जितेन्द्र कुमार
यह लेख मुख्यतया बच्चों के अपने लेखन से सम्बन्धित है और उनकी दो अलग-अलग कक्षाओं के साथ मेरे अनुभवों पर आधारित है। ये दोनों सरकारी प्राथमिक शालाओं में चौथी की कक्षाएँ थीं। पहली कक्षा, जिसे हम कक्षा ‘अ’ कहेंगे, लड़कों की कक्षा थी। दूसरी कक्षा, जिसे हम कक्षा ‘ब’ कहेंगे, लड़कियों की कक्षा थी। कक्षा ‘अ’ के साथ मेरा पुराना परिचय था। जब वे तीसरी कक्षा में थे तो इन लड़कों के साथ मैंने लगभग छह महीने काम किया था। इसमें कक्षा में पुस्तकालय चलाना, लिखित व मौखिक भाषा सम्बन्धी गतिविधि करना और थोड़ा-बहुत गणित शामिल था।
एक दिन मैं कक्षा ‘अ’ में पहुँचा और ऐसे ही बिना किसी पूर्व योजना के अपने थैले से कुछ कोरे कागज़ निकाल कर बच्चों को दे दिए। मैंने उन्हें, जो कुछ वे लिख सकते थे या लिखना चाहते थे, लिखने को कहा। परन्तु यह लेखन उन्हें स्वयं करना था, बिना कहीं से देखे।
लिखने के इस आग्रह पर बच्चों की प्रतिक्रियाएँ कुछ इस प्रकार थीं:
1. सर जी, हमको नहीं आता, लिखते नहीं बनता सर।
2. सर जी, हम किताब में से देख के लिख देंगे।
3. सर, हम चित्र बना दें?
कुछ बच्चे लिखने के लिए तैयार थे और उन्होंने लिखा भी। लेखन के जो नमूनेे देखने को मिले उनकी चर्चा हम आगे करेंगे।
श्याम ने एक कहानी लिखी जो उसकी अपनी रचना थी। इसमें एक बकरी जंगल में जा रही है क्योंकि उसे भूख लगी है। रास्ते में उसे एक कुत्ता मिलता है जो बकरी को खाना चाहता है। वह झूठ बोल कर बकरी को बहला लेता है और उसे शेर के पास ले जाता है। शेर बकरी को मार देता है और वे दोनों उसे आधा-आधा खा जाते हैं। (साथ दिए चित्र में कहानी को श्याम के अपने शब्दों में पढ़ें।)
कहानी में श्याम के कई कौशलों का परिचय मिलता है, विशेष तौर पर भाषा के सम्बन्ध में। श्याम भाषा को लिखना जानता है और इससे अपने आपको अभिव्यक्त करने के माध्यम के रूप में भली-भाँति परिचित है। ऐसा नहीं कि यह अभिव्यक्ति उसके ठोस अनुभवों पर आधारित है। लेकिन इसमें चिन्तन करने और रचने का कौशल है। भाषा लिखना सीखने का एक उद्देश्य अपने आप को अभिव्यक्त करना है। बच्चों के स्तर पर यह कहानी इसका एक अच्छा उदाहरण है।
दूसरी कहानी सुमेर ने लिखी। इसमें एक ऐसी घटना का विवरण है जो शायद एक निजी अनुभव है। यह स्मृति पर आधारित है और भाषाई कौशल का एक और नमूना है। परन्तु उसने ज़्यादा लिखने की मेहनत से बचने का प्रयास किया है (देखें चित्र)।
अगली कहानी सुरेन्द्र की है, पर इसे पढ़ पाना कठिन काम है। लेकिन हाँ, यह उसकी मौलिक रचना है (देखें चित्र)।
सुरेन्द्र की कहानी को समझने में समस्या हो सकती है, परन्तु यह बड़ा ही दिलचस्प लेखन है। इसमें अपने आपको अभिव्यक्त करने के लिए भाषा को उपयोग करने की एक भरपूर कोशिश दिखाई देती है। यह उदाहरण लिखना सीखने के एक चरण को दर्शाता है। जब सुरेन्द्र लिख रहा था तो उसने अपनी घरेलू भाषा के कई शब्द उपयोग किए। परन्तु उसे उन्हें लिखना नहीं आता था। इसलिए उसने पूछा और मुझे लिखकर बताना पड़ा। हिन्दी और उसकी एक बोली, दोनों का उपयोग उसके लेखन में बराबर हुआ है।
एक कहानी प्रमोद ने सुनाई जिसे मैंने सुनकर लिखा। इसी तरह अरमान ने भी एक कहानी सुनाई जिसे मैंने जस-का-तस लिखा। आकाश ने पुस्तक से देख कर एक कविता लिखी। और आसिफ ने ताज़िए का चित्र बनाया। (इनमें से कुछ को पढ़ने-देखने के लिए, देखें चित्र।)
यहाँ जितने भी उदाहरण हमने देखे, श्याम उनमें सबसे ऊपर आता है। वह एक लेखक होने का अच्छा उदाहरण है। उसकी कहानी उसकी मौलिक रचना है। हम चाहें तो सुमेर को भी इसी श्रेणी में रख सकते हैं। पर श्याम अपने कौशल का उपयोग सुमेर से ज़्यादा कर रहा है।
जहाँ तक सुरेन्द्र के लेखन का प्रश्न है, हम इस लेखन को पूरी तरह नहीं समझ सकते। लेकिन यह किताब से नहीं लिखा गया। इसके दो प्रमाण हैं। पहला यह कि सुरेन्द्र का लेखन स्पष्ट तौर पर नकल नहीं है। दूसरा, सुरेन्द्र ने कुछ शब्दों को कैसे लिखा जाता है यह मुझसे पूछा था। ये शब्द थे -- बब्बा, कैसे, डण्ठल, बक दूँ, गाली। अत: वह शब्दों की उपयोगिता देख-समझ रहा है।
तीसरी श्रेणी अरमान व प्रमोद की है। इन्होंने अपनी बात मुझसे लिखवाई। प्रमोद ने जो लिखवाया उसमें उसके सांस्कृतिक परिवेश की सशक्त झलक है। सो प्रमोद को मौलिक लेखक तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु वह अपने सांस्कृतिक परिवेश को आत्मसात कर रहा है। इसी तरह जो अरमान ने लिखवाया वह भी यह स्पष्ट करता है कि ये बच्चे विचार गढ़ने में तो सक्षम हैं। अरमान को लिपि का ज्ञान नहीं है, पर उसने जो कुछ भी लिखवाया वह किसी पुस्तक से नहीं लिया गया है।
अब आसिफ की बात करें। लिखने की बजाय उसका चित्र बनाना कुछ सोचने पर मजबूर करता है। आखिर उसने ताज़िए का चित्र क्यों बनाया? ज़रूर वह ताज़िए के बारे में सोच रहा होगा। अगर उसे लिखना आता तो शायद वह ताज़िए के बारे में कुछ लिखता। या फिर उससे इस विषय पर बात की जाती तो वह कुछ बताता भी। उसका यह चित्र हमें बताता है कि वह चिन्तन तो कर रहा है। चित्र बनाना बच्चों की खास ज़रूरत होती है क्योंकि बच्चे चित्रों के माध्यम से अपने आपको अभिव्यक्त करते हैं। खासतौर से जो बच्चे लिखना नहीं जानते, उनके लिए चित्र एक भाषा का ही काम करते हैं।
अब हम कक्षा ‘ब’ पर आते हैं। यहाँ भी बच्चों को वही निर्देश दिए गए जो कक्षा ‘अ’ के बच्चों को दिए गए थे। इस कक्षा में जो नमूने हाथ आए उनमें आरती, अंकिता, क्षमा, फायज़ा व प्रिया, सब ने कविताएँ लिखीं, पर वे सबकी सब पाठ्यपुस्तक से ली गईं थीं। सिर्फ आरती ने गाय पर एक निबन्ध लिखा जो उसने स्वयं लिखा था।
दोनों कक्षाओं के नमूनों की तुलना के कई आधार हो सकते हैं। जैसे बच्चों का अक्षर ज्ञान, वर्तनी ज्ञान, सोचने और विचारों को संयोजित करने की उनकी क्षमता आदि। परन्तु मेरी रुचि इसमें है कि बच्चों ने क्या लिखा।
कक्षा ‘अ’ के उदाहरणों में हमें लेखन के विषयों में विविधता देखने को मिलती है। वे कहानियों को रच रहे हैं, अपने अनुभवों को लिख रहे हैं, चित्र बना रहे हैं, और एक बेझिझक प्रयास कर रहे हैं। उनमें एक प्रयोगधर्मिता है। परन्तु कक्षा ‘ब’ के बच्चों के पास स्वयं लिखने के नाम पर बात गाय के निबन्ध से आगे नहीं जाती। कक्षा ‘अ’ के बच्चे अपने भाषाई ज्ञान को स्वतंत्रता से उपयोग करने के लिए छूट ले रहे हैं। वे शब्दों को नहीं भाषा को, विचारों को, भावनाओं को लिखने का प्रयास कर रहे हैं।
कक्षा ‘ब’ में बच्चों को कम-से-कम एक अर्थ में लिखना ज़्यादा ठीक से आता है: उनका लिपि ज्ञान अच्छा है जो कि भाषा के ज्ञान का एक और रूप है। लेकिन कक्षा ‘अ’ के बच्चे भाषा के साथ एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध बना रहे हैं। भाषा को अपने लिए उपयोग करने को लेकर उनमें एक सहजता है।
हम भाषा लिखना कई कारणों से सीखते हैं। स्कूल में सीखी इस विद्या को हम अखबार व पुस्तकें पढ़ने, खत लिखने, रिपोर्ट लिखने तथा अपने जीवन की अन्य दैनिक ज़रूरतों के लिए उपयोग करते हैं। परन्तु जब हम लेखन के प्रकार और श्रेणियों की बात करते हैं तो हमें यह तय करना पड़ता है कि किस लेखन को हम अच्छा लेखन मानेंगे। और अच्छे लेखन में रचनात्मकता को एक विशेष स्थान प्राप्त है। मुझे कुछ रचनात्मकता कक्षा ‘अ’ के उदाहरणों में तो दिखाई देती है, लेकिन कक्षा ‘ब’ के उदाहरणों में उसका लगभग पूरी तरह लोप है। आखिर बच्चे क्यों उन्हीं कविताओं को ही लिखना चाहते हैं जो उन्होंने किताबों से रटी हैं? लिखना आने के बावजूद वे अपने आपको पाठ्यपुस्तकों में लिखे को दोहराने तक ही सीमित क्यों रखना चाहते हैं?
इन प्रश्नों के जवाब में मुझे यह कहना ज़रूरी लगता है कि सृजनात्मक लेखन के लिए भाषा लिखने का कौशल काफी नहीं है। उसके लिए एक और बड़ी ज़रूरत है स्वतंत्रता! सोचने की, बोलने की, लिखने की स्वतंत्रता! जिसे उपयोग करने की भी आदत होनी चाहिए। हमारे स्कूल इस बात में मार खा जाते हैं। उनमें से ज़्यादातर ‘जितना कहा, उतना करो’ की धारणा पर विश्वास करते हैं। ऐसे में सृजन की उम्मीद करना ही ठीक नहीं है।
इस सन्दर्भ में मैं संक्षेप में ही सही परन्तु यह बताना चाहूँगा कि कक्षा ‘अ’ के बच्चों को अपनी पिछली कक्षा में कुछ अलग अनुभव रहे, जो शायद कक्षा ‘ब’ के पास नहीं रहे होंगे। जब वे तीसरी कक्षा में थे तो कक्षा ‘अ’ के बच्चों को जो अलग अनुभव रहा, वह था -- पाठ्यपुस्तक के अलावा अन्य तरह की पुस्तकें पढ़ना, कविता-कहानियाँ पढ़ना, स्वयं कहानियाँ लिखना, कहानियाँ सुनना व सुनाना तथा अपने अनुभवों को कक्षा में बताना। इसके अलावा उन्हें यह भी अनुभव था कि ये सब बातें पढ़ने-लिखने का ही हिस्सा हैं, कोई फालतू चीज़ नहीं हैं। एक और बात जिसके ये बच्चे आदी थे, वह थी लोकतांत्रिक तरीके से सोचना व उसे प्रयोग करना।
यहाँ लोकतांत्रिक को जिस अर्थ में समझ सकते हैं वह है अपनी इच्छानुसार पुस्तकों का चुनाव करना, अपनी गति व सुविधानुसार उन्हें पढ़ना, कक्षा में अपनी बात कहने का अवसर मिलना, अपनी सहमति और असहमति को सामने रखने का मौका मिलना, अपने सवाल पूछने की स्वतंत्रता होना, कक्षा में अपनी बात कहने के लिए अपनी घरेलू भाषा का उपयोग करने की स्वतंत्रता होना आदि। इसके अलावा अपने आस-पास के वातावरण की जानकारियों को बाँटना और अपने ज्ञान को बाँटना, जो बच्चों को इस बात का एहसास कराता है कि वे भी कुछ सिखा रहे हैं और उनका ज्ञान भी कक्षा में बाँटने के लायक है। इस सम्बन्ध में एक विशेष बात जो बच्चों के व्यवहार को निर्धारित करती है वह है कि शिक्षक किस बात को वैधता प्रदान करते हैं। यानी स्कूली व कक्षा की व्यवस्था के अनुसार क्या वैध है। जो इशारे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों को मिलेंगे, वही उनके व्यवहार को निर्देशित भी करेंगे। इसलिए अगर कक्षा में स्वतंत्रता का उपयोग करना वैध है, तो ही वह उपयोग की जाएगी अन्यथा नहीं।
यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि बच्चे के बौद्धिक विकास में उसका सांस्कृतिक व सामाजिक परिवेश काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और कक्षा का माहौल भी बच्चे के लिए सांस्कृतिक व सामाजिक परिवेश ही होता है। कक्षा में बच्चे व शिक्षक मिलकर एक संस्कृति को जीते हुए उसका निर्माण भी करते हैं। लेकिन इस संस्कृति के मूल्य क्या हैं यह एक निर्णायक बात होती है, क्योंकि ये मूल्य बच्चों की सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। क्या कक्षा में बच्चे भय व अविश्वास के शिकार हैं? क्या उन्हें कुछ अलग ढंग से करने की छूट है? या फिर उनसे केवल एक निश्चित ढंग से काम करवाना उचित माना जाता है? ये सब बातें बहुत गहरे महत्व की हैं।
जैसा हमने देखा, लिखने के लिए विषय के चुनाव की स्वतंत्रता होने के बावजूद कक्षा "ब" के बच्चों द्वारा लिखने के लिए उन्हीं कविताओं का चुनाव किया गया जो उन्होंने पाठ्यपुस्तकों में पढ़ी थीं। यह व्यवहार बच्चों पर नियंत्रण के प्रभाव का आभास देता है। अगर बच्चे केवल पाठ्यपुस्तक से कुछ चीज़ें नकल करेंगे तो लिखना सीखना एक यांत्रिक गतिविधि हो जाती है और बच्चे जल्दी ही इससे ऊबने लगते हैं। इस तरीके से बच्चे के लेखन में कोई परिवर्तन नहीं आएगा और बच्चे को स्वयं के लेखन को विकसित करने का अवसर नहीं मिलेगा लिखने की ज़रूरत बच्चों को महसूस होनी चाहिए। तभी हम यह सुनिश्चित कर पाएँगे कि यह विद्या केवल हाथ व उँगलियों की आदत न होकर ज़ुबान का ही एक नया व जटिल रूप है।
और यह एक गम्भीर सवाल ही नहीं, एक चिन्ता भी है क्योंकि एक नियंत्रित स्वभाव सीखने की एक अनिवार्य शर्त यानी एक सक्रिय मस्तिष्क को पूरा नहीं करता है। बच्चे ने इसी स्तर पर एक उदासीनता को अपना लिया है। यह उदासीनता उसे चीज़ों को देखने के बावजूद अनदेखा करने के लिए प्रेरित करती है, लिखना आने के बावजूद केवल एक खास चीज़ लिखने तक ही सीमित रखती है। यह उदासीनता बच्चे को अपनी इन्द्रियों का उपयोग करने से रोकती है। इसी तरह यह उसकी रचने व सृजन करने की प्रवृत्ति को भी रोकती है। इसलिए यह उदासीनता क्या बच्चे के स्वभाव का अंग होनी चाहिए? क्या कक्षा के माहौल में इस उदासीनता को जगह दी जानी चाहिए?
जितेन्द्र कुमार: एकलव्य के होशंगाबाद केन्द्र में भाषा शिक्षण पर शोधकार्य कर रहे हैं।