टी. वी. वकटश्वरन
अपने पुरखों के बारे में मालूमात करने की एक स्वाभाविक इच्छा सभी में होती है। आप अपने परिवार के वंशवृक्ष का कितना इतिहास जान पाते हैं ..... दो सौ साल .... पांच सौ साल .... बहुत हुआ तो हजार-दो हजार साल का । लेकिन यहां तो मामला ही। कुछ और है। यहां तो उस मां का पता लगाया जा रहा है जिसकी मानव प्रजाति संतान है। आप क्या सोचते हैं - कौन होगी वह मां..... कैसी होगी..... कहां रहती थी?
भोजपत्रों के आधार पर हम आपको आपके उन पूर्वजों के विषय में बता सकते हैं, जिन्होंने इस मंदिर को भेंट दी थी, ऐसा कहकर पुरी के पंडे भोले-भाले श्रद्धालुओं को गुमराह करते हैं। हमारे पूर्वजों के मूल के बारे में यह सच है या झूठ, यह विज्ञान अधिक तार्किक ढंग से समझा सकता है। आधुनिक विज्ञान यह मानता है कि हम एक अत्यंत सफत्न स्त्री की संतानें हैं जो अफ्रीका के निचले सहारा में 1.5 लाख वर्ष पूर्व रहती थी।
पूर्वज पूजा साधारणतः सभी संस्कृतियों में एक आम बात है - चाहे हिन्दुओं में श्राद्ध-तर्पण हो या ईसाइयों द्वारा कब्रिस्तान में मोमबत्ती जलाना, हर संस्कृति में पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के अपने-अपने तरीके हैं।
हिन्दुओं में गोत्र की संकल्पना वंश परम्परा का ही रूप है। यह माना जाता है कि एक ही गोत्र के सब लोग एक ही ऋषि की संतान हैं, एडम और ईव की संकल्पना भी मानव समाज की रचना की ही कहानी है।
हाल तक मानवजाति के पूर्वजों विषयक विचारों का आधार पौराणिक कथाएं होती थीं। मानववंश के मुल का पता लगाने के लिए अध्ययन उन्नीसवीं शताब्दी में आरंभ हुए। मुख्यतः दो बातों ने इस कार्य को वैज्ञानिक आधार पर गति प्रदान की। सर्वप्रथम नृवंशशास्त्र के द्वारा विभिन्न प्रजातियों की समानताओं और भिन्नताओं की खोज की गई। पुरातनकाल की बची हुई हड्डियों से इस अध्ययन में मदद मिली। दूसरे, डारविन के सिद्धांत ने प्रतिपादित किया कि मानव प्रजातियों के उविकास (Evolution) का अध्ययन वैज्ञानिक तरीके से किया जाना चाहिए, न कि नाटकीय प्रथम दर्शन या प्रथम रचना के रूप में।
बिखरे सूत्र समेटना
फिर भी 1940 के दशक में किए गए अवशिष्ट अस्थियों के अध्ययन एक हद तक ही विश्वसनीय थे। पुरात्वशास्त्रीय खुदाई में प्राप्त अवशिष्टों की कार्बनडेटिंग पद्धति से समय का कहीं ज्यादा बेहतर अनुमान लगा पाना संभव हुआ। उसके पूर्व 20 वीं सदी के आरंभ में यूरोप में पाई गई नियेंडरथल मानव अस्थियों को प्रथम विश्व युद्ध में मृत सैनिकों की अस्थियां मान लिया गया था। किन्तु अब हम जानते हैं कि नियेंडरथल के अवशेष कम-से-कम एक लाख साल पुराने हैं।
ऐसे अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि मानव प्रजाति दस लाख वर्ष पूर्व की है, जब आदिमानव प्रकट हुआ था जो सीधा खड़ा होकर चल सकता था तथा छोटे-मोटे हथियारों का उपयोग कर सकता था।
आधुनिक मानव से सर्वाधिक साम्य रखने वाले आदिमानव की सबसे पुरानी अस्थियां 4 लाख वर्ष पुरानी हैं। यह संपूर्ण संभाव्यता के साथ ज्ञात है कि आदिमानव नियंत्रित रूप में अग्नि का उपयोग करता था तथा सीधे दो पैरों पर चल सकता था। इस प्राणी को होमो इरेक्टस कहा जाता है - इरेक्टस का अर्थ है जो सीधा खड़ा हो सके। आधुनिक मानव प्रजाति 'होमो इरेक्टस' के भाई-बंधु हैं अर्थात हमारे पूर्वज एक ही हैं।
यद्यपि हम आधुनिक मानव प्रजाति का उविकास समझ सकते हैं, किन्तु फिर भी आधुनिक मानव का उद्गम (मूल) एक रहस्य ही था। क्या समस्त मानवों का उद्गम एक ही स्थान पर हुआ या भिन्न-भिन्न स्थानों पर एक ही काल में?
आधुनिक मानवों की त्वचा के रंग तथा शरीर की बनावट में स्पष्ट भिन्नताएं हैं, इनका वर्गीकरण नीग्रो, एशियाटिक, कॉकेशियन, मंगोलॉयडइन नामों से किया गया है। प्रश्न यह है कि क्या ये प्रजातीय भिन्नताएं दिखने भर की हैं या क्या इन प्रजातियों का उदविकास अलग-अलग हुआ? विभिन्न खुदाइयों एवं अध्ययनों के बावजूद यह प्रश्न एक अनसुलझा रहस्य है।
* इथनोलॉजी, जिसमें विभिन्न संस्कृतियों का अध्ययन किया जाता है।
सोलोमन की दुविधा तथा जेनेटिक इंजीनियरिंग
बायबल में एक कहानी है... एक समय इज़राइल के शासक सोलोमन के सामने एक समस्या उपस्थित हुई। दो महिलाएं एक ही बच्चे पर अपना बच्चा होने का दावा कर रही थीं तब सोलोमन के मन में एक विचार आया और उसने अपने सैनिकों को बुलाकर कहा, "इस बच्चे के दो टुकड़े करके आधा-आधा दोनों को दे दो।'' यह सुनकर असली मां विलाप करने लगी तथा राजा से बोली, “इस निर्णय को उलट दो, यद्यपि यह बच्चा मेरा है फिर भी मरने की अपेक्षा यदि यह उस स्त्री के पास जीवित रहता है तो बेहतर ही है।" सोलोमन ने असली मां को पहचान लिया तथा बच्चा उसे सौंपकर ढोंगी मां को अच्छी डांट पिलाई।
आज यदि इस प्रकार का कोई प्रकरण न्यायालय में आता है तो न्यायाधीश को ऐसी चाल का इस्तेमाल करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। वे किसी अच्छी जैव-तकनीक प्रयोगशाला में (भारत में ऐसी प्रयोगशालाएं कम ही हैं) जा सकते हैं तथा बच्चे के डी.एन.ए. तथा दावेदारों के डी.एन.ए. का तुलनात्मक परीक्षण कर सही मातृत्व का पता लगा सकते हैं।
ऐसा तो हम परियों की कहानियों में पढ़ते हैं कि एक जादुगर की जान सात समुद्र पार, सात पहाड़ों के पार बसी है, मगर विज्ञान ने यह बता दिया है कि दरअसल जीवन का रहस्य अद्वितीय रासायनिक विशाल अणुओं (मेक्नो-मॉलेक्यूल्स) में हैं।
हमारी पांच उंगलयिां हैं, और यह कि नाक दोनों आंखों के बीच स्थित है और कि आपके बाल घुघराने हैं - यह सब जानकारी कोशिका के केंद्रक के भीतर डी.एन.ए. में रासायनिक संकेतों के एक पैटर्न के रूप में मौजूद है। मानव कोषिका के न्यूक्लियस में 23 जोड़े गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम होते हैं, जो अपने आप में और कुछ नहीं - बस डी.एन.ए. के बड़े बड़े टुकड़े हैं जिन्हें मैक्रोमोलेक्यूल भी कहते हैं। क्रोमोसोम के विशिष्ट लंबाई के हिस्से जीन्स हैं। जीन्स में उपस्थित रसायनों की व्यवस्था बच्चे के कई अंगप्रत्यंग ( फीचर्स ) तय करती है।
महिलाएं जब नवजात शिशु को देखने जाती हैं तो कहती हैं 'इसकी नाक तो मां के समान है किन्तु जब वह मुस्कुराता है तब पिता की याद दिलाता है। हां, यह सही हो सकता है, मां-बाप दोनों के गुण बच्चे में इसलिए आते हैं क्योंकि बालक की अनुवांशिक सामग्री (जेनेटिक मेटेरियल) मां और बाप दोनों की अनुवांशिक सामग्री के योग से बनती है। पिता के बीजाणु में 23 गुणसूत्र होते हैं और मां के अंडाणु में 23 गुणसुत्र। हालांकि ये दोनों यानी बीजाणु और अंडाणु पूर्ण विकसित कोशिकाएं होती हैं, उनमें आवश्यकता से केवल आधे गुणसूत्र होते हैं। निषेचन के समय 23 गुणसूत्र पिता से एवं 23 गुणसूत्र माता से आते हैं; और इस प्रकार संतान की कोशिका में 23 जोड़े गुणसूत्र होते हैं।
चूंकि बच्चे में मां और बाप दोनों से आधे-आधे गुणसूत्र आते हैं इसलिए बच्चे में मां और बाप दोनों के गुण हो सकते हैं परन्तु किसी भी बच्चे में केवल मां या पिता के पूरे-पूरे गुण नहीं हो सकते।
चूंकि बच्चे का जेनेटिक मेटीरियल मां और बाप का मिश्रण होता है, इसलिए उसम दान की ही समानताए प्रदर्शित होती हैं। पितृत्व एवं पूर्वजों का निर्धारण करने के लिए जेनेटिक पैटर्न के उपयोग की चर्चा सर्वप्रथम 1970 के दशक में लाइनस पॉलिंग तथा एमिली ने की थी। यह बात ध्यान में रखनी होगी कि बालक का जेनेटिक पैटर्न केवल मां-बाप से ही नहीं मिलता वरन् चचेरे भाई-बहन, दादा-दादी, नाना-नानी से भी मिलता है। इसलिए जीव-शास्त्र पर आधारित वंशवृक्ष वैज्ञानिक विधि से बनाया जा सकता है। सन् 1967 में केलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एलन विल्सन एवं विन्सेंट ने इस विधि की खोज की - उन्होंने वंशवृक्ष बनाने के लिए पहली बार अनुवांशिकीय जानकारी का उपयोग किया।
इसी आधार पर हाल ही में भारत में भी प्रेमानंद नामक एक साधु को एक लड़की के साथ बलात्कार का दोषी करार देकर दंडित किया गया। वैज्ञानिकों ने उस व्यक्ति, पीड़ित लड़की एवं उनके संसर्ग से जन्मे बालक के डी एन ए के परीक्षण से सिद्ध किया कि वहीं उस बालक का जीव-शास्त्रीय पिता है।
हूबहू मां के समान
तमिल भाषा में एक कहावत है। जिसका हिन्दी अर्थ है 'जैसा सूत वैसा कपड़ा' अर्थात जैसे मां के लक्षण वैसे बच्चे के। या एक दूसरी कहावत है - जैसी खान वैसी मिट्टी।
एक बार प्रसिद्ध साहित्यकार, वक्ता एवं विचारक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के पास एक अभिनेत्री आई और उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा ताकि उनकी संतान शॉ जैसी बुद्धिमान और अभिनेत्री जैसी सुन्दर हो। तुरन्त शॉ ने जवाब दिया, “यदि दुर्भाग्यवश इसका विपरीत हो गया तो?"
यह तो महज किस्मत की ही बात है कि किसी बालक के गाल पर मां के समान गड्ढे पड़ते हैं, या वह पिता के समान घुंघराले बाल लेकर पैदा होता है, यह सब तो अनुवांशिक बाजीगरी है।
हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका में उपस्थित मायटोकोन्ड्रियल डी. एन. ए. केवल मां से ही बालक को प्राप्त होता है। मायटोकोन्ड्रिया को सेल का पावर हाऊस कहा जाता है। यह कोशिका के केन्द्र से बाहर होता है और अंडाणु में उपस्थित रहता है तथा अंडाणु के माध्यम से निषेचित कोशिका में चला जाता है। इस प्रकार मायटोकोन्ड्रिया में जो डी एन ए, उपस्थित रहता है वह केवल मां से ही मिलता है, जबकि कोशिका के केन्द्रक में मौजूद डी.एन.ए. में माता और पिता दोनों की समान भागीदारी होती है।
मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए.
इस खोज ने मानव प्रजाति के उदविकास एवं पूर्वजों के अध्ययन में बहुत बड़ा योगदान दिया है। गुणसूत्र में उपस्थित डी.एन.ए. मां-बाप दोनों से आता है तथा जिसमें प्रत्येक पीढ़ी के साथ बदलाव होते रहते हैं। लेकिन इसके विपरीत मायटोकोन्ड्रियल डी. एन.ए. मां से सीधा बच्चे में आता है। केवल अटकल पच्चू (रेन्डम) परिवर्तन ही इस क्रम को थोड़ा बहुत बदलते हैं। परिणामस्वरूप यह तय कर पाना संभव हो पाता है कि विभिन्न समुह एक-दूसरे से कितने करीबी तौर पर संबंधित हैं। मां से प्राप्त मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. उसी तरह होगा जैसा नानी तथा मां की बहिनों और चचेरी बहिनों में पाया जाता है। इसलिए मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. से मातृपक्षीय वंशवृक्ष वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया जा सकता है।
1986 में केन, विल्सन व मार्क स्टोनकिंग ने मां के डी. एन. ए. की तुलना के आधार पर मानवजाति के आनुवंशिक इतिहास का अध्ययन आरंभ किया। उन्होंने 147 गर्भवती स्त्रियों से इस प्रोजेक्ट में सहयोग का आह्वान किया। बच्चे का जन्म होने पर उसकी गर्भनाल (प्लेसेंटा), जो मायटोकोन्डियल डी. एन. ए. से परिपूर्ण होती है, उसे लेकर सुरक्षित रख लिया जाता था। उसमें से मां का मायटोकोन्ड्रियल डी. एन. ए. निकालकर उसकी तुलना की गई। कुछ माताएं युरोपीय मूल की थीं, कुछ काली, कुछ एशिया की। केन के साथियों ने न्यू गिनी एवं ऑस्ट्रेलिया की आदिवासी माताओं के गर्भनाल भी एकत्रित किए और इन सबके मायटोकोन्ड्रियल डी, एन, ए. का विश्लेषण कर तुलना की गई। आश्चर्यजनक परिणाम तो यह था कि सारे ही मायटोकोन्ड्रियल डी. एन. ए. प्रमुखतः अफ्रिकन मूल के निकले। इस प्रकार इस अध्ययन में यह इंगित किया कि आधुनिक मानव का आरंभ अफ्रीका में हुआ और हमारी सर्वप्रथम पूर्वज मां एक अफ्रीकी थी।
हम सब नीग्रो हैं!
मानव वैज्ञानिकों ने आधुनिक मानव की उत्पत्ति पर काफी विचार विमर्श किया और 1980 के मध्य तक दो परिकल्पनाएं उभरकर सामने आई -
प्रथम - बहुप्रदेशीय उद्विकास का सिद्धान्त मानता है कि मनुष्य का उदभव सर्वप्रथम अफ्रीका में बीस लाख साल पहले हुआ। इस प्रजाति का उदविकास हुआ और कालांतर में यही पूरी दुनिया में फैली: जो अंतर्रजनन तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़ी रहीं। यानी कि नीचेंडरथल मानव, जावा मानव, पेकिंग मानव आदि सब इसके वंशज हैं।
इसके विपरीत अफ्रीकी उपकल्पना मानती हैं कि आधुनिक मानव का विकास इतना पुराना नहीं है। यह नई प्रजाति नीयन्डरथल तथा अन्य अतिप्राचीन (आरकेयिक) मानव से भिन्न थी तथा धीरे-धीरे इसने उनको प्रतिस्थापित कर दिया। 1987 में हुए एक अध्ययन से इस अफ्रीकी संकल्पना को पुरजोर समर्थन मिला जब कुछ मॉलेक्यूलर जीव-विज्ञानियों ने घोषणा की कि सारे जीवित लोग अपना आनुवंशिक पूर्वज उस स्त्री को मान सकते हैं, जो दो लाख साल पहले अफ्रीका में रहती थी।
चूंकि मायटोकोन्ड्रिया मां से बच्चे तक पहुंचते हैं, अतः वंशानुगत विभिन्नता प्रमुखतः उत्परिवर्तन (Mutation) से उत्पन्न होती है। ऐसा माना जाता है कि म्यूटेशन अटकलपच्चू (रेन्डम) रूप से होते हैं तथा एक जैसी दर से इकट्ठे होते रहते हैं, अतः एक कॉमन मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. पुर्वज का तिथि निर्धारण सैद्धान्तिक रूप से किया जा सकता है।
यह मॉलेक्यूलर घड़ी सूचित करती है कि मायटोकोन्द्रियल डी एन ए पूर्वज केवल दो लाख वर्ष पूर्व ही मौजूद था तथा वंशवृक्ष की जड़े अफ्रीका में खोजी जा सकती हैं। ये परिणाम तथा ऐसे अवलोकन कि सबसे अधिक विभिन्नताएं अफ्रीका में ही मिलती हैं, दर्शाते हैं कि आधुनिक मानव अफ्रीका में सबसे अधिक समय तक रहा है। यह तथ्य निर्विवाद रूप से साबित करता है कि आधुनिक मानव का उदय हाल में अफ्रीका में हुआ है।
क्या हम इस स्त्री को आदिजननी (इव) कह सकते हैं? शायद नहीं - क्योंकि यूरोपीय पुनर्जागरण काल की ईव नाजूक, सुंदर, सहमी हुई महिला थी। इसके ठीक विपरीत हमारी प्राचीन आदिजननी वास्तव में काली, मल्लेश्वरी के समान ताकतवर तथा भोजन प्राप्ति के लिए शिकार करने में भी बड़ी साहसी थी। न बो प्राचीन मां प्रथम स्त्री थी, न ही वो अकेली स्त्री; उसकी भी मां, नानी, बहनें रही होंगी। हो सकता है अन्य स्त्रियों के वंशज समाप्त हो गए होंगे, लेकिन यह मां भाग्यशाली थी - जिसका सबूत हम सब हैं।
क्या कोई आर्य प्रजाति है?
उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी के आरंभ में प्रचलित बहु-स्थानीय उदविकास का सिद्धांत नस्लवादी था। इसके अनुसार संशोधित होमो इरेक्टस आज के नीग्रो हैं तथा इसी का बेहतर स्वरूप नीचेंडरथल है जो कि युरोपियन लोगों के पूर्वज हैं; जबकि जावा मानव एशिया की जनसंख्या का पूर्वज था, पेकिंग मानव आधुनिक चीनियों का पूर्वज था। एक मानव विज्ञानी कार्लटन कून का मत है कि यद्यपि अफ्रीका मानव के उदविकास का पालना है, तथापि यह उदविकास शिशु के स्तर पर रुक गया था, प्रत्येक प्रजाति ने अपने-अपने उदविकास के लिए अलग-अलग मार्ग चुने - अर्थात कुन के लिए जातियां जीव-शास्त्रीय तथ्य हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में यह विचार चल पड़ा कि यूरोपीय और आर्य लोगों का उच्चतर उदविकास हुआ तथा नीग्रो उविकास की सबसे नीचे की सीढ़ी पर रहे।
परन्तु मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. अध्ययनों ने इन नस्लवादी सिद्धांतों की बखिया उधेड़ दी। मायटोकोन्ड्रियल डी. एन. ए. अध्ययनों ने न केवल यह बताया कि हम सब एक ही मां की संतान हैं जो दो लाख वर्ष पूर्व रहती थीं बल्कि यह भी कि हम जीव-शास्त्रीय दृष्टि से एक ही प्रजाति हैं, चाहे हममें बहुत-सी दिखने वाली विभिन्नताएं हों।
क्या आर्य सचमुच आए? --- अनुवांशिकीय अध्ययनों से प्रमाण
रिबेका केन, मार्क स्टोनकिंग तथा एलन विल्सन का अनुमान है कि जितने भी मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. बचे हैं उनके पूर्वज 1,40,000 तथा 2,90,000 वर्ष पूर्व रहे होंगे।
अफ्रीका से प्रवजन (माइग्रेशन) कब शुरू हुआ? उनके अनुसार सबसे पुराने मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. का समूह जो अफ्रीका से भिन्न है की तिथि 90,000 से 1,80,000 वर्ष पूर्व तक निर्धारित की जा सकती है। इस समुह ने शायद अफ्रीका उसी समय छोड़ा होगा। किन्तु मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. से प्राप्त जानकारी के आधार पर कोई पक्की तिथि नहीं निर्धारित की जा सकती।
भारत की तेईस जातियों पर हाल में किए गए अध्ययन ने भारतीय उपमहाद्वीप में लोगों के निवास के विषय पर विस्तृत प्रकाश डाला है। संगीता राय चौधरी, संगीता राय, पार्थ मजुमदार तथा अन्य इस अध्ययन में सम्मिलित थे।
इस अध्ययन से पता चलता है कि उत्तरी भारत की ऊंची जातियों के डी. एन. ए में यूरोपीय हिस्से (Markers) अधिक उपस्थित थे और जैसे-जैसे नीची जातियों की ओर जाते हैं। यह आवृत्ति कम होती जाती है। परन्तु मायटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. का अध्ययन बताता है कि जाति, धर्म, भाषा या संस्कृति के बावजूद सबमें मूल पैटर्न एशियायिटक है; तथा यूरोपियन एवं अफ्रिकन से इसकी आनुवंशिक दूरी अधिक है।
इसका अर्थ यह हुआ कि मूल निवासी पहले ही यहां रहते थे - लगभग 60,000 से 40,000 वर्ष पूर्व। मगर कॉकेशियन्स के साथ मेल मिलाप से ऐसा लगता है कि पहले के प्रव्रजन (इमिग्रेशन) के अलावा यहां हाल में भी प्रव्रजन हुआ है। इसके बावजूद आदिवासियों सहित सारी जनसंख्या में कॉकेशियन तत्व हैं जिनको हम डी.एन.ए. के आधार पर निर्धारित नहीं कर सकते - कि कौन से पूर्ववर्ती निवासी हैं और कौन बाद में आए।
इन अध्ययनों के सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष भारत की अनुवांशिकीय एकता को सिद्ध करते हैं, डी एन.ए. के आधार पर जाति, समुदाय, भाषा या संस्कृति को नहीं पहचाना जा सकता। समस्त भारतीय संभवत: पांच पूर्वज माताओं के वंशज हैं।
इस सर्वेक्षण में जिन चयनित जन समुदायों के माइटोकॉड्रियल डी एन ए, के सेम्पल इकट्ठा किए गए थे, राज्यों के अनुमार उनके नाम और सेम्पल संगमा इस प्रकार है: त्रिपुरा (त्रिपुरी 15), प. बंगाल (बागड़ी 31, ब्राह्मण 22, महिष्या 33, संधाल 20, लौड़ा 32), उड़ीसा (अघरिया 21, गी 13, तांती 16, मुंडा 7), मध्यप्रदेश (मुड़िया 49), उत्तर प्रदेश (ब्राह्मण 27, चमार 25, राजपूत 51, मुस्लिम 28), तमिलनाडु (अवालका 30, रुला 3), आयंगर 30, अय्यर 31, कोटा 30, कुरुंबा 30, पन्नार 30, बनियार 30)
टी. बी. वेंकटेश्वरन: सेंटर फॉर डिवेलपमेंट ऑफ इमेजिंग टेक्नॉलॉजी, त्रिवेंद्रम में विज्ञान संचार के वरिछ बाब्याता।
अनुवाद प्रो. ए. एम. हर्णे: अंग्रेजी के सेवानिवृत प्राध्यापक है। होशंगाबाद में रहते हैं।