जूपाका सुभद्रा
चित्र- सौम्या अनन्तकृष्णा
“कल झण्डा फहराने का दिन है। क्या तुमने हर चीज़ तैयार कर ली है?” श्रीलता ने अपना बस्ता एक कन्धे से दूसरे कन्धे पर रखते हुए अपनी दोस्त सुवर्णा से पूछा।
“हर चीज़ से तुम्हारा क्या मतलब है?” सुवर्णा ने अपने पैर से धूल का बादल उड़ाते हुए पलटकर पूछा।
“अरे, जैसे स्कूल ड्रेस, रिबन इत्यादि... क्या तुम्हारी सब चीज़ें तैयार हैं?” श्रीलता ने खुद भी धूल उड़ाते हुए अपनी बात को स्पष्ट किया।
“हाँ, मेरे पास नई स्कूल ड्रेस है, और नए रिबन भी हैं। तुम अपनी कहो,” सुवर्णा बोली।
“अब्बा! मेरे पास तो नई पोशाक नहीं है, बस पुरानी वाली ही है। मुझे उसे कड़क करना है। उसे दो या तीन बार साबुन से धोकर, नील में खंगालकर और फिर उस पर कलफ चढ़ाकर इस्त्री कर दूँगी, तो वह भी नई जैसी चमकने लगेगी,” इतराते हुए श्रीलता ने कहा। “पर तुमने नए कपड़े कब सिलवाए?”
“जब स्कूल फिर से खुला था तब अय्या ने तीन पोशाकें सिलवा दी थीं। मैंने केवल एक का इस्तेमाल किया और बाकी दो अलग रख दीं,” सुवर्णा ने खुश होते हुए कहा।
“मेरी माँ ने मुझसे कहा है कि वे कपास की फसल तोड़ने के बाद मुझे नई पोशाक दिला देंगी। तब तक मुझे यही कपड़े पहनने पड़ेंगे,” उदास होते हुए श्रीलता बोली।
श्रीलता और सुवर्णा पहली कक्षा से एक ही स्कूल में पढ़ी थीं। वे दोनों एक ही गाँव की थीं। प्राथमिक स्कूल के बाद आगे पढ़ने के लिए श्रीलता के माता-पिता उसे पड़ोस के गाँव के हाईस्कूल में नहीं भेजना चाहते थे। श्रीलता के माता-पिता ही क्यों, गाँव के किसी भी परिवार ने लड़कियों को गाँव के बाहर स्थित किसी स्कूल में पढ़ने के लिए कभी नहीं भेजा था। वे लोग गाँव के स्कूल में लड़कियों को जाने देते थे क्योंकि लड़कियाँ बिना ज़्यादा कठिनाई के स्कूल जाने के साथ-साथ घर की देखभाल कर सकती थीं।
“अपनी बकरियों और मुर्गियों को छोड़कर, बर्तन-भाण्डों को छोड़कर, पुरुष की तरह हासिल किए जाने वाले ज्ञान का क्या फायदा?” श्रीलता के माता-पिता ने सोचा, “वैसे भी, उसे तो उस व्यक्ति के साथ चले ही जाना पड़ेगा जिसके साथ हम उसकी शादी तय करेंगे।” वह आगे पढ़ने को बहुत उत्सुक थी, परन्तु वह अपने माता-पिता के निर्णय का विरोध न कर सकी।
यह जानकर कि श्रीलता ने स्कूल आना बन्द कर दिया था, शिक्षक उसके घर आए थे। “आपकी बेटी बहुत बुद्धिमान है। इतनी अच्छी विद्यार्थी को चौके-चूल्हे से बान्धकर उसकी ज़िन्दगी बर्बाद मत कीजिए,” यह समझाते हुए उन्होंने उसके पिता को मनाने की बहुत कोशिश की थी।
इतना ही नहीं, सुवर्णा के पिता, सम्बन्ना बुनकर अपनी बेटी के लिए एक साथी की तलाश में लगे हुए थे। उन्हें उम्मीद थी कि दोनों लड़कियाँ साथ मिलकर स्कूल जाएँगी। सम्बन्ना ने श्रीलता के पिता पोशालू को अपने पास बैठाया और समझाया, “पोशन्ना, आखिरकार चेन्नापुरम स्कूल हमारे गाँव से है ही कितना दूर? वहाँ कोई चिल्लाता है तो हमें सुनाई दे जाता है। ज़मीन पर थूको तो जितनी देर में वह सूखता है उसके पहले हम वहाँ से लौटकर आ सकते हैं। मेरी बेटी सुवर्णा भी वहाँ जाएगी। वे दोनों लड़कियाँ हैं; वे अपने घर का काम सुबह कर लिया करेंगी और शाम होते-होते वापस हमारी आँखों के सामने होंगी।”
“मैं भी उसे भेजना चाहता हूँ, पर मुझे डर है कि यह सुरक्षित नहीं होगा,” पोशन्ना ने कहा।
“समय बदल गया है। जब दुनिया एक तरफ जा रही है, तो हम उलटी ओर जाने पर ज़ोर क्यों दें! क्या तुम जीने के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने हाथ मैले करते रहोगे और बैलों को कोंचते रहोगे? इस सबको पीछे छोड़ो और अपनी बेटी को स्कूल भेजो,” सम्बन्ना ने पोशन्ना से कहा।
पोशन्ना ने बहुत सोचा। मज़दूरी करती अपनी बेटी का उदास चेहरा देखने की बजाय उसे हँसते-खेलते, मुस्कुराते हुए अपने बस्ते के साथ स्कूल जाते देखना उन्हें ज़्यादा पसन्द होगा। “वाकई, यदि हमारी बेटियाँ ज्ञान हासिल करेंगी, तो हम गर्व से अपनी मूँछों को ताव दे सकेंगे। किसी-न-किसी तरह मैं अपनी श्रीलता को पढ़ने के लिए चेन्नापुरम ज़रूर भेजूँगा,” उसने सम्बन्ना को आश्वस्त किया। तब से श्रीलता और सुवर्णा एक साथ स्कूल जाने और लौटने लगीं। वे अच्छी सहेलियाँ बन गईं।
सुवर्णा के पिता नए कपड़े के गट्ठरों को अपनी मोटरसाइकिल पर रखकर गाँव-गाँव बेचने जाते थे। उसकी माँ उनके खेतों में जुताई करती थी। दूसरी ओर, श्रीलता के परिवार के पास केवल आधा एकड़ असिंचित ज़मीन थी। उसमें बोए गए बीजों से थोड़ी-सी ही फसल मिलती थी। उसके माता-पिता गुज़ारा चलाने के लिए रोजनदारी की मज़दूरी करते थे। श्रीलता, सुवर्णा की तुलना में ज़्यादा अच्छे से पढ़ाई करती थी। वह ध्यानपूर्वक नोट्स बनाती थी। वह नियमित रूप से स्कूल जाती थी और शिद्दत से अपना गृहकार्य कर लेती थी। शिक्षक उसकी खूब तारीफ करते थे। कभी-कभार, यदि श्रीलता घर में काम होने की वजह से स्कूल नहीं जा पाती तो सुवर्णा भी घर पर ही रुक जाती थी; अपनी दोस्त के बगैर स्कूल में उसका मन नहीं लगता था। ठीक यही हाल श्रीलता का भी था। जब उनकी लड़ाई होती तो वे एक-दूसरे से बात करना बन्द कर देतीं पर जल्दी ही रास्ते में पुन: सुलह करके गप्पे मारने लगतीं। वे मिलकर खूब मज़ा करतीं, और हँसते-खेलते, खुशी-खुशी गाँव वापस लौटतीं। वे अपने-अपने घर से लाए हुए खाने को एक-दूसरे के साथ बाँटकर खातीं। वे मोतियों, चेनों, चूड़ियों व बिन्दियों की अदला-बदली करके मज़ा लेतीं। पर यह सब केवल स्कूल में या फिर रास्ते में ही होता था। गाँव में तो वे चुपचाप अपने-अपने रास्ते चली जातीं, मानो लहसुन की अलग-अलग कलियाँ।
“तो तुम नई पोशाक नहीं पहनने वाली हो?” सुवर्णा ने फिर से पूछा।
“जब मेरे पास है ही नहीं तो मैं कैसे पहन सकती हूँ?” उतरे हुए चेहरे के साथ श्रीलता ने जवाब दिया।
“मेरे पास दो हैं, हैं न! एक तुम पहन लेना,” श्रीलता की तरफ स्नेह से देखते हुए सुवर्णा बोली।
“अम्मा! नहीं! यदि तुम्हारे लोगों को पता चल गया तो क्या वे कभी चुप रहेंगे?” श्रीलता ने चिन्तित होते हुए पूछा।
“उन्हें पता चले बिना मैं उसे ले आऊँगी,” सुवर्णा ने आत्मविश्वास से कहा।
“यदि तुम अपनी माँ के सामने मेरा हाथ भी पकड़ती हो, तो वे सौ त्यौरियाँ चढ़ाकर मुझे ऊपर से नीचे तक देखती हैं,” श्रीलता बोली।
“आखिरकार, एक दिन की ही तो बात है! उसे वहाँ पहनना और यहाँ आकर उतारना। क्या हम मोती और चूड़ियों की अदला-बदली नहीं करते? यह भी वैसा ही है,” श्रीलता को राज़ी करने की कोशिश करते हुए सुवर्णा ने कहा।
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श्रीलता भी नई पोशाक पहनकर खुश होना चाहती थी। पर यदि किसी को भी पता चल गया तो मुस्कुराहटें गायब हो जाएँगी तथा व्यर्थ के झगड़े और लड़ाइयाँ होंगी। और यदि लड़ाइयाँ हुईं तो उसका एक ही परिणाम होगा “स्कूल जाना बन्द करो। मुसीबत क्यों मोल लेना?” हालाँकि उसे डर लग रहा था, फिर भी वह सुवर्णा की खातिर इस योजना के लिए राज़ी हो गई। इस बात पर उन्होंने एक-दूसरे को विदा किया और अपने-अपने घर को चल दीं।
अगली सुबह, सुवर्णा बस्ते में अपनी नई पोशाक रखकर ले आई और यह कहते हुए उसे श्रीलता के बस्ते में रख दिया, “कल तुम यह ज़रूर पहनना।” श्रीलता उस नई पोशाक को घर तो ले आई पर वह बहुत घबराई हुई थी। तब क्या होगा अगर उसके माता-पिता ने उस पोशाक को देख लिया और पूछा कि “तुम्हें किसी दूसरे की नई पोशाक की क्या ज़रूरत है?” तब उसका क्या जवाब होगा? पर जब उसके माता-पिता पन्द्रह अगस्त की सुबह काम के लिए जल्दी निकल गए तो वह खुश हुई कि अब उसे नई पोशाक पहनने से रोकने वाला कोई नहीं था।
श्रीलता और सुवर्णा नई पोशाकें पहनकर स्कूल चली गईं। झण्डा फहराने के समारोह के दौरान भी श्रीलता का पेट इस डर से गुड़गुड़ाया कि माँगी गई नई पोशाक की वजह से अन्तत: उसकी बेज़्ज़ती होगी। जब वे घर लौट रही थीं तो एक-दो लोगों ने पूछा भी, “तुम्हारे पिता के हाथ में एक फूटी कौड़ी भी नहीं होती, पर उसने तुम्हें अच्छी पोशाक सिलवा दी है, है कि नहीं पोल्ला?”
चॉकलेट और बिस्किट खाते हुए वापस लौटती सुवर्णा ने श्रीलता से कहा, “इस पोशाक को धोना मत। वापस पहुँचते ही तुम इसे उतारकर कागज़ में लपेट लेना और कल ले आना।”
“मैं इसे धोऊँ नहीं?” आश्चर्यचकित होते हुए श्रीलता ने पूछा।
“यदि तुम इसे धोओगी तो तुम्हारे घर वाले पूछेंगे कि यह नई पोशाक कहाँ से आई। हमारा रहस्य सबके सामने उजागर हो जाएगा।” अपने घर की ओर भागती सुवर्णा ने कहा।
अगले दिन सुवर्णा श्रीलता द्वारा कागज़ के पैकेट में लौटाई गई पोशाक को अपनी किताबों में छुपाकर घर पहुँची। उसकी माँ ने उसे देखते ही पूछा, “तो तुम आ गईं, मेरी बच्ची? भैंस का बछड़ा खूँटे से छूट गया है और यहाँ-वहाँ भाग रहा है। जाकर उसे पकड़ लाओ।”
उसने सुवर्णा के कन्धे से किताबों वाला बस्ता ले लिया। “वह बछड़ा बड़ा उपद्रवी है; कभी घर पर नहीं टिकता! कोई रस्सी इतनी मज़बूत नहीं कि उसे बान्धकर रख सके,” लकड़ी के खूँटे पर बस्ते को टाँगते हुए सुवर्णा की माँ ने सोचा।
इस बीच, ताड़ी उतारने वाली भूमक्का आ पहुँची। “कोवुरक्का, क्या तुम्हारी बेटी लौट आई है?” उसने पूछा।
“वह बस आई ही थी कि उसे बछड़े को पकड़ने जाना पड़ा। तुम्हें उससे क्या काम है बहन?”
“मुझे उससे एक पेन चाहिए।”
“पर तुम्हें पेन किसलिए चाहिए?”
“मेरा बेटा बुच्चीरेड्डी के बेटे का पता लिखना चाहता है...।” भूमक्का ने जवाब दिया।
सुवर्णा की माँ घर के अन्दर गई और उसके स्कूल के बस्ते में अपना हाथ डाला। जब उसे पेन नहीं मिला तो उसने किताबों और कपड़ों के पैकेट को अलग रखा, पेन निकाला और उसे भूमक्का को दे दिया। फिर, जब वह बस्ते में किताबें वापस रखने लगी, तो उसे फटे हुए कागज़ के पैकेट में से कपड़े दिखे। उसे मैला-कुचैला सफेद ब्लाउज़ और नीली स्कर्ट दिखाई दिए। “इस लड़की ने गन्दे कपड़े अपने बस्ते में क्यों रखे हुए हैं?” उसने सोचा। “जब वह वापस आएगी तो मैं उससे पूछूँगी।” कपड़ों को अलग रखते हुए उसने सोचा।
सुवर्णा बछड़े को वापस ले आई। उसे जानवर को बाँधने की रस्सी थमाते हुए उसकी माँ ने पूछा, “बिड्डा, तुम्हारे बस्ते में रखे हुए कपड़े कहाँ से आए?” अचानक पूछे गए इस प्रश्न से सुवर्णा हड़बड़ा गई। उसे यह अन्दाज़ा ही नहीं था कि उसकी माँ कपड़े देख लेगी और उनके बारे में उससे पूछेगी। उसे समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे। वह इतनी स्तब्ध रह गई कि उससे झूठ बोलते भी नहीं बना तथा झिझकते हुए, डरते हुए उसने अपनी माँ को सब सच बता दिया।
“अरे नालायक लड़की, तुम्हारी क्या समस्या है? पहले तो तुमने उस मडिगा लड़की को कपड़े दिए ही क्यों? और फिर तुम उन्हें वापस भी ले आईं!! उससे वापस लेने के बाद तुमने इन कपड़ों को अपनी किताबों के बीच क्यों रखा?” तेज़ी से घर में घुसते हुए उसकी माँ चिल्लाई। उसने कपड़ों के पैकेट को उठाया और गुस्से में उसे आँगन में फेंक दिया।
“मैंने उसे कपड़े दिए क्योंकि वह मेरी दोस्त है। क्या हुआ अगर मैंने ऐसा किया तो?” सुवर्णा ने धीरे से कहा।
“दोस्त! दोस्ती सिर्फ स्कूल में है, अपने गाँव में नहीं! तुमने नए कपड़ों को बर्बाद कर दिया है। उन्हें जला दो! तुम उन्हें वापस ही क्यों लाईं? उस लड़की के इस पोशाक को पहनने के बाद तुम इसे कैसे पहन सकती हो? यदि तुम्हें इसकी समझ नहीं थी तो कम-से-कम उस कमबख्त को तो यह पता होना चाहिए था। उसकी इतनी हिम्मत कैसे हुई कि वह अपने पहने हुए कपड़े तुम्हारे हाथों उठवाए!” क्रोध में अन्धी होकर अपनी बेटी को मारती हुई वह बकती रही।
“उसकी पढ़ाई पर पत्थर पड़ें! उसने चार अक्षर क्या सीख लिए, वह तो ऊँच-नीच का भेद ही भूल गई। क्या घमण्ड से उसका दिमाग फिर गया है? क्या उसके माँ-बाप ने उसे हमारे बीच का फर्क नहीं समझाया है? और तुम चुपचाप क्यों खड़ी हो? इस पर मिट्टी का तेल डालो और आग लगा दो!” उसने अपनी लड़की को एक तरफ हटाया और पानी के टब में अपने हाथ धोकर साफ किए। सुवर्णा फटे हुए पैकेट में से नीचे गिरे कपड़ों को देखते हुए रोती हुई खड़ी रही।
“बेचारी श्रीलता, जिसका उसे डर था, ठीक वही हुआ। मुझे माँ को बस्ता देकर इस जानवर के पीछे भागना पड़ा, नहीं तो मैंने सावधानी से कपड़ों को छुपा दिया होता। रहस्य उजागर हो चुका है। इस बछड़े का सत्यानाश हो!” सुवर्णा ने सोचा। माँ से पड़ी मार से ज़्यादा सुवर्णा अपनी अन्तरंग मित्र को बुरा-भला कहे जाने से व्यथित थी। बाड़े से टिककर वह बेतहाशा सिसकती रही।
“क्या तुम्हें सुनाई नहीं देता, लड़की? मैंने तुमसे उन कपड़ों पर मिट्टी का तेल डालकर उन्हें जलाने को कहा था, और तुम वहाँ ढीठतापूर्वक खड़ी हो!” स्टोव से मिट्टी का तेल लाते हुए उसकी माँ चिल्लाई। उसने मिट्टी का तेल कपड़ों पर उड़ेला और उनमें आग लगाने लगी। आँसुओं से सराबोर सुवर्णा के भीतर अचानक एक आवेग उठा और उसके हाथ-पाँव हरकत में आ गए। उसने कपड़े छीने और अपनी माँ की परवाह किए बगैर श्रीलता के घर की तरफ दौड़ पड़ी। अपनी बेटी के पीछे भागने में असमर्थ सुवर्णा की माँ स्तब्ध होकर जड़ खड़ी रह गई।
जूपाका सुभद्रा: तेलगु साहित्य का परिचित नाम। अनेकों कविताएँ, कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके लेखन में ग्रामीण तेलंगाना की समस्याओं की झलक मिलती है।
तेलगु से अँग्रेज़ी में अनुवाद - आर. श्रीवात्सन।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: पत्रकारिता का अध्ययन। स्वतंत्र लेखन और द्विभाषिक अनुवाद करते हैं। होशंगाबाद में निवास।
सभी फोटो: सौम्या अनन्तकृष्णा: बड़ौदा से पेंटिंग में स्नातकोत्तर। दिल्ली में रहकर पेंटिंग करती हैं। एमिटी कॉलेज में आर्ट पढ़ाती हैं।
यह कहानी ‘अनटोल्ड स्कूल स्टोरीज़’ किताब से ली गई है। अन्वेशी रिसर्च सेंटर फॉर विमन्स स्टडीज़ द्वारा ‘डिफरेंट टेल्स: स्टोरीज़ फ्रॉम मार्जिनल कल्चर्स एंड रीजनल लैंग्वेजेज़’ के तहत विकसित। ‘डिफरेंट टेल्स’ सीरीज़ के तहत अन्वेशी रिसर्च सेंटर ने आठ किताबें तैयार की हैं। सीरीज़ सम्पादक - दीपा श्रीनिवास। प्रकाशक - मैंगो, डी.सी. बुक्स, केरल। मूल्य: 80 रुपए।
इस शृंखला में प्रकाशित आठों किताबें एकलव्य के भोपाल स्थित पिटारा में उपलब्ध हैं।