लेखक : टी. वी. वैंकटेश्वरन् [Hindi PDF, 111kB]
अनुवाद: के.बी.सिंह
छियत्तर साल पहले 13 मार्च 1930 को लॉवेल वेधशाला द्वारा की गई सौर मंडल के नवें ग्रह की खोज की घोषणा से जिस घटनाचक्र की शुरुआत हुई, उसका पटाक्षेप शायद इस साल 24 अगस्त को चैकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में हुआ। उस तलाश के इतिहास की एक झलक दी जा रही है इस लेख में।
वीं सदी खत्म होने को थी और हमारी ग्रहों की सूची में पृथ्वी को जोड़कर छह ग्रह मौजूद थे। 13 मार्च, 1781 को विलियम हर्शेल द्वारा उस समय मौजूद सब से विशाल दूरबीन का प्रयोग करते हुए, यूरेनस को संयोगवश खोज निकाला। वह घटना अठारहवीं शताब्दी के खगोल शास्त्र का सर्वाधिक उत्तेजक क्षण था क्योंकि तब तक दर्ज इतिहास में किसी ने ग्रह की खोज नहीं की थी। पांच ग्रह - बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि नंगी आंखों से आसानी से दिखते थे और प्रत्येक छोटी-से-छोटी प्राचीन सभ्यता उनको जानती-पहचानती थी।
एक बार खोज लिए जाने के बाद, यूरेनस की कक्षा की गणना करना आसान था; पर अफसोस, सौर मंडल में सब कुछ व्यवस्थित नहीं था, यूरेनस उच्छृंखल व्यवहार कर रहा था। नया ग्रह अंतरिक्ष में उस तरह नहीं चल रहा था जैसा खगोल शास्त्रियों ने न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियमों के आधार पर गणना की थी। इसने कुछ लोगों को न्यूटन के नियमों की सर्वव्यापी वैधता पर संदेह करने को प्रोत्साहित किया जबकि दूसरों ने सुझाव दिया कि यूरेनस के आगे गुरुत्वीय खींच-तान (gravitational perturbation) पैदा करने वाला कोई ग्रह हो सकता है।
अठारहवीं शताब्दी के अंत में फ्रांसीसी गणितज्ञ पियरे साइमन द लाप्लास द्वारा खोजी गई perturbation theory नेे अज्ञात वस्तुओं से पैदा सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण प्रभावों कोे विश्लेषित करने का औज़ार मुहैया करवा दिया था। इसके सहारे पूरे यूरोप के खगोल शास्त्री जुट गए यूरेनस के रहस्य को सुलझाने में। आखिरकार सन् 1845 में एक युवा गणितज्ञ जॉन काउच एडेम्स ने आठवें ग्रह की स्थिति की भविष्यवाणी की, लेकिन सब बेकार, क्योंकि इंग्लैंड में कोई उसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं था। इसी समय फ्रांस के ज्यों जोसेफ लेवेरियर ने भी स्वतंत्र रूप से गणनाएं करके यही पूर्वानुमान लगाया और बर्लिन वेधशाला को जानकारी दी। वेधशाला ने अनुमानित स्थान के एक डिग्री के भीतर, नए ग्रह को खोज निकाला, जिसे बाद में नेपच्यून नाम दिया गया।
नेपच्यून की खोज के बाद भी यूरेनस की कक्षा और गुरुत्वाकर्षण के नियमों के आधार पर निकाले गए उसके पथ में पाया जाने वाला अंतर संपूर्णत: दूर नहीं हुआ। यही नहीं, नेपच्यून के पथ में भी थोड़ा सा भटकाव नज़र आ रहा था। इन सब की वजह से यह कयास लगाए जाने लगे थे कि शायद नेपच्यून के बाद भी कोई ग्रह मौजूद है।
पर्सिवल लॉवेल और अज्ञात ग्रह
अमीर बोस्टोनियाई परिवार में जन्मे, पर्सिवल लॉवेल की शु डिग्री से ही गणित और खगोल शास्त्र में दिलचस्पी थी। अपने कैरियर के पहले सत्रह साल व्यापार तथा कोरिया में विदेश सचिव के तौर पर अमेरिकन कूटनीतिक मिशन में सेवा करने में खर्च करने के बाद लॉवेल ने एरिज़ोना में एक कामचलाऊ वेधशाला बना दी। शुरू में कई साल मंगल पर जीवन के लक्षण खोजने में बिताने के बाद लॉवेल ने अज्ञात ग्रह को ढूंढने के प्रयास शु डिग्री किए। खोजे जा रहे इस नवें ग्रह को उसने ‘एक्स-ग्रह’ का नाम दिया क्योंकि गणितीय परंपरा में अज्ञात को ‘एक्स’ प्रतीक से दर्शाते हैं।
इस खोज के लिए लॉवेल ने जो नया व नायाब तरीका अपनाया वह कुछ इस तरह से था - रात में आसमान के एक हिस्से का फोटोग्राफ लेना और कुछ दिनों (या सालों) बाद दोबारा उसी हिस्से का फोटो लेना, और फिर इन दोनों फोटोग्राफ की तुलना करना। इस तरह के दो बार खींचे गए चार-चार सौ फोटोग्राफ की थका देने वाली जांच के बाद अनेक तेज़-मद्धे होने वाले तारों, धूमकेतुओं और क्षुद्र ग्रहों की खोज हुई, पर कोई नया ग्रह नहीं मिला।
लॉवेल का तरीका तो बढ़िया था लेकिन फोटोग्राफ में दिखने वाले ढेर सारे चमकीले बिन्दुओं में से कौन-सा बिन्दु चलायमान है या अपनी जगह बदल रहा है यह पता करना उतना आसान भी न था। सौभाग्य से लॉवेल को ब्लिंक कंपेरेटर नामक प्रकाशीय उपकरण मिल गया। इस उपकरण में आंख की, गति या परिवर्तन को पहचानने की क्षमता का उपयोग किया गया था। दो फोटोग्राफों को सटीक तरीके से अगल-बगल में रखा जाता था और दोनों छवियों को तेज़ी से जल्दी-जल्दी बारी-बारी फ्लैश किया जाता था। स्थिर तारों की पृष्ठभूमि में, ऐसे किसी भी बिन्दु का फौरन पता चल जाता था, जिसकी चमक किसी भी फोटो में बढ़ती या घटती थी, या वह जगह बदलता था। इस प्रकार कुछ दिनों के अंतराल पर खींची फोटो-प्लेटों में, तेज़ी से चलने वाली चीज़ें जैसे क्षुद्रग्रह और धूमकेतु अलग दिखाई पड़ जाते हैं, क्योंकि वे दोनों स्थितियों के बीच आगे-पीछे कूदते नज़र आते हैं, जबकि अन्य स्थिर तारे अचल बने रहते हैं। तीन साल तक खोज जारी रही लेकिन अज्ञात ग्रह के दीदार नहीं हुए।
1916 में लॉवेल का निधन हो गया। उसने अपनी वसीयत में, वेधशाला में काम आगे भी चलता रहे इसलिए स्थाई वित्तीय व्यवस्था कर दी थी। अगले बारह साल वसीयत संबंधी मुकदमे-बाज़ी में गुज़र गए। सन् 1929 में एक बार फिर खोज का काम आगे बढ़ा। इस बार क्लायड टॉमबाग (1906-1997) ने ज़िम्मेवारी सम्हाली।
दोबारा खोज की शुरुआत
बचपन से ही टॉमबाग विज्ञान की ओर आकर्षित था। पिता और चाचा ने उसका परिचय रात के आसमान से करवाया था। टॉमबाग ने किशोरावस्था में अपने लिए एक दूरबीन बनाकर आकाश-दर्शन शु डिग्री किया था। 1929 में आए एक भयंकर तूफान ने कैन्सास में उसके पिता का फार्म नष्ट कर दिया। अब टॉमबाग को रोज़गार की सख्त ज़रूरत थी, और सौभाग्य से उसे लॉवेल वेधशाला में काम मिल गया।
टॉमबाग ने नवें ग्रह की खोज के काम को नए सिरे से व्यवस्थित किया। उसने 13 इंच के नए एफ/5 फोटोग्राफिक कैमरे से दो की बजाय तीन सेट फोटो लेना शु डिग्री किया। ये फोटो कुछ दिन के अंतराल पर लिए जाते थे। मिथुन राशि के इलाके से तलाश की शुरुआत की गई। कई हफ्ते और महीने बीत गए लेकिन अज्ञात ग्रह का कोई पता नहीं चल पा रहा था। इस तरह 1930 की जनवरी में एक के बाद दूसरी राशि से होती हुई, एक राशि-चक्र पूरा कर, जांच-पड़ताल वापस मिथुन राशि की ओर आ रही थी। 21 जनवरी को टॉमबाग ने डेल्टा जैमिनोरम पर केन्द्रित एक क्षेत्र के फोटो लिए। दो दिन बाद उसी क्षेत्र का दोबारा फोटो लिया गया और फिर तीसरी बार 29 जनवरी को।
18 फरवरी की शाम, दिन भर की थकावट से चूर, टॉमबाग 23 और 29 जनवरी को खींची एक जोड़ी फोटो प्लेट की जांच कर रहे थे। उन्होंने सत्रहवें तारा दीप्ति (मैग्नीट्यूड) का एक प्रकाश-बिन्दु एक प्लेट से दूसरी प्लेट में कूदतेे देखा जैसा कि किसी परा-नेपच्यून ग्रह को करना चाहिए। एक अत्यन्त कठिन काम का यह एक सुखद अंत था। नए ग्रह की खोज की आधिकारिक घोषणा को 13 मार्च तक मुल्तवी कर दिया गया क्योंकि उस दिन लॉवेल का जन्म दिन था। इत्तेफाक से 13 मार्च को ही 149 वर्ष पहले यूरेनस की खोज हुई थी।
प्लूटो का नवें ग्रह के तौर पर आधिकारिक नामकरण और वर्गीकरण अंतर्राष्ट्रीय खगोल शास्त्रीय यूनियन द्वारा 1930 में किया गया। इसका नाम पाताल के रोमन देवता हेड्स पर आधारित था। ऐसा माना जाता है कि इस तरह अपरोक्ष रूप से पर्सिवल लॉवेल (Perciwel Lowel) नवें ग्रह के खगोलीय संकेत- घ्ख्र् तय होने से अमर हो गए।
आम ग्रहों से हटकर
प्लूटो एक ग्रहीय अजूबे जैसा था; एक विचित्र दुनिया जो खोज के समय से ही वैज्ञानिकों को चक्कर में डाले थी। खोज के पहले से ही लोगों को उम्मीद थी कि प्लूटो पृथ्वी के मुकाबले काफी बड़ा होगा, जैसे यूरेनस-नेपच्यून। लेकिन ऐसा नहीं निकला, यह विशाल गैस पिंड नहीं है। यह एक छोटी दुनिया है, धरती से बहुत छोटी, हमारे चांद से भी छोटी। यह संभवत: चट्टानों और बर्फ के मिश्रण से बना है। प्लूटो की सूर्य से औसत दूरी लगभग छह अरब किलोमीटर है (लगभग 39.5 खगोलीय इकाई यानी पृथ्वी से सूर्य की दूरी का 39.5 गुना) और सूर्य के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में प्लूटो को 248 साल लगते हैं। प्लूटो अपने परिक्रमा पथ में घूमते हुए जिस समय सूर्य के पास यानी पैरीहिलियन स्थिति में आता है तो नेपच्यून की कक्षा को काटते हुए भीतर चला आता है। इस दौरान लगभग बीस साल तक प्लूटो सूर्य से सबसे दूरस्थ ग्रह का दर्जा खो देता था। ऐसा मज़ेदार वाक्या सन् 1979 से 1999 तक चला।
अब तक जो जानकारियां हासिल हो पाई हैं उनके अनुसार प्लूटो का व्यास लगभग 2300 किलो मीटर है। जैसे पृथ्वी की धुरी 23 अंश झुकी है, प्लूटो की धुरी 122 अंश झुकी हुई है। प्लूटो पर गुरुत्वाकर्षण, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का लगभग 7 से 8 प्रतिशत है। अंतरिक्ष में स्थित हबल दूरबीन से भी, प्लूटो की दूरी के कारण उसकी सतह की विशेषताएं नहीं दिख पातीं।
अवलोकन प्राप्त करने की कठिनाई के बावजूद प्लुटो के बारे में हमारा नज़रिया पिछले कुछ वर्षों में काफी बदला है। जब हमने गौर से देखा, तो जितना हम समझते थे प्लूटो को उससे और छोटा व चमकदार पाया। लगता है, इसकी सतह पर जमी मीथेन की एक चमकदार पर्त है, और ग्रह के सूर्य से दूर जाने पर प्लूटो का महीन वातावरण शायद जम कर सतह पर गिर जाता है। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक, पुराने फोटोग्राफों को पुन: देखने पर पता चला कि प्लूटो अकेला नहीं है; इसका एक चंद्रमा है जिसकी खोज 1978 में हुई। प्लूटो का चंद्रमा चेरॉन तुलनात्मक रूप से बडा, लगभग 1200 से 1500 किलोमीटर व्यास वाला है जिससे कुछ खगोलविद इन्हें ‘दोहरे ग्रह’ भी कहते थे। चेरॉन की सतह की संरचना प्लूटो से अलग है; संभवत: यह मीथेन-बर्फ की बजाय जल-बर्फ से ढका है। इसकी कक्षा गुरुत्वाकर्षण रूप से प्लूटोे के साथ बंधी है, अत: दोनों का वही अर्धगोलाकार हिस्सा सदैव एक दूसरे के सामने रहता है। प्लूटो और चेरॉन का अपनी धुरी पर घूमने का समय और चेरॉन का प्लूटो के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने में लगने वाला समय, सभी धरती के लगभग 6.4 दिनों के बराबर हैं।
बाकी आठ ग्रह, क्षुद्रग्रह, यहां तक कि कुछ धूमकेतु भी सूर्य के चारों ओर लगभग उसी तल में पाए जाते हैं जिसमें पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है (इक्लिप्टिक)। लेकिन प्लूटो की कक्षा अधिकतर धूम-केतुओं की तरह अत्याधिक झुकी हुई है। इक्लिप्टिक की तुलना में प्लूटो का परिक्रमा कक्ष लगभग 17 डिग्री झुका हुआ है।
इन विभिन्न कारणों से पिछले दसेक सालों में कई खगोलविदों की राय बन रही थी कि प्लूटो का वर्गीकरण शुरुआत से ही अनुचित रूप से किया गया है। उनका कहना था कि यह ग्रह नहीं है; बल्कि क्यूपर पट्टी का पिंड है (नेपच्यून के आगे धूमकेतुओं जैसी वस्तुओं के झुंड का सदस्य)। हालांकि 1999 में अंतर्राष्ट्रीय खगोल विज्ञान यूनियन ने प्लूटो का ग्रह होने का दर्जा बरकरार रखा था, लेकिन नेपच्यून पार के एक के बाद एक खोजे गए बहुत सारे पिंडों ने एक बार फिर चुनौती पेश की, जिसकी वजह से 24 अगस्त 2006 को अंतर्राष्ट्रीय खगोल विज्ञान यूनियन की प्राग में हुई बैठक में प्लूटो ग्रह का दर्जा खो बैठा और एक वामन ग्रह बन गया है।
टी.वी.वैंकटेश्वरन: विज्ञान लेखन में रुचि। विज्ञान प्रसार में प्रधान वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं।
अंग्रेज़ी से अनुवाद: के.बी.सिंह: अनुवाद, लेखन एवं संपादन के क्षेत्र में कार्यरत। लखनऊ में निवास।