री सेंटीग्रेड था। मैंने ध्यान दिलाया कि पिछने दिन उनके अनुमान 18 से 28 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच थे, यानी उनके अनुमान अभ्यास से बेहतर हो गए थे। कुछ शिक्षकों ने कहा, "यह तो बस ट्रायल एंड एरर से हुआ।'' फिर मैंने पूछा, “क्या यह कक्षा में नहीं किया जा सकता?'' कुछ शिक्षकों ने कहा, "मुझे कक्षा में ट्रायल एंड एरर पसंद नहीं है। यह एक मजेदार गतिविधि के रूप में करवाया जा सकता हैं, पर यह पढ़ाई नहीं है।'' एक अन्य शिक्षक का मत था, “स्कूल के एक औपचारिक पाठ की तरह अनुमान लगाने का कौशल महत्वपूर्ण नहीं है। पर यह जीवन के लिए जरूरी है।"

तो कार्यशाला का अंत आते-आते, क्या मैं निरुत्साहित हो गई थी? नहीं। मैं निरुत्साहित होती अगर मैंने शिक्षकों से बस कह दिया होता कि आप कक्षा में जाकर यह प्रयोग कीजिए और वे सब सिर हिलाकर कहते, “ठीक है।' पर हुआ असल में यह कि मैं लगातार शिक्षकों से उनके विचार और सुझाव लेने की कोशिश करती रही और उन्होंने मुझे ईमानदारी से अपने विचार दिए जो स्वाभाविक ही उनके विश्वासों पर आधारित थे, मेरे नहीं।
यह एक संवाद की शुरुआत है। हम सभी अपनी-अपनी वैज्ञानिक मानसिकता विकसित कर रहे हैं। शिक्षक इस बात पर सोचना शुरू कर रहे हैं कि वे क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। बदलाव के प्रति प्रतिरोध तो है ही, और इस बात पर भ्रम भी है कि किस किस्म के बदलावों की ज़रूरत है, पर क्या यह सब ज़रूरी नहीं है? क्या यह वैज्ञानिक तरीके से सोचने और काम करने का परिचायक नहीं है?


कैरन हेडॉकः स्वतंत्र चित्रकार। चंडीगढ़ के एक स्कूल में अध्यापन कर रही है। बायोफिज़िक्स में शोधकार्य।
हिन्दी अनुवादः टुलटुल विश्वासः एकलव्य द्वारा प्रकाशित बाल विज्ञान पत्रिका 'चकमक के संपादन समूह की सदस्य हैं।