स्टीफन जे. गूल्ड
कुदरत अक्सर मनुष्य की सबसे अनूठी किवदंतियों से भी 'आगे निकल जाती है। किस्से-कहानियों में कइयों बार राजकुमारी सालों-साल चिर-निद्रा में लिप्त रहती है, राजकुमार के इंतज़ार में। फायलोस्टेचिस बम्बूसोयड्स जैसे मुश्किल नाम वाले बांस की एक किस्म को सन् 999 में चीन में बहार आई यानी फूल लगे। उसके बाद से, बिना किसी नागे के, अचूक नियमितता के साथ हर 120 साल बाद इसमें फूल और बीज लगते आ रहे हैं। जहां भी अपना जीवन गुजारे, फायलोस्टेचिस बम्बूसोयड्स ने इस चक्र को बरकरार रखा है। इस सदी के छठवें दशक के उतरार्द्ध में बांस की एक जापानी नस्ल (जो सदियों पहले चीन से लाई गई थी) में एक साथ जापान, इंग्लैंड, अलबामा और रूस में बीज आए। इस बांस की तुलना निद्रा-सुंदरी से करना बहुत गलत नहीं है क्योंकि इस बांस में भी लैंगिक प्रजनन एक सदी से भी लंबे ब्रह्मचर्य के दौर के बाद होता है।
किस्सों की राजकुमारी से बांस की यह किस्म दो मायनों में अलग है। एक तो 1 20 साल के इस इंतज़ार के दौरान वे एकदम सुस्त नहीं पड़े रहते क्योंकि दरअसल तो यह घास की ही एक किस्म है; इसलिए अलैंगिक प्रजनन यानी वृद्धि के जरिए जमीन में दबे राइज़ोम से निकलने वाले नए अंकुरों के सहारे इनका कुनबा फैलता रहता है। कहानी से दूसरा फर्क है कि फूल खिल जाने के बाद ये बांस राजारानी की तरह अमन-चैन की जिंदगी नहीं गुजारते, चूंकि फूलने के तुरंत बाद वे खत्म हो जाते हैं - एक क्षणिक अंत के लिए एक लंबा इंतज़ार।
पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकी-शास्त्री (इकॉलोजिस्ट) डेनियल जेन्ज़न ने अपने एक लेख में फायलोस्टेचिस के इस अनोखे किस्से का वर्णन दिया है। लेख का शीर्षक है - 'फूल खिलने से पहले बांस इतना इंतज़ार क्यों करते हैं?' बांस की ज्यादातर प्रजातियों में फूल खिलने के दो दौर के बीच वर्धा-वृद्धि (वेजिटेटिव ग्रोथ) का अंतराल इतना लंबा नहीं होता, परन्तु एक साथ बीज आने की नियमबद्धता किसी में नहीं टूटती। और ऐसी प्रजातियां भी बहुत कम हैं जो फूल खिलने के लिए 15 साल से कम इंतज़ार करती हैं (कुछ शायद 150 साल तक भी इंतज़ार करती हैं परन्तु ऐतिहासिक रिकॉर्ड की कमी की वजह से इनके बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता)।
ऐसी किसी भी प्रजाति का संचालन किसी आंतरिक, अनुवांशिक जैविक घड़ी के ज़रिए होता होगा, बाहरी वातावरण से मिलने वाले संकेतकों के माध्यम से नहीं। ऐसा मानने के पीछे सबसे प्रमुख साक्ष्य है कि ये घटना बिना किसी गलती के उतनी ही नियमितता के साथ बार-बार दोहराई जाती है। हम किसी भी ऐसे पर्यावरण आधारित कारक को नहीं जानते जिसमें ऐसा चक्र पाया जाता हो जो सौ से ज्यादा प्रजातियों में पाई जाने वाली विविध घड़ियों को आधार दे सके। दुसरा कारण है कि अपनी देशज जगह से हटाकर दुनिया के दूसरे छोर पर लगाने पर भी एक ही प्रजाति के पौधों में एक ही साथ फूल खिलते हैं। और अंतिम सबूत यह है कि एकदम अलग पर्यावरणीय परिस्थितियों में उगाने के बावजूद एक ही प्रजाति के पौधों में एक साथ फूल आते हैं। अपने लेख में डेनियल जेन्ज़न बर्मा के एक ऐसे बांस का किस्सा सुनाते हैं जो केवल आधा फुट ऊंचा था, जो जंगलों में लगने वाली आग की वजह से कइयों बार जल चुका था, परन्तु उसमें भी उसी समय फूल लगे जब आग की चपेट से बचे उसके 40 फुट ऊंचे साथियों में फूल खिले।
गुजरते हुए सालों की गिनती बांस आखिर कैसे रख सकता है? जेन्ज़न का तर्क था कि संग्रहित भोजन का माप रख कर ऐसा कर पाना संभव नहीं है क्योंकि बांस के कुपोषित बौने पौधे भी उसी समय फूल देते हैं जब उनके साथी, स्वस्थ विशाल बांस के पेड़ों पर फूल आते हैं। उसका अंदाज़ा था कि यह केलेंडर “किसी तापमान गैर-आधारित, प्रकाश-आधारित रसायन के वार्षिक या रोज़ाना संग्रह या विघटन' पर आधारित होना चाहिए। उसे इस बात का अनुमान लगाने के लिए कोई भी आधार नहीं मिल पाए कि यह प्रकाश-चक्र दैनिक है या वार्षिक। जेन्ज़न का कहना था कि इस प्रक्रिया में घड़ी के रूप में प्रकाश का ही इस्तेमाल होता है यह इंगित करता हुआ एक पारिस्थितिक साक्ष्य यह है कि भू-मध्यरेखा के 5 अंश उत्तर और दक्षिण के बीच इस तरह के नियत चक्रों वाली बांस की प्रजातियां नहीं पाई जाती हैं - शायद इसलिए क्योंकि इस इलाके में दिन-रात और मौसम में विविधता बहुत ही कम होती है।
यह खासियत सिर्फ बांस में नहीं
बांस पर फूल खिलने के किस्से से ऐसी ही निश्चित अवधि की चक्रियता का एक और किस्सा ख्याल आता है जिससे शायद हम ज्यादा परिचित हैं - निश्चित व बराबर अंतराल के बाद दिखने वाला सिकाड़ा नाम का कीट। इस सिकोडा का किस्सा तो और भी अजीबो-गरीब है - 17 साल तक इस सिकाडा के शिशु (निम्फ) ज़मीन के नीचे रहते हैं - संपूर्ण पूर्वी अमरीका में पेड़ों की जड़ों से रस चूसते हुए।
सिकाड़ा कीटों का जीवन चक्र काफी लंबा होता है। मादा सिकाड़ा पेड़ों पर अंडे देती है। अंडे फूटने के बाद लार्वा उन पेड़ों में टपककर नीचे जमीन में घुस जाते हैं। जमीन के अंदर ये नन्हें कीट जड़ों का रस चूसकर अपना पेट भरते हैं। सिकाङ्का की अलग-अलग प्रजातियों में कार्याांतरण की प्रक्रिया में गुजरते हुए वयस्क बनने में अलग-अलग अवधि लगती है = एक साल से लेकर सत्रह साल तक। कुछ प्रजातियां एक साल में वयस्क होती है तो कुछ प्रजातियां 13वें साल वयस्क हो जाती हैं और कोई 17 साल में। प्रजातियों के हिसाब से सिकाड़ा 13वें बसंत में या 17वें बसंत में ज़मीन से एक साथ बाहर निकलने लगते हैं। जैसे सन् 1998 को सिकोड़ा वर्ष कहा गया क्योंकि 13 वें साल वयस्क होने वाले सिकाड़ा 1998 में ज़मीन से एक साथ बाहर निकले थे।
यहां सिकोड़ा और बांस में काफी समानता दिखाई देती है। क्योंकि बांस में भी एक प्रजाति के पौधे एक खास अवधि के बाद एक साथ बौराते हैं। लेकिन सिकाड़ा के साथ जुड़ा है उनको मधुर संगीत जिसे सिकाडा संगीत कहा जाता है। इस संगीत को नर सिकाड़ा ही उत्पन्न कर पाता है। इस संगीत का उद्देश्य मादा को रीझाना होता है। ऊपर: सिकाड़ा का फोटो ग्राफ। नीचेः सिकाड़ा की बाल्यावस्था का रेखाचित्र कायांतरण के अंतिम दौर के बाद वह वयस्क रूप में दिखेगा।
(अमरीका के कुछ दक्षिणी प्रांतों को छोड़कर जहां पर एक ऐसा ही सिकाडा की अन्य प्रजातियों का समुह पाया जाता है जो हर 13 साल में बाहर आते हैं)। फिर कुछ हफ्तों के दौरान ही लाखों परिपक्व बच्चे ज़मीन से बाहर निकलते हैं, वयस्क बनते हैं, समागम करते हैं, बच्चे देते हैं, और मर जाते हैं। सबसे विस्मयकारी बात तो यह है कि केवल एक नहीं, बल्कि चक्रीय सिकाडा की तीन प्रजातियां ठीक उसी अंतराल पर एकदम एक साथ निकलती हैं। अलग-अलग इलाके ज़रूर आगे-पीछे (आउट ऑफ फेज) हो सकते हैं - शिकागो के आसपास के सिकाड़ा उसी साल में नहीं निकलते जिस साल न्यू इंग्लैंड में। परन्तु प्रत्येक झुंड के लिए 17 वर्षीय चक्र अचल रहता है (दक्षिण में 13 वर्षीय चक्र ) - तीनों प्रजातियां उसी समय एक साथ बाहर निकलती हैं। जेन्ज़न को स्पष्ट है। कि भौगोलिक व जैविक विभिन्नता के बावजूद सिकाडा व बांस जैव-विकास की एक समान पहेली प्रस्तुत करते हैं। उसका कहना है कि हाल ही के कुछ अध्ययनों के अनुसार, "इन कीटों व बांस के बीच कोई विशेष गुणात्मक विभेद नहीं है, शायद इसके अलावा कि वे समय की गिनती कैसे करते हैं।"
क्यों? क्यों? क्यों?
जैव-विकासवादियों के रूप में हम इसी सवाल का जवाब ढूंढते हैं क्यों?' ऐसी अदभुत समकालिकता (सिंक्रोनिटी) का विकास क्यों, और लैंगिक प्रजनन के बीच का अंतराल इतना लंबा क्यों? जैसे कि मैंने कुछ मक्खियों में मातृहत्या के व्यवहार की चर्चा करते हुए अपने एक लेख में तर्क रखा था कि प्राकृतिक चुनाव (जैव विकास) के सिद्धांत को सबसे ज्यादा समर्थन तब मिलता है। जब हम ऐसी घटनाओं को संतोषप्रद ढंग से समझा पाते हैं जो अन्यथा अत्यन्त ही विचित्र या निरर्थक लग रही हों।।
इस किस्से में हमारा आमना-सामना एक ऐसी समस्या से होता है। जिसमें कि बरबादी की बू आती है (क्योंकि बीजों से संतृप्त जमीन पर इनमें से बहुत ही कम बीज अंकुरित हो पाएंगे)। फूलों के एक-साथ लगने या सिकाडा के एक-साथ बाहर निकलने से ऐसा लगता है कि मानो संपूर्ण प्रजाति में एक तरह की व्यवस्था व तालमेल हो। परन्तु डार्विन के विकासवाद के तहत प्रत्येक सदस्य के अपने हित को आगे बढ़ाने के आगे व इससे ऊपर कोई भी सिद्धांत नहीं है - यानी कि अपनी जीन का आने वाली पीढ़ियों में प्रतिनिधित्व। हमें इस सवाल पर गौर करना होगा कि इस तरह के समकालिक (एक समय पर, एक साथ होने वाले) प्रजनन से एक सिकाड़ा या बांस के एक पौधे को क्या फायदा होता है।
बांस की विभिन्न प्रजातियों में बहार आने में 15 में 120 वर्षों का समय गुजर जाता है। बांस की एक प्रजाति में आखिरकार बहार आ ही गई है और वह फूलों से लद गया है। यहां फूलों से बौराई बांस की एक टहनी।
समस्या कुछ उसी तरह की है जो कि प्रख्यात अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के सामने आई जब उसने यह सिद्धांत सामने रखा कि हस्तक्षेप न करने की नीति ही सामंजस्यपूर्ण अर्थव्यवस्था तक पहुंचने का सबसे पक्का तरीका है। स्मिथ का मानना था कि आदर्श अर्थव्यवस्था व्यवस्थित व संतुलित दिखती है, परन्तु यह अपने आप ही उभर आएगी अगर बहुत सारे ऐसे लोग साथ रहें जिनमें से हर कोई बस एक ही रास्ता अख्तियार कर रहा हो। - अपने खुद के हित का मार्ग। एडम स्मिथ का तर्क था कि ऐसी सामूहिक व्यवस्था बनते देखकर ऐसा लगने लगता है मानो कि कोई अन्य शक्ति इसे दिशा दे रही हो।
चूंकि डार्विन ने अपने प्राकृतिक चुनाव के सिद्धांत को विकसित करते हुए एडम स्मिथ की इस सोच को प्रकृति पर लागू किया था इसलिए हमें भी यहीं ढूंढना होगा कि इस व्यवस्था, इस हारमनी से प्रत्येक सदस्य को क्या लाभ होता है। एक सिकाड़ा या एक बांस को क्या फायदा मिलता है अगर लंबे अंतराल पर और एक-साथ, एक ही समय पर प्रजनन करें?
अस्तित्व के लिए संघर्ष?
इसकी सबसे संभव व्याख्या को समझ पाने के लिए सबसे पहले तो हमें यह समझ लेना होगा कि मनुष्यों से संबंधित प्रक्रियाएं अक्सर हमें अन्य प्राणियों के संघर्ष समझने के लिए उपयुक्त मॉडल नहीं उपलब्ध करवाती। मानव एक धीमे बढ़ने वाला प्राणी है। हम बहुत ही कम संख्या में पैदा होने वाली व देरी से वयस्क होने वाली संतानों में बहुत ऊर्जा लगाते हैं। हमारी जनसंख्या का नियंत्रण बड़े पैमाने पर ज्यादातर शिशुओं की मृत्यु से नहीं होता। जबकि बहुत से जीव-जंतु 'अस्तित्व के संघर्ष' में अलग ही रणनीति अपनाते हैं - वे बहुत से बीज या अंडे पैदा करते हैं ताकि उनमें से कुछ तो जीवन के इस शुरुआती संघर्ष में से बच कर निकल सकें। अक्सर इनका नियंत्रण परभक्षी शिकारियों (प्रीडेटर) द्वारा होता है, और इनकी जैव-विकास के दौरान विकसित सुरक्षा की रणनीति इस तरह की होनी होगी ताकि उनके मृत्यु के मुंह में जाने की संभावना कम हो। कोई भी नई व्याख्या सुझाते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि बहुत से जीव-जंतुओं को सिकाडा एवं बांस के बीज अत्यन्त स्वादिष्ट लगते हैं।
प्राकृतिक इतिहास, आम तौर पर, शिकारी से बचने के विभिन्न तरह के अनुकूलन का किस्सा होता है। कुछ छिप जाते हैं, कुछ बेस्वाद होते हैं, कुछ में कांटे या कठोर कवच विकसित हो जाते हैं, कुछ अपने विषाक्त रिश्तेदारों जैसे दिखने लगते हैं; ऐसी एक अंतहीन सूची तैयार की जा सकती है, जो प्रकृति की विविधता का एक उत्कृष्ट नज़ारा प्रस्तुत करती है। बांस के बीज व सिकाडा एक असामान्य रणनीति अख्तियार करते हैं: वे स्पष्ट तौर पर व आसानी से उपलब्ध होते हैं, परन्तु बहुत ही लंबे अंतरालों के बाद और इतनी बड़ी संख्या में कि शिकारी भरपूर कोशिश के बावजूद उन सबको खत्म नहीं कर सकते। जैवविकासवादी सुरक्षा के इस तरीके को ‘शिकारी संतृप्तण' (प्रीडेटर सेटियेशन) कहते हैं।
इस तरीके की कारगर रणनीति के लिए दो तरह के अनुकूलन ज़रूरी हैं। पहला, उनके बाहर निकलने या प्रजनन में एकदम सटीक सामंजस्य यानी समकालिकता होनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि केवल कुछ समय के लिए एकदम बाढ़-सी आ जाए। यह भरमार बहुत जल्दी-जल्दी नहीं आनी चाहिए क्योंकि ऐसा होने पर शिकारियों के अपने जीवन-चक्र में इस विपुलता से मेल खाने वाले बदलाव आ सकते हैं। अगर बांस में हर साल फूल आएं तो संभव है कि बीज खाने वालों में ऐसे बदलाव आ जाएं कि इस चक्र का ख्याल रखते हुए, उनमें उसी समय बहुतेरे बच्चे पैदा हों जब बीजों की प्रचुरता हो। परन्तु अगर फूल लगने का अंतराल शिकारी के जीवन-चक्र से कहीं लंबा हो तो ऐसे चक्र की खबर रख पाना शिकारी के लिए मुमकिन न होगा। (सिवाय एक विशेष जीव के जो अपने इतिहास का लेखा-जोखा रखता है!) प्रत्येक बांस एवं सिकाडा के संदर्भ में एकसाथ प्रजनन का फायदा स्पष्टतः समझ में आता है - जो भी इस कदमताल से बाहर होगा तुरन्त शिकारी के मुंह में जा पहुंचेगा (इस तरह के भूले-भटके सिकाडा कभी-कभी बीच के सालों में निकल आते हैं परन्तु वे कभी भी अपने पैर जमा नहीं पाते)।
'शिकारी संतृप्तण' की यह परिकल्पना, चाहे अभी तक यह सिद्ध नहीं हुई हो, एक सफल व्याख्या के सब प्राथमिक मापदंड जरूर पूरी करती है; यह ऐसे कई अवलोकनों के बीच में समन्वय बिठाती है जो अन्यथा एकदूसरे से स्वतंत्र दिखते हैं, और बांस वे सिकाडा के उदाहरण में तो विचित्र भी। उदाहरण के लिए, हम जानते हैं। कि बांस के बीज कई प्राणियों को अत्यन्त स्वादिष्ट लगते हैं, जिनमें कि लंबी उम्र (लंबे जीवनचक्र) वाले कई रीढ़धारी भी हैं; इसलिए बांस के बीजों का यह चक्र 15 या 20 साल से छोटा न होना समझ में आता है। हमें यह भी मालूम है कि इस तरह एकसाथ बीज गिरने से प्रभावित इलाके में बीजों की भरमार हो सकती है। जेन्ज़न ने दर्ज किया है कि एक जगह पर जनक पेड़ के नीचे बीजों की 6 इंच मोटी चादर-सी बिछ गई थी। मालागासी बांस की दो प्रजातियां सामूहिक बहार के दौरान प्रति हेक्टेयर लगभग 50 किलोग्राम बीज पैदा करती हैं - एक लाख हेक्टेयर के विशाल क्षेत्र में।
अंक भी महत्व रखते हैं क्या?
सिकोड़ा की तीन प्रजातियों के बीच में सामंजस्य व समकालिकता अत्यन्त प्रभावशाली है - विशेषतौर पर इसलिए भी क्योंकि अलग-अलग जगहों पर उनका जमीन से बाहर निकलने (अवतरित होने का साल अलग-अलग होता है, जबकि ये तीनों प्रजातियां हर क्षेत्र विशेष में एक साथ निकलती हैं। परन्तु मैं सबसे ज्यादा प्रभावित हूं इन चक्रों की अवधि से। 13 व 17 साल वाले सिकाड़ा ही क्यों पाए जाते है ? 12, 14, 15, 16 वे 18 साल वाले चक्र क्यों नहीं होते? 13 व 17 दोनों में एक समान गुण है। ये दोनों आंकड़े किसी भी शिकारी के जीवनचक्र से तो लंबे हैं। ही, परन्तु वे अभाज्य संख्याएं भी हैं। (ऐसी संख्याएं जो अपने से छोटी किसी भी पूर्णाक संख्या से पूर्णाक में विभाजित नहीं की जा सकती)। सिकाड़ा के कई संभावित शिकारियों के 2 से 5 साल के जीवनचक्र होते हैं। ये चक्र सिकाडा की प्रचुरता से तय नहीं होते (क्योंकि अक्सर इन शिकारियों की संख्या ऐसे सालों में चरम पर पहुंचती है जिन सालों में सिकाड़ा नहीं निकलते)। परन्तु जिन सालों में ये दोनों चक्र एक-दूसरे से मेन खा जाएंगे उस समय सिकाडा का बड़े पैमाने पर भक्षण होगा। एक ऐसे शिकारी का उदाहरण लेते हैं। जिसकी संख्या हर पांच साल में बढ़ जाती है; अगर सिकाडा का चक्र पंद्रह साल का होता तो हर बार अवतरित होने पर वे शिकारियों के झपट्टे में आ जाते। बड़ी अविभाज्य संख्याओं के चक्रों के ज़रिए सिकोड़ा इस तरह की संभावना को बहुत ही कम कर देते हैं। (इस उदाहरण में हर 5 गुणा 17, यानी 85 साल में)। तेरह व सत्रह साल के चक्र किसी भी छोटे चक्र से पकड़े नहीं जा सकते।
जैसा कि डार्विन ने कहा है, अपना अस्तित्व बरकरार रखना ही ज्यादातर जीव-जंतुओं के लिए संघर्ष का मसला है। अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए पंजे और दांत ही हथियार हों यह जरूरी नहीं है, प्रजनन के पैटर्न भी उतने ही कारगर सिद्ध हो सकते हैं। यदाकदा की प्रचुरता भी सफलता का एक रास्ता हो सकती है। कभी कभी एक ही टोकरी में अपने सब अंडे रख देना भी फायदेमंद हो सकता है - परन्तु इस बात का ख्याल रखना होगा कि अंडे बहुत सारे हों और ऐसा कभी-कभार ही किया जाए।
इस लेख में इस्तेमाल किए गए चित्र मूल लेख में नहीं थे।
स्टीफन जे, गुल्डः प्रसिद्ध जीवाश्मविद और विकासवादी जीव-वैज्ञानिक स्टीफन जे. गूल्ड का बचपन न्यूयॉर्क में गुजरा। एंटियोक कॉलेज में स्नातक हुए और कोलंबिया विश्वविद्यालय में पी एच.डी. की। वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय में भूविज्ञान और प्राणिविज्ञान के प्रोफेसर पद पर कार्यरत थे। उन्होंने विकासवाद, विज्ञान का इतिहास, जीवाश्म विज्ञान जैसे अनेक विषयों पर निबंध लिखे हैं। उनकी कुछ प्रमुख किताबें हैं - द मिसमेजर ऑफ मेन, हेन्स टीथ एंड हॉसिस टोज़ , द फ्लेमिंगोज़ स्माईल, वंडरफुल लाइफ, एबर सिन्स डार्बिन आदि।
अनुवाद: राजेश खिंदरी: संदर्भ पत्रिका से संबद्ध।
यह लेख 'एवर सिन्स डार्विन' किताब से साभार लिया गया है और अस्सी के दशक में लिखा गया था। सिकोड़ा के बारे में और जानकारी के लिए संदर्भ के अंक 22-23 में लेख 'सिकाडा का मधुर संगीत' और अंक 24-25 में प्रकाशित लेख 'सिकाडा किलर' देखिए ।