सुशील जोशी
मैं बैठा अपनी पाठ्य पुस्तक लिखने का काम कर रहा था मगर काम आगे ही नहीं बढ़ रहा था; मेरे विचार तो कहीं और ही थे। तो मैंने अपनी कुर्सी को अलाव की ओर घुमाया और ऊँघने लगा। एक बार फिर परमाणु मेरी आँखों के सामने नाच रहे थे। इस बार छोटे-छोटे समूह विनम्रतापूर्वक पृष्ठभूमि में रहे। इस तरह के दृश्य बार-बार देखने के कारण मेरी दिमागी आँखें काफी पैनी हो गई थीं, वे अब अलग-अलग बनावटों वाली बड़ी संरचनाओं के बीच अन्तर देख पाती थीं। बड़ी-बड़ी साँप जैसी गति करते हुए एक-दूसरे से लिपट रही थीं। मगर यह देखो, यह क्या है? एक साँप ने अपनी ही पूँछ को पकड़ लिया था और यह संरचना मेरी आँखों के सामने मुँह चिढ़ाती-सी चक्कर काट रही थी। जैसे बिजली गिरी हो और मैं अचानक जाग गया। इस बार भी मैंने बाकी रात इस परिकल्पना के परिणामों को समझते हुए गुज़ारी।”
रसायन शास्त्र का अध्ययन करने वाले हर छात्र ने केकुले के सपने का यह विवरण किसी-न-किसी रूप में सुना होगा। बताते हैं कि फ्रेडरिक ऑगस्टस केकुले (1829-1896) को बेंज़ीन की संरचना का आइडिया इसी सपने से सूझा था। केकुले ने बेंज़ीन की संरचना सम्बन्धी अपना पहला शोध पत्र 1865 में प्रकाशित किया था। इस खोज को इतना महत्वपूर्ण माना गया था कि 1890 में इसकी रजत जयन्ती के अवसर पर जर्मन केमिकल सोसायटी ने एक जलसा आयोजित किया था। केकुले ने इसी जलसे में अपना यह सपना सुनाया था। इस सपने के बारे में मत-मतान्तर हो सकते हैं (देखें बॉक्स) मगर तथ्यों को देखें तो एक बात स्पष्ट नज़र आती है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में कार्बन के यौगिकों की समस्या एक बड़ी समस्या थी और अन्य कई रसायनज्ञों की तरह केकुले भी इससे जूझ रहे थे। और यह मज़ेदार बात है कि कार्बनिक रसायन की सारी प्रमुख समस्याएँ उन्होंने दिन में ऊँघते हुए सपने देख-देखकर ही सुलझाई थीं।
कार्बन की संयोजकताएँ
केकुले ने ही हमें बताया था कि कार्बन की संयोजकता 4 होती है और वह बना सकता है। इन विचारों के आधार पर कार्बनिक यौगिकोंें का अध्ययन व्यवस्थित हो पाया। केकुले ने ही कार्बनिक यौगिकों की होमोलोगस सीरीज़ की बात प्रतिपादित की थी कि एक ही समूह के यौगिकों (जैसे हाइड्रोकार्बन, कार्बनिक अम्ल) के बीच मूलत: क्क्त2 का अन्तर होता है। बेंज़ीन की संरचना की समस्या से भी वे बरसों से जूझ रहे थे।
बेंज़ीन की खोज 1825 में माइकल फेरेडे ने की थी हालॉँकि, उन्होंने इसे बाईकार्बोरेट ऑफ हाइड्रोजन का नाम दिया था। आगे चलकर इसे बेंज़ीन और फीन नाम भी मिले। बेंज़ीन में हल्की-सी खूशबू होती है। इसी समूह के अन्य सदस्यों में भी खूशबू पाई जाती है। इसलिए इन्हें एरोमैटिक (एरोमा - गन्ध) कहा गया। गौरतलब है कि बेंज़ीन स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक है। इसे कैंसरकारी भी पाया गया है।
बेंज़ीन का अणु सूत्र जल्दी ही पता चल गया था - क्6क्त6। उस समय कार्बनिक पदार्थों के बारे में जो कुछ मालूम था उसके आधार पर इस तरह के अणु की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जैसे यह पता था कि कार्बन की संयोजकता 4 है और वह बना सकता है। यदि 6 कार्बन की एक तो कार्बन की शेष बची सारी संयोजकताओं को तुष्ट करने के लिए 14 हाइड्रोजन परमाणुओं की ज़रूरत होगी। केकुले ने इस बात को इन शब्दों में व्यक्त किया था: “एरोमैटिक यौगिक कार्बन की दृष्टि से काफी समृद्ध होते हैं।” उन्होंने यह भी ध्यान दिया था कि अन्य कार्बनिक यौगिक समूहों के समान एरोमैटिक यौगिकों के समूहों में भी क्क्त2 का अन्तर होता है।
यह भी पता था कि कार्बन एकल की बजाय दोहरे बन्ध भी बनाते हैं। यदि 6 कार्बनों के बीच तीन दोहरे बन्ध बना दिए जाएँ तो भी 8 हाइड्रोजन परमाणुओं की ज़रूरत होगी।
केकुले ने क्या सचमुच सपना देखा था? वैसे तो यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि केकुले को बेंज़ीन की बन्द का विचार एक सपने में आया था या नहीं। इतना तो स्पष्ट है कि यदि सपना आया भी था तो वह कई वर्षों के मनन का निचोड़ मात्र था। फिर भी इस सपने की कहानी रोचक है, सो सुन लीजिए। पहली बात तो यह है कि विज्ञान के इतिहासकारों के बीच मतभेद हैं कि सपने की बात कहाँ तक सच है। यदि यह सच है, तो लगता है कि सपना 1862 में आया होगा। मतलब यह सपना देखने के तीन साल बाद ही केकुले ने बेंज़ीन की संरचना सम्बन्धी अपना पर्चा प्रकाशित किया था। यानी पहले से सोच-विचार चल रहा था और सपना देखने के तीन साल बाद तक चलता रहा, तब कहीं जाकर कुछ ठोस निकला। वैसे खुद केकुले भी कहते हैं कि सपने में कोई विचार कौंधना ठीक है मगर उसे यथार्थ के ठोस धरातल पर तो परखना ही होगा। |
कुल मिलाकर स्पष्ट था कि बेंज़ीन के अणु में हाइड्रोजन की बहुत कमी है। आजकल की भाषा में यह अत्यन्त असंतृप्त अणु है।
यह भी पता था कि जब किसी कार्बनिक यौगिक में दोहरा बन्ध होता है तो वह अस्थिर यानी बहुत क्रियाशील होता है। ऐसे यौगिक (जैसे इथायलीन) काफी आसानी से हाइड्रोजन या अन्य तत्वों से योगशील क्रियाएॅँ (एडिशन रिएक्शन) करते हैं। जैसे -
C2H4 + H2 C2H6
या
C2H4 + C12 C2H4C12
हाइड्रोजन या क्लोरीन के दो परमाणु इथायलीन में जुड़ जाते हैं। बेंज़ीन में यदि हाइड्रोजन की काफी कमी है तो उसे भी इस तरह की योगशील अभिक्रियाएँ करनी चाहिए। जैसे -
C6H6 + C12 C6H6C12
मगर ऐसा नहीं होता है। बेंज़ीन अन्य तत्वों के साथ प्रतिस्थापन (dis-placement) क्रिया में ज़्यादा रुचि रखता है। जैसे -
C6H6 + C12 C6H4C12 + H2
अर्थात् कोई बात है जो बेंज़ीन में कार्बन-कार्बन दोहरे बन्ध को स्थिरता प्रदान करती है।
और एरोमैटिक यौगिकों के बारे में उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण बात यह पता की थी कि “सरलतम एरोमैटिक पदार्थों में कम-से-कम 6 कार्बन होते हैं।”
तो पूँछ को मुँह में पकड़े साँप के सपने की स्क्रिप्ट तैयार होने लगी थी। अपने शोध पत्र में केकुले ने उपरोक्त सारे तथ्यों को एक तार्किक सूत्र में पिरोया है। वे कहते हैं कि उपरोक्त तथ्यों से निष्कर्ष निकलता है कि सारे एरोमैटिक पदार्थों में कार्बन का एक-सा परमाणु समूह (या ‘केन्द्रक’) पाया जाता है जो 6 कार्बन से बना है। और इस केन्द्रक में कार्बन परमाणु आपस में कहीं अधिक सघनता से जुड़े हैं। अब यह व्याख्या करना है कि इस केन्द्रक की परमाणविक संरचना कैसी है।
केकुले का तर्क था कि में अन्दर वाले प्रत्येक कार्बन की दो संयोजकताएँ तो कार्बन परमाणुओं से तुष्ट होंगी जबकि सिरे वाले कार्बनों की एक-एक संयोजकता ही कार्बन से तुष्ट होगी।
तर्क का अगला चरण था कि कार्बन की इस में प्रत्येक कार्बन एक एकल और एक दोहरे बन्ध से जुड़ा है:
C=C-C=C-C=C
यदि हम इस तरह का 6 कार्बन परमाणु वाला केन्द्रक मानें तो भी इसमें अभी 8 कार्बन संयोजकताएँ खाली हैं जिनको तुष्ट करने के लिए 8 हाइड्रोजन परमाणुओं की ज़रूरत होगी जबकि बेंज़ीन में 6 ही हैं।
तो यहाँ आता है उनका सपना: “यदि एक और बात मान ली जाए कि बनाने वाले अन्तिम सिरे के दो कार्बन परमाणु एक-एक संयोजकता से आपस में जुड़े हैं, तो हमें एक बन्द मिलती है जिसमें 6 संयोजकताएँ खाली हैं। इस बात को उन्होंने चित्रों में प्रदर्शित किया है। बेंज़ीन की इस संरचना का चित्र यहाँ दिया गया है।
इसी बात को एक अन्य तरह से भी दर्शाया जा सकता है। वह भी साथ में प्रस्तुत है, आपकी जानी-पहचानी बेंज़ीन।
केकुले के अनुसार यह 6-कार्बन केंद्रक सारे एरोमैटिक पदार्थों में पाया जाएगा। इस सूत्र के आधार पर उन्होंने कुछ पूर्वानुमान भी व्यक्त किए थे मगर अभी उसमें जाना ज़रूरी नहीं है।
कुछ तथ्य, कुछ दलीलें
केकुले ने इस तरह की संरचना के पक्ष में कुछ और तथ्य व तर्क भी प्रस्तुत किए थे। जैसे उन्होंने बेंज़ीन में 1 हाइड्रोजन परमाणु की जगह कोई अन्य परमाणु प्रतिस्थापित करने से बने उत्पादों (डेरिवेटिव्स) के गुणों पर गौर किया था। उदाहरण के लिए यदि बेंज़ीन के एक हाइड्रोजन की जगह क्लोरीन परमाणु लगा दिया जाए यानी क्लोरोबेंज़ीन ली जाए। उस समय यह पता था कि क्लोरोबेंज़ीन का एक ही आइसोमर होता है। आइसोमर का अर्थ है कि एक ही अणु सूत्र मगर अलग-अलग संरचना वाले यौगिक। इनके गुणों में काफी भिन्नता होती है।
यदि खुली हो (अल्केन या अल्कीन की तरह), तो क्लोरीन का परमाणु कार्बन क्रमांक 1, 2 व 3 पर होने से संरचना और यौगिक के गुण बदलेंगे (देखें पिछले पृष्ठ पर दिया चित्र)। यानी ऐसी संरचना में क्लोरोबेंज़ीन के तीन आइसोमर मिलेंगे।
दूसरी ओर, केकुले की बेंज़ीन संरचना में सारे कार्बन एक समान हैं। इसमें क्लोरीन का परमाणु किसी भी कार्बन पर लगा हो, गुणों में कोई बदलाव नहीं होगा।
फिर उन यौगिकों पर विचार करते हैं जिनमें बेंज़ीन के 2 हाइड्रोजन परमाणुओं को हटाकर, मान लीजिए क्लोरीन जोड़ा गया है। इन्हें द्वि-प्रतिस्थापित बेंज़ीन कहते हैं। इस तरह की द्वि-प्रतिस्थापित बेंज़ीन के तीन-तीन आइसोमर प्राप्त किए जा चुके थे। केकुले की संरचना के आधार पर तीन आइसोमर ही प्राप्त होते हैं। इस संरचना में 2 क्लोरीन परमाणुओं को निम्नलिखित ढंग से प्रतिस्थापित किया जा सकता है: कार्बन क्रमांक 1-2, 1-3, 1-4, 1-5, 1-6। आप देख सकते हैं कि 1-2 और 1-6 तथा 1-3 और 1-5 तुल्य हैं।
वैसे इस मामले में शायद आपको लगेगा कि 1-2 और 1-6 को तुल्य कहना थोड़ी ज़्यादती हो रही है। 1-2 में दोनों क्लोरीन दोहरे बन्ध के दोनों ओर के कार्बन परमाणुओं से जुड़े हैं जबकि 1-6 के क्लोरीन परमाणु एकल बन्ध से जुड़े परमाणुओं से जुड़े हैं। यानी इस संरचना में दो हाइड्रोजन के विस्थापन से 3 नहीं बल्कि 4 आइसोमर बनना चाहिए।
आपका विचार सही है। ठीक यही आपत्ति केकुले के एक भूतपूर्व छात्र अलबर्ट लेडनबर्ग ने भी उठाई थी। एकदम सही बात थी और इस आपत्ति ने बेंज़ीन की संरचना में और परिष्कार की माँग की। केकुले ने 1872 में प्रकाशित अपने एक और पर्चे में इस समस्या का समाधान यह सुझाया था कि बेंज़ीन में इकहरे व दोहरे बन्धन लगातार अपनी स्थिति की अदला-बदली करते रहते हैं। लिहाज़ा किसी भी समय बेंज़ीन किसी एक रचना में जड़ नहीं होती। इस तरह से बेंज़ीन के कार्बनों के सारे बन्धन परस्पर तुल्य हैं।
लिहाज़ा बेंज़ीन के अणु सूत्र की व्याख्या इस बन्द से हो जाती है। बेंज़ीन के डेरिवेटिव्स में आइसोमर्स की बात भी समझ में आती है। मगर अभी एक तथ्य की व्याख्या बकाया है - क्यों बेंज़ीन व अन्य एरोमैटिक पदार्थ योगशील क्रियाओं की बजाय प्रतिस्थापन क्रियाओं को तरजीह देते हैं?
रिज़ोनेंस की अवधारणा
केकुले ने इस परिघटना की व्याख्या भी बेंज़ीन में इकहरे-दोहरे बन्धों की सतत अदला-बदली के आधार पर की थी। उनका कहना था कि जब कोई परमाणु बेंज़ीन से क्रिया करता है तो उसे दोहरा बन्ध ‘नज़र’ ही नहीं आता क्योंकि जब तक वह किसी बन्ध के सम्पर्क में आता है तब तक उस बन्ध की प्रकृति बदल जाती है।
कार्बन बन्धनों की इस लगातार दोहरे-इकहरे में गतिशीलता को उस समय समझाया नहीं जा सका था। आगे चलकर जब परमाणु संरचना और स्पष्ट हुई और बन्धनों की व्याख्या इलेक्ट्रॉन कक्षकों के बीच ओव्हरलैप के आधार पर की गई तो बात और स्पष्ट हुई। इसकी सैद्धान्तिक व्याख्या 1928 में लाइनस पॉलिंग ने की थी जिन्होंने क्वांटम यांत्रिकीय संरचनाओं के बीच रिज़ोनेंस की अवधारणा के आधार पर इस बात को समझाया था।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि उन्नीसवीं सदी में उपलब्ध तथ्यों और तर्कों के आधार पर किस तरह से बेंज़ीन की संरचना का खुलासा किया गया। मूलत: सारे प्रेक्षणों को जोड़कर एक मॉडल बनाना ही इस प्रक्रिया के मूल में था। गौरतलब है कि उस समय एक्स-रे क्रिस्टेलोग्राफी जैसी विधियाँ उपलब्ध नहीं थीं। जब ये विधियाँ उपलब्ध हुईं तो पता चला कि सचमुच बेंज़ीन के छ: के छ: कार्बन बन्ध परस्पर तुल्य हैं।
जैसे एक्स-रे तकनीक से यह पता चला है कि बेंज़ीन में सारे कार्बन बन्धों की लम्बाई 139 पिकोमीटर (10-12) है। दूसरी ओर कार्बन-कार्बन दोहरे बन्ध की औसत लम्बाई 134 पिकोमीटर और इकहरे बन्ध की औसत लम्बाई 154 पिकोमीटर ज्ञात की गई है। स्पष्ट है कि बेंज़ीन के कार्बन-कार्बन बन्ध इन दो के बीच कहीं होते हैं। इसकी व्याख्या दो तरह से की जाती है। एक तो यह बताया जाता है कि बेंज़ीन में कार्बन-कार्बन बन्धन बनाने वाले सारे इलेक्ट्रॉन पूरी बन्द में फैले होते हैं। यानी वे पूरी रिंग में कहीं भी स्थित यानी लोकेलाइज़्ड नहीं होते। दूसरी व्याख्या यह की जाती है कि बेंज़ीन दरअसल, दो संरचनाओं के बीच लगातार पलटती रहती है और वास्तविक संरचना इन दो संरचनाओं का सम्मिश्रण होती है। इसे कहते हैं कि इन दो संरचनाओं के बीच रिज़ोनेंस होता रहता है। इस बात को दर्शाने के लिए बेंज़ीन की संरचना साथ दिए गए चित्र के रूप में प्रदर्शित की जाती है।
इसी उछलकूद या डीलोकेलाइज़ेशन (स्थिति-हीनता) के कारण बेंज़ीन के बन्धनों की लम्बाई दोहरे व इकहरे बन्ध के बीच कहीं होती है। इस तरह इलेक्ट्रॉन्स का फैलना यौगिक को थोड़ी अतिरिक्त स्थिरता भी प्रदान करता है। यह अतिरिक्त स्थिरता एरोमैटिक गुण (aromaticity) कहलाती है। इस अतिरिक्त स्थिरता का एक उदाहरण देकर बात समाप्त करेंगे।
हाइड्रोजनीकरण यानी किसी यौगिक में हाइड्रोजन का जुड़ना। यदि हम सायक्लोहेक्सीन नामक पदार्थ लें, तो इसकी संरचना भी 6 कार्बन वलय से बनी है और इसमें एक दोहरा बन्ध है। साइक्लोहेक्सीन में एक हाइड्रोजन अणु जोड़ा जाए तो इस क्रिया में 120 किलो जूल ऊर्जा निकलती है।
यदि इसी प्रकार की हाइड्रोजनीकरण क्रिया आप 6-कार्बन वलय और दो दोहरे बन्ध वाले यौगिक साइक्लो-हैक्साडाईन के साथ करें तो आप उम्मीद करेंगे कि 240 किलो जूल ऊर्जा निकलना चाहिए। आपकी उम्मीद पर बहुत ज़्यादा पानी नहीं फिरेगा और आपको 232 किलो जूल ऊर्जा मिल जाएगी।
बेंज़ीन का हाइड्रोजनीकरण करना मुश्किल काम है मगर किसी प्रकार से ज़ोर-ज़बर्दस्ती से कर लिया जाए, तो हम उम्मीद करेंगे कि चूँकि तीन दोहरे बन्ध टूट रहे हैं और तीन हाइड्रोजन अणु जुड़ रहे हैं, इसलिए 360 किलो जूल ऊर्जा निकलनी चाहिए।
मगर यहाँ गणित काम नहीं आता और मात्र 208 किलो जूल ऊर्जा ही निकलती है। 360 किलो जूल के अपेक्षित मान और 208 किलो जूल के वास्तविक मान के बीच का अन्तर (152 किलो जूल) दर्शाता है कि बेंज़ीन अपेक्षा से कितनी अधिक स्थिर है। यही अतिरिक्त स्थिरता एरोमैटिकता है। लिहाज़ा इतना तो स्पष्ट है कि बेंज़ीन जैसी संरचना में जो गुण नज़र आते हैं वे मात्र उसके संरचनात्मक घटकों को जोड़कर प्राप्त नहीं किए जा सकते।
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन में रुचि।