किशोर पंवार
कीटभक्षी पौधे – हर कहीं जिक्र मिल जाता है इनका। जीवविज्ञान की किताबों में तो कुछ न कुछ लिखा ही रहता है, अखबारों में भी इनके बारे में खूब छपता रहता है। इसलिए यहां पर एक कीटभक्षी पौधे का जिक्र केवल इसलिए करेंगे क्योंकि केकड़ा मकड़ी की बात करने के लिए कीटभक्षी पौधे सरासेनिया का उल्लेख लाजिमी है। आप कहेंगे ऐसा भी क्या?
एक की बात दूसरे के बिना क्यों नहीं हो सकती, इसके बारे में बाद में बताएंगे पहले ज़रा कीटभक्षी सरासेनिया की बनावट पर नज़र डालें। रंगीन, आकर्षक और मदहोश कर देनेवाली गंध से युक्त कलशनुमा रचना ऊपर की तरफ मकरंद स्रावित करता हुआ ढक्कन कलश के पास अंदर की ओर कड़े चिकने रोएं ताकि एक बार शिकार हाथ में आ जाए तो बस अंदर की तरफ धंसते जाने के अलावा कोई और चारा नहीं। और अंतत: घड़े की पेंदी में जमा वह पाचक रस जो कीड़े का काम तमाम कर पचा जाता है उसे।
पर मकड़ी कहां गई जनाब वहीं है, ज़रा गौर से देखिए तो सही, वहीं कलश के मुंह के पास। यही तो कमाल है, केकड़ा मकड़ी कीटभक्षी सरासेनिया के कलश के मुह के अंदर- कड़क रोओं से थोड़ा ऊपर अपना जाल बना लेती है। ताकि कीट आकर्षित होकर कीटभक्षी पौधे की तरफ आएं और उसके जाल में फंस जाएं। इससे भी अधिक मज़ेदार बात यह है कि मकड़ी न केवल उस कलश में बेखौफ घूमती रहती है बल्कि कभी-कभी खतरा लगने पर पेंदी में पड़े पाचक रस में भी घुस जाती है, जिसका इस मकड़ी पर कोई असर नहीं होता।
- कलशनुमा रचना में घूमती मकड़ी
- केकड़ा मकड़ी
- उसका बुना हुआ जाता: मकड़ी यह जाला मुंह के पास बिनती है ताकि कीड़ों को नीचे पाचक रस में जाने से रोक सके।