रिनचिन
कल हमारी तकरार हो गई। मैं काम करने को बैठी ही थी कि वह आ गई और खूब गुस्से से म्याऊँ किया। उसका खाना ठण्डा था। पता नहीं मुझे कब समझ में आएगा कि सीधे फ्रिज से निकालकर खाना उसको नहीं देना चाहिए।
“तुम कितनी नाशुक्री बिल्ली हो,” मैंने कहा, “खाना ठण्डा है तो क्या हुआ? हमेशा शिकायत करती रहती हो। तुम कोई काम का काम क्यों नहीं करती?”
“तुम भी तो किसी काम की नहीं हो,” वह पलटकर चिल्लाई, “मैं खाती, पीती और सोती हूँ, तो तुम भी तो वही करती हो।”
“और दूध के लिए पैसा कौन लाता है?” मैंने पूछा।
“मैं अपना खाना खुद ला सकती हूँ, मुझे चूहा पकड़ना भी आता है। मगर घर में इतने चूहे ही नहीं हैं।”
“यह भी मेरी गलती है, ना?” मैंने व्यंग्य से कहा, “आलसी बिल्ली, दफा हो जाओ यहाँ से।”
वह भाग गई। काफी समय तक नहीं दिखी। शाम को आई।
“मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।” उसने मेरी मेज़ पर बैठते हुए कहा। मैं कुर्सी पर टिककर बैठ गई, “क्या?”
“तालाब के उधर की तरफ एक बड़ा ऑफिस है, मुझे वहाँ काम मिल गया है। उन्होंने मुझसे चूहे पकड़ने को कहा है।”
“बहुत बढ़िया,” मैंने उसकी बात पर ज़्यादा भरोसा न करते हुए कहा।
“मैं कल जाकर सब पक्का कर आऊँगी -- तनखा, काम वगैरह की बातें।”
“ठीक है,” मेरी बिल्ली कहानियाँ अच्छी गढ़ लेती है।
अगले दिन शाम को उस मनमौजी बिल्ली से और बातचीत के बाद मुझे उसकी बात पर थोड़ा ज़्यादा भरोसा हो गया। मुझे जो पता चला वह बता रही हूँ।
उसे किसी ऑफिस में काम मिल गया था। जैसे उसने कहा था, उसने काम, तनखा वगैरह की बातें तय कर ली थीं। मगर सब कुछ सहजता से नहीं हुआ था। बातचीत के बीच में ऑफिस के लोगों से उसकी झड़प हो गई थी। चूँकि वह चूहे पकड़ेगी और वही उसका भोजन होगा, इसलिए देखा जाए, तो वह ऑफिस की जायदाद खाएगी। वे लोग इस लंच का पैसा उसकी तनखा में से काटना चाहते थे।
“यह सही नहीं है,” उसने कहा था। “चूहे आपके किसी काम के नहीं हैं। मेरा काम है इस जगह को चूहों से छुटकारा दिलाना। चूहों के साथ मैं क्या करती हूँ, यह मेरी समस्या है। मैं अपना काम करूँगी और आप मुझे वायदे के मुताबिक भुगतान कीजिए। यही ठीक है।”
बिल्ली यह बातचीत करके वापिस आ गई।
जब वह दिनभर का किस्सा सुना चुकी, तो मेरा कल का अविश्वास तो काफूर होने लगा था मगर नई शंकाएँ पैदा हो रही थीं। “क्या तुम कर पाओगी?” मैंने कहा, “वे तुमसे तनखा के एक-एक पैसे का काम करवाएँगे। मालिक लोग इस मामले में बहुत होशियार होते हैं।”
“हाँ, वह तो मुझे पता है,” उसने मेरी ओर तीखी नज़र से देखा और समझाया, “मगर मैंने भी ऐसा इन्तज़ाम किया है कि वे मुझे पूरा पैसा देंगे, मैं जो चूहे खाऊँगी उनका पैसा भी नहीं काटेंगे। और ऐसी भी कोई शर्त नहीं है कि मैं रोज़ाना कितने चूहे मारूँगी। मैं तो तब तक वहाँ जाऊँगी, जब तक सारे चूहे खत्म नहीं हो जाते। मेरा ख्याल है कि चूहे तो हमेशा रहेंगे। नालियाँ वगैरह खराब हैं और कागज़ भी खूब हैं।”
अन्तत: मुझे मानना पड़ा, “बिल्ली तुमने अच्छा सौदा किया है। मेरे से तो अच्छा ही है।”
“अरे, तुम तो बहुत जज़्बाती हो। मैं दुनियादारी समझती हूँ। तुम्हारी तरह नहीं... मुझे तो बस अपना पैसा चाहिए,” उसने कहा, “चलो गपशप बहुत हुई, अब मुझे अपना काम करने दो। मुझे अपनी साफ-सफाई और नींद का भी तो ध्यान रखना है।” इतना कहकर उसने थोड़ी देर तक खुद को चाटा और फिर गुड़ी-मुड़ी होकर मेरे बिस्तर के बीचों-बीच सो गई।
अगले दिन सुबह उठी तो देखा कि बिल्ली मेरी छाती पर सवार है। “मुझे दूध दो और काम पर रवाना करो। मुझे टाइम पर पहुँचना पड़ेगा।”
मैंने वैसा ही किया। और वह निकल पड़ी।
रास्ते में लोग उसे घूर रहे थे। मगर मेरी बिल्ली, उसने कोई परवाह नहीं की। हमारी जानकारी में यह पहली बिल्ली थी जो काम पर जा रही थी।
यकायक पीछे से एक कार चीखी। “ए, तुमने तो मुझे कुचल ही दिया।” बिल्ली गुर्राई, “ज़रा देखकर चलाओ।”
अचानक कारें हर तरफ से उस पर चीखने लगीं। तमतमाए चेहरे उसको घूर रहे थे मगर बिल्ली ने भागमभाग की इस सारी चिड़चिड़ाहट को पूँछ से किनारे किया और फिर से चल पड़ी। रास्ते में उसने तालाब देखा। तालाब जो हमारे शहर का ताज़ था, आज शान्त था, सुस्त नीला चमक रहा था। अब वह हर दिन ऑफिस जाते हुए इसके पास से गुज़रेगी। “लौटते में शायद मैं इसमें तैरूँगी या किनारे बैठकर देखूँगी, इन्तज़ार करूँगी कि मौत की तमन्ना में कोई मछली मेरे मुँह में कूद जाए।” उसने खुद से कहा।
जब वह अपने ऑफिस पहुँची तो दरवाज़े पर खड़े एक आदमी ने उससे रजिस्टर में दस्तखत करने को कहा। “तुम लेट हो गई हो। सब लोग 9 बजे आ जाते हैं।”
“अरे, पर एक ही मिनट तो निकला है।”
“उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, तीन दिन ऐसा हुआ, तो महीने के आखिर में एक दिन की तनखा कट जाएगी।”
“सिर्फ एक मिनट के लिए?” उसने पूछा, उसे बहस करने की आदत थी, मेरी बिल्ली को।
“देखो, मुझसे बेकार बहस करते हुए तुम एक मिनट से ज़्यादा निकाल चुकी हो। और यदि तुमने ध्यान नहीं दिया तो तुम एक और नियम तोड़ दोगी कि किसी से भी अपने काम के अलावा 3 मिनट से ज़्यादा बात नहीं कर सकते।”
इन नियमों के बोझ से दबी-कुचली बिल्ली चुपचाप ऑफिस में दाखिल हुई। अन्दर पहुँचने पर उसे कुर्सी-टेबलों से भरे एक बड़े कमरे में ले जाया गया। उसे यहीं काम करना था। बिल्ली ने शुरू किया, पहले तो उसे कुछ नज़र नहीं आया... फिर अचानक एक चरमराहट सुनाई दी... और मज़ा शुरू हो गया। उसने पूरे ऑफिस में चूहे का पीछा किया... रास्ते में कई चीज़ें आईं... टेबलों की टाँगें, कुर्सियाँ, लोगों की टाँगें, झोले, टंकियाँ, यहाँ से बाहर निकली, उसके अन्दर घुसी। अन्दर, बाहर, आगे, पीछे दौड़ती रही। पूरी दोपहर वह काम करती रही। अन्तत: एक मरा। वह चूहे को एक कोने में ले जाकर खाने लगी।
“हे भगवान! देखो, यह गंदी बिल्ली कुछ खा रही है, धत!” एक पतली आवाज़ चीखी। “उफ! क्या मुझे शान्ति नसीब नहीं होगी?” बिल्ली ने सोचा और थोड़ा और कोने में घुसकर चबाना जारी रखा।
तभी अचानक किसी ने कहा, “यहाँ यह बिल्ली बैठी दावत उड़ा रही है, और वहाँ वह चूहा हमारे झोलों पर कूद-कूदकर ओलम्पिक की तैयारी कर रहा है। क्या बॉस इसी काम के लिए इसे तनखा दे रहा है?”
तो बिल्ली ने मरे चूहे को छोड़ा और ज़िन्दा चूहे के पीछे भागी।
अचानक ज़ोरदार कोहराम मच गया। बड़ा बॉस गुस्से में था। “देखो बिल्ली ने क्या किया है, उसने एक मरे चूहे को मेरी कुर्सी के नीचे छोड़ दिया है।” उसने किसी को बुलाकर सफाई करने को कहा। जिस व्यक्ति को सफाई का काम करना पड़ा, उसने कहा, “मुझे लगता है कि आपको मेरी तनखा बढ़ानी चाहिए। यह मेरा काम तो नहीं है।”
“बिल्ली की तनखा में से काट लो।” किसी दूसरे ने सलाह दी।
बिल्ली गुर्राई, “तुम थोड़ा वक्त देते तो मैं चूहे को खा जाती। यह भी तो मेरे काम का हिस्सा है - कचरे को ठिकाने लगाना। है ना?”
“देखो कैसे गुर्रा रही है। एक तो सुस्त कार्यकर्ता और ऊपर से इतनी दादागिरी।”
बिल्ली दिन भर दौड़ती रही। लोगों के पैरों के नीचे आती रही। वह सोच रही थी कि पालतू बनना बहुत सरल है, लोग तुमसे काम करवाते हैं, और बदले में बस थोड़ी देर उनकी गोद में बैठकर लाड़ जताओ। कामकाजी बिल्ली होना कठिन है। जैसे ही पैसा देने की बात आती है, ये लोग पता नहीं क्या-क्या सोचने लगते हैं।
ऑफिस उसके लिए नहीं था। सारे फर्नीचर के कारण उसका काम इतना मुश्किल हो जाता था और ऊपर से ये सारे लोग, लगातार चलते-फिरते और बतियाते। यहाँ की हर चीज़ उनके हिसाब से बनी थी और वह उनके पैरों के बीच आ जाती तो वे शिकायत करने लगते थे।
“क्या वे लोग मेरे काम की फितरत को जानते भी हैं? वे मेरे ऊपर वही नियम लागू नहीं कर सकते जो उनके लिए बने हैं। है ना?” उसने सोचा। मगर उसकी बात कौन सुनेगा? फिलहाल तो उसे उनकी कसौटियों पर ही खरा उतरना होगा।
शाम को घर लौटते हुए...उसने तालाब देखा मगर ध्यान नहीं दिया। अब उसका रंग संजीदा नीला था और ऑफिसों और कारों की बत्तियाँ उसमें झिलमिलाने लगी थीं। वह घर लौटने में और देर नहीं कर सकती थी, अँधेरा होने लगा था और वह थक चुकी थी। इस बार कारों की चीखों और पें-पें ने उसे डरा दिया और वह सड़क के एक किनारे पर चलने लगी। उसकी दबंगता और लड़ाकूपन अब थोड़े कमज़ोर पड़ गए थे।
“तो कैसा रहा तुम्हारा दिन?” वह मेरी डेस्क के पास से गुज़री तो मैंने मुस्कराते हुए पूछा।
वह मुझ पर गुर्राई, “मुझे मेरा खाना दे दो, बस, तुम्हारी चतुराई की ज़रूरत नहीं है।”
“क्यों तुम्हें खाने को चूहे नहीं मिले?”
“नहीं, उन्होंने कहा कि वह ऑफिस की जायदाद है।”
“तो फिर तुमने उन्हें वहीं क्यों नहीं खाया?”
“सिर्फ पन्द्रह मिनट का लंच ब्रेक मिलता है और मुझे चूहों को खाने की इजाज़त सिर्फ लंच ब्रेक में है। इतने टाइम में मैं कितने चूहे खा सकती हूँ? और यह भी नहीं कर सकती कि मरे चूहों को लंच ब्रेक तक ऑफिस में कहीं छोड़ दूँ। तो सारे चूहे फेंकने पड़े।” सारा अन्याय एक साँस में उड़ेलने के बाद वह खामोश हो गई। अपनी पूँछ को सहलाने लगी।
“तुम्हें लगता है तुम कल वापिस जाओगी?” मैंने नर्म लहज़े में उससे पूछा। पहली बार मैं उसके प्रति स्नेह महसूस कर रही थी। मैं एक कटोरे में दूध गर्म करने लगी।
“उसके बारे में कल सोचूँगी।” उसने कहा।
“अभी के लिए तो मुझे लगता है कि मैंने काफी मनुष्यों के साथ काम कर लिया है।” इसके साथ ही उसने सारा दूध पिया और मेरी गोद में चढ़कर लेट गई।
मैं खुद को प्रतिशोध लेने से रोक नहीं पाई, “तो अब तुम जानती हो कि काम करने वाली इन्सान होना आसान नहीं है।”
“हाँ, आसान नहीं है...मगर लगता है मैं सम्भाल लूँगी...दूसरी ओर...”
उसने सीधे मेरी ओर देखते हुए कहा, “क्या तुम मेरा काम कर सकती हो...चूहे पकड़कर खाना?”
“शायद मैं सीख लूँगी, मगर क्यों सीखूँ, जब वह काम करने के लिए मेरे पास एक बिल्ली है?”
“...यही तो मैं कह रही हूँ। मैं क्यों चूहे पकड़ूँ जब तुम मुझे खिला सकती हो?”
“मैं तुम्हें भगा भी सकती हूँ।”
“तब मैं तुम्हारा खाना चुराऊँगी या कबूतर मारूँगी। यह न तुम्हें अच्छा लगेगा न तुम्हारे पड़ोसियों को।”
“मैं तुम्हें यहाँ, अपने घर में बुलाकर नहीं लाई थी। लाई थी क्या?” मैंने सवाल दागा, मुझे गुस्सा था कि वह अपनी बदसलूकी का दोष मुझ पर डाल रही है।
“खैर, तुमने घर बनाया, इसलिए मैं घरेलू बिल्ली बन गई। तुमने जो कुछ बनाया है, उसे तो तुम्हें सम्भालना ही होगा।” इतना कहकर उसने आँखें मींच लीं।
उसे सोते देखकर यह विचार मैंने सहेज लिया। उसकी घुरघुराहट और यह विचार। बस।
अगले दिन वह फिर मेरी छाती पर सवार थी।
“उठो, मुझे जाना है।”
“तुम फिर जा रही हो?”
“हाँ!”
“मगर मुझे लगा कि तुम्हें वह काम अच्छा नहीं लगा था।”
“मैं कर लूँगी।”
“तुम हमारे तौर-तरीके अपना रही हो।”
“मेरे पास चारा ही क्या है? तुम जैसी मालकिन हो, तो मुझे कोई-न-कोई और रास्ता तो खुला रखना ही पड़ेगा।” वह गुर्राई।
“तुम नहीं जानती, वहाँ सब मेरे जैसे हैं।” मैं बुदबुदाई।
“तुमसे भी बुरे,” उसने कहा, “मगर इससे तुम अच्छी नहीं हो जाती।”
“हो सकता है मैं सुधर जाऊँ।” मैंने सीधे बैठने की कोशिश करते हुए कहा।
“जल्दी ही जब मैं बदल जाऊँगी, तो तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं रहेगा, तुम्हें सुधरना ही पड़ेगा।” उसने कहा और अपने दूध के कटोरे की तरफ बढ़ गई, और वहाँ खड़ी इन्तज़ार करने लगी कि मैं अपनी भूमिका निभाऊँ, जैसे वह अपनी निभा रही थी।
रिनचिन: बच्चों व बड़ों के लिए कहानियाँ लिखती हैं। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में जन संगठनों के साथ जुड़ी हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
सभी चित्र: ऋषितोनॉय दत्ता: अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली से विज़ुअल आर्ट्स में स्नातकोत्तर कर रहे हैं। इन्हें माचिस की डिब्बियाँ, पेड़ की छाल, मरी मकड़ियाँ, फोटोग्राफ, कहानियाँ, घटनाएँ व यादें एकत्रित करने में दिलचस्पी है और इन सबकी झलक इनके काम में दिखती है।