कमलेश चन्द्र जोशी

रामकिशोर जी ऊधमसिंह नगर ज़िले के राजकीय प्राथमिक विद्यालय, विडौरा (सितारगंज) में कार्यरत हैं। उनके विद्यालय में वर्तमान में 36 बच्चे नामांकित हैं और वे यहाँ एकल शिक्षक के रूप में कार्य कर रहे हैं। उन्होंने अपने विद्यालय में करीब चार साल पहले एक छोटा-सा पुस्तकालय शुरु किया था और इसके माध्यम से उन्होंने बच्चों को पढ़ने-लिखने के मौके देने शुरु किए। कमलेश चन्द्र जोशी से हुई इस बातचीत में उन्होंने अपने स्कूल में बच्चों को किताबें पढ़ने के अवसर देने के अनुभवों को साझा किया है।

प्रश्न - अपने विद्यालय में बच्चों के लिए पुस्तकालय संचालित करते हुए आपको लगभग चार साल हो गए हैं । इन चार सालों में बच्चों को पुस्तकें पढ़ने के अवसर देने का आपका अनुभव कैसा रहा है?
जब हम प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते थे तो हमारी कक्षा में भाषा की एक ही किताब होती थी। अभी भी एक ही किताब होती है। बच्चों को अन्य किताबें पढ़ने का मौका नहीं मिल पाता है। मुझे बचपन में किताबें पढ़ने का मौका नहीं मिला जिस वजह से मेरी किताब पढ़ने की आदत नहीं बन पाई। मैं अपने स्कूल में कक्षा एक से पाँच तक सभी बच्चों को पढ़ने के मौके देता हूँ। यह देखने को मिला है कि बच्चे पढ़ने में रुचि ले रहे हैं। छोटे बच्चे भी किताबों को पढ़ने की कोशिश करते हैं। वे सोचते हैं कि उन्हें भी जल्दी पढ़ना आ जाए। मुझे लगता है कि बच्चों को किताबें पढ़ने के मौके देने से उनके पढ़ने के कौशल में सुधार हुआ है। उनमें सोचने-समझने की क्षमता बढ़ी है। बच्चे किताब पढ़ते हुए उसमें अपने अनुभव जोड़ते हैं। किताब के पात्रों से खुद को जोड़कर देखते हैं। किताब पढ़ने से उन्हें लिखने में भी मदद मिलती है और उनकी भाषा में काफी सुधार हुआ है। मेरा उद्देश्य रहा है कि बच्चे पढ़ना सीख जाएँ। स्कूल में पुस्तकालय की किताबें बच्चों की दिनचर्या में शामिल हैं। बच्चों को किताब पढ़ने का नज़रिया भी मिला है। पहले बच्चों को  पढ़ाने  का  मेरा दृष्टिकोण  अलग  था, उसमें भी काफी बदलाव आया है।
मैंने नीतेश को देखा। वह पिछले वर्ष अप्रैल-मई तक किताब अच्छे से नहीं पढ़ पाता था। जुलाई में देखने को मिला कि वह अच्छे से पढ़ रहा है। ऐसा लगा कि उसे अचानक पढ़ना आ गया। वह किताब ज़रूर घर ले जाता था। ऐसा ही सर्वजीत को देखकर लगा। उसे भी अचानक पढ़ना आ गया। यहाँ तक कि बच्चों के घर में अन्य लोग भी किताब पढ़ते हैं। ज्योति की माँ आठवीं पास हैं, वह अपनी माँ के लिए किताबें ले जाती है। वे भी पढ़ती हैं और बच्चों को भी पढ़ाती हैं। इसी तरह कुछ अन्य बच्चों के बड़े भाई-बहन भी पढ़ते हैं और अपने छोटों को बताते हैं। ऐसा सब बच्चों को माहौल देने से ही हुआ है।
इसी तरह अमनदीप जो अभी पाँचवीं में है, वह बरखा सीरीज़ की चिमटी का फूल नामक किताब बार-बार पढ़ती थी और अगर कोई बच्चा उस किताब को ले ले तो उससे लड़कर घर ले जाती थी। वह चिमटी का फूल, मिठाई, तोता, रानी भी... -- इन किताबों को बहुत पसन्द करती थी। कुछ बच्चे कुछ किताबों को बार-बार माँगते थे चाहे उन्होंने पहले से पढ़ रखी हो। यह भी देखने को मिला कि बुढ़िया की रोटी किताब को पहली कक्षा के छात्र भी माँगते हैं और उसके चित्र देखते हैं, भले ही अभी उसे पढ़ नहीं पाते। कुछ बच्चे कविताओं की किताब भी पढ़ते हैं। तुकान्त कविताएँ उन्हें पढ़ने में मदद करती हैं।
बरखा सीरीज़ की मिठाई नामक किताब बच्चों को पढ़ने में बहुत मदद करती है। हर बच्चा उसे पढ़ना चाहता है। उसमें एक वाक्य जो बार-बार आता है -- गधे ने मना कर दिया -- वह बच्चों के पढ़ने की आधी समस्या हल कर देता है। बाकी वाक्यों में खरगोश, भालू, बिल्ली आदि को बच्चे चित्र से जोड़ते हैं। इसे एक बार बच्चों को पढ़कर सुना दो, फिर बच्चे उसे खुद पढ़ते हैं। और इससे बच्चों का आत्मविश्वास भी बढ़ता है। इन किताबों से बच्चे एक साल में थोड़ा बहुत पढ़ना सीख जाते हैं।

प्रश्न - आपके विद्यालय में अभी कितनी किताबें हैं? आपने कितनी पढ़ी होंगी? कौन-सी किताबें आपको अच्छी लगीं? इन किताबों को पढ़कर आपको कैसा लगा?
इस समय पुस्तकालय में करीब 260 किताबें होंगी। इसमें एकलव्य, नेशनल बुक ट्रस्ट, चिल्ड्रेन्स बुक ट्रस्ट व एन.सी.ई.आर.टी. की बरखा सीरीज़ की किताबें हैं। इनमें से मैंने आधी पढ़ ली होंगी। बरखा सीरीज़ की तो सभी किताबें पढ़ी हैं। इन किताबों में बुढ़िया की रोटी, बरखा सीरीज़ की किताबें, मैं भी..., बिल्ली के बच्चे, मेंढक का नाश्ता, भालू ने खेली फुटबॉल, हाथी की हिचकी, कजरी गाय  ाृंखला की किताबें अच्छी लगीं। ये किताबें बच्चों के स्वभाव के अनुरूप होती हैं। उनके पात्र वैसे ही होते हैं जैसे बच्चे सोचते हैं। बच्चे इन किताबों में अपनापन देखते हैं। बड़े लोग सोचते हैं कि बच्चे वैसे काम करें जैसे हम सोचते हैं। बच्चे चाहते हैं वे अपने हिसाब से काम करें। बुढ़िया की रोटी, भालू ने खेली फुटबॉल, कजरी गाय की किताबों में कल्पनाशीलता बहुत है। हम शिक्षक सोचते हैं कि ऐसा कैसे हो जाएगा लेकिन बच्चे इन किताबों से जुड़ाव बना लेते हैं।

प्रश्न - आप बाल साहित्य को बच्चों के भाषा शिक्षण के उद्देश्यों से जोड़कर कैसे देखते हैं?
बाल साहित्य का बच्चों के भाषा शिक्षण से सीधा-सीधा जुड़ाव है। भाषा शिक्षण के उद्देश्यों में यही तो बात है - बच्चे विचारों को समझें। अपने विचार, अनुभवों को व्यक्त करें। यह काम हम पाठ्यपुस्तकों से करते हैं और इन किताबों से भी अच्छे से हो पाता है। बच्चे किताब पढ़ने के उपरान्त उस पर बातचीत में शामिल होते हैं और अपने अनुभवों, समझ को सबके समक्ष रखते हैं। अपने अनुभवों को लिखने का भी प्रयास करते हैं।

प्रश्न - कुछ शिक्षक साथी कहते हैं कि यदि ये किताबें बच्चों को पढ़ने के लिए देंगे तो हमारा पाठ्यक्रम छूट जाएगा। इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
पाठ्यक्रम में दक्षताओं की बात है। बच्चों में पढ़कर समझने, लिखने की दक्षताएँ तो हैं। उसे हम पाठ्यपुस्तक के द्वारा पूरा करते हैं। ये किताबें भी उसमें मदद करती हैं। हमें दक्षताओं को ध्यान में रखकर काम करना होता है। जैसे बच्चों को कहानियाँ/कविताएँ बताना आना चाहिए, कहानी की घटनाओं को समझना आना चाहिए। यही सब तो हम इन किताबों के साथ करते हैं। इसमें मुख्य बात यह है कि बच्चों के साथ हमें मेहनत करनी पड़ती है और सोचकर काम करना पड़ता है। हम केवल ब्लैकबोर्ड पर लिख दें और बच्चे उसे उतार लें, इससे काम नहीं चलता।

प्रश्न - बच्चों के साथ किताबों का उपयोग किस तरह से करते हैं?
बच्चों को किताबें पढ़ने का मौका देते हैं। बच्चे खुद अपने मन से किताब पढ़ते हैं। बच्चों को किताब पढ़कर सुनाते हैं। उनके साथ किताबों पर चर्चा करते हैं। बच्चों को अपने अनुभव लिखने का मौका देते हैं। वे किताबों के बारे में लिखते हैं और चित्र भी बनाते हैं। कक्षा-1 में मंगत सिंह एक साथ पाँच-छह चित्र बनाता है और उन चित्रों से पूरी कहानी जोड़कर बताता है जबकि उसे अभी लिखना नहीं आता।

प्रश्न - आपको क्या लगता है, इन किताबों को पढ़ते हुए कुछ बच्चे पाठक बनने को प्रेरित हुए हैं?
यहाँ से जो बच्चे छठी, सातवीं, आठवीं कक्षाओं में पहुँचे हैं, वे बच्चे अभी भी यहाँ से किताब ले जाते हैं। उनकी देखा-देखी, उनके कुछ नए साथी भी यहाँ से किताबें ले जाते हैं। फौजा, गुरसरण, मंजीत, रेशमा, ज्योति, सर्वजीत - ये सब बच्चे नियमित पाठक हैं। कुछ बच्चे कहानी लिखकर भी दे जाते हैं। अगर इनकी किताबों में रुचि नहीं बनती तो नहीं ले जाते क्योंकि जूनियर स्कूल में उन्हें ऐसा कोई माहौल नहीं मिल पाता।

प्रश्न - आपने इन किताबों के लेन-देन/प्रबन्धन की क्या व्यवस्था बनाई है?
किताबों के लेन-देन की व्यवस्था अधिकतर बच्चे ही करते हैं। नीतेश व सुनीता यह काम अच्छे से करते हैं। इसमें कभी-कभी मैं उनकी मदद करता हूँ। दो-चार किताबों को छोड़कर यह देखने को मिला कि बहुत ज़्यादा किताबें नहीं खोई हैं। ऐसा होता ही है। बच्चों के द्वारा यह काम अच्छे से चल रहा है।

प्रश्न - आपको क्या लगता है, इन किताबों को देने से बच्चों को क्या फायदा होता है?
इन किताबों को पढ़ने से बच्चों को पढ़ने में तो मदद मिलती ही है, वहीं बच्चों की सोच भी बढ़ती है। उनकी समझ का दायरा बढ़ता है। मुझे यह भी लगता है कि इन किताबों के उपयोग से हम बच्चों को ज़्यादा सोच-समझ दे पाते हैं जो केवल एक पाठ्यपुस्तक से नहीं हो पाता।


कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से लम्बे समय से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, ऊधमसिंह नगर में कार्यरत।