वी.वी. रमण
कई लोगों के दिलो-दिमाग में आधुनिक विज्ञान के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण है। वे आधुनिक विज्ञान को उपनिवेशवादी सृजन मानकर सीधे-सीधे नकार देते हैं या फिर अपनी प्राचीन परम्पराओं में विज्ञान को ढूंढ़ते हैं। वी.वी. रमण का मत है कि आधुनिक विज्ञान न तो पश्चिमी है और न ही उपनिवेशवादी, बल्कि यह तो ऐसा मानव उद्यम है जो भौतिक संसार के हर पहलू को उद्घाटित करना चाहता है।
आधुनिक विज्ञान का इतिहास करीब साढ़े चार सौ साल पुराना है। भौतिक और जैविक दुनिया के बारे में मनुष्यों का ज्ञान बढ़ाने में इसकी अहम भूमिका रही है। इसीलिए मानव सभ्यता को विज्ञान ने व्यापक रूप से प्रभावित किया है। विज्ञान के बीज विश्व की कई संस्कृतियों, जैसे यूनान, भारतीय, चीनी और इस्लाम में भी बोए गए लेकिन उनका सबसे पहले अंकुरण पश्चिमी युरोप में हुआ और फिर वहीं से दुनिया के अन्य हिस्सों में उसका विस्तार हुआ।
दुर्भाग्य से 16वीं से 19वीं सदी के दौरान साम्राज्यवादी युरोप ने कई देशों और वहाँ के लोगों को गुलाम बना लिया। हालाँकि, पिछले करीब डेढ़ सौ सालों में विज्ञान पश्चिमी से गैर-पश्चिमी देशों में भी फैला है, लेकिन पश्चिमी उपनिवेशवाद के खिलाफ इतिहासजन्य आक्रोश की वजह से वहाँ के कई लोगों के दिलो-दिमाग में आधुनिक विज्ञान के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण पैदा हुआ है। इस वजह से वे आधुनिक विज्ञान को उपनिवेशवादी सृजन मानकर सीधे-सीधे नकार देते हैं या फिर अपनी प्राचीन परम्पराओं में विज्ञान को ढूंढ़ते हैं। ये प्रतिक्रियाएँ हालाँकि स्वाभाविक हैं, लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि वाकई में विज्ञान क्या है, इसे वे नहीं जानते। आधुनिक विज्ञान न तो पश्चिमी है न ही उपनिवेशवादी, बल्कि यह तो ऐसा मानव उद्यम है जो भौतिक संसार के हर पहलू को उद्घाटित करना चाहता है।
अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान के क्षेत्र में भारत ने बहुत ही अहम स्थान बना लिया है और मौजूदा सदी में उसके सामने और भी कई महती ज़िम्मेदारियाँ हैं। इसी के मद्देनज़र विज्ञान को केवल तकनीकी क्षेत्र मानने की बजाय मानव उद्यम और मानवीय भावनाओं की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ही माना जाना चाहिए। यह नज़रिया भारत के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पनप रही भावी वैज्ञानिक पीढ़ी के लिए मददगार होगा।
विज्ञान: अर्थ व उत्पत्ति
हिन्दी व संस्कृत में प्रचलित विज्ञान शब्द के लिए अँग्रेज़ी भाषा में ‘साइंस’ का इस्तेमाल किया जाता है। अँग्रेज़ी में इस शब्द को प्रचलन में आए बहुत लम्बा अरसा नहीं हुआ है। मध्ययुगीन अँग्रेज़ी में इसे सिंज़, सायेंस, सिएंस इत्यादि के रूप में लिखा जाता था जिसका अर्थ होता था ‘ज्ञान’। जर्मन और डच भाषाएँ भी उसी भाषाई परिवार से नाता रखती हैं जिससे अँग्रेज़ी रखती है। इन दोनों भाषाओं में विसेंशाफ्ट और वेटेंशाप शब्दों का प्रयोग किया गया है जो क्रिया ‘जानना’ का ही संज्ञा रूप है। अँग्रेज़ी में साइंस शब्द की उत्पत्ति लैटिन में प्रचलित शब्द ‘साइंटिया’ से मानी जा सकती है जिसका अर्थ है ज्ञान।
क्लासिकी दुनिया में ‘वैज्ञानिक पड़ताल’ का अर्थ ‘प्राकृतिक चीज़ों’ के अध्ययन से लगाया जाता था। विज्ञान की इसी व्याख्या की वजह से इसमें ज्ञान की सभी शाखाओं को सम्मिलित किया जाने लगा। लेकिन इससे धीरे-धीरे यह सोच भी बनने लगी कि जो विज्ञान का हिस्सा नहीं है, वह बहुत ही निम्न स्तरीय या महत्वहीन चीज़ है। विज्ञान और धर्म के बीच संघर्ष और विवाद की जड़ में यही सोच रही है। उल्लेखनीय है कि संस्कृत में साइंस के लिए इस्तेमाल किए गए ‘विज्ञान’ शब्द का अर्थ विवेक व समझदारी से लगाया जाता है।
16वीं व 17वीं सदी में आधुनिक विज्ञान के विकास के साथ ही उसके लिए ‘प्राकृतिक दर्शन शास्त्र’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा था। दूसरे शब्दों में कहें तो उस वक्त विज्ञान का मतलब था प्रकृति का दर्शन या प्रकृति की व्यवस्थित ढंग से खोज। आधुनिक विज्ञान के इतिहास में मील का पत्थर माने जाने वाले आइज़ेक न्यूटन के शोध-पत्र का भी शीर्षक था, ‘मैथेमेटिकल प्रिंसिपल्स ऑफ नेचुरल फिलॉसफी’। इसमें ‘फिलॉसफी’ शब्द दो ग्रीक शब्दों - फिलोज़ यानी प्रेम और सोफ़िया यानी ज्ञान या विवेक से लिया गया है। ‘साइंस’ की तुलना में ‘नेचुरल फिलॉसफी’ कहीं अधिक विवरणपूर्ण है क्योंकि वैज्ञानिक खोज के मामले में जितनी महत्वपूर्ण ज्ञान की पिपासा है, उतना ही महत्वपूर्ण ज्ञान के प्रति अनुराग भी है।
प्राकृतिक पदार्थों के अध्ययन के लिए कुछ प्रयोग भी किये जाते हैं और उनसे निष्कर्ष निकलने की कोशिश होती है। जैसे लेवोजिए ने प्रयोगों के आधार पर बताया कि जलने, जंग लगने या प्राणियों द्वारा श्वसन के दौरान ऑक्सीजन पदार्थ के साथ जुड़ती है।
18वीं सदी में लेखकों ने किसी भी क्षेत्र के व्यवस्थित अध्ययन के लिए साइंस शब्द का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। लेकिन 1831 में ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की स्थापना के बाद यह शब्द धीरे-धीरे उस रूप में प्रयुक्त होने लगा जैसे आज होता है।
इसके कुछ ही समय बाद विज्ञान के ब्रिटिश दार्शनिक विलियम वेवेल ने महसूस किया कि विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत लोगों के लिए कोई शब्द नहीं है और फिर उन्होंने ऐसे लोगों के लिए साइंटिस्ट (वैज्ञानिक) शब्द पेश किया। विज्ञान का विभिन्न शाखाओं में वर्गीकरण और विशेषज्ञता की ज़रूरत भी 19वीं सदी में ही समझी गई।
विज्ञान की कुछ परिभाषाएँ
वैज्ञानिकों के बीच इस बात पर कोई असहमति नहीं है कि विज्ञान क्या है, लेकिन इसके बावजूद आज तक इसकी कोई ऐसी सन्तोषजनक परिभाषा नहीं बन सकी है जो सभी वैज्ञानिकों को मान्य हो। कई वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने अपनी-अपनी ओर से इसकी परिभाषाएँ दी हैं। अधिकांश ने विज्ञान के ज्ञान वाले पहलू को रेखांकित किया है।
हर्बर्ट स्पेंसर विज्ञान की परिभाषा देते हुए कहते हैं, “व्यवस्थित ज्ञान का नाम ही विज्ञान है।” बिखरी हुई सूचनाएँ विज्ञान नहीं हैं, बल्कि किसी भी क्षेत्र-विशेष से सम्बद्ध व्यवस्थित सूचनाएँ ही विज्ञान है। इस दृष्टि से टेलीफोन डायरेक्ट्री और किसी पुस्तकालय का केटलॉग भी विज्ञान है। थॉमस हक्सले ज्ञान की गुणवत्ता की बजाय उसकी गहराई पर ज़ोर देते हुए कहते हैं, “विज्ञान और कुछ नहीं, बल्कि प्रशिक्षित व सुव्यवस्थित सहज बुद्धि है।” लेकिन देखा जाए तो यह परिभाषा विज्ञान की सभी शाखाओं पर लागू नहीं होती है। इस परिभाषा में ज्ञान को हासिल करने, उसे सुव्यवस्थित करने तथा उसका मूल्यांकन करने के लिए प्रशिक्षण पर ज़ोर दिया गया है। लेकिन न्यूरोसाइंस, संघनित पदार्थ भौतिकी और क्वान्टम यांत्रिकी जैसे क्षेत्र तो सुव्यवस्थित सहज बुद्धि से कोसों दूर हैं। जी.एन. लेविस की परिभाषा कहती है, “विज्ञान अनुभवों का व्यवस्थित वर्गीकरण है।” लेकिन प्रत्येक अनुभव के व्यवस्थित वर्गीकरण को भी विज्ञान नहीं माना जा सकता। विज्ञान सूचनाओं के वर्गीकरण से भी आगे का विषय है।
इस प्रकार इन परिभाषाओं से यह भी प्रतिध्वनित होता है कि विज्ञान ऐसा ‘गोदाम’ है जहाँ सूचनाओं को सावधानीपूर्वक रखा जाता है। हालाँकि, हक्सले अपनी परिभाषा में मानव मस्तिष्क की भूमिका की ओर भी इंगित करते हैं। इसी प्रकार जी.डे. सेंटीलाना के अनुसार भी विज्ञान और कुछ नहीं, “विकसित बोध व्याख्यायित मंशा, और सहज बुद्धि की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।” लेकिन विज्ञान की यह परिभाषा कला पर भी लागू की जा सकती है।
यहाँ तक कि धार्मिक मामलों पर भी यह परिभाषा सटीक बैठ सकती है।
अन्तत: एक मानक शब्दकोष में विज्ञान की दी गई परिभाषा पेश है जिसमें खोजबीन की भूमिका, परिकल्पनाओं का सृजन और नियम भी समाहित किए गए हैं: ‘विज्ञान ज्ञान का ऐसा विभाग है जिसमें खोजबीन के नतीजों को तर्कपूर्ण ढंग से परिकल्पनाओं व सामान्य नियमों के रूप में व्यवस्थित किया जाता है और फिर उनका सत्यापन किया जाता है’।
वैज्ञानिक मानस
विज्ञान को लेकर एक और नज़रिया उसे केवल ज्ञान और सूचनाओं तक सीमित मानने से इन्कार करता है। इसके अनुसार विज्ञान बहुत ही परिष्कृत तरीके से ज्ञान हासिल करने के मानवीय प्रयासों से भी आगे का क्षेत्र है। इस नज़रिए के अनुसार विज्ञान नैसर्गिक तकाज़ों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली मानवीय गतिविधियाँ है। जैसा कि जार्ज सार्टन कहते हैं, “क्या यह दावा करना अनुचित होगा कि जब किसी भी समस्या के समाधान का प्रयास बहुत ही व्यवस्थित ढंग से, किसी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार किया जाता है, तो हमें विज्ञान के विकास के दर्शन होते हैं?”
धागा कातने की तकली - तकाज़ों से उत्त्पन्न मानवीय गतिविधि जिसे तकनीक भी कह सकते हैं।
ऐसे में वैज्ञानिक मानस को समझना बेहद ज़रूरी है। इस वैज्ञानिक मानस को हम अनुभवों की दुनिया को जानने-समझने का प्रयास करने वाले मानवीय चरित्र के रूप में देख सकते हैं जो प्रत्येक सामान्य मानव में पाई जाती है। इसलिए सभी संस्कृतियों व सभ्यताओं में इसकी अभिव्यक्ति महसूस की जा सकती है। दुनिया में होने वाले अचम्भों से यह मानस उत्पन्न होता है। जैसे सितारों भरे आसमान को देखकर हमारे मन में विस्मय का भाव पैदा होता है और यह वैज्ञानिक मानस का आधार बनता है। बड़े-बड़े पहाड़ों व विशालकाय नदियों को देखकर भी हम चकित रह जाते हैं, लेकिन साथ ही हम इसकी वजह जानने की भी चेष्टा करते हैं। हमें दुनिया के बारे में जितनी जानकारी है, हम उससे ज़्यादा जानना चाहते हैं। हम यह भी जानना चाहते हैं कि संसार कब, कैसे व क्यों बना। यही सब वैज्ञानिक मानस की अभिव्यक्तियाँ हैं।
प्राचीन मनीषी चीज़ों के बारे में अधिक-से-अधिक जानने की मानवीय प्रवृत्ति से भलीभाँति अवगत थे। वैदिक काल के कवियों की रचनाओं में इसकी झलक देखी जा सकती है। आदम व ईव की कहानी में इस तरह की खोजबीन के बारे में पढ़ा जा सकता है। जिज्ञासावश ही ईव ने आदम को सेव का एक टुकड़ा खाने को प्रेरित किया था। ज्ञान की खोज की दिशा में अग्रसर होने का यह एक प्रतीक है।
जिज्ञासा मनुष्य को पाप व कठिनाइयों में भी धकेल सकती है, लेकिन अन्तत: उसी से विज्ञान पैदा होता है। मनोवैज्ञानिक इस बात की व्याख्या कर सकते हैं कि मनुष्य इतना जिज्ञासु क्यों है, जीव वैज्ञानिक इसके और विस्तार में जा सकते हैं, कुछ धार्मिक विचारक हमें इस जिज्ञासा पर लगाम कसने का उपदेश दे सकते हैं लेकिन यही वह चीज़ है जो उद्यम के लिए प्रेरित करती है और जिसे विज्ञान कहा जाता है।
गतिशील नज़रिया
किसी भी विज्ञान का मूल्यांकन करने में सबसे ज़रूरी हैं वे पद्धतियाँ जिनसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है। जब हमसे कहा जाता है कि पृथ्वी से सूरज 15 करोड़ किलोमीटर दूर है तो हम विज्ञान सीखने की कल्पना करने लगते हैं। वहीं दूसरी ओर जब हमें बताया जाता है कि सम्राट अशोक ने ईसा से तीन शताब्दी पहले शासन की बागडोर सम्भाली थी और बौद्ध भिक्षुओं को भेजा था तो यह इतिहास का आभास देता है। दोनों ही बातों में कोई विशेष अन्तर नहीं है क्योंकि दोनों में सूचनाएँ हैं और दोनों ही अपने आप में विज्ञान नहीं हैं। आखिर इस बात का पता कैसे लगाया जा सका कि धरती से सूरज तक की दूरी कितनी है या अशोक नाम का भी सम्राट हुआ था और उसने क्या-क्या किया था? आखिर किस आधार पर हम दावे के साथ कहते हैं कि ये बातें सही हैं? इन सवालों के जवाब ही विज्ञान है।
वे सारी पद्धतियाँ, जिनसे हम धरती की उम्र तय करते हैं, सन्तों के बेहद प्रचारित चमत्कारों की ऐतिहासिकता, आकाशीय स्पन्दन को सुनने वाले कवि की विश्वसनीयता या फरिश्ते से किसी पैगम्बर को सन्देश मिलने के दावे का विश्लेषण करते हैं, वे सब विज्ञान के उदाहरण हैं, भले ही आज के विज्ञान की कसौटी पर खरे न उतरते हों।
मनुष्य अपने आसपास की दुनिया से अलग-अलग तरीकों और अलग-अलग स्तर पर संवाद स्थापित करता है: भावनाओं के साथ और मस्तिष्क के साथ। व्यक्ति चाहे कवि हो या दार्शनिक, तर्कशील हो या धर्मावलम्बी या रहस्यवादी, दुनिया के अनुभवों पर प्रतिक्रिया करता ही है। हममें से हर व्यक्ति में थोड़ा-थोड़ा सब कुछ है। हम अलग-अलग मौके पर वैज्ञानिक व दार्शनिक, कवि व रहस्यवादी, प्रेमी व आलोचक हो सकते हैं। इनमें से कुछ काम व्यक्तिगत तौर पर करते हैं, तो कुछ सामूहिक रूप में।
इसी प्रकार विज्ञान भी एक विशेष प्रकार का माध्यम है कि जिसमें हम संसार के अनुभवों के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। विज्ञान दुनिया के नज़ारों का, विशेषकर बुद्धि के ज़रिए, आकलन करने का सामूहिक प्रयास है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि दुनिया को कारणों, सम्बन्धों और सन्दर्भों की रोशनी में देखने का ही नाम विज्ञान है। इसलिए विज्ञान का अस्तित्व तभी से सभी संस्कृतियों व समाजों में रहा है, जब से उन्होंने दुनिया के अनुभवों को समझने व उनकी व्याख्या करने का प्रयास आरम्भ किया है भले ही वह प्राचीन चीन हो या भारत, बेबीलोनिया हो या मिस्त्र, यूनान हो या रोम अथवा दुनिया का कोई भी हिस्सा।
दुनिया की जटिलता को समझने की मानवीय कोशिश प्रत्येक देश-काल में एक समान नहीं रही है। इतिहास गवाह है कि समय के साथ स्थानीय विज्ञान का भी विकास हुआ। इसलिए प्राचीन काल का विज्ञान स्थानीय संस्कृति व परम्पराओं से प्रभावित रहा। लेकिन 16वीं व 17वीं सदी में जिस विज्ञान का उदय हुआ, वह बिलकुल नई पद्धतियों पर आधारित था। यद्यपि इस विज्ञान की भी जड़ें प्राचीन विज्ञान की ज़मीन से ही निकली हैं, लेकिन फिर भी यह अपनी संरचना, दृष्टिकोण और नतीजों में पुरातन विज्ञान से अलग था। आधुनिक विज्ञान को आज भी गलती से ‘पश्चिमी विज्ञान’ कहा जाता है, जबकि सच तो यह है कि यह केवल अपने विकास की भौगोलिक पृष्ठभूमि के रूप में पश्चिमी है, न कि आन्तरिक नज़रिए से।
विज्ञानसम्मत
विभिन्न परिभाषाओं के बावजूद विज्ञान शब्द का कई सन्दर्भों में दुरुपयोग भी किया गया है। न केवल उत्पादों के विज्ञापनो में, बल्कि आपसी संवाद में अपनी बात को तर्कपूर्ण ठहराने के लिए भी इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल होता आया है। ज्योतिष सम्बन्धी भविष्यवाणियों में भी वैज्ञानिक शब्द का दुरुपयोग किया जाता है। वरुण (नैप्च्यून) या अरुण (यूरेनस) जैसे ग्रहों की स्थिति के आधार पर भविष्यवाणियाँ करने का दावा किया जाता है, जबकि प्राचीन ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक इन ग्रहों के बारे में जानते तक नहीं थे। आम तौर पर लोगों को लगता है कि अगर किसी सिद्धान्त को ‘वैज्ञानिक’ बताकर उसका वर्णन किया जाएगा तो उसकी विश्वसनीयता और बढ़ जाएगी। आधुनिक युग में जैसे कोई खुद को नस्लवादी या नारी विरोधी बताने का साहस नहीं कर सकता, उसी प्रकार खुद को ‘अवैज्ञानिक’ भी नहीं बता सकता।
ऐसी बातें कई बार लिखी जा चुकी हैं कि कैसे किसी धार्मिक पुस्तक में कोई वैज्ञानिक सिद्धान्त पाया गया है और किसी धर्म विशेष का कोई मत कैसे आधुनिक विज्ञान के ढाँचे में सटीक बैठता है। इस प्रकार अलग-अलग लेखक अपनी-अपनी आस्थाओं के अनुसार आपको बताते मिल जाएँगे कि क्वांटम भौतिकी, ब्रह्माण्ड विज्ञान के कई प्रमुख सिद्धान्त और यहाँ तक कि ऊष्मा-गतिकी जैसे नियम भी बाइबल, उपनिषद या कुरान में युगों-युगों से मौजूद रहे हैं। हालाँकि, ये लेखक यह बता पाने में विफल रहते हैं कि इतने सालों से ये सिद्धान्त उजागर क्यों नहीं हो पाए और 16वीं सदी के बाद ही अचानक इनकी सुध कैसे आ गई। वे यह भी नहीं बता पाते कि आखिर ये सिद्धान्त उन्होंने कैसे खोज लिए जिनका उन धार्मिक पुस्तकों से कोई लेना-देना नहीं था जिनमें कथित तौर पर वे सिद्धान्त छिपे हुए थे। ऐसे में यह दावा हास्यास्पद ही लगता है कि आधुनिक विज्ञान के कई सिद्धान्तों का आधार प्राचीन धार्मिक पुस्तकें रही हैं। दरअसल, यह आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में पश्चावलोकन का नतीजा है।
वर्णनात्मक परिभाषा
एक आधुनिक विज्ञान दार्शनिक ने विज्ञान को परिभाषित करते हुए लिखा है कि वैज्ञानिक जो भी काम करते हैं, वही विज्ञान है। यह केवल मज़ाक में कही गई बात नहीं है। यह परिभाषा उन विभिन्न गतिविधियों की ओर इशारा करती है जिनमें वैज्ञानिक संलग्न रहते हैं। जैसे वैज्ञानिक आँकड़े एकत्र करते हैं, उनका परीक्षण करते हैं, फिर उनके नतीजों का विश्लेषण करते हैं, गणित का इस्तेमाल करते हैं, अपने विचार को अन्य साथी वैज्ञानिकों की टिप्पणी व समालोचना के लिए पेश करते हैं, शोध पत्र लिखते हैं, उसे सम्मेलनों में पेश करते हैं। ऐसे और भी कार्य वैज्ञानिक करते हैं। वे ही लोग विज्ञान के कटु आलोचक होते हैं जिन्होंने कभी व्यावहारिक रूप से विज्ञान सम्बन्धी गतिविधियों में हिस्सा नहीं लिया है। वे विज्ञान को अगर जानते भी हैं तो केवल इसलिए कि उन्होंने शायद किसी कोर्स में कभी विज्ञान पढ़ा होगा, लेकिन कोई प्रयोग नहीं किया, कोई गणना नहीं की, कोई शोध पत्र नहीं लिखा। इस अनुभव के बगैर किसी के लिए यह जानना बेहद मुश्किल है कि वैज्ञानिक अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए क्या करते हैं। इसके मद्देनज़र विज्ञान की विवरणात्मक परिभाषा इस प्रकार से दी जा सकती है:
‘परिकल्पनाओं के आइने में आभासित यथार्थ की दुनिया के सभी पहलुओं को समझने के लिए मानव मस्तिष्क द्वारा किए गए सामूहिक बौद्धिक प्रयास ही विज्ञान है। इसके लिए जब भी सम्भव होता है, गणितीय विश्लेषण और उपकरणों की मदद ली जाती है’।
इस परिभाषा में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण गुणधर्मों का उल्लेख हुआ है जिन्हें विज्ञान कहा गया है। इसे पूरी तरह से समझने के लिए हमें एक नज़र उन शब्दों पर भी डालनी होगी जिनका इसमें इस्तेमाल किया गया है। सामूहिक: विज्ञान की ऐसी एक भी शाखा नहीं है जिसमें केवल व्यक्तिगत स्तर पर कार्य किया जाता है। विज्ञान में अलग-अलग ढंग से कई लोगों को शामिल करना ही पड़ता है। विज्ञान और कला के बीच यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण अन्तर है। कला में लेखन, चित्रकारिता या संगीत जैसा कोई भी सृजन व्यक्तिगत प्रयासों का नतीजा होता है। कोई कलाकार अन्य दूसरे कलाकार से प्रभावित हो सकता है, लेकिन वह जो भी सृजित करेगा, वह उसका व्यक्तिगत होगा; जैसे कालिदास का नाटक कालिदास का ही कहलाएगा इसके लिए उन्हें ही श्रेय दिया जाएगा। लेकिन विज्ञान में ऐसा नहीं हो सकता। अगर कोई वैज्ञानिक उसी के क्षेत्र में उसके पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध कार्यों की उपेक्षा करे या उससे अवगत न हो तो उससे किसी महत्वपूर्ण परिणाम की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। अपने आप को अलग-थलग समझने वाला वैज्ञानिक कभी भी कोई बड़ा शोध नहीं कर सकता। इसलिए विज्ञान में उचित ही कहा गया है कि हर वैज्ञानिक को कुछ और आगे का देखने और कुछ सार्थक नतीजा पाने के लिए दूसरे के कन्धे पर खड़ा होना होगा।
दरअसल, प्राचीन व आधुनिक विज्ञान में भी यह एक बड़ा अन्तर रहा है। प्राचीन काल के विचारकों ने दुनिया की किसी भी घटना के मद्देनज़र जो भी सिद्धान्त पेश किए, वे उनके नितान्त व्यक्तिगत नज़रिए पर आधारित थे। प्लूटो, अरस्तू, बह्मगुप्त, अल्हाज़ेन इत्यादि विचारकों के सिद्धान्त ऐसे ही थे। आधुनिक विज्ञान में भले ही व्यक्तिगत बौद्धिक क्षमता के आधार पर कुछ आकलन किए जाते हों, लेकिन उनकी तब तक कोई पूछ-परख नहीं होती, जब तक कि उसी क्षेत्र के अन्य वैज्ञानिकों के कार्यों के सन्दर्भ में उन्हें पेश नहीं किया जाता।
विज्ञान उस इमारत की तरह है जिसमें हर जानकार व्यक्ति मंज़िल-दर-मंज़िल अपना योगदान देता जाता है। धर्मों या पन्थों की स्थापना व्यक्तिगत स्तर पर होती है और फिर संस्थापकों के चेले उसका पालन करते जाते हैं। उनके गु डिग्री ने जो कहा, वह पत्थर की लकीर बन जाता है। शिष्य उसका ही समर्थन व प्रचार-प्रसार करते हैं, और गुरू के कार्यों व विवेक की सराहना बढ़ा-चढ़ाकर करते हैं।
लेकिन विज्ञान में ऐसा नहीं होता। अगर किसी वैज्ञानिक ने कोई सिद्धान्त पेश किया है, तो अन्य वैज्ञानिक उससे आगे की खोज में जुट जाते हैं। ज़रूरत के अनुरूप उसमें संशोधन करते हैं या उसे खारिज भी कर देते हैं। विज्ञान ही ऐसा क्षेत्र है जिसमें एक छात्र भी अपने शिक्षक के मान्य सिद्धान्त को अमान्य कर सकता है।
बौद्धिकता: यहाँ इस शब्द का इस्तेमाल कुछ निश्चित महत्वपूर्ण मानसिक क्षमताओं के सन्दर्भ में किया गया है। मानव मस्तिष्क कई चीज़ों को करने में सक्षम होता है। इनमें शामिल हैं:
- तर्क-वितर्क करने की क्षमता - इसमें तर्क के आधारभूत नियमों के साथ व्यक्ति की सोच शामिल है।
- कल्पनाशक्ति - इसमें व्यक्ति अपने अनुभवों की व्याख्या करने के लिए एक निराकार अवधारणा का विकास करता है।
- विश्लेषण - इससे व्यक्ति पेश की गई परिकल्पना की महत्ता की पड़ताल करता है।
- समालोचना - विचारों में पैठी तार्किक त्रुटियों का पता लगाने की क्षमता।
- सन्दर्भ व्यवस्था का गठन - इसमें व्यक्ति अपने ज्ञान को सही सन्दर्भों में अवस्थित (एंग्रोज़्ड) करता है।
कई बार पदार्थों के गुणों को परखते हुए थोड़ा तर्क वितर्क किया जाये, कल्पनाशक्ति का उपयोग किया जाए तो दो गुणों के बीच के सह-सम्बन्ध को समझा जा सकता है। डेनमार्क के भोतिकविद् ऑस्ट्रेड ने विद्युत् और चुम्बकत्व के बीच ऐसे ही एक सह-सम्बन्ध को मालूम किया था।
ये सभी बातें विज्ञान के कार्यों में अहम भूमिका निभाती हैं। यहाँ ध्यान देने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि बौद्धिक संवाद की तुलना में चारों ओर घटित हो रहे मानवीय अनुभव कहीं अधिक हैं। ज़िन्दगी के लिए आध्यात्मिक, सौंदर्य और भावनात्मक आयामों की महत्ता कम नहीं है। ये सारे तत्व विज्ञान में भी होते हैं और वहीं दूसरी ओर धर्म, कला और साहित्य में बौद्धिक तत्वों की कमी नहीं होती। लेकिन हर क्षेत्र में ऐसा कोई एक तत्व ज़रूर होता है जो अन्य पर भारी पड़ता है। अगर विज्ञान की बात करें तो यहाँ बौद्धिकता सदैव अन्य तत्वों से आगे रहती है।
मानव सोच: सोचना इन्सान के भेजे के कई कार्यों में से एक है। विज्ञान मानव मस्तिष्क द्वारा महसूस किए गए अनुभवों की अभिव्यक्ति है। विशेषकर विज्ञान इन अनुभवों को समझने व उनकी व्याख्या करने का प्रयास करता है। इससे विज्ञान आवश्यक रूप से मानव उद्यम के रूप में सामने आता है, लेकिन यहीं कुछ दार्शनिक सवाल भी उठते हैं। अगर मानव मस्तिष्क विज्ञान में अहम भूमिका निभाता है तो वैज्ञानिक ज्ञान को किस हद तक पूर्ण रूप से वस्तुनिष्ठ माना जा सकता है? इसे इस प्रकार से भी पूछा जा सकता है कि बाहरी दुनिया के बारे में ज्ञान मानव मस्तिष्क से कैसे स्वतंत्र है। अगर बाहरी दुनिया जैसी कोई चीज़ है तो फिर क्या विज्ञान मानव मस्तिष्क में उस दुनिया का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है?
सभी पहलू: जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि विज्ञान का मकसद प्रत्येक मानवीय अनुभव को समझना है। दार्शनिक अक्सर सवाल उठाते रहे हैं कि आखिर विज्ञान अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति में कितना सफल रहता है। इस दुनिया में जटिलताओं की भरमार है। जैसा कि तमिल कवि अयूवैयार कहते हैं, “हमने जो सीखा है, वह केवल मुट्ठीभर है, जबकि हमें जो सीखना है, वह अपार है।” जितना हम अधिक जानते जाते हैं, यह दुनिया उतनी ही रहस्यमय बनती जाती है।
क्या विज्ञान उस तंत्र का पूर्णरूपेण समाधान पेश कर सकता है जिसके ज़रिए विचार, मूल्य, खुशियाँ, दुख, हास्य इत्यादि पैदा होते हैं? विज्ञान अपने लक्ष्य तक पूर्णरूपेण शायद ही कभी पहुँच पाए। कई वैज्ञानिकों को भी सन्देह है कि विज्ञान कभी दुनिया के सारे आयामों की व्याख्या कर पाने में सफल हो सकेगा, लेकिन फिर भी कई का मानना है कि विज्ञान हर आयाम पर ध्यान तो ज़रूर दे सकता है।
आभासी यथार्थ की दुनिया: हम दुनिया को अपनी संवेदनाओं से ही जानते हैं। ऐसे कई तत्व हैं जिन्हें हम प्रत्यक्ष पहचान नहीं सकते। जैसे कई तरह की गैसें, सूक्ष्म जीव, सूक्ष्म तरंगें इत्यादि। हम विभिन्न प्रकार के उपकरणों आदि के माध्यम से केवल अनुमान लगाते हैं कि किसी गैस, सूक्ष्म जीव या सूक्ष्म तरंग का अस्तित्व है। अब अगर कोई इस बात की कल्पना करे कि इसी तरह फरिश्तों, गन्धर्वों, अप्सराओं का भी अस्तित्व है, लेकिन वे नज़र नहीं आते तो इसमें विज्ञान कुछ नहीं कर सकता। विज्ञान केवल उन्हीं आयामों की बात करता है जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मानव संवेदना तंत्र द्वारा अनुभव किया जा सकता है। यही वजह है कि विज्ञान की इस बात में कोई रुचि नहीं है कि भूत होते हैं या नहीं क्योंकि इनका अनुभव सामान्य ढंग से नहीं किया जा सकता।
परिकल्पनाएँ: विज्ञान सावधानी-पूर्वक तैयार की गई परिकल्पनाओं और स्पष्ट रूप से परिभाषित शब्दावली पर विश्वास करता है। विज्ञान की सफलता व प्रगति के लिए परिकल्पनाएँ ज़रूरी हैं।
परिकल्पनाएँ वे छवियाँ हैं जिनका सृजन मस्तिष्क करता है। कुछ कल्पनाओं को चित्रित या व्याख्यायित किया जा सकता है, जबकि कुछ को नहीं। उदाहरण के लिए गति, बल और यहाँ तक कि ऊर्जा को भी व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन हैमिल्टोनियन, आइसोटोपिक स्पिन या वेव फंक्शन की सजीव कल्पना नहीं की जा सकती जबकि इनकी भौतिक शास्त्र में विशेष भूमिका है। हाँ, यह सच है कि इनका आभास भी नहीं किया जा सकता, लेकिन इन्हें किसी आभासी वास्तविकता के किसी आयाम से सम्बन्धित ज़रूर किया जा सकता है।
गणितीय विश्लेषण: विज्ञान की सफलता के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि आकलित तथ्यों को संख्या के रूप में पेश किया जाए। इसे ही गणितीय विश्लेषण कहा जाता है।
दरअसल, अगर किसी बात को मात्रात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो उससे माना जाता है कि हम एक स्पष्ट नतीजे पर पहुँच गए हैं। प्रकृति के नियम भी गणितीय भाषा में ही पेश करना अनिवार्य हो जाता है। अन्तरिक्ष की कक्षाओं में घूम रहे विभिन्न आकारों के पिण्डों और परमाणु भौतिकी का ज्ञान गणित के बगैर हासिल करना असम्भव था। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अगर गणित नहीं होता तो आधुनिक विज्ञान का भी जन्म नहीं हो पाता।
उपकरण: विभिन्न प्रकार के उपकरण व डिवाइस मानव के ज्ञान को नए आयाम देने में मददगार साबित हुए हैं। ऐसे अनगिनत उपकरण हैं जो विज्ञान की सेवा करते हैं।
किसी बात को भौतिक रूप से ग्रहण करने की मानव की क्षमताएँ सीमित हैं, जैसे बहुत ही क्षीण प्रकाश को हम नहीं देख सकते, बहुत ही कम आवाज़ को सुन नहीं सकते। इस प्रकाश को देखने या आवाज़ को सुनने के लिए हम एम्पलीफाइंग उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं। उपकरण मानव सीमाओं को विस्तार देते हैं।
वी.वी. रमण: रॉचेस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, न्यूयॉर्क में भौतिकी और मानविकी के सेवामुक्त प्रोफेसर। भारतीय परम्परा और संस्कृति पर कई व्याख्यान दिए हैं और विज्ञान व धर्म पर बहुत-सी किताबें, समीक्षाएँ और लेख लिखे हैं। हिन्दु धर्म के विशेषज्ञ माने जाते हैं, खास तौर पर इस क्षेत्र में कि हिन्दु धर्म आधुनिक विज्ञान से कैसे जुड़ता है।
यह लेख स्रोत फीचर्स, अगस्त 2008 से साभार।
सभी चित्र - द बुक ऑफ पॉपुलर साइंस, प्रकाशक - ग्रोलियर इनकॉर्पोरेटेड, न्यूयॉर्क से साभार।