पी. बलराम

20वीं शताब्दी तक आधारभूत अनुसन्धान मुख्यत: भौतिकीय नियमों और प्रकृति को समझने के उद्देश्य से किए जाते थे। आज आधारभूत विज्ञान की उपयोगिता पर बहस तेज होने के साथ-साथ वैज्ञानिक अनुसन्धानों के व्यावहारिक नतीजों के प्रति भी अपेक्षाएँ बढ़ी हैं। ऐसे समय में शुद्ध और व्यावहारिक विज्ञान को जोड़कर देखने की एक नई अवधारणा की ज़रूरत है।

यह   गरीब   बच्चों   के   लिए ‘इलेक्ट्रॉनिक  क्लासरूम’  के उद्घाटन का अवसर था। मुझे इस मौके पर ‘दो शब्द’ बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। एक टचस्क्रीन के साथ लगे सफेद बोर्ड ने गूगल और नेशनल जियोग्राफिक की दुनिया को, उस छोटे-से, लेकिन विद्यार्थियों से खचाखच भरे क्लासरूम में उतार दिया था। यह आधुनिक टेक्नोलॉजी का ही कमाल था कि कई किलोमीटर दूर स्थित दो अन्य स्कूलों में भी इस कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो रहा था।

संक्षिप्त भाषण के बाद अब बारी सवाल-जवाब की थी। मैं न केवल क्लासरूम में बैठे विद्यार्थियों, बल्कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए दूरस्थ स्कूलों के बच्चों के सवालों के जवाब देने  को  भी  तैयार  था।  वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में मैं अब भी उतना सहज महसूस नहीं करता हूँ जितना सामने बैठे लोगों से बात करने में। खैर, एक बच्चे ने अटकते हुए मुझसे पहला सवाल  पूछा,  “क्या  आपने  कोई आविष्कार किया है?” मेरा तत्काल जवाब था, “नहीं।” तनावपूर्ण स्थिति में ईमानदारी सबसे अच्छी नीति होती है।

आम लोगों की नज़रों में वैज्ञानिक की छवि उस आविष्कारक की होती है जो बेहद चौंकाने वाली उपयोगी चीज़ों का आविष्कार करता है। चूँकि आविष्कार हर समय नहीं हो सकते, इसलिए वे यह समझ ही नहीं पाते कि आखिर फिर वैज्ञानिक करते क्या हैं! मेरे दिमाग में बेंजामिन फ्रेंकलिन, थॉमस अल्वा एडीसन, अलेक्ज़ेंडर ग्राहम बेल और निकोलस टेसला जैसे वैज्ञानिकों की छवियाँ कौंध रही हैं। माइकल फैराडे का मोटर का आविष्कार व्यवहार में भी बेहद उपयोगी साबित हुआ है। जे.सी. बोस भी एक ऐसे वैज्ञानिक थे जो विज्ञान की दो दुनियाओं में रह रहे थे। एक, व्यावहारिक व आविष्कारों की दुनिया और दूसरी, शुद्ध रूप से अकादमिक दुनिया।

उस बच्चे के सवाल ने मेरे मन में एक और सवाल पैदा कर दिया। क्या ‘आविष्कार’ एक ऐसा सीमित शब्द है जिसमें वैज्ञानिक ‘खोज’ शामिल नहीं है? क्या ‘नवाचार’ या ‘इनोवेशन’ पारम्परिक शब्दों ‘आविष्कार’ और ‘खोज’ का विस्तार है और इन दोनों को आपस में जोड़ता है? और इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि क्या ‘शुद्ध’ (प्योर) और ‘प्रयुक्त’ (एप्लाइड) विज्ञान उसी तरह दो ध्रुवों के रूप में दूरस्थ किनारों पर स्थित हैं जैसे रूडयार्ड किपलिंग के पूरब और पश्चिम?

20वीं  शताब्दी  तक  आधारभूत अनुसन्धान मुख्यत: भौतिक नियमों और प्रकृति को समझने के उद्देश्य से किए जाते थे। उस समय जो आविष्कार हुए थे, वे व्यक्तिगत स्तर पर किए गए वैज्ञानिक प्रयासों और उस समय की सृजनात्मक मेधा के परिणाम थे। इनमें से कई आविष्कारों ने तो मनुष्य की ज़िन्दगी में भी भारी परिवर्तन किया था। संगठित और सरकारी समर्थन से शोधकार्य तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही शु डिग्री हुए जिनमें बड़ी संख्या में वैज्ञानिक शामिल होने लगे। अमरीका में वैनेवर बुश ने वर्ष 1945 में अपनी रिपोर्ट ‘द एंडलेस फ्रंटीयर’ पेश की थी जिसमें आधारभूत अनुसन्धानों के लिए सरकारी धन की व्यवस्था की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया था। बुश का साफ मानना था कि एप्लाइड या प्रायोगिक विज्ञान का विकास आभारभूत विज्ञान के ज़रिए ही हो सकता है। इस प्रकार उन्होंने शुद्ध विज्ञान की ज़ोरदार वकालत की थी।

विज्ञान के लिए सार्वजनिक धनराशि की व्यवस्था करने के बुश के तर्क के 50 साल बाद आज दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी है। आधारभूत विज्ञान की उपयोगिता पर बहस तेज़ होने के साथ-साथ वैज्ञानिक अनुसन्धानों के व्यावहारिक नतीजों के प्रति भी अपेक्षाएँ बढ़ी हैं। ऐसे समय में डोनाल्ड स्टोक्स ने शुद्ध और व्यावहारिक विज्ञान को जोड़कर देखने की एक नई अवधारणा पेश की थी। पिं्रसटन में प्रोफेसर रहे स्टोक्स का निधन वर्ष 1997 में हो गया था। इसी साल उनकी प्रभावशाली पुस्तक ‘पाश्चर्स क्वाड्रेंट: बेसिक साइंस एंड टेक्नोलॉजिकल इनोवेशन’ भी प्रकाशित हुई थी।

स्टोक्स ने बुश की बुनियादी मान्यताओं की जाँच-पड़ताल की और पाया कि हो सकता है कि ‘साइन्स: दी एंडलेस फ्रंटीयर’ का नज़रिया बहुत सफल रहा और इसने अमरीका में विज्ञान के स्वर्ण युग का आगाज़ किया था मगर आज बुनियादी विज्ञान और टेक्नोलॉजी के परस्पर सम्बन्धों का यह नज़रिया अधूरा साबित हो रहा है। स्टोक्स ने इस मत को खारिज कर दिया कि ‘शुद्ध’ विज्ञान से ‘व्यावहारिक’ विज्ञान तक कोई सीधा रास्ता होता है। स्टोक्स ने विज्ञान का एक दो-आयामी चित्र प्रस्तुत किया है। इसमें एक आयाम यह दर्शाता है कि कोई अनुसन्धान किस हद तक बुनियादी समझ को विकसित करने हेतु किया जा रहा है, जबकि दूसरा आयाम बताता है कि किस हद तक वह अनुसन्धान उपयोगिता से प्रेरित है। स्टोक्स अपनी बात को समझाने के लिए एक रेखाचित्र का उपयोग करते हैं।

एक  वर्गाकार  आकृति  में  चार चौखाने हैं। शायद ये चौखाने अलग-अलग आकार के होंगे। बायाँ ऊपरी चौखाना नील्स बोह्र चौखाना है। यह सर्वोत्तम बुनियादी शोध का द्योतक है। इसमें व्यावहारिक उपयोग की कोई मिलावट नहीं है। निचला दायाँ चौखाना एडीसन  का  है।  यह  व्यावहारिक अनुसन्धान और उच्च आविष्कार क्षमता का द्योतक है। ऊपरी दायाँ चौखाना पाश्चर के नाम है जो ‘उपयोग प्रेरित बुनियादी अनुसन्धान’ का द्योतक है। सवाल है कि स्टोक्स ने बुनियादी और व्यावहारिक शोध के संगम को दर्शाने के लिए पाश्चर को प्रतीक क्यों चुना? खुद स्टोक्स के शब्दों में “इसमें कोई सन्देह नहीं कि पाश्चर बीमारी की प्रक्रिया और अन्य सूक्ष्म जैविक प्रक्रियाओं को सर्वथा बुनियादी स्तर पर समझना चाहते थे। मगर साथ ही वे चाहते थे कि इसकी मदद से रेशम के कीड़े, पशुओं में एन्थ्रैक्स, दूध, शराब व सिरके के खराब होने, मनुष्यों में रैबीज़ वगैरह से निपटा जा सके।”

स्टोक्स के मुताबिक पाश्चर (खास तौर से प्रौढ़ पाश्चर) ऐसा कोई शोध न करते जिसका कोई उपयोग न हो। हाँ, पाश्चर ने टारटरिक अम्ल के दो रूपों को अलग-अलग करने का काम भी किया था जो एकदम शुद्ध विज्ञान था। दरअसल, इसने कार्बनिक रसायन शास्त्र को एक नया आयाम दिया था।
दूसरी  ओर  एडीसन  तो  बस आविष्कार करने को उत्सुक रहते थे, और एक मिनट भी इस बात में ज़ाया नहीं करते थे कि उनके आविष्कार से विज्ञान की क्या प्रगति हो रही है।  

स्टोक्स के रेखाचित्र में हाल के अनुसन्धान कहाँ ठहरते हैं? ट्रांज़िस्टर या मैग्नेटिक रेज़ोनेंस इमेजिंग को पाश्चर के चौखाने में रखा जा सकता है। इसी प्रकार बोयर व कोहेन की डीएनए सम्बन्धी खोज को भी इस चौखाने में रखा जा सकता है। यह आधारभूत विज्ञान से प्रेरित खोज का एक बेहतरीन उदाहरण है, भले ही इसे नोबेल समिति ने मान्यता न दी हो।
पॉलिमीरेज़  चेन  रिएक्शन (पीसीआर) की खोज को एडीसन के चौखाने में रखा जा सकता है। डीएनए की पूरी दक्षता व प्रामाणिकता के साथ नकल करने में पीसीआर सहायता करता है और इस प्रकार इसने जैव प्रौद्योगिकी में क्रान्ति लाने का काम किया है।

अब एक जो चौखाना बच गया है, वह तिरछे में पाश्चर के चौखाने के सम्मुख है और नीचे बाईं ओर स्थित है। यह चौखाना विज्ञान कर्मियों की सबसे घनी आबादी वाला चौखाना है और हममें से अधिकांश लोग इसी में काम करते हैं। यहीं से शु डिग्री करके हम अलग-अलग दिशाओं में आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं।
अगर हम स्टोक्स के इस रेखाचित्र को देखें तो पता चलता है कि चारों चौखानों के बीच कोई ऐसी अभेद्य दीवार नहीं है जो इन्हें पूरी तरह से अलग-अलग करती है। बल्कि इनके बीच ऐसी छिद्रमय रेखाएँ हैं जिनसे होकर आधारभूत विज्ञान सम्बन्धी अनुसन्धान व्यावहारिक विज्ञान की ओर जाते हैं। कौन कहाँ पहुँचेगा इसका निर्धारण तो व्यक्ति की कल्पनाशीलता तथा सृजनात्मकता से तथा लगन से होता है।

मुझे पक्का विश्वास है कि अगर उस बच्चे को एक और सवाल पूछने को कहा जाए तो वह सम्भवत: यही पूछेगा, “आपने कुछ उपयोगी आविष्कार क्यों नहीं किया?” यह वह सवाल है जो वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने वाले नीतिकारों के सामने भी आता है और विज्ञान के उपरोक्त दो लक्ष्यों का व्यावहारिक सन्तुलन बनाना विज्ञान नीति की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण लक्ष्य होगा।


पी बलराम: भारतीय जीव रसायनज्ञ। आई.आई.टी., कानपुर के भूतपूर्व प्रोफेसर और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसिज़, बंगलु डिग्री के भूतपूर्व निदेशक। करेंट साइंस पत्रिका के सम्पादक रहे हैं। पद्म भूषण और च्र्ज़्ॠच् पुरस्कार से सम्मानित।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
यह लेख स्रोत फीचर्स, अगस्त 2008 से साभार।