हेमलता जेम्स हाट पीपल्या स्थित शासकीय कन्या माध्यमिक स्कूल की प्राचार्य हैं। वे इस स्कूल को क्षेत्र के सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में से एक बनाने के लिए किए गए अपने प्रयासों के लिए जानी जाती हैं। उनके प्राचार्य बनने के बाद से स्कूल में लड़कियों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है। स्कूल में बुनियादी सुविधाओं का भी विकास हुआ है। उन्होंने एक कम्प्यूटर केन्द्र भी बनवाया है। उनके साथ यह बातचीत की है रिनचिन और महीन ने।
अपने समय और आज के समय के बीच आप क्या अन्तर देखती हैं?
एक तो यह कि आज के समय में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या कहीं ज़्यादा है। दूसरे, अब लड़कियों के लिए, और लड़कों के लिए भी, ज़्यादा सुविधाएँ उपलब्ध हैं। किताबें, पोशाकें, दोपहर का भोजन आदि, बच्चों को अब ये सब चीज़ें दी जाती हैं।
अब सरकारी स्कूलों में कम्प्यूटर भी होते हैं। अपर्याप्त आमदनी वाले लोग निजी कम्प्यूटर पाठ्यक्रमों का खर्च वहन नहीं कर सकते। पर अब हमारे पास स्कूल में कम्प्यूटर होने से लड़कियाँ यहाँ वही चीज़ें सीख सकती हैं।
इसके अलावा, आज के समय में शिक्षा के लिए, और लड़कियों की शिक्षा के लिए भी, काफी प्रोत्साहन दिया जाता है। माता-पिता को यह एहसास है कि उन्हें अपनी बच्चियों को स्कूल भेजना है। पहले अभिभावकों की मानसिकता अलग थी। पढ़ाई की तरफ इतना रुझान नहीं था। उनका मानना था कि लड़की को तो सिर्फ रसोई सम्भालना है, इसलिए उसको पढ़ाकर क्या फायदा। पर अब यह सोच बदल रही है।
आपके विचार से माता-पिता आज भी लड़कियों को स्कूल भेजने के प्रति अनिच्छुक क्यों होते हैं? और आपने इसमें सुधार लाने के क्या प्रयास किए हैं?
माता-पिता अपनी लड़कियों की सुरक्षा को लेकर चिन्तित रहते हैं। उन्हें इस बात का भी डर रहता है कि ज़्यादा शिक्षित होने पर लड़कियाँ कहीं भाग न जाएँ। यहाँ भी कुछ घटनाएँ हुई थीं जिनमें स्कूली छात्राओं को स्कूल से आते-जाते वक्त चौक पर लड़कों द्वारा छेड़ा गया था। मैं और स्कूल के मेरे साथी शिक्षक मिलकर वहाँ गए और उन लड़कों को घेरकर स्कूल ले आए। फिर उन लड़कों के अभिभावकों को स्कूल बुलाया गया तथा उन्हें समझाया गया कि इस तरह के बर्ताव का लड़कियों पर क्या असर हुआ, और उन्हें किस तरह की समस्याएँ झेलनी पड़ीं।
अब हम यह सुनिश्चित करते हैं कि लड़कियाँ सुरक्षित रहें। हमने इस तरह की एक व्यवस्था बना ली है जिसमें लड़कियाँ एक पंक्ति में स्कूल से निकलती हैं, और शिक्षक उनकी निगरानी करते हैं। सभी लड़कियाँ कस्बे के विभिन्न हिस्सों तक एक सीधी पंक्ति में चलते हुए जाती हैं। कस्बे के विभिन्न भागों में स्कूल के पुरुष शिक्षक अपने-अपने वाहनों के साथ खड़े रहते हैं ताकि घर वापस जाते हुए लड़कियों के साथ कोई दुर्व्यवहार न हो।
इन उपायों की वजह से अब लड़कियों से छेड़छाड़ बन्द हो गई है।
ऐसे क्या बदलाव हुए हैं कि अब अभिभावक अलग तरह से सोचने लगे हैं?
अभिभावकों को यह एहसास होने लगा है कि शिक्षित लड़कियाँ काफी आगे बढ़ रही हैं। वे विभिन्न व्यवसायों में जा रही हैं, उन्हें रोज़गार मिलता है, वे कुशलतापूर्वक काम करती हैं तथा उन्हें अच्छी-खासी आय भी होती है। अब पहले से कहीं ज़्यादा लड़कियाँ काम कर रही हैं। पहले महिलाओं के पास घर सम्भालने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता था। अब माता-पिता यह सोचने लगे हैं कि यदि हमारी लड़कियाँ पढ़-लिख जाती हैं तो उन्हें काम मिल सकता है तथा वे भी कुछ बन सकती हैं। वे शिक्षिका बन सकती हैं, नर्स बन सकती हैं, डॉक्टर भी बन सकती हैं, या फिर पुलिस में जा सकती हैं।
इस सरकारी स्कूल में हमें न सिर्फ अभिभावकों का आदर प्राप्त है बल्कि उन्हें हम पर भरोसा भी है। हमारे यहाँ कई महिलाएँ अध्यापन कार्य कर रही हैं और लोग यह भी जानते हैं कि यहाँ की प्राचार्य भी एक महिला है, जिससे उन्हें हम पर और भी भरोसा हो जाता है।
इस स्कूल में अब चार सौ से भी ज़्यादा लड़कियाँ हैं। आपको सुबह के समय स्कूल का वातावरण, उसका माहौल देखना चाहिए। वह बहुत जीवन्त और परिपूर्ण होता है क्योंकि सभी लड़कियाँ किसी-न-किसी गतिविधि में व्यस्त रहती हैं।
आप अपने काम के बारे में कुछ बताइए?
मेरा काम व्यस्तता से भरा है। अपने स्कूल और प्रशासन के अलावा मुझे पन्द्रह स्कूलों का निरीक्षण भी करना पड़ता है। हमारा स्कूल एक जन शिक्षा केन्द्र है और इसके अधीन 16 और स्कूल हैं, जिनकी गतिविधियाँ मेरे कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत आती हैं। मुझे अक्सर इन स्कूलों का दौरा करना पड़ता है और मैं अपनी बाइक से जाया करती हूँ। कभी-कभी मैं अपने शिक्षकों को भी पीछे बिठाकर अपने साथ ले जाती हूँ। मुझे स्कूल में कक्षाएँ नहीं लेना पड़ती हैं।
आप अपने परिवार और ज़िन्दगी के बारे में कुछ बताइए?
मैं 1950 में पैदा हुई थी, और जब मैं छ: साल की थी तो मैंने यहाँ मिशन स्कूल में दाखिला ले लिया था। हमारे घर में ऐसा भी एक समय था जब हमारे पास ज़्यादा कुछ नहीं था और हम काफी विपन्न परिस्थिति में थे। उस समय, हमारे ईसाई समाज में एक पुस्तिका प्रकाशित हुआ करती थी। इसमें उन्होंने आदर्श चरित्र व मूल्यों वाले बच्चों के नामों की एक सूची छापी। मेरा नाम उस सूची में था और मिस साहब, जो मेरी माँ को यहाँ लाई थीं, ने उसे देखा। उन्होंने मेरी माँ से कहा कि यदि आपकी लड़की पढ़ने में अच्छी है तो उसे इन्दौर जाकर पढ़ने दें और उसका खर्च हम उठाएँगे। इस तरह मुझे इन्दौर के मिशन स्कूल भेज दिया गया। हमारी कक्षा में पाँच लड़कियाँ थीं जिनमें से सिर्फ मैं ही अब भी यहाँ हूँ।
मेरे माता-पिता मुझे बहुत प्रोत्साहित करते थे। उन दिनों अपने बच्चों, खासकर लड़कियों को, इन्दौर पढ़ने भेजना बहुत बड़ी बात थी। उन्होंने इन्दौर की हमारी यात्रा का खर्च उठाया जो 50 पैसे था। उनके लिए इतना करना भी मुश्किल हो जाता था। वे हमें पूरे महीने के जेब खर्च के रूप में 25 पैसे अलग से देते थे।
मिशन स्कूल, इन्दौर से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं हाट पीपल्या वापस आ गई और जूनियर कॉलेज में दाखिल हो गई जो उसी समय खुला था। पूरी कक्षा में हम चार लड़कियाँ थीं।
इस दौरान मेरे ट्यूशन शुल्क और बाकी शैक्षिक खर्चों को मिस साहब ही वहन कर रही थीं। उन्होंने तो मेरी ज़रूरत के कपड़ों और किताबों तक के पैसे दिए थे। इसलिए मैंने अपने लिए उपलब्ध सर्वोत्तम विकल्प चुना। मैं मॉंण्टेसरी प्रशिक्षण में चली गई और शिक्षण के क्षेत्र में आ गई।
मॉंण्टेसरी प्रशिक्षण के लिए अपनी बहन के साथ जबलपुर गई और वहाँ मैंने काफी अच्छा प्रदर्शन किया। तभी शिक्षा विभाग में रिक्तियाँ घोषित की गईं। मैंने फॉर्म भर दिया और मेरा चयन भी हो गया। मेरी बड़ी बहन ने भी फॉर्म भरा था और वह भी चयनित हो गई। हमारी नियुक्तियाँ 12 कि.मी. दूर स्थित चपरा में हुईं। तब मेरी माँ ने सुझाव दिया कि हम दोनों यहाँ मिशन स्कूल में ही काम करें। पर मैंने मना कर दिया। मुझे लगा कि मैं यहाँ बन्ध कर रह जाऊँगी। मैं बाहर हॉस्टल में रही थी और मैंने काफी स्वतंत्र जीवन जिया था। मैं दूसरी जगहें भी देखना चाहती थी और बाहर जाने से डरती नहीं थी। खुद को एक स्थान पर सीमित क्यों किया जाए? घर की तरफ मेरा इतना ज़्यादा झुकाव भी नहीं था।
मेरी बहन मिशन स्कूल से जुड़ गई। उसका घर से जुड़ाव ज़्यादा था, अत: उसे राज़ी करना आसान था। उसकी नियुक्ति भी ज़्यादा दूर हुई थी। वह कैसे जाती? चलकर? उसके लिए वह बिलकुल नई जगह होती और नए लोग। मेरी माँ ने उसे नहीं जाने दिया।
मैंने तुरन्त ही चपरा जाकर अपना काम सम्भाल लिया। यातायात का कोई साधन न होने के कारण मैं अपनी साइकिल से चपरा तक गई। स्कूल सुबह 7:30 बजे शुरु होता था और मैं हमेशा समय पर पहुँच जाती थी। मैंने 1971 में वहाँ नौकरी की।
काम के दौरान आपको क्या दिक्कतें आईं या कुछ खास अनुभव?
चपरा में काफी भेदभाव चलता था। एक बार, लड़कियों को प्रोत्साहित करने व स्कूल में उनका दाखिला कराने के कार्यक्रम के हिस्से के तौर पर हम सात लोग किसी के घर गए। उन्होंने हमारे लिए चाय बनाई जो हमने पी ली। बाद में किसी ने उन्हें बताया होगा कि मैं दूसरे धर्म से हूँ। उन्होंने चाय के सारे प्यालों को अपने खेत पर भेज दिया क्योंकि उन्हें लगा कि वे अशुद्ध हो गए थे। तब उसी रात एक अजीब संयोग घटा। उनके परिवार में कोई बीमार पड़ गया और उसे मिशन अस्पताल लेकर आना पड़ा। मेरी नज़र उन पर पड़ी और मैंने तुरन्त उन्हें पहचानते हुए उनकी मदद की।
वहाँ उन्हें मेरे बारे में सब मालूम हुआ और अगले दिन स्कूल में उस महिला ने अपनी बच्ची को मुझे अपने घर बुलाने के लिए भेजा। उनके घर जाने पर वे मुझे अपनी रसोई में भी ले गईं और मुझे खाना खिलाया। उन्होंने अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी। पर इस तरह का भेदभाव काफी आम था।
वहाँ किसी बहुत ‘ऊँची जाति’ की एक अन्य महिला भी थीं। उनके घर के रसोई में किसी को भी जाने की अनुमति नहीं थी। वे मुझे अपने घर बुलाया करतीं, पर हमेशा यह हिदायत देती थीं कि यदि उनकी सास मुझसे कुछ पूछे तो मैं अपनी पहचान न बताऊँ। उन्होंने अपने घर के लोगों को यह बता रखा था कि मैं उनसे भी श्रेष्ठ गोत्र वाली ब्राह्मण हूँ। वे मुझे चुपचाप रहने और किसी भी सवाल का जवाब न देने को कहतीं। तो इस तरह वे मुझे अपने घर और किचिन तक ले जाया करतीं और फिर वहाँ मुझे खाना खिलाया करतीं। ऐसे विभिन्न तरीके हैं जिनके द्वारा लोग जाति के इन बन्धनों को तोड़ने की कोशिश करते हैं।
जब मैं इस स्कूल में आई तो यहाँ एक शिक्षिका थी। उसने सभी लोगों से मुझे यह बताने के लिए कह दिया था कि मैं गलियारे में रखे साझा मटके से पानी न लिया करूँ। मुझसे यह अपेक्षा थी कि मैं किसी और से पानी देने के लिए कहूँ ताकि मटके का पानी दूषित न हो जाए। मैंने यह बात मान ली।
फिर एक दिन जब सभी शिक्षक स्कूल से जा चुके थे और मैं भी बस जाने ही वाली थी, तो वह शिक्षिका चक्कर खाकर गिर पड़ी। मैंने मटके से पानी लिया और उसके चेहरे पर छिड़का। थोड़ा उसे पिलाया भी। फिर जल्दी से सड़क पर पहुँचकर एक वाहन को रोका और उसे अस्पताल ले गई।
बाद में जब उसे बेहतर महसूस हो रहा था, तो मैंने उससे पूछा, “अब तुम क्या करोगी?”
“क्यों?” उसने पूछा।
“क्योंकि मैंने तुम्हें पूरी तरह से अपवित्र कर दिया है। मैंने तुम्हारे मुँह में पानी डाला। पर क्या तुम्हें यह बेहतर लगता कि मैं तुम्हें मरता हुआ छोड़ देती?” उस दिन से उसने अपना परहेज़ छोड़ दिया। वह मेरे साथ खाना खाती और मुझे अपने घर बुलाकर अपनी किचिन में भी ले जाती।
इस तरह के आचरण के बारे में आपका क्या मानना है?
हम अपने सरकारी स्कूल में किसी भी तरह के भेदभाव के खिलाफ हैं। हम सभी बच्चों का स्वागत करते हैं और निर्धन तथा सम्पन्न, दोनों प्रकार के बच्चे यहाँ आते हैं। ज़रूरी यह नहीं है कि बच्चे कहाँ से आते हैं या उनकी पहचान क्या है। ज़रूरी यह है कि वे पढ़ाई में कैसा करते हैं और क्या परिणाम लाते हैं।
सरकार लड़कियों और गरीब बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए बहुत कुछ करती है। लड़कियों को साल में दो जोड़ी स्कूली पोशाकें दी जाती हैं और मुफ्त किताबें भी दी जाती हैं। इससे माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित होते हैं। हम लड़कियों द्वारा स्कूली पोशाक पहनने के प्रति बड़े सख्त हैं। इससे हमें सम्पन्न घर की लड़कियों और निर्धन लड़कियों के बीच के अन्तर को कम करने में मदद मिलती है। अन्यथा जो लोग कुछ खास तरह के कपड़े खरीद पाने में समर्थ नहीं होते, वे हमेशा उन लोगों को ताकते रहते हैं जो अच्छे कपड़े या गहने पहने रहते हैं।
क्या जातीय भेदभाव आज मौजूद है? यदि हाँ, तो इससे निपटने के लिए आप क्या करती हैं?
पर अब काफी बदलाव आ गया है, कम-से-कम स्कूल में। घरों में भले ही स्थिति अलग हो, पर स्कूल के अन्दर आप लड़कियों को एक-दूसरे के टिफिन में से खाना खाते हुए पाएँगे। स्कूल के बाहर जो भी होता है उस पर हमारा कोई बस नहीं है। पर स्कूल एक ऐसी जगह है जिसे हम इस तरह की कुरीतियों से बचाकर रख सकते हैं। इस तरह की चीज़ों से निपटने का ज़िम्मा शिक्षकों का होता है। उन्हें बच्चों को बहलाने वाली अपनी सारी कुशलताओं का इस्तेमाल करते हुए कम-से-कम स्कूल के अन्दर तो बच्चों के मन में अच्छे मूल्यों को बिठाने की कोशिश करनी चाहिए। पर हाँ, यह सच है कि कई स्कूलों में, खास तौर पर प्राथमिक स्कूलों में, बच्चों के साथ अब भी भेदभावपूर्ण बर्ताव होता है।
हमारे स्कूल में 11 शिक्षक हैं और हमने इस तरह के पूर्वाग्रहों को, अगर कोई थे तो, दूर कर दिया है तथा इस मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाया है। हमें पता है कि कई स्कूलों में ऐसे शिक्षक हैं जो उन बच्चों से पानी नहीं भरवाते जो दलित हैं। पर हम अपने स्कूल में इससे विपरीत करने की कोशिश करते हैं। इससे एक उदाहरण पेश होता है। शिक्षकों की हैसियत से नियम-कायदे बनाना हमारे ऊपर है और बच्चे उसी का पालन करते हैं। स्कूल में हम लोग यह सुनिश्चित करते हैं कि सभी लोग साथ में खाना खाएँ। यहाँ तक कि वे मज़दूर भी जो निर्माणाधीन स्थानों पर काम कर रहे होते हैं।
इस कस्बे में आप पहले की तुलना में क्या अन्तर देखती हैं?
अब यहाँ एक कॉलेज है और इस वजह से लड़कियों की ज़िन्दगी में बदलाव आया है। उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए कॉलेज में दाखिला लेना शु डिग्री कर दिया है। पहले लड़कियाँ आठवीं के बाद ही पढ़ना छोड़ दिया करती थीं। अब तो बगल के गाँव के परिवार भी अपनी लड़कियों को कॉलेज में पढ़ाने के लिए यहाँ भेजते हैं।
यहाँ से उत्तीर्ण होकर निकलने वाली लड़कियों का आगे क्या होता है? वे किस तरह की पढ़ाई या नौकरी करती हैं?
हाई स्कूल के बाद 50 प्रतिशत लड़कियों की शादी हो जाती है और बाकी 12वीं में आ जाती हैं। इसके बाद इनमें से लगभग 25 प्रतिशत लड़कियाँ कॉलेज में दाखिला लेती हैं। यदि लड़कियों को 12वीं के बाद किन्हीं तरह की नौकरियाँ मिल जाती हैं तो वे भी पढ़ाई छोड़ देती हैं।
पर वे किस तरह की नौकरियों में जाती हैं?
अधिकांश तो शिक्षिकाएँ बन जाती हैं और कुछ नर्स बन जाती हैं। हमने इसका कोई रिकॉर्ड तो नहीं रखा है, पर मैंने सुना है कि एक लड़की पुलिस में भी चली गई है। आजकल तो लड़कियाँ सेना में भी जा रही हैं। दो लड़कियाँ पुलिस की नौकरी के लिए साक्षात्कार तक पहुँच गई थीं, पर वे सफल न हो सकीं। उनमें से एक शादीशुदा है। वह अब भी कॉलेज जा रही है।
कस्बे में दो जूनियर कॉलेज भी हैं जिनकी वजह से और ज़्यादा लड़कियाँ दाखिला ले पा रही हैं। हालाँकि अब भी कॉलेजों में लड़कियों का अनुपात सिर्फ एक-चौथाई के आस-पास है, पर फिर भी स्थिति में सुधार हुआ है। 1969 में जब मैं कॉलेज में गई थी, तब से अब तक में काफी कुछ बदल चुका है। पर कई चीज़ें वैसी की वैसी हैं। आज भी लड़कियों के लिए सबसे आम विकल्प शिक्षिका बन जाना है। या कुछ लड़कियाँ नर्स बनने की कोशिश कर सकती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस तरह की पढ़ाई ज़्यादा खर्चीली नहीं होती और लड़कियाँ 12वीं के बाद यह कर सकती हैं।
बदलाव इस तरह के कामों में लगने वाली लड़कियों की संख्या में आया है, पर लड़के अब और ऊँचे स्तरों की आकांक्षा करने लगे हैं। यहाँ पर, जहाँ एक तरफ लड़कियाँ तो स्थानीय कॉलेज में जा रही हैं, वहीं लोग अब अपने लड़कों को इन्दौर भेजने की कोशिश करते हैं।
रिनचिनः महिलाओं, स्वास्थ्य व सामाजिक समानता से जुड़े मुद्दों पर काम करने में गहरी रुचि है। भोपाल में रहती हैं।
महीन: शोध एवं दस्तावेज़ीकरण का काम करती हैं। भोपाल में निवास।
अंग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: पत्रकारिता में पी.जी. डिप्लोमा। स्वतंत्र लेखन और द्विभाषिक अनुवाद करते हैं। होशंगाबाद में निवास।
सभी फोटोग्राफ: महीन एवं रिनचिन।