कैरन हेडॉक

बीजों का अंकुरणः बच्चों का नजरिया 

चित्र बनाना और चित्रकारी के अपने हुनर को पहचानना स्वयं सशक्तिकरण का एक प्रभावशाली तरीका है। संप्रेषण और खुद की अभिव्यक्ति के लिए चित्र बना पाना, एक तरह से लिखने और पढ़ने जैसा ही है। इसमें अवलोकन, समझ, तुलना, विश्लेषण, संप्रेषण और सृजनात्मकता के साथ-साथ व्यक्ति की वैज्ञानिक साक्षरता भी बढ़ती है। इस लेख में बच्चों के चित्रों का किस प्रकार उपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है इस पर चर्चा होगी। चित्रकला का वैज्ञानिक शैक्षिक सामग्री में किस प्रकार उपयोग व दुरुपयोग किया जा सकता है, मैं उस पर भी चर्चा करूंगी। विशेष तौर पर मैं ऐसे उदाहरणों का उल्लेख करूंगी जिनमें कला का उपयोग आनंद को बढ़ाने के लिए, जीवों व वस्तुओं को पहचानने के लिए, संरचना व प्रक्रिया को समझाने के लिए, और सामाजिक व राजनैतिक दृष्टिकोणों को औरों तक पहुंचाने के लिए किया जाता है।

विज्ञान सीखने और सिखाने में कला का क्या रोल है? कला को सकारात्मक तरीके से कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है? कला का विज्ञान में अक्सर दुरुपयोग कैसे होता है? मैं इन प्रश्नों पर चर्चा करूंगी और उदाहरणों से समझाऊंगी कि कला को विज्ञान शिक्षण में कैसे उपयोग किया जा सकता है।

कला - दृष्टिकोण व्यापक बनाने में   
विज्ञान शिक्षण में कला का एक स्वाभाविक कारण तो विज्ञान पुस्तकों, वर्कशीट, चार्ट और अन्य शैक्षिक सामग्री की सुंदरता को बढ़ाना है। कला को सजाने के काम में लाया जाता है और उससे छात्रों के लिए सामग्री को ज्यादा सुंदर तथा रोचक बनाया जाता है। यह उद्देश्य अपने आप में काफी सार्थक है। उदाहरण के लिए चित्रकारी, पेंटिंग्स और फोटोग्राफ्स छात्रों को कला के प्रशंसक बनाने में सहायक हो सकते हैं।
परन्तु कला एक सुंदर चित्र से कुछ अधिक होती है। यह सुंदर होने के अलावा हमेशा कुछ कहती भी है। ऐसा कोई भी चित्र नहीं है जो सभी लोगों को सुंदर लगे और जो सभी छात्रों का मन लुभाने में सफल हो। सभी लोगों को खुश करना शायद उपयुक्त भी न हो - अच्छा तो तब होगा जब आम लोग कला के कुछ अनूठे नमूनों और उदाहरणों से परिचित होंगे। विज्ञान में चित्रकारी लोगों का सांस्कृतिक नज़रिया व्यापक करने और सौंदर्य के प्रति उनकी संवेदनाएं जगाने में भी सहायक हो सकती है। विज्ञान में कला के इस तरह के विविध मायनों, उपयोगों और दुरुपयोगों पर विस्तार से आगे चर्चा होगी।
अगर बच्चों को विज्ञान सीखते समय चित्र बनाने को कहा जाए तो उनकी विज्ञान में रूचि बढ़ेगी क्योंकि जब बच्चे चित्र बना रहे होते हैं तो वे सुनने या सिर्फ देखने के मुकाबले सीखने की प्रक्रिया में ज्यादा गहराई से शामिल हो पाते हैं। गतिविधियों पर आधारित विज्ञान की कक्षा में चित्र बनाना एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कला खुद की अभिव्यक्ति का एक रोचक माध्यम भी है। यह कुशलता विज्ञान के अलावा अन्य सभी क्षेत्रों में भी बहुत उपयोगी होगी। इसलिए हम कला को पढ़ने, लिखने और गणित जितना ही जरूरी क्यों न समझे ?

अवलोकन क्षमता बढ़ाने के लिए   
जब छात्र किसी चीज़ को देखकर उसका चित्र बनाते हैं तो उससे उनकी चीजों को बारीकी से देखने की क्षमता पैनी बनती है। इसको आप एक सरल प्रयोग से परख सकते हैं। आप अपने सामने रखे गमले में लगे पौधे को देखें। अगर आप पौधे को गौर से देखेंगे और उसका चित्र बनाएंगे तो आप पाएंगे कि चित्र बनाने की क्रिया में आपको पौधे को बहुत बारीकी से देखना होगा, उसके विभिन्न भागों की तुलना या विश्लेषण करना होगा। अगर आप चित्र नहीं बना रहे होते तो शायद आप यह सब नहीं करते। आप शायद यह भी नोट नहीं करेंगे कि पत्तियां नीचे की ओर थोड़ी-सी गोलाकार हैं और कुछ पत्तियां नुकीली हैं व नीचे की ओर झुकी हुई हैं जबकि अन्य ऐसी नहीं हैं। आप शायद यह भी पाएं कि तने पर हरेक पत्ती के विपरीत ओर एक और पत्ती है, आदि।

छात्रों की अवलोकन की कुशलता को बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि चित्र बनाते समय जिस चीज़ का चित्र वे बना रहे हों वह एकदम उनके सामने हो। इस प्रक्रिया द्वारा वे बहुत अधिक सीखेंगे। अगर छात्रों से ब्लैकबोर्ड या पुस्तक में से किसी चित्र को उतारने को कहा जाए तो वे उतना नहीं सीखेंगे। शिक्षिका चाहे तो कक्षा को सीधे बता सकती है कि किसी विशेष पौधे की पत्तियां जोड़े में आमने-सामने लगी होती हैं, और फिर वो बच्चों से उन पत्तियों के चित्र की नकल उतारने को कह सकती है जिसे उसने बोर्ड पर बनाया है। परंतु पाठ तब कहीं अधिक रोचक होगा जब बच्चे, खुद चित्र बनाने के दौरान पौधे की पत्तियों का 'विपरीत होना’ खोजेंगे।
एक उदाहरण लें जिसमें बच्चों से कुछ हरी सब्जियों के चित्र बनाने को कहा जाता है। याद्दाश्त से बनाने की बजाए कहीं अच्छा यह होगा कि बच्चों के सामने तरह-तरह की हरी (और अन्य) सब्जियां हों जिससे चित्र बनाते समय वे उनको बारीकी से देख सकें। अगर वे ऐसा करेंगे तो उन्हें पालक, मेथी, बंदगोभी, मिर्ची आदि सब्जियां तो याद रहेंगी ही, साथ में वे चित्र बनाने के दौरान उनके आकार, नाप, उनके अलग-अलग रंगों और सतह के चिकनेपन या खुरदुरेपन के बारे में भी बहुत सी बातें सीखेंगे।
 
शिक्षकों को इस बात से डरना नहीं चाहिए कि छात्र जो कुछ देख रहे हैं उसका चित्र वे बना पाएंगे या नहीं। सबसे छोटे बच्चे भी अपनी रंगीन पेंसिल या क्रेयॉन लेकर चित्र बनाने के लिए अत्यन्त तत्पर होते हैं। जब बच्चों की थोड़ी 'शिक्षा' हो जाती हैं। उसके बाद ही वे अक्सर यह कहते हैं, 'यह मुझ से नहीं बनेगा।' मेरा अनुभव तो यही है कि जो लोग एकदम हठ से कहते हैं कि वो चित्र बना ही नहीं सकते, वे असल में काफी अच्छे चित्र बनाते हैं। उनका भय खम करने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए मैं एक ही नियम अपनाती हूं - मैं उनके लिए कभी भी चित्र नहीं बनाती हूँ, और तो और, उनके कागज़ पर एक निशान तक नहीं लगाती हूं। मैं उनसे सिर्फ इतना कहती हूं, “मुझे पता है। कि आप चित्र बना सकते हैं।'' मैं उनसे यह कहती हूं कि उन्हें जो भी दिख रहा हो वो उसका वर्णन सुनाएं। कुछ देर बाद वे कह सकते हैं कि एक टहनी दिख रही है। ‘अच्छा, उस टहनी का आकार कैसा है? क्या वो सीधी है। या फिर बाएं या दाएं को मुड़ी है?' यह सब मैं उनके एकदम पास खड़े होकर पूछती हूं जिससे वो जो कुछ देख रहे हैं वह मुझे भी दिखे। 'वो उस तरफ मुड़ी हुई है', छात्र कह सकता है। तो फिर अपने कागज़ पर उस ओर मुड़ती हुई एक रेखा बनाओ', मैं कहती हूं। कुछ मिनटों बाद और सकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बाद और बार-बार 'देखते रहो' की याद दिलाने के बाद छात्र पूरी लगन के साथ चित्र बनाने में लग जाएगा। अच्छा होगा यदि आप इस झिझकते हुए छात्र से उसकी रबड़ ले लें; इससे आप उस छात्र द्वारा बनाए चित्र को मिटाए जाने से पहले कम-से-कम देख तो पाएंगे। मुझे लगता है कि अगर छात्र बिना रंगे, पेन्सिल या पेन से चित्र बनाए तो ज्यादा अच्छा रहेगा क्योंकि चित्र की बारीकियां काले और सफेद में अधिक स्पष्ट दिखेंगी।

अगर शिक्षक के दिमाग में छात्र के चित्रों को लेकर कुछ पूर्व-धारणाएं होंगी तो शायद उन्हें कुछ निराश होना पड़े, और इससे छात्र भी अपनी चित्रकारी की क्षमता पर शक करने लगेंगे। परंतु अगर शिक्षिका को बच्चों पर भरोसा हो और वह बच्चों को उनके खुद के तरीके से चित्र बनाने देगी तो फिर किसी को भी निराशा नहीं होगी। ऐसी स्थिति में बच्चे जो चित्र बनाएंगे वे सभी के सभी अद्भुत और चकाचौंध करने वाले होंगे!
अवलोकन करके जब बच्चे चित्र बनाएंगे तो वे चीज़ों को अपने दृष्टिकोण से देखेंगे। जब पांच बच्चों के बीच एक अंकुरित बीज रखा जाता है और उनसे उसका चित्र बनाने को कहा जाता है तो पांचों के चित्र बिल्कुल अलग-अलग होंगे --- एक जड़ों के छोटे रोए दिखाएगा, दूसरे ने बीच के फटे कवच को दिखाया होगा, तीसरे ने जड़ के सिरे की नोक को दिखाया होगा। इस प्रकार वे एक-दूसरे से सीख सकते हैं। वे यह भी सीखते हैं कि किसी भी चीज़ को देखने का केवल एक ही तरीका नहीं होता है और विज्ञान में हमेशा कोई एक ही सही उत्तर नहीं होता है।
बच्चों ने जो कुछ देखा है उसे ही उन्होंने चित्र में बनाया है इसकी जांच बड़ी आसानी से की जा सकती है। जिस बच्चे ने बाएं हाथ वाले चित्र को बनाया उसने बाहर जाकर उगते सूरज को सचमुच में नहीं देखा होगा। इसके विपरीत, दायीं ओर वाला चित्र सूर्योदय को देखते हुए बनाया गया होगा।

कला द्वारा अवलोकन दर्ज करना।  

शब्दों की तुलना में चित्र अधिक जानकारी दे सकते हैं और उपयोगी हो सकते हैं।

उदाहरण के लिए, महुए के पत्तों, फूलों और फलों के शाब्दिक वर्णन को ही लें: “पत्तियों के गुच्छे टहनियों के सिरे पर लगे होते हैं। हरेक पत्ती 720 x 3-7 से.मी., आकार में अंडे जैसी, छुटपन में थोड़ी रोएदार और बाद में अरोगिल, ग्लैबरस होती है। फूल टहनियों के सिरों पर घने गुच्छों में लगते हैं। फूलों में डंठल होते हैं, वे लटके-से रहते हैं और उन पर कुछ पाउडर-सा होता है, पुटक कैलिक्स डेढ़ से.मी. लंबा और आधार तक बंटा होता है और यह सामान्यतः चार खंड में बंटा होता है। दलपुंज कोरोला क्रीम के रंग का, लगभग ढाई से तीन से.मी. चौड़ा होता है। दलपुंज के करीब 810 कान होते हैं। पुंकेसर लगभग 25 होते हैं। अंडाशय रोंएदार होता है जो ढाई सेमी या उससे कुछ लंबी वर्तिका

ऊपर :
केले के मड़ते हुए छिलके के चार चित्र बनाए गए हैं। पहला 10 सितंबर को, दूसरा 14 सितंबर को, तीसरा 19 नवंबर को और चौथा 2 फरवरी को बनाया गया है। नीचे: महुए की एक टहनी। महुआ-वर्णन का शाब्दिक लुत्फ उठाने के बाद इस चित्र को देखिए।

को सहारा देता है। फल गूदेदार और हल्के रोएंदार, 3-5 सेमी लंबे, अंडाभ आकार के होते हैं जो पहले हरे और बाद में पीले-लाल या नारंगी रंग के हो जाते हैं। इन में एक से चार बीज होते हैं।'' (कॉमन ट्रीज, एच. सांतापाऊ, नेशनल बुक ट्रस्ट, चित्र डी. पी देब से उद्धरित)

ऊपर लिखित सामग्री में काफी जानकारी है, परंतु जो लोग इस तकनीकी शब्दावली से अवगत भी हैं। उनके लिए भी चित्र के ज़रिए पत्तियों और फूलों का अनुमान लगाना कहीं अधिक आसान होगा।
अवलोकनों को चित्रों के जरिए रिकॉर्ड करने का एक अन्य उदाहरण इसी पेज पर ऊपर दिया गया है। यहां केले के छिलकों के सड़ने के क्रम को दर्शाया गया है।

बच्चे इस तरह के अवलोकन करके या उनके चित्र बनाकर अपनी-अपनी खोज कर सकते हैं। (इसमें क्या अलग है? क्यों, इसका ज़रा अनुमान लगाएं? आपको इन चित्रों में और क्या नज़र आ रहा है? क्या आपको इनमें कोई जीव नज़र आ रहा है? और वहां वो घोंघा क्या कर रहा है?)
एक बात का ध्यान रखें - हरेक चित्र का प्रकार और उसकी शैली महत्वपूर्ण होती है, और अलग-अलग प्रकार के चित्र अलग-अलग कार्यों के लिए उपयुक्त होते हैं। इन सड़ते केले के छिलकों के लिए शायद यह काला और सफेद चित्र हीं अधिक उपयुक्त है, इससे हमें ज्यादा जानकारी मिलती है। शायद रंगीन फोटोग्राफ से भी हमें इतनी जानकारी नहीं मिलती। इसी प्रकार महुए का रेखाचित्र हमारे लिए कम्प्यूटर के जरिए देखे जाने वाले सीडी विश्वकोष के रंगीन फोटो से कहीं अधिक उपयोगी है। रंगीन फोटोग्राफ्स का इस्तेमाल अक्सर इसलिए किया जाता है क्योंकि प्रकाशक रंगों से ग्राहकों को लुभाने के चक्कर में पड़ जाते हैं। और उपयोगिता से उनका ध्यान हट जाता है। या शायद यह भी हो सकता है कि रेखाचित्रों के लिए प्रकाशकों को रंगीन फोटोग्राफ्स की तुलना में अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है? यह एक और उदाहरण है जहां मुनाफे के कारण विज्ञान का नुकसान होता है।

संरचना व प्रक्रियाओं को समझाना
अलग-अलग प्रकार के चित्रों द्वारा विज्ञान के भिन्न क्षेत्रों में घटनाओं, काम के तरीकों, और ढांचों को समझाया जा सकता है। इसके लिए तरह-तरह के रेखाचित्र, ग्राफ, वेन डायाग्राम, फ्लोचार्ट आदि का उपयोग किया जाता है। चित्रों द्वारा जटिल ढांचों और प्रक्रियाओं को सरल बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए पक्षी के पाचन-तंत्र को देखें।
पाठ्य पुस्तकों मे चाँद की विविध कलाएं। चित्रकार और लेखक के बीच संवाद की खाई और अवलोकन की कमी।

विज्ञान की पुस्तकों में चित्र और फोटोग्राफ्स भी भ्रामक हो सकते हैं। अक्सर लेखकों और चित्रकारों के बीच में संवाद में खाई रह जाती है और कई बार चित्रकार चित्रों को बनाने से पहले चीज़ों का बारीकी से अध्ययन नहीं करते हैं, और न ही शोध में पर्याप्त समय लगाते हैं। सच बात तो यह है कि इसमें गलती असल में प्रकाशक की ही होती है क्योंकि उनके पास समय सीमित होता है, इसलिए वो जल्दी-से-जल्दी चित्रों को पांडुलिपि पर चिपकाना चाहते हैं। उदाहरण के लिए अगले पेज पर बनी चंद्रमा की इन कलाओं को ही देखें। ऐसे चित्र आपको भारत की तमाम विज्ञान पाठ्य-पुस्तकों में दिखेंगे। ऐसा लगता है कि चित्रकार ने कभी भी चंद्रमा की ओर सिर उठाकर नहीं देखा है।

याद्दाश्त के लिए चित्रों की नकल  
छात्रों से अक्सर चित्रों को नकल करने, उन्हें याद करने और परीक्षाओं में उन्हें दुबारा बनाने के लिए कहा जाता है। शायद कभी-कभी यह उचित हो सकता है परन्तु अक्सर इस विधि का याद रखने के तरीके के रूप में दुरुपयोग होता है। अच्छा तो यह होता अगर छात्र अपनी याद्दाश्त से आगे जाकर कोई ऐसा रोचक काम करते जिससे उनमें उच्चस्तरीय आलोचनात्मक सोच का विकास होता। किसी भी चित्र को याद करके उसे वैसा ही बना देना कोई कठिन काम नहीं है। शायद इसके लिए चित्र को समझने की कोई जरूरत भी नहीं है।

कला से सामाजिक एवं राजनैतिक नज़रिया प्रस्तुत करना   
सीखने और सफलता हासिल करने में सबसे बड़ी दिक्कत होती है छात्र का अपनी क्षमता पर अविश्वास होना। खासकर जब हम गरीब बच्चों के साथ काम करते हों तब शिक्षकों को 'गरीबों का मनोविज्ञान' समझना चाहिए। गरीब बच्चों के लिए विज्ञान एक विदेशी चीज़ है जिसे वे बच्चे सीखते हैं जो उनके जैसे नहीं हैं। बच्चों को विज्ञान की पुस्तकों में लड़कियों के चित्र कम ही दिखते हैं और इससे उन्हें यह आभास होता है कि विज्ञान मुख्य रूप से लड़कों और मर्दो की चीज़ है। भारत में ऐसी विज्ञान की पुस्तकें मिलना बहुत मुश्किल है जिसमें मर्दो की अपेक्षा औरतों के चित्र अधिक हों। साथ ही मर्दो को हमेशा सक्रिय भूमिका में प्रस्तुत किया जाता है और औरतों को केवल पृष्ठभूमि में सहायक या फिर दर्शक के रूप में दिखाया जाता है।

भारत में विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों में दिखाए गए ज्यादातर लोग देखने में यूरोपीय लगते हैं। उनका रंग कभी भी सांवला नहीं होता। भारतीय लड़कियों को इनमें कुछ भी अपने जैसा नहीं लगता। जरा सोचिए अगर उसे अपने जैसी दिखने वाली किसी लड़की का चित्र पुस्तक में दिखे जो सक्रिय रूप से विज्ञान का कोई प्रयोग कर रही हो, तो क्या होगा। ऐसा देखकर उसे अपनी कद्र समझ में आएगी और उसका हौसला भी बुलंद होगा।
चित्रों की शैली भी यहां पर काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर पश्चिमी देशों की शैली के चित्रों के साथ ही पाठ्य-पुस्तकों में इस तरह के चित्र भी हों तो उसका बच्चों पर एक सशक्त प्रभाव पड़ेगा। ऐसे बच्चे जो खुद इस तरह के चित्र बनाते हैं। अपनी पुस्तक से एक खास जुड़ाव महसूस करेंगे।

चित्रों का हमेशा एक दृष्टिकोण होता है --- चाहे वो विज्ञान को सीखने या सिखाने के लिए ही क्यों न इस्तेमाल में लाए जाएं। उदाहरण के लिए पिछले पेज पर बने उस चित्र को देखें जिसे किसी विज्ञान की पाठ्य-पुस्तक में शामिल किया जा सकता है। इस चित्र में एक छात्र लकड़ी की डंडी से बंधी प्लास्टिक की थैली से हवा कैसे बहती है, इसका प्रयोग कर रहा है। बहुत से लोगों को इस चित्र में एक सुन्दर-सा प्यारा-सा बच्चा दिखाई देगा।
परन्तु जब वही लोग 'दुसरे चित्र को देखते हैं तब उन्हें बच्चा उतना सुन्दर नहीं लगता है। दोनों चित्रों में केवल बालों का अंतर है। पहले चित्र में लड़का गोरी चमड़ी वाला कॉकिशियन लगता है। दरअसल लोग यह सोचने के लिए बाध्य हो गए हैं कि सुनहरे बालों वाले लोग अधिक सुंदर होते हैं। विज्ञान की पुस्तक में इन दोनों में से कौन सा चित्र इस्तेमाल किया जाएगा उसके हिसाब से उस पुस्तक में अंतर आएगा। दूसरे चित्र के साथ कुछ लोगों को पुस्तक उतनी आकर्षक नहीं लगेगी। परन्तु इस प्रकार की पुस्तक कॉकेशियन यानी गोरे लोगों के आधिपत्य को चुनौती देगी; और शायद कुछ बच्चे अपनी शक्ल-सूरत वाले बच्चे की तस्वीर को देखकर पुस्तक को बेहतर तरीके से अपनाएं। 

खेती और भोजन अध्याय को पढ़ते समय कक्षा चौथी की एक छात्रा ने दाल पिसाई की प्रक्रिया को समझाने के लिए चित्रों का किस तरह इस्तेमाल किया, इसका एक अनूठा उदाहरण है यहां। चित्रों के साथ लिखी इबारत इस प्रकार है: सबसे पहले एक सपाट पत्थर और एक गोल पत्थर लेते हैं; उसके बाद उड़द दाल लेते हैं; फिर हम उसे पीसते हैं।
 
साथ ही दूसरे चित्र के साथ तैयार विज्ञान पुस्तक के अलग आशय होंगे। इन निहितार्थों को आप रोक नहीं सकते - क्योंकि कोई भी व्यक्ति एक ऐसी पुस्तक नहीं बना सकता जो सामाजिक रूप से उदासीन हो।
जब छात्र, विज्ञान सीखने के दौरान अवलोकन करके चित्र बनाते हैं तो वे कई ऐसी बातें भी कर पाते हैं जो उन्हें पहले असंभव लगती थीं। इससे उनमें सामर्थ्य का अहसास होता है। अपने अनुभव में मैंने जब कभी भी किसी छात्र द्वारा बनाए गए चित्र की कुछ अच्छी बातों की तारीफ की है। और फिर उसे बोर्ड पर चिपकाया है, तब हमेशा चित्रकार के मुखड़े पर खुशी की चमक देखी है। ऐसे मौके पर असमर्थता और हीनता की सभी भावनाएं धुल जाती हैं।

लेकिन यहां पर शिक्षक को एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए। उसे अलग-अलग बच्चों के चित्रों की तुलना कभी नहीं करनी चाहिए। चित्रों के बीच के अंतरों पर अवश्य चर्चा करनी चाहिए क्योंकि सभी बच्चों ने अलगअलग शैली में चित्र बनाए होंगे और हरेक चित्र अपने आप में खूबसूरत होगा - एक कलाकृति होगी। इससे छात्र समझेंगे कि वो अपने आपको कला द्वारा व्यक्त कर सकते हैं और वे दूसरों के बनाए चित्रों से भी सीखेंगे और उनकी प्रशंसा करना सीखेंगे।
अंत में मैं विज्ञान शिक्षण में कला के महत्व को दोहराना चाहूंगी। कला का उपयोग न केवल कलाकारी करने में है बल्कि कला को देखने में भी है। कलाकारी करके छात्र कुछ नया सृजन कर सकते हैं और साथ ही अपने नए विचारों को अभिव्यक्त भी कर सकते हैं। जबकि कला देखकर वे नई दिशाओं और विचारों से प्रेरित हो सकते हैं।


कैरन हेडॉक: स्वतंत्र सामाजिक कार्यकर्ता, चित्रकार, बायो-फिजिक्म में शोधकार्य। शिक्षा के क्षेत्र। में एकलव्य एवं अन्य संस्थाओं के साथ सक्रिय भागीदारी। बच्चों के लिए किताबें लिखी है। चंडीगढ़ में रहती हैं।
अनुवादः अरविंद गुप्ता। शिक्षा व विज्ञान पर लेखन के प्रकाशन व प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान। बहुत-सी नई गतिविधियां व मॉडल विकसित किए हैं। दिल्ली में रहते हैं।
यह लेख एडसिल द्वारा प्रकाशित 'इशूज़ इन प्राइमरी एजुकेशन' के अक्टूबर-दिसंबर 200 अंक से लिया गया है।