भरत पूरे
चाहे जीव जलीय हो या फिर ज़मीन पर रहने वाले – सभी को वातावरण से गैसों का आदान प्रदान करने के लि श्वसन सतह की ज़रूरत होती है। कुछ में शरीर की त्वचा ही यह काम करती है तो कुछ में इस श्वसन सतह के लिए विशेष अंग विकसित हुए हैं।
शायद इस सवाल ने कभी आपको भी परेशान किया होगा कि हम सांस क्यों लेते हैं? जीव-जंतु, पेड़-पौधे सभी सांस लेते हैं; लेकिन यहां हम अपनी चर्चा को केवल जीव-जंतुओं तक ही सीमित रखेंगे।
दरअसल सभी जीवधारयिों को विभिन्न शारीरिक गतिविधियों के लिए ऊर्जा की ज़रूरत होती है। इसलिए प्रत्येक जीवधारी को किसी-न-किसी तरह पोषण करना होता है। पोषण के लिए जो भोज्य-पदार्थ लिए जाते हैं, ऊर्जा की आपूर्ति उनसे ही होती है। भोज्य–परार्थों में प्रोटीन, सेल्युोज़ कार्बोहाइड्रेट एवं वसा विभिन्न अनुपात में होते हैं। शरीर के भीतर प्रत्येक काशिका में इन्हीं में से मुख्य तौर पर कार्बोहाइड्रेट और वसा पदार्थो का ऑक्सीकरण होता है। ऑक्सीकरण की इस क्रिया में ऊर्जा निकलती है। और ऑक्सीकरण हो पाए इसके लिए ज़रूरी है वहां ऑक्सीजन का होना।
अत: श्वसन सिर्फ सांस लेने या छोड़ने की क्रिया न होकर कोशिका के जीवद्रव्य में होने वाली वे रासायनिक क्रियाएं हैं जिनसे ऊर्जा मुक्त होती है। चूंकि ये कोशिका में होता है इसलिए इसे कोशिकीय श्वसन भी कहते हैं।
चूंकि इसमें ऑक्सीजन की उपस्थिति में श्वसन होता है इसलिए इसे ऑक्सी श्वसन भी कहा जाता है। अधिकांश जीव इसी तहर से श्वसन करते हैं।
रक्त का काम
जीव जो आहार ग्रहण करते हैं उसका पाचन होता है। पाचन से तात्पर्य है, आहार में उपस्थित सेल्युलोज़, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट एवं वसा का सरल रासायनिक अणुओं में टूटना। आहार नाल में बिछी रक्त वाहिनियों द्वारा ये पदार्थ अवशोषित कर लिए जाते हैं और फिर रक्त द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुंचा दिए जाते हैं और फिर रक्त द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुंचा दिए जाते हैं। अब भोज्य पदार्थ तो कोशिकाओं तक पहुंच गए। लेकिन इनका ऑक्सीकरण हो पाए इसके लिए ज़रूरी है ऑक्सीजन का होना। ये ऑक्सीजन शरीर में कैसे प्रवेश करती है एवं उसे कोशिकाओं तक कैसे पहुंचाया जाता है?
सांस द्वारा हवा फेफड़ों में पहुंचती है। हवा में ऑक्सीजन के अलावा और भी अनेक गैसें होती हैं जैसे कि नाइट्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड। लेकिन इस मिश्रण में से शरीर को केवल ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है। अत: फेफड़ों में ऐसी कोई व्यवस्था आवश्यक है जो सांस द्वारा ली गई हवा में से केवल ऑक्सीजन को सोख ले तथा कोशिकीय श्वसन के दौरान पैदा कार्बन डाइऑक्साइड को बाहर निकाल दे।
फेफड़ों में रक्त वाहिनियों का जाल बिछा रहता है। रक्त में मौजूद विशेष प्रकार की लाल कोकिशकाओं में एक रसायन होता है – हीमोग्लोबिन। इस की खूबी यह होती है कि जैसे ही यह हवा के संपर्क में आता है, उसमें उपस्थित ऑक्सीजन के साथ यह तुरन्तु रासायनिक क्रिया कर एक यौगिक बना लेता है। या यूं कहें कि हवा की ऑक्सीजन को अपने साथ बांध लेता है। इस यौगिक को ऑक्सी-हीमोग्लोबिन कहते हैं। ऑक्सीजन लिया हुआ ये रक्त जब कोशिकाओं तक पहुंचता है तो वहां इसका विघटन हो जाता है। और यह ऑक्सीजन कोशिका के पास चली जाती है। यही ऑक्सीजन कोशिका के जीवद्रव्य में उपस्थित शर्कराओं और वसा का ऑक्सीकरण करती है।
इस पूरी रायायनिक प्रक्रिया में ऊर्जा तो मुक्त होती ही है साथ ही कार्बन डाइऑक्साइड का निर्माण भी होता है। रक्त इस कार्बन डाइऑक्साइड को लेकर वापस फेफड़ों तक पहुंचाता है। इस तरह फेफड़ों में रक्त न सिर्फ ऑक्सीजन ले जाने का काम करता है बल्कि कार्बन डाइऑक्साइड को लेकर आने का काम भी करता है। यह कार्बन डाइआक्साइड छोड़ी हुई सांस के साथ बाहर निकल जाती है। संखेप में देखें तो यह पूरी प्रक्रिया दो चरणों में पूरी होती है।
- ऑक्सीजन को कोशिकाओं तक पहुंचाना।
- कार्बन-डाइऑक्साइड को शरीर से बाहर निकालना।
कैसी-कैसी श्वसन सतह
सांस लेने और छोड़ने के लिए भूमिका पर और जल में रहने वाले बहुत से जीव जंतु फंफड़ों का उपयोग करते हैं। किनतु सभी जीव जन्तुओं में फेफउ़ो नहीं होते। दरअसल फेफड़े सिर्फ ऐसी सतह हैं जहां वायुमंडल एवं शरीर की कोशिकाओं के मध्य गैसीय आदान-प्रदान होता है। इस इसे श्वसन सतह कह सकते हैं। अत: जिन जन्तुओं में फेफड़े नहीं होते उनमें किसी और तरह की श्वसन सतह हो सकती है। मुख्य तौर पर श्वसन सतह ऐसी होती हैं:
- अधिकतर एक कोशीय जीव पानी में रहते हैं। उनमें अपने आसपास के जलीय वातावरण से सीधे विसरण द्वारा गैसीय आदान प्रदान हो जाता है। जब भी जीव के अंदर ऑक्सीजन की सांद्रता कम हुई वह बाहर से रिसकर अंदर आ जाती है और जब अंदर कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात अधिक हो जाता है तो वह विसरित हो बाहर निकल जाती है।
- कुछ काफी छोटे जीव, या फिर थोड़े बड़े – लेकिन जिनकी ऑक्सीजन की खपत कम है – वो अपनी शरीर की सतह (त्वचा) से ही श्वसन कर लेते हैं। सतह के ठीक पीछे रक्त नलिकाओं का जाल बिछा रहता है। विसरण तेज़ी से हो सके इसलिए इनकी त्वचा बहुत पतली होती है। वैसे कुछ उभयचर (जैसे मेंढक) त्वचा के साथ-साथ फेफड़ों से भी श्वसन करते हैं।
- गलफड़े शरीर के बाहर की ओर स्थित श्वसन सतह है। बहुत पतली इस सतह के पीछे रक्त नलिकाएं होती हैं।
- सीधे हवा से सांस लेने वाले जीवों से आमतौर पर फेफड़े पाए जाते हैं। फेफड़े अंदर की और मुड़ी श्वसन सतह है जिसका क्षेत्रफल बहुत अधिक होता है। ऐसे जीवों में ऑक्सीजन को प्रत्येक कोशिका तक पहुंचाने का काम रक्त को करना होता है।
- कीटों में शरीर के अंदर नलियों का जाल बिछा रहता है। ये ऊतकों के पास पहुंचकर खत्म हो जाती हैं। हवा इनमें प्रवेश करती है, महीन नलिकाओं के ज़रिए प्रत्येक कोशिका तक पहुंच जाती है।
रक्त और पानी की विपरीत दिशा :
जलीय जंतुओं को एक फायदा है – ऑक्सीजन का पहले से पानी में घुला होना; इसलिए उन्हें ज़मीनी जंतुओं जैसे पहले ऑक्सीजन को घोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन एक दिक्कत भी है, वो यह कि पानी में ऑक्सीजन की मात्रा काफी कम होना – लगभग 0.5 प्रतिशत। इसमें से वे कैसे पर्याप्त ऑक्सीजन ग्रहण कर पाएं, उनके श्वसन तंत्र की विशेषता इसी में है।
प्रत्येक गिल हजारों छोटे-छोटे तंतुओं से मिलकर बना होता है; ये तंतु प्लेट (डिस्क) जैसी छोटी-छोटी रचनाओं से मिलकर बने होते हैं, जिन्हें लेमेला कहते हैं। दरअसल यही लेमेला वो हल है जिनकी मदद से जलीय जीव – पानी में चुस्ती से सांस ले पाते हैं। लेमेला में रक्त नलिकाओं का जाल बिछा रहता है। और बहते खून से पानी की दूरी काफी कम- एक कोशिका जितनी मोटाई के बराबर – होती है। पतली सतह का मतलब है रक्त कोशिकाओं और पानी में घुली ऑक्सीजन के बीच विसरण तेज़ी से होना। यह पानी मुंह के रास्ते से दाखिल होता है और गिल के ढक्कन से होकर बाहर निकलता है और गिल के हर तंतु के संपर्क में आता है, वहीं रक्त इसके विपरीत दिशा में चल रहा होता है। इसी विपरीत धारा प्रवाह की वजह से रक्त, पानी में मौजूद ऑक्सीजन में से अधिकतम ऑक्सीजन ले लेता है।
विपरीत प्रवाह का फायदा :
ऊष्मा के संचरण का सबसे बढि़या अनुभव होता है जब गर्म दूध से भरे गिलास को ठंडा करने के लिए थेड़े से पानी में हिलाया जाता है; थेड़ी ही देर में पानी अच्छा- खासा गर्म हो उठता है। अब हम जिस प्रयोग की बात कर रहे हैं उसमें थोड़ा अपने अनुभव को भी जोड़ना पड़ेगा।
मान लीजिए दो पाइप एक दूसरे से सटे हुए रखे हैं जिनके बीच ऊष्मा का आदान-प्रदान हो सकता है। अब एक में आपने 80 डिग्री से. के गर्म पानी को बहाना शुरू किया और दूसरे में 20 डिग्री सेल्सियस के पानी को। दोनों एक ही दिशा में बह रहे हैं। इस स्थिति में ऊष्मा गर्म से ठंडे की ओर बहनी शुरू होगी। लेकिन एक बार जहां दोनों पाइपों में पानी का ताप एक समान हो गया उष्मा बहनी बंद हो जाएगी।
अब ज़रा दूसरी स्थिति पर गौर कीजिए जिसमें दोनो पाइपो में पानी विपरीत दिशा में बह रहे हैं। इस दिशा में उष्मा का संचरण अधिक बेहतर होगा क्योंकि नीचे वाले पाइप में बह रहा ठंडा पानी गर्म तो होता जाएगा लेकिन हर बिन्दु पर वह ऊपर वाले पाइप के गर्म पानी से कम ताप का ही रहेगा इसलिए हर बिन्दु पर नीचे का पानी कुछ और गर्म हो जाएगा और इस तरह एक दिशा में प्रवाह की तुलना में अधिक ऊष्मा सोखने में सक्षम है।।
मछली के गलफड़ों में बहता रक्त, पानी के प्रवाह की विपरीत दिशा में बहने के कारण, पानी में मौजूद (जिसमें कि ऑक्सीजन की मात्रा बेहद कम हैं) अधिकतर ऑक्सीजन सोखने में कामयाब हो जाता है।
सौ वर्ग मीटर के फुफड़े :
धरती पर रहने वाले जंतुओं को सूखे मौसम का सामना करना पड़ता है, जिसमें पानी के वाष्पन की दर काफी तेज़ होती है। इसलिए अगर श्वसन अंग बाहर की ओर हो तो सबसे बड़ी दिक्कत होगी उन्हें लगातार गीला रख पाने की, ताकि ऑक्सीजन लगातार घुलती रहे। इस समस्या से निपटने का एक तरीका है शरीर के अंदर की ओर मुड़ी श्वसन सतह जो सीधो बाहरी वातावरण के संपर्क में न हो। दूसरी ज़रूरत हे कि सतह पर्याप्त रूप से बड़ी हो ताकि सोखी जानी वाली ऑक्सीजन की मात्रा हर कोशिका की ज़रूरत है कि सतह पर्याप्त रूप से बड़ी हो ताकि सोखी जानी वाली ऑक्सीजन की मात्रा हर कोशिका की जरूरत को पूरा कर सके। तीसरी आवश्यकता है किसी माध्यम की जो श्वसन सतह से ऑक्सीजन लेकर उसे हर कोशिका तक
A, B. और C. मुख्य श्वास नली और उसकी शाखाएं। 1. हवा के अंदर जाने का रास्ता 2. खून के अंदर जाने का रास्ता 3. अंदर से होकर ऑक्सीजन युक्त खून यहां से बाहर निकलता है।
पहुंचा सके, कोशिका में पैदा हो रही कार्बन डाइऑक्साइड को बाहर निकालने का काम भी कर सके। फेफड़े अंदर की ओर मुड़ी एक संरचना है – एक लचीली थेली की तरह। इस बैग में छोटे-छोटे बुलबुलों के समान रचनाएं होती हैं जिन्हें ‘एलविओली’ कहते हैं- गैसों का आदान प्रदान यहीं होता है, ये हमेशा नम बने रहते हैं। इनकी वजह से फेफड़ों का क्षेत्रफल काफी बढ़ जाता है। अगर फेफड़ों को बाहर निकालकर बिछा दिया जाए तो ये करीब सौ वर्ग मीटर की जगह घेर लेंगे। ‘एलविओली’ में रक्त नलिकाओं का जाल बिछा रहता है। ये रक्त शरीर की कोशिकाओं से होकर यहां आता है कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है ओर ऑक्सीजन लेकर फिर वापस कोशिकाओं की ओर चला जाता है।
बाजुओं में मौजूद श्वसन रंध्र; ये बंद होते और खुलते रहते हैं; हवा इन्हीं में से होकर प्रवेश करती है। ऊपर के चित्र में पिस्सु के श्वसन रंध और उसकी मुख्य श्वसन नलिकाएं दिखाई गई हैं।
गैसों के आदान प्रदान के लिए नलिकाएं:
शरीर के अंदर की ओर विकसित एक दूसरी तरह का तंत्र है ट्रेकिअल तंत्र। कीट इसी तरह श्वसन करते हैं। इनमें शरीर के अंदर नलिकाओं का जाल बिछा रहता है (देखिए चित्र); जो शरीर के प्रत्येक फतक तक पहुंचती हैं; ये नलिकाएं दोनो बाजुओं में स्थित श्वसन रंध्रों की मदद से बाहरी वातावरण से जुड़ी रहती हैं। हवा इन रंध्रों में से होकर सीधे नलिकाओं में घुसती है; नलिका के अंतिम सिरे पर द्रव भरा रहता है; हवा की ऑक्सीजन इसमें घुल जाती है और नलिका से जुड़े कोशिकीय ऊतक में विसरित हो इस द्रव के माश्यम से नलिकाओं की हवा में मिल जाती है। यानी इस तंत्र में ऑक्सीजन ले जाने वाले किसी माध्यम (जैसे कि खून) की ज़रूरत नहीं पड़ती। इस तंत्र की दक्षता इसी से समझ में आती है कि कीट काफी फुर्तीले और चुस्त जीव हैं; यानी उनके काम के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन इस तरीके से हासिल हो जाती है।
इन सभी श्वसन सतहों में एक बात ध्यान देने योग्य है कि जिन जन्तुओं में श्वसन सतह एवं शरीर की ऊतकीय कोशिकाओं में दूरी है वहां गैसों को ऊतकों तक लाने ले जाने का कार्य रक्त को करना होता है। इस हेतु रक्त में ऐसे विशिष्ट रासायनिक पदार्थ होते हैं जो ऑक्सीजन के साथ सरलता से मिलकर यौगिक बना सकें एवं कोशिकाओं के समीप विघटित होकर ऑक्सीजन मुक्त कर सकें।
इन पदार्थों को कहते हैं। उदाहरण के लिए हमारे खून में पाया जाने वाला हीमोग्लोबिन। हीमोग्लोबिन लगभग सभी रीढ़धारी जन्तुओं के खून के अलावा केंचुए के रक्त में भी होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि केंचुए के रक्त में हीमोग्लोबिन कोशिकाओं में न होकर द्रव में घुला होता है। किनतु कुछ जन्तुओं जैसे घोंघे, सीप, झिंगों, केकड़ों आदि के रक्त में हीमोग्लोबिन के बजाए हीमोसायनिन नामक पदार्थ होता है। इस पदार्थ की वजह से इनके रक्त का रंग नीला होता है। कुछ प्रकार के केंचुओं में हेमएरिथ्रिन या क्लोरोक्रुओनि प्रकार के पदार्थ होते हैं।
अभी तक जो हमने देखा उसमें श्वसन क्रिया में किसी-न-किसी भोज्य पदार्थ के ऑक्सीकरण की क्रिया अवश्य होती है। लेकिन कुछ परजीवी जैसे फीताकृमि, गोलकृमि आदि जो किसी दूसरे जुतु के शरीर के किसी अंग में अपना जीवन जीते हैं उन तक तो हवा या ऑक्सीजन नहीं पहुंचती तो फिर ये श्वसन कैसे करते होंगे? कुछ सूक्षम जीव तो ऐसे वातावरण में रहते हैं जहां ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होती। लेकिन उन्हें भी ऊर्जा की ज़रूरत तो होती ही है। इसे ये कैसे पूरा करते हैं?
अनॉक्सी श्वसन
दरअसल इनमें जिन रासायनिक क्रियाओं के द्वारा ऊर्जा पैदा होती है उनमें ऑक्सीजन की ज़रूरत नहीं होती। इसलिए इसे अनॉक्सी श्वसन कहे हैं। इनमें ऊर्जा के साथ-साथ कार्बन-डाइऑक्साइड बनने की अपेक्षा अन्य रासायनिक पदार्थों का निर्माण होता है या फिर कार्बन डाइऑक्साइड के साथ अन्य रासायनिक पदार्थ बनते हैं। उदाहरण के लिए खमीर के जीवाणु यीस्ट की श्वसन क्रिया में इथाइल अल्कोहल एवं एवं कार्बन डाइऑक्साइड निर्मित होते हैं। लेकिन अनॉक्सी-श्वसन में पैदा होने वाली ऊर्जा ऑक्सीश्वसन के मुकाबले काफी कम होती है।
वैसे अगर हमें भी कभी अनॉक्सी श्वसन करना पड़े तो – घबराइए नहीं लेकिन ये सच है कि कभी-कभी हम ऑक्सी श्वसन करने वाले जंतुओं को भी ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है।
ये तो शायद अनुभव किया होगा कि खूब तेज़ दौड़ने या कसरत करने के दौरान सांस का चलना काफी तेज़ हो जाता है और रूकने के बाद थोड़ी देर तक थकान का अनुभव होता है। दरअसल इन स्थितियों के दौरान शरीर की क्रियाशालता काफी बढ़ जाती है। इसलिए अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है; यानी कोशिकाओ को अधिक ऑक्सीजन चाहिए; लेकिन उनहें उतनी फुर्ती से ऑक्सीजन नहीं मिल पाती इसलिए शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है; परिणाम स्वरूप कोशिका में चलने वाली रासायनिक क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड और ऊर्जा उत्पादित होने की बजाए लेक्टिक अम्ल (जो अनॉक्सी-श्वसन का उत्पाद है) बनने लगता है।
इसीलिए कसरत करने और तेज़ दौड़ने के बाद भी काफी देर तक सांस धौंकनी के समान चलती रहती है ताकि ऑक्सीजन की कमी को पूरा किया जा सके ओर बने लेक्टिक अम्ल से छुटकारा पाया जा सके। लेक्टिक अम्ल और ऑक्सीजन कि क्रिया से कार्बन डाइऑक्साइड, पानी और ऊर्जा पैदा होती है। तो अबकी बार अगर दौड़ने के बाद थकान महसूस हो आपको तो मालूम ही होगा कि इसकी वजह क्या है।
भरत पूरे: इंदौर के होलकर विज्ञान महाविद्यालय में प्राणीयशास्त्र के प्राध्यापक।