किशोर पंवार
आलू और प्रयोगशाला में? आइए देखें कैसे।
पाकशाला में होने वाले आलू के प्रयोगो से तो हम भलीभांति परिचित हैं, परन्तु इसके अलावा भी आलू के कई उपयोग हैं जिनकी ओर आपका ध्यान कम ही जाता होगा। हम जैसे जीव विज्ञानियों का काम तो आलू के बिना चल ही नहीं सकता।
सबसे पहले, आइये देखें कि आलू आखिर है क्या? वनस्पति विज्ञानियों का कहना है कि आलू जड़ नहीं बल्कि एक ‘परिवर्तित तना’ है। इसके पक्ष में वे कई प्रमाण देते हैं। मसलन आलू पर गठानों (पर्व संधियों) का पाया जाना और इस पर ‘आंख’ होना आदि। आलू की सतह पर यहां-वहां दिखाई देने वाले छोटे-छोटे गड्ढे जिन्हें हम बोलचाल में ‘आंख’ कहते हैं। वास्तव में तने पर पायी जाने वाली कलियां हैं। एक आंख में प्राय: ऐसी तीन कलियां होती हैं। कली की उपस्थिति गठान (पर्वसंधी) की मौजूदगी दर्शाती है और दो कलियों के बीच की दूरी ‘पर्व’। ठीक वैसे ही जैसे गन्ना जिसमें गठान और गठानों के बीच की जगह स्पष्ट दिखाई देती है और प्राय: एक गठान पर एक-एक ‘आंख्अ उस पर भी होती है। फर्क इतना भर है कि गन्ना ज़मीन के ऊपर रहता है और लम्बा तने जैसा दिखाई देता है परन्तु आलू के तने का आकार बदलकर लगभग गोलाकार या अंडाकार हो जाता है, बाकी सब रचनाएं तो दोनों में एक समान ही हैं।
आलू के पौधे में मुख्य तना ज़मीन के बाहर रहता है। मुख्य तने के आधार से कई शाखाएं निकलती हैं जो मिट्टी के अन्दर सतह के समान्तर आगे बढ़ती हैं। कुछ ही समय बाद इन शाखाओं की आगे की वृद्धि रुक जाती है परन्तु पत्तियों में बन रहे भोजन का नीचे की ओर प्रवाह बना रहता है। इस कारण इनका आगे का भाग भोजन संग्रह के कारण फूलता चला जाता है और आलू के रूप में हमारे सामने आता है। इस तरह आलू एक फूला हुआ तना है जो ज़मीन के ऊपर रहने की बजाय अन्दर ही रहता है। इसे कन्द (ट्यूबर) कहते हैं।
सोती-जागती आलू की आंखें
आलू का फैलाव यानी नई फसल लेना भी कम रोचक नहीं है। अन्य सब्जियों और फलों की तरह आलू के बीच नहीं बोये जाते। आलू की खेती में आलू की ‘आंखों’ का बड़ा महत्व है। आलू आलू की इन आंखों को ही बीजों की तरह इस्तेमाल किया जाता है। आंखदार आलू को जब हम बोते हैं तो ये सोयी हुई ‘आंख’ जाग जाती है और नई-नई शाखाओं को जन्म देती है। परन्तु जब आलू को बीज नहीं बल्कि सब्ज़ी के रूप में प्रयोग करना हो तो इन्हें शीत-गृहों में रखा जाता है जहां ये लम्बे समय तक सुषुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं। कभी-कभी इन्हें सुलाए रखने के लिए नेफ्थलीक ऐसिटिक अम्ल का घोल छिड़का जाता है ताकि आलू के कंदों का व्यापारिक महत्व बना रहे।
और जब आलू का प्रयोग बीच की तरह करना होता है तब शीतगृहों से हटाकर 2 प्रतिशत अमोनियम थाया-सायनिक अम्ल या जिब्बरेलिन से इनका उपचार करते हैं। आलू को इथीलीन क्लोरोहायड्रिन की वाष्प में 24 घंटे रखने से भी इनकी नींद उड़ जाती है और ये अंकुरित हो उठते हैं।
प्रयोगशाला में आलू
जीव विज्ञान के अध्ययन में आलू का अच्छा-खासा योगदान है। चाहे कोशिका रचना देखने की बात हो या कोशिका विभेदन को समझने की, किसी न किसी प्रयोग में आलू की ज़रूरत पड़ ही जाती है। विज्ञान की सबसे पुरानी शाखा आकारिकी (मोर्फोलॉजी) से बीसवीं सदी की जैव तकनीकी (बायोटेक्नोलॉजी) जैसी नवीनतम शाखा में भी आलू काम आता है।
तनों के रूपान्तरों की चर्चा हो तो आलू भूमिगत तने का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। कोशिकाओं में भोजन कैसे संग्रहित होता है यह दिखाना हो तो आलू का ज़िक्र आएगा ही। आलू के पतले सेक्शन काट कर आयोडीन के तनु घोल में रखने पर वे नीले-काले रंग के हो जाते हैं। यह आलू में स्टार्च की उपस्थिति दर्शाता है। इसी पतली काट को माइस्कोस्कोप से देखें तो कोशिका रचना के अलावा कोशिकायों में भरे स्टार्च के कण बेहद सुन्दर दिखाई देते हैं।
आलू की कोशिकाओं में स्टार्च
जीव विज्ञान में तनों, पत्तों आदि की एकदम पतली व हर तरफ से बराबर मोटाई की आड़ी व खड़ी काट तैयार करने को अपने आप में कला माना जाता है। खास तौर पर नर्म पौधों के पतले सलेक्शन काटना काफी मुश्किल होता है। ऐसे में आलू का ‘पिथ’ के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके लिए काटे जाने वाले पौधे को आलू के छोटे टुकड़े में पतला चीरा लगाकर बीच में रख देते हैं। और फिर आलू के पतले सलेक्शन काटते चले जाते हैं। इस तरह आलू के साथ अन्दर रखा नर्म पौधा भी तरतीब से कटता रहता है; और आलू स्वयं कटकर दूसरे पौधे की आंतरिक रचना दिखाने में सहायक होता है।
आलू से ऑस्मोस्कोप
ऑस्मोस्कोप बनाने के लिए एक बड़ा-सा आलू लेकर उसे चाकू की मदद से दो लगभग बराबर हिस्सों में बांट देते हैं। इनमें से एक टुकड़े का छिलका निकालकर बउसे घनाकारनुमा आकर दे देते हैं। फिर चाकू को घनाकार टुकड़े की किसी एक सतह पर रखकर गोल-गोल घुमाने से उसमें गहरा गड्ढा दिया जाता है।
आलू के इस टुकड़े को पानी से भरी एक कटोरी या गहरी-सी तश्तरी में रखकर गड्ढे के अंदर नमक का अत्यंत सांद्र घोल भर देते हैं।
घोल की ऊपरी सतह को दर्शाने के लिए एक आलपिन लगा दी जाती है। दो-तीन घंटे बाद देखिए कि कया घोल के तल में कोई अंतर आता है? आलू के अंदर रखे गए नमक से सांद्र घोल के तल में आया यह परिवर्तन जीवित वस्तुओं में पाई जाने वाली अर्धपारगम्य (semi permeable) झिल्लियों के व्यवहार के बारे में हमें जानकारी देता है।
जीवों के अन्दर होने वाली विभिन्न जैविक क्रियाओं के प्रदर्शन और उन्हें समझने में भी आलू बहुत उपयोगी साबित होता है। पौधों में पानी के आवागमन को समझने और उसका प्रदर्शन करने लिए आलू से ‘ऑस्मोस्कोप’ बनाते हैं। यह सरल प्रयोग हायर सेकेंडरी से लेकर स्नातक स्तर की कक्षाओं तक में किया जाता है।
इससे आगे बढ़े तो जैव रसायन और माइक्रोबायलॉजी की प्रयोगशाला भी आलू के बिना सूनी है। पौधे में श्वसन क्रिया का प्रदर्शन करना हो, आलू हाज़िर है। इस हेतु आलू के छोटे-छोटे टुकड़े कर उन्हें फिनोफ्थेलीन के हल्के रंगीन घोल से भरी टेस्ट ट्यूब में रख दीजिए। थोड़ी देर बाद देखिए क्या होता है? फिनोफ्थेलीन का रंग उड़ा तो समझिये कि आलू श्वसन कर रहा है। श्वसन करने कि आलू कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ेगा जो पानी में घुलकर कार्बनिक अम्ल बनाएगी। यह अल्म फिनोफ्थेलीन के रंगीन घोल को रंगहीन बना देगा।
यही प्रयोग मिथिलीन ब्लू के साथ भी किया जा सकता है। एक परखनली में मिथिलीन ब्लू का हल्का घोल भरकर उसे आलू के टुकड़े डाल दिए जाते हैं। इस प्रयोग में ज़रूरी है कि परखनली में घोल को ऊपर तक भरकर उसे कॉर्क से हवाचुस्त कर दिया जाए। यहां भी आलू के श्वसन करने की वजह से मिथिलीन ब्लू का रंग उड़ जाता है। दरअसल ऑक्सीकृत अवस्था में मिथिलीन ब्लू का रंग नीला होता है। और रिडयूस्ड स्वरूप में रंगहीन। यही कारण है कि इस प्रयोग में घोल को परखनली में ऊपर तक भरकर परखनली को हवाचुस्त बना देते हैं ताकि मिथिलीन ब्लू हवा की ऑक्सीजन के संपर्क में न आ सके।
आलू के साथ कई छोटे-छोटे मज़ेदार प्रयोग किए जाते हैं जो जीवों में मौजूद विभिन्न एंज़ाइम की उपस्थिति दर्शाते हैं।
आंख वाले भाग से आलू के पतले टुकड़े काटकर यदि उन्हें एक प्रतिशत टी.टी.सी. (ट्राय क्लोरो टेट्रा ज़ोलियम क्लोराइड) के घोल में रख दिया जाता है तो कुछ समय बाद वे लाल-गुलाबी होने लगते हैं जो श्वसन क्रिया में काम आने वाले डीहायड्रोजीनेज़ एंज़ाइम की उपस्थिति दर्शाता है। आलू की नई फसल लगाने से पहले अक्सर इस प्रयोग को यह पता लगाने के लिए किया जाता है कि इन आलू की आंखों में से नए पौधे पैदा होंगे क्या? अगर आंखें श्वसन कर रही हैं तो इसका अर्थ है कि वे ज़िंदा हैं और नए पौधे पैदा कर सकती हैं।
इसी तरह यदि एक टेस्ट ट् यूब में हायड्रोजन पेरा-ऑक्साइड का तनु घोल भरकर आलू के छोटे-छोटे, पतले टुकड़ों को ऊपर से डाला जाए तो ये टुकड़े नीचे जाकर तैरते हुए ऊपर आ जाते हैं। आलू में केटेलेज़ हायड्रोयन पेरा-ऑक्साइड को पानी और ऑक्सीजन में तोड़ देता हैं। ऑक्सीजन के बुलबुले आलू की सतह पर चिपकने के कारण ही आलू के ये टुकड़े सतह पर आकर तैरने लगते हैं। इस प्रयोग से आलू के केटेलेज़ एंज़ाइम की उपिस्थिति दर्शाई जा सकती है।
शुरुआती मायक्रोबायोलॉजी में भी आलू काम आता है। सूक्ष्मजीवियों अथवा कोशिकाओं को कृत्रिम पोषक माध्यम पर उगाने के लिए इसका उपयोग होता है; जिसे पी.डी.ए. या ‘पोटेटो-डेक्ट्रोज’ अगर कहते हैं। इस संवद्र्धन माध्यम पर सूक्ष्म जीवियों को फलते-फूलते देखना कर रोमांचक नहीं होता।
साधारण-सा दिखने वाला यह बेडौल मटमेला भूरा आलू कितने असाधारण महत्व का है, है न?
किशोर पंवार- सेंधवा, खरगोन, म.प्र. में स्नातकोत्तर महाविद्यालय में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं।
संवर्धन और आलू
जिस प्रकार प्रत्येक जीव को जीवित रहेने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है उसी तरह सूक्ष्मजीवों को संवर्धित करने के लिए भी एक माध्यम की ज़रूरत होती है। ये माध्यम ही इन सूक्ष्मजीवों के लिए भोजन का कार्य करता है।
सूक्ष्मजीवों का भोजन और आवास जिस माध्यम में से मिलता है उसे संर्वधन माध्यम कहते हैं। इसमें विभिन्न तत्व जैसे हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, सल्फर, फॉस्फोरस, कैल्शियम, मैग्निशियम, निकल, कोबाल्ट, बेरियम आदि होते हैं। विभिन्न सूक्ष्मजीवी अलग-अलग तरह का भोजन लेते हैं - कुछ प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से तत्वों को ग्रहण करते हैं जबकि कुछ यौगिकों से पोषण प्राप्त करते हैं। अत- सूक्ष्मजीवियों का अध्ययन करते वक्त हमें अक्सर एक आदर्श संवर्धन माध्यम की ज़रूरत पड़ती है।
सरलतम संवर्धन माध्यम पी.डी.ए. (पोटेटो डेक्ट्रोज़ अगर) है अर्थात इस आलू, डेक्सट्रोज़ (एक प्रकार की शर्करा) व ‘अगर-अगर’ के मिश्रण से बनाते हैं। इसमें 200 ग्राम छिलके वाले आलू, 10 ग्राम डेक्सट्रोज़ व 15 ग्राम ‘अगर-अगर’ लेते है। ‘अगर-अगर’ एक प्रकार की समुद्री शैवाल ग्रेसिलेरिया या गेलिडियम की भित्ति से प्राप्त होने वाला पर्दाथ है।
पी.डी.ए. बनाने के लिए आलू के छोटे-छोटे टुकड़े करके 500-700 ग्राम पानी में इतना उबालते हैं कि आलू पूरी तरह पक जाए। अब इन उबले आलूओं को एक कपड़े में लेकर निचोड़ देने से सारा स्टार्च बीकर में आ जाता है। एक अलग बीकर में ‘अगर-अगर’। पाउडर को पानी में मिलाकर गर्म करके घोल बनाया जाता है। अब स्टार्च का घोल, अगर-अगर का घोल और डेक्सट्रोज़ को मिलाकर पानी द्वारा पूरी मात्रा 1000 मि.ली. ली जाती है। इस मिश्रण को कोनिकल फ्लास्क में डालकर रूई का कॉर्क जैसा बनाकर फ्लास्क के मुंह को बंद कर देते हैं कि रूई को लगभग एक इंच फ्लास्क में डालकर रूई का कॉर्क जैसा बनाकर फ्लास्क के मुंह के अंदर तक इस तरह डालते हैं कि ये रूई न तो बहुत टाइट हो, न ही बहुत लूज़। इस रूई के ऊपर कागज़ लपेटकर धागा बांध देते हैं जिससे फ्लास्क को जीवाणुरहित करते समय रूई गीली न हो जाये। संपूर्ण पी.डी.ए. घोल को अलग-अलग कोनिकल फ्लास्क में डालकर इसी प्रकार बंद कर देते हैं। अब इन सभी फ्लास्क को जीवाणुरहित करते हैं। इस तरह सूक्ष्मजीवों के फलने-फूलने के प्रयोग करने के लिए पी.डी.ए. माध्यम तैयार हो जाता है।
अगर-अगर ‘चाइना ग्रास’ के नाम से बाज़ार से खरीदा जा सकता है। ‘चाइना ग्रास’ का इस्तेमाल आइस्क्रीम बनाने में अक्सर किया जाता है और ये बाज़ार में आसानी से उपलब्ध है।