सुजाता लोहकरे                                                                                                                              [Hindi PDF, 42.5 kB]

 हाल ही में बारहवीं कक्षा के प्रश्न पत्र में संत तुकाराम के बारे में कुछ आपत्तिजनक कथनों की वजह से, महाराष्ट्र एस.एस.सी. बोर्ड के एक अधिकारी के साथ कुछ लोगों ने मारपीट की थी। इस मारपीट के खिलाफ अपना विरोध जताने के लिए शिक्षा विभाग के हम सभी अधिकारियों ने एक दिन काला फीता लगाकर काम किया।

शाम को जब मैं घर लौटी तब भी फीता मेरी छाती पर लगा हुआ था। दरवाज़े से अन्दर घुसते ही मेरी साढ़े पांच साल की बेटी उस फीते को देखकर पूछने लगी, “मां, आज यह काली रिबिन क्यों लगाई है?”

मैंने उसे बताया, “अरे हमारे ऑफिस के एक साहब के साथ कुछ लोगों ने ऑफिस में घुसकर मारपीट की थी। हम लोगों को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। हमारी भावनाएं दूसरे लोगों को भी पता चलें इसलिए आज दिन भर हम लोगों ने काला फीता लगाकर काम किया।”
ऑफिस से थकीहारी, परेशान होकर आने के बाद भी मैंने संक्षेप में ही सही लेकिन अच्छे मिजाज़ में जवाब दिया था। लेकिन जैसी की उम्मीद थी बेटी का अगला सवाल तैयार था, “मां, उनको किसलिए मारा-पीटा गया?”

अगले दस-पन्द्रह सेकेण्ड मैंने खुद को तैयार किया। सारी परेशानियां दरकिनार करके, मुद्दे पर नए सिरे से विचार करके उसे समझाया - संत तुकाराम .... परीक्षा .... अपमानजनक .... कुछ लोगों का ऐसा सोचना है कि संत के बारे में बुरा और गलत लिखा गया है .... उन लोगों ने साहब की पिटाई की .... वगैरह। ये सब मैंने उसे काफी सरल करके बताने की कोशिश की। इन तमाम बातों में से वह कितना कुछ समझ पाई है और उसका अगला सवाल क्या होगा, इसका मैं अंदाज़ ही लगा रही थी तभी बेटी ने सब कुछ समझ में आ गया है जैसे भाव चेहरे पर लाते हुए पूछा, “लेकिन मां इसके लिए साहब के साथ मारपीट क्यों की जानी चाहिए?” मैंने फिर समझाने की कोशिश की, “होते हैं कुछ लोग ऐसे भी। लेकिन उन्होंने मारपीट की इसलिए हम उनके साथ मारपीट करें तो फिर बड़े पैमाने पर मारपीट शु डिग्री हो जाएगी। और कोई भी मारपीट तो बुरी बात है, है ना?”

“हां।”
“दरअसल ऐसे में समझाइश देनी चाहिए थी, बातचीत करनी चाहिए थी लेकिन उन लोगों ने वैसा न करके मारपीट का रास्ता चुना, हमें उन लोगों के साथ मारपीट तो करनी नहीं है। लेकिन सब लोग यह भी जान लें कि यह बर्ताव हमें नापसंद है..., ऐसे समय काला फीता लगाकर काम करते हैं।” इन सब पर बेटी से काफी बातचीत हुई।
इस सारी चर्चा में बेटी की भागीदारी और उसके सवाल वगैरह के आधार पर मुझे अहसास हुआ कि मैं उसे सारा मुद्दा अच्छी तरह से समझा सकी हूं। साथ ही मुझे इस बात की भी खुशी थी कि ‘मारपीट करना’ बुरी बात है जिसे वह पहले से जानती थी, अब ज़्यादा स्पष्ट और असरदार तरीके से जान गई है। इस सफल सत्र के लिए मैं खुद को शाबाशी देती हुई उठी। बातचीत के दौरान मैंने काला फीता बेटी को दे दिया था जिसके साथ वह खेलने लगी। मुझे उठते हुए देखकर बिटिया ने एक और सवाल पूछ लिया, “मां, ... यदि कोई बात पसंद आई है यह बताना हो तो आप लोग सफेद रिबिन लगाते हो क्या?”

सवाल सुनकर मैं उसकी ओर देखती ही रह गई। क्या जवाब दूं कुछ समझ नहीं पा रही थी। एक ओर उसके सकारात्मक ढंग से सोच पाने की क्षमता पर दिल बाग-बाग हो रहा था, दूसरी ओर मैं सोच रही थी कि आज तक ऐसी बात अपने तो छोड़ो दूसरे किसी के मुंह से भी नहीं सुनी। और ऐसा किसी ने किया हो यह भी नहीं सुना था - कि यदि किसी व्यक्ति या शासन ने सबके हितों के मद्देनज़र कोई अच्छा फैसला लिया हो, तो लोगों ने स्वागत स्वरूप सफेद फीते लगाकर सार्वजनिक स्वागत दिवस मनाया हो।

यदि हम बुरे या अप्रिय फैसलों, घटनाओं का सार्वजनिक विरोध करते हैं तो किसी अच्छे फैसले या बात का सार्वजनिक स्वागत करने में क्या दिक्कत है? मैं यही सब सोचते हुए द्वंद्व में फंसी थी। मेरे पास तत्काल कोई जवाब नहीं था जिसे बेटी को दे पाती। ऐसे क्षणों में आमतौर पर हर मां-बाप जो करते हैं वही मैंने भी किया - किसी तरह समय निकाल दिया जाए। मैंने उससे कहा, “सलोनी तुम्हारा आइडिया बढ़िया है। मुझे तो बहुत पसंद आया। मैं कल ऑफिस में और लोगों को भी बताऊंगी।”

“लेकिन मां, यह आइडिया मेरा, यानी हमारी बिटिया का है... ऐसा ही बताना। ठीक है?” इतना कहकर हमारी लाडली काला फीता लेकर खेलने चल दी।


सुजाता लोहकरे: एस.सी.ई.आर.टी. महाराष्ट्र में सेवारत। हाल में पुणे से प्रकाशित पालक नीति पत्रिका के संपादन कार्य में शामिल हुई हैं।
हिन्दी अनुवाद: माधव केलकर: संदर्भ पत्रिका से संबद्ध।
पुणे से प्रकाशित पालक नीति पत्रिका के मई, 2006 अंक से साभार।