जे.बी.एस. हाल्डेन
". . . सच तो यह है कि आप लोगों को अभ्यस्त कर सकते हैं कि वे भाप के इंजन, भाषाई व्याकरण या नदियों के अध्ययन की तरह अपने शरीर को भी ऐसी चीज़ के रूप में देखने लगें जिसका अध्ययन किया जा सकता है।"
मेरे पास बहुत से पत्र आते रहे हैं जिनमें मानव प्रजनन के तथ्यों के बारे में बच्चों को कैसे पढ़ाया जाए, इस संबंध में मेरे विचार पूदे जाते हैं। पर इन सवालों का जवाब देते हुए मैं बहुत झिझकता हूं। हालांकि मैं विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को यौन संबंधी विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देता हूं, लेकिन बच्चों को यह सब पढ़ाने का कोई सीधा अनुभव मेरे पास नहीं है।
मेरे ख्याल से इस समस्या के प्रति हमारे रवैये में कई खामियां हैं। और इनमें से कुछ इस कारण पैदा होती हैं, क्योंकि यौन संबंध उत्पीड़न के साधन के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। यह उत्पीड़न स्पष्ट और ठोस भी हो सकता है जैसे कि वेश्यावृत्ति में; या फिर किसी हद तक छुपा हुआ – जैसे कि जब कोई पति अपनी पत्नी से यह अपेक्षा रखे कि वो घर में सोलह घंटे काम करे।
यह स्थिति तभी बदल सकती है जब महिलाओं और पुरूषों के बीच आर्थिक समानता हो और काम के लिए वेतन का सिद्धांत घरेलू कामों पर भी लागू हो।
वैसे किस्सा यहीं खत्म नहीं होता। सभी तरह के समाजों में यौन संबंधों के साथ एक भावनात्मक पहलू भी जुड़ा रहता है। इस वजह से इन पर कोई तर्कसंगत चर्चा मुश्किल हो जाती है। आमतौर पर ये भावनात्मक पहलू धर्म से जुड़ें होते हैं, और जहां नहीं भी होते वहां भी यौन संबंधों के बारे में भावुकता और अश्लीलता के बिना चचा हो पाना मुश्किल होता है।
हां, एक तरह के लोग हैं जो काफी हद तक ऐसा कर पाते हैं – वे हैं पेशेवर जीव-वैज्ञानिक। यौन क्रिया बहुत-सी जैविक प्रक्रियाओं में से अधिकांश लोगों के लिए सबसे अधिक दिलचस्प भी नहीं है। हमें धोंघे द्वारा शक्कर इकट्ठा करने का अनोखा ढंग भी उतना ही दिलचस्प लगता है जितना उसके द्वारा अपने सहचर के अंदर कणिश (Spike) डालना, आदमी की थायरॉइड ग्रंथि या जिगर (Liver) के स्रावों में भी हमें उतनी ही दिलचस्पी होती है जितनी वृषण (Testicles) के स्रावों में। चाहे चर्चा में शामिल होने वाले सभी पुरूष हो या स्त्रियां, हम सब बड़े आराम से इनमें से एक विषय से दूसरे में चले जाते हैं। शर्म, मज़ाक और भावुक वातावरण की अपेक्षा इस तरह के वातावरण में शायद यह खोज पाना ज़्यादा आसान होता है कि मानव यौन संबंधों में क्या सही है और क्या गलत।
बच्चों को जीवविज्ञान पढ़ाकर इस तरह के मानसिक ढांचे में ढाला जा सकता है। परन्तु वह वास्तविक जीवविज्ञान होना चाहिए – मनुष्य समेत जीवित पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों का अध्ययन। स्कूली जीवविज्ञान में केवल शरीर की रचना का वर्णन होता है और पौधों को लेकर कुछ प्रयोग। जबकि इसमें मानव शरीर क्रिया विज्ञान व शरीर की रचना को भी शामिल किया जाना चाहिए। स्वाभाविक है कि बच्चों से यह अपेक्षा तो नहीं हो सकती कि वे शव की चीर फाड़ करें या एक दूसरे के ऊपर ऐसे प्रयोग करें जिनमें सावधानी से रासायनिक विश्लेषण और विद्युतीय मापन करना पड़ता है।
लेकिन हर माध्यमिक स्कूल में एक कंकाल ज़रूर होना चाहिए और एक मॉडल भी जिसमें शरीर के सभी महत्वपूर्ण अंग दिखाए गए हों; इससे बहुत से प्रयोग काफी आसान हो जाते हैं। जैसे आंख की पुतली पर प्रकाश डालने पर उसके सिकुड़ने के प्रयोग से प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex Action) दिखाई जा सकती है; इसी तरह कसरत करने से नाड़ी की गति का तेज़ होना दिखाया जाना भी एक अच्छा प्रयोग है। यह पता करना कि विभिन्न प्राकर के कामों से कौन-कौन-सी मांसपेशियां संबंधित हैं और वे कितना-कितना बल लगाती हैं, दिलचस्प होता है – हालाकि यह मामला थोड़ा मुश्किल भी है। सच तो यह है कि आप लोगों को अभ्यस्त कर सकते हैं कि वे भाप के इंजन,
भाषाई व्याकरण या नदियों के अध्ययन की तरह अपने शरीर को भी ऐसी चीज़ के रूप में देखने लगें जिसका अध्ययन किया जा सकता है।
इस तरह के पाठ्यक्रम में मानव प्रजनन का क्रिया विज्ञान और रचना शास्त्र स्वत: ही समा जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे अलग से नहीं पढ़ाया जाना चाहिए और न ही पाठ्यक्रम के अंत में एक खास चटपटे हिस्से के रूप में रखा जाना चाहिए। इसी तरह यौन रोगों का विवरण अन्य बीमारियों के विवरण के साथ ही दिया जाना चाहिए। किसी-न-किसी बिन्दु पर संभोग क्रिया का विवरण देना भी ज़रूरी है, जो भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया की तरह एक स्वैच्छिक क्रिया के रूप में शुरू होती है और ठीक भोजन निगलने जैसी एक बिल्कुल अनैच्छिक सहज क्रिया के रूप में खत्म होती है। उसके बाद यह बताया जा सकता है कि इस सहज क्रिया को प्रतिबंधित(Condition) किया जा सकता है और यौन सहज क्रिया(Sexual Reflexes) को प्रतिबंधित करना यौन नैतिकता का हिस्सा है।
सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि बच्चों को ये सब चीजें शादी और यहां तक की प्रेम करने के लिए तैयार होने से पहले ही बताई जाना ज़रूरी हैं। आचरण और सिद्धांत को एक हद तक तो एक दूसरे से अलग रखा जाना ज़रूरी है। परनतु लोगों को जैसा लगता है उससे कहीं ज़्यादा, इन्हें आपस में जोड़ने से हासिल किया जा सकता है। मेरी जान-पहचान के एक चिकित्सक मानते हैं कि महिलाओं को पता होना चाहिए कि प्रसव के दौरान क्या होता है और इसलिए वे अपनी दोनों बेटियों को – जो किशोरवय की थीं – बच्चा पैदा होता हुआ दिखाने ले गए। यह प्रसव अस्पताल में अच्छी व्यवस्था के बीच हुआ; मां को दर्द निवारक दवा दी गई थी ताकि वह बेहोश भी न हो और उसके दर्द को भी कम किया जा सके।दोनों बेटियों में से एक ने तो पिता को यह कह कर काफी व्यग्र कर दिया कि उसने इरादा कर लिया है कि जितनी जल्दी हो सके खुद बच्चा पैदा करेगी। आप यकीनन अंदाज़ा ला सकते हैं कि जब उसको बच्चा हुआ तो उसने बच्चे की और अपनी मदद के लिए विज्ञान के तरीकों के पुरे-पूरे इस्तेमाल के लिए ज़ोर डाला और वो अन्य कई मांओं की तुलना में काफी कम डरी हुई थी।
कुछ लोग कहेंगे कि इस तरह की शिखा से नैतिकता का पतन होगा। नेतिकता का आधार है अपनी और अपने पड़ोसियों की इज़्जत करना। आप ठीक आचरण ही नहीं कर सकते, अगर आपको यह न पता हो कि आप क्या कर रहे हैं और जो आप कर रहे हैं उसके क्या–क्या परिणाम हैं। कुछ और लोग कहेंगे कि अगर आप प्यार में से रहस्य को निकाल देंगे तो आप इसका मज़ा खो बैठेंगे। इसके विपरीत, मैं बसंत के रंगों को इसलिए ज़्यादा सराह सकता हूं क्योंकि मुझे उस रंजक की रासायनिक प्रवृत्ति के बारे में पता है जो नई पंखुडि़यों को, परिपक्व पंखुडि़यों से ज़्यादा पीला बनाता है। मैा शायद संगीत को बेहतर सराह सकता अगर मुझे संगीत के सिद्धांत पता होते। ऐसा ही प्यार (शारीरिक संबंध) के साथ है।
पर मैं एक क्षण के लिए भी यह नहीं मान रहा हूं कि मेरे ये सब प्रस्ताव जल्दी से अपना लिए जाएंगे। इस तरह की जानकारी के फैलाव का विरोध केवल धर्म के आधार पर नहीं होता। मिल्टन ने तीन सौ साल पहले ‘संंध विच्छेद’ के बारे में लिखते हुए कहा था, ‘’दुनिया में सबसे बड़ा बोझ अंधविश्वास है – केवल चर्च के अनुष्ठानों में ही नहीं बल्कि घर में भी – काल्पनिक और विभीषक पापों का।‘’
परनतु मेरा यह भी सोचना है कि इस संबंध में हमारे सामने कुछ आदर्श तो होने ही चाहिए जिससे हम अपने काम करने की दिशा निर्धारित कर सकें।
जे.बी.एस. हाल्डेन: (1892-1964) प्रसिद्ध अनुवांशिकी विज्ञानी। विकास के आधुनिक सिद्धांत को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान। विख्यात विज्ञान लेखक; उनके निबंधों का एक महत्वपूर्ण और यचिकर संकलन ‘ऑन बीइंग द राइट साइज़’ शीर्षक से प्रकाशित है; प्रस्तुत निबंध ‘बाट इज़ लाइफ’ नाम के संकलन से लिया गया है। कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक हाल्डेन ने अपने जीवन का अंतिम समय भारत में अहिंसा के बारे में लिखते हुए गुजारा।
अनुवाद: शशि सक्सेना: दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय कॉलेज में रसायन शास्त्र पढ़ाती हैं।