मॉनसून हर बरस आता है - बिला नागा, फिर भी वह एक अनुठा मेहमान है। इसका आगमन, इसकी वापसी, इसके साथ आने वाली बरसात की मात्रा और धरती पर उसका वितरण -- इन सबका हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आखिर, हमारे देश में होने वाली 70 प्रतिशत वर्षा तो मॉनसून के इन चार महीनों में ही होती है। सिंचाई के व्यापक विस्तार के बावजूद भी हमारे देश का प्रमुख आर्थिक स्तंभ - कृषि - वर्षा पर काफी हद तक निर्भर करता है। और कृषि का प्रभाव उद्योग, राजनीति, संस्कृति और समाज के सभी कार्यों पर तो पड़ता ही है।
मॉनसून का आगमन
वर्षा से हमारा आशय यहां दक्षिण पश्चिमी या ग्रीष्मकालीन मॉनसून से है, जो जून और सितंबर के बीच, दक्षिण भारत में तटीय आंध्र प्रदेश तमिलनाडू तथा उत्तर भारत में काश्मीर को छोड़कर, हमारे देश के अधिकांश भाग पर छाया रहता है।
यद्यपि इसके अलावा नवंबर और फरवरी के बीच एक उत्तर-पूर्वी या शीतकालीन मॉनसून भी होता है जो तटीय तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश में वर्षा लाता है। लेकिन हम इसकी गहराई में नहीं जाएंगे।
मॉनसून सबसे पहले दक्षिणी केरल के तटवर्ती इलाकों और उत्तर-पूर्वी असम क्षेत्र में लगभग एक साथ जून के प्रथम सप्ताह में आता है। और फिर वह धीरे-धीरे सारे भारत में फैलता हुआ उत्तर-पश्चिम राजस्थान में लगभग एक महीने बाद, जुलाई के
चित्र:1 भारत में अलग-अलग जगहों पर मॉनसून आगमन और प्रस्थान की तारीखों का ब्यौरा। बाएं रेखा-चित्र में दक्षिण-पश्चिम मॉनसून का आगमन दिखाया गया है। इसी तरह दाएं रेखा-चित्र में भारत से मॉनसून प्रस्थान को दर्शाया गया है। प्रत्येक रेखा उन स्थानों को दर्शाती है जहां तक मॉनसून उस तारीख तक पहुंच गया है।
हवओं के नाम |
मौसम विज्ञान की चर्चा करते समय लाज़मी हो जाता है कि दुनियाभर में चलने वाली विभिन्न हवाओं की बात की जाए, चाहे वे उत्तरी व्यापारिक हवाएं हों, दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून हो, धरती से 10-15 कि. मी. की ऊंचाई पर चलने वाली तेज़ पश्चिमी हवाएं हों ..। इसलिए जरूरी हो जाता है कि शुरू में ही समझ लें कि इनके नामों से क्या पता चलता है, खासतौर पर उनकी दिशा के बारे में। हवाओं का नाम उस दिशा से तय होता है जिधर से वे आ रही हों अर्थात दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून दक्षिण-पश्चिम दिशा से आ रहा है और उत्तर-पूर्व दिशा की ओर जा रहा है। पश्चिमी हवाएं पश्चिम से आकर पूर्व की ओर जा रही है। इस लेख में जहां भी हवाओं का जिक्र हो, यही तरीका अपनाया गया है। |
प्रथम सप्ताह में पहुंचता है। मॉनसून के दौरान ज्यादातर वर्षा जुलाई-अगस्त के महीनों में होती है। सितंबर के पहले सप्ताह से मॉनसून के अंत की शुरुआत होती है। पहले उत्तर-पश्चिम राजस्थान में, फिर उत्तर-पूर्वी असम और अंत में दक्षिणी केरल में। देश के दक्षिणी छोर में यह मॉनसून आगामी उत्तर-पूर्वी शीतकालीन मॉनसून में लगभग विलीन हो जाता है।
यदि आप ऊपर बताई गई कालावधि पर फिर से गौर करेंगे तो यह बात साफ हो जाएगी कि राजस्थान में मॉनसून की अवधि कम होती है। और केरल व असम में ज्यादा। परिणामतः भारत के उत्तरी एवं उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों के मुकाबले दक्षिणी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में वर्षा कहीं ज्यादा होती है। वर्षा की कुल मात्रा उत्तर पश्चिमी दिशा में क्रमशः कम होती जाती है। उदाहरण के लिए कर्नाटक के तटवर्ती इलाकों में औसतन 2848 मि.मी. वर्षा होती है जबकि दूसरे छोर पर राजस्थान में यह सिर्फ 252 मि.मी. ही हो पाती है।
अन्य क्षेत्रीय अंतर भी होते हैं। केरल कर्नाटक व असम में तो वर्षा टूट पड़ती है लेकिन जैसे ही हम राजस्थान की ओर चलते हैं तो वर्षा का उठाव अपेक्षाकृत क्रमिक हो जाता है। कुछेक मॉनसून क्षेत्रों में बारिश होती ही नहीं या फिर बहुत थोड़ी, जैसे पश्चिमी घाट व खासी पहाड़ियों के पिछवाड़े। और ऐसा भी नहीं कि हर जगह लगातार बारिश हो। बीच बीच में मौसम शुष्क भी रहता है।
मॉनसून की शुरुआती समझ
पुराने समय में लोगों को यह नहीं मालूम था कि मॉनसून साल-दर-साल क्यों आता है, लेकिन उन्होंने इन हवाओं का फायदा ज़रूर उठाया। शीतकाल में वे सामान्यतः उत्तर-पूर्वी व्यापारी हवाओं के सहारे भारत से अफ्रीका-अरब देशों तक जहाजों में जाते थे और जून-जुलाई की मॉनसून हवाओं पर लौटते थे। व्यापार और कृषि के संदर्भ में मॉनसून के आगमन का पता लगाना लोगों के लिए ज़रूरी था। इसका अंदाज़ वे विभिन्न पौधों, जानवरों एवं पक्षियों के व्यवहार में अंतर के अवलोकन से लगाते थे; मसलन पपीहे की पुकार से। सोलहवीं शताब्दी में अरबों ने वैज्ञानिक तरीकों से इसके आगमन का अनुमान लगाने की कोशिश की। मॉनसून शब्द का उदभव ही अरबी लफ्ज़ मौसम से हुआ है।
विख्यात एडमंड हैली (हैली पुच्छलतारे वाले) उन पहले वैज्ञानिकों में से थे जिन्होंने सन् 1686 में मॉनसून की प्रक्रिया की एक वैज्ञानिक परिकल्पना प्रस्तुत की। उनके अनुसार, गर्मियों में जब महाद्वीप खूब तप जाता है तो हवा गर्म होकर फैलती है और ऊपर उठती है। नतीजतन पूरे इलाके में हवा का दबाव कम हो जाता है, और समुद्र की शीतल, नमी-प्रधान भारी हवा तेज़ी से इस निम्न दबाव
चित्र:2 मॉनसून की हवाएं समुद्र से भूमि की ओर बहती हैं। तपती जमीन के सम्पर्क में आकर हवाएं गर्म हो जाती हैं और ऊपर उठने लगती हैं। फिर ऊपर जाकर ये हवाएं विपरीत दिशा में बहती हैं।
चित्र:3 मॉनसून का क्षेत्र - गाढ़ी काली रेखा उस इलाके को दर्शाती है जहां पर धरती की सतह पर मॉनसून का प्रभाव दिखाई देता है। इस दायरे में मध्य अफ्रीका व दक्षिण-पूर्वी एशिया का अधिकांश हिस्सा आता है। अगर हवाओं के बहाव के आधार पर मॉनसून तंत्र को परिभाषित किया जाए तो वह चित्र में बनाए गए आयत के तहत आ रहे संपूर्ण इलाके को घेर लेता है।
वाले क्षेत्र में घुसकर सूखे मैदानी इलाकों में बारिश लाती है। जबकि सर्दियों में इस प्रक्रिया का ठीक उल्टा होता है।
मूल रूप से मॉनसून में यही होता है। इसलिए लगभग सभी महाद्वीपों पर मॉनसून जैसी हवा-प्रणाली विकसित होती है - जैसे एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया तथा उत्तर अमेरिका में भी। परंतु मॉनसून शब्द साधारणत: भारतीय मॉनसून से ही जुड़ा है, क्योंकि ऐसी हवा प्रणाली का सबसे स्पष्ट और नियमित विकास एशियाई महाद्वीप पर ही होता है।
लेकिन यह सारा नज़ारा और भी अधिक दुरूह है। आखिर गर्म हवा उठकर जाती कहां है? महासागरों की सतह की हवा निकलने से क्या वहां वाकई शून्य उत्पन्न होता है? इन सवालों के जवाब गुब्बारों, हवाई जहाज़ तथा उपग्रहों के उपयोग से मिले हैं। लोगों ने देखा कि वायुमंडल की विभिन्न ऊंचाईयों पर भी हवाएं बहती हैं और
चित्र:4 पृथ्वी की सतह पर सामान्य हवा प्रणाली। हवा उच्च से निम्न दबाव क्षेत्रों की ओर बहती है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये हवाएं कोरियोलिम प्रभाव के कारण उत्तर-पूर्वी (या दक्षिण-पश्चिमी) दिशा में बहती हैं और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्वी (या उत्तर-पश्चिमी) दिशा में।
उच्च दाब क्षेत्र को 'एच' से और निम्न दाब क्षेत्र को 'एल' से दिखाया गया है। उच्च दाब क्षेत्र उष्ण कटिबंधीय पट्टीयों (Sub-Tropical Belt) और ध्रुवों पर पाए जाते हैं। निम्न दाब क्षेत्र भूमध्यरेखा के पास और ध्रुवीय वृतों पर होते हैं।
पृथ्वी के गोले के बाहर दाहिनी तरफ तीरों के निशान द्वारा वायुमंडल में हवा का बहाव दर्शाया गया है। वायुमंडल में हवा का बहाव गोलाकार पथ में होता है। सतह पर हवा का बहाव एक दिशा में हो तो ऊपर वायुमड़ल में यह विपरीत दिशा में होता है।
धरती के तपने से भूमध्य रेखा के आसपास की हवाएं गर्म होकर ऊपर उठती हैं। इस वजह से भूमध्य रेखा पर एक निम्न दाब क्षेत्र बनता है। निम्न दाब क्षेत्र के कारण उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध की तरफ से हवाएं इस क्षेत्र की तरफ बहती हैं और यहां आकर आपस में मिल जाती हैं। इसलिए इस क्षेत्र को इटर-ट्रोपिकल कन्वर्जेंस ज़ोन कहते है।
परंतु सालभर सूर्य की सीधी किरणें कर्क और मकर रेखा के बीच अलग-अलग जगहों पर पड़ती हैं इसलिए यह निम्न दाब क्षेत्र भी नियमित रूप से जगह बदलता रहता है। जून में सूर्य जब कर्क रेखा पर चमक रहा होता है। तो निम्न दाब का यह क्षेत्र खिसककर भूमध्य रेखा से दूर उत्तर की ओर चला जाता है। दिसंबर में सूर्य की सीधी किरणें मकर रेखा पर पड़ती हैं और निम्न दाब की यह पट्टी दक्षिणी गोलार्द्ध में खिसक जाती है।
ये हवाएं सतही हवाओं के साथ एक गोलाकार चक्र में जुड़ती हैं। यानी, सतही हवाएं जब ऊपर उठती हैं, तब ऊंचाइयों पर वे विपरीत दिशा में बहकर सतह पर फिर से उतरती हैं।
हवाओं के घुमावदार चक्कर
अभी हमने हवाओं के बहने की बात की। अब कल्पना कीजिए कि यदि हवाएं न बहें तो क्या होगा? होगा यही कि उष्णकटिबंधीय व भूमध्यरेखीय इलाकों (जहां सूरज की किरणें सीधी पड़ती हैं) में लगातार गर्मी पड़ने से वहां का तापमान बढ़ता जाएगा। जबकि ध्रुवीय क्षेत्र (जहां सूरज की किरणें तिरछी पड़ती हैं) और ठंडा होता जाएगा। हम यह भी कह सकते हैं कि हवाएं, और काफी हद तक समुद्र की धाराएं ही वे परिवहन एजेंसिया हैं। जिनके द्वारा पृथ्वी पर चौतरफा उष्मा का वितरण होता है। वे अधिक ताप वाले क्षेत्रों मे उष्मा को कम ताप वाले क्षेत्रो तक बहा ले जाती हैं। हवा का यह गोलाकार बहाव पृथ्वी के लगभग सभी हिस्सों में एक उचित तापमान बनाए रखता है।
मार्च और अक्टूबर में सूरज लगभग भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। उस समय यहां की हवा गर्म होकर ऊपर उठती है। जिसमे यहां हवा की कमी हो जाती है यानी यहां कम दबाव के क्षेत्र बन जाते हैं। इस कम दबाव के क्षेत्र में हवा की कमी को दूर करने के लिए दोनों ओर से उष्णकटिबधों की ठंडी हवाएं बहकर यहां आती है। हवा अभिसरण (Convergence) के इस क्षेत्र को उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (Inter-Tropical Convergence Zone) कहते हैं। आमतौर पर हमारी धारणा होती है कि हवाएं सीधी रेखा में इन कम दबाव क्षेत्रों की ओर दौड़ पड़ती होगी, लेकिन दरअसल ऐसा नहीं होता। ये हवाएं सीधी नही बल्कि तिरछी बहती हैं। यह तिरछापन पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूमने के कारण होता है, जिसे ‘कोरियोलिस प्रभाव' कहते हैं।
भूमध्यरेखा की गर्म हवा ऊपर उठकर ध्रुवों की ओर बहती है परंतु पृथ्वी के अक्ष पर घूमने के प्रभाव से वहां तक नहीं पहुंचती। कर्क व मकर रेखाओं के आसपास वह वापस पृथ्वी की सतह पर उतरती है। ये दोनों रेखाएं उच्च दाब क्षेत्र होते हैं। इसी प्रकार के गोलाकार प्रवाह उष्णकटिबंधों व ध्रुवीय वृतों (निम्न दाब क्षेत्र) के बीच, तथा इन वृतों व ध्रुवों (उच्च दाब क्षेत्र) के बीच भी चलते हैं। पृथ्वी की सतह पर यह वहीं हवा प्रणाली है जिसके बारे में हम स्कूल की भूगोल की कक्षाओं में पढ़ते हैं।
हम जानते हैं कि सूर्य सालभर भूमध्यरेखा के ऊपर नहीं रहता है। जून में मध्यान्ह के समय वह कर्क रेखा पर तथा दिसंबर में मकर रेखा पर होता है। इसलिए जून में उत्तरी गोलार्द्ध और दिसंबर में दक्षिणी गोलार्द्ध अधिक गर्म होता है। और इन दोनों गोलाद्ध के बीच उष्मा का संवहन मॉनसून की हवाओं द्वारा भी होता है। वास्तव में मॉनसून प्रणाली उष्मा वितरण का एक वायु तंत्र है।
मॉनसून की हवा प्रणाली
अक्टूबर और मार्च के बीच सूर्य की सीधी किरणें पड़ने से भूमध्य रेखा के आसपास के दक्षिणी गोलार्द्ध का
चित्र: 6 मॉनसून प्रवाह की मुख्य दो शाखाएं। ये हवाएं सतह से 5-6 कि. मी. की ऊंचाई तक फैली होती हैं।
चित्र:7 भारतीय उपमहाद्वीप की सतह पर दक्षिण-पश्चिमी हवाओं का बहाव। दक्षिणी गोलार्द्ध की दक्षिण-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखा को पार कर धरती के घूमने के कारण। (कोरियोलिस प्रभाव की वजह से) दक्षिण-पश्चिमी हवाएं बन जाती हैं। कोरियोलिस प्रभाव के कारण भू-मध्य रेखा यानी शून्य अक्षांश पर हवाओं के रुख का पलटना स्पष्ट दिख रहा है।
इलाका काफी गर्म हो जाता है। इस वजह से वहां की गर्म हवा तपकर ऊपर उठती है और वहां पर एक निम्न दाब क्षेत्र बन जाता है। उस समय तिब्बत के पठार से लेकर गंगा के मैदान तक के क्षेत्र में उच्च दाब होता है; इसलिए 30 डिग्री और भूमध्यरेखा के बीच पृथ्वी की सतह पर उत्तर-पूर्वी हवाएं भूमध्यरेखा की तरफ बह रही होती हैं। उसी वक्त वायुमंडल में तीन कि. मी. की ऊंचाई पर तिब्बत के पठार के उत्तर और
चित्र:8 गर्मी के दिनों में दक्षिण एवं पूर्वी एशिया के ऊपर जेट हवाओं की स्थिति। नक्शे में मोटी-काली रेखाओं से दर्शाई हवाएं 6000 मीटर की ऊंचाई पर बह रही हैं। टूटी हुई रेखाओं से दर्शाई हवाएं 600 मीटर की ऊंचाई पर बह रही हैं। तिरछी लाईनों से दिखाया गया भू-भाग तिब्बत का पठार है। इस चित्र को ध्यान से देखिए, जेट हवाओं और निचली हवाओं की दिशा में क्या कोई खासियत नज़र आती है।
दक्षिण दोनों तरफ तेज़ पछुआ हवाएं पश्चिम से पूर्व की ओर बह रही होती हैं।
अब देखते हैं, दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून की हवा प्रणाली। मार्च के बाद स्थिति बदलने लगती है। अप्रैल और जून के बीच, जब सूर्य की सीधी किरणें उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क रेखा और भूमध्यरेखा के बीच पड़ती हैं, तब इस क्षेत्र की भूमि अधिक तपने लगती है। सबसे अधिक गर्मी तो मध्य एशिया महाद्वीप व उत्तर-पूर्वी अफ्रीका के रेगिस्तानों, अरब देशों तथा भारत में होती है। इस तेज़ गर्मी की वजह से अब निम्नदाब का क्षेत्र भूमध्यरेखा से सरककर 20-25 डिग्री उत्तरी अक्षांश तक आ जाता है। और वहां का सामान्य उच्च दाब क्षेत्र भी उत्तर की ओर स्थानांतरित हो जाता है। भारत के संदर्भ में निम्न दाब का यह क्षेत्र उत्तर पूर्वी अफ्रीका से दक्षिण-पूर्वी एशिया तक गंगा के मैदानी इलाके में से होकर एक लंबी पट्टी के रूप में निकलता है। गंगा-मैदान के निम्न दाब क्षेत्र में हिन्द महासागर की ठंडी और नमी प्रधान हवा बहने लगती है; दक्षिण गोलार्द्ध की ये दक्षिण-पूर्वी हवाएं भूमध्यरेखा पार करके कोरियोलिस प्रभाव के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में दक्षिण-पश्चिमी दिशा से प्रवेश करती हैं। इन हवाओं के काले बादल 6 कि.मी. ऊंचाई तक फैलते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप पर पहुंचकर वे दो शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं -- अरब सागर की शाखा व बंगाल की खाड़ी की शाखा) बंगाल की खाड़ी वाली शाखा भारत के पूर्वी इलाकों में बारिश करती हुई गंगा के मैदानी हिस्सों की ओर बढ़ती है। अरब सागर की शाखा का एक हिस्सा पश्चिमी घाट से टकराकर आगे बढ़ता हुआ बंगाल की खाड़ी की शाखा में मिल जाता है।
एक महीने के अंदर मॉनसून. प्रवाह सारे उपमहाद्वीप पर छा जाता है। उत्तर में हिमालय पर्वत श्रृंखला हवा के बहाव के रास्ते में बाधा बन जाती है। यह भारतीय मॉनसून क्षेत्र की उत्तरी सीमा है। यहां पहुंचने वाली कुछ हवाएं तराइयों के सहारे पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं और उत्तर-पश्चिमी दिशा में बहने लगती हैं। जबकि हिमालय के पूर्व में हवा का प्रवाह बर्मा और थाईलैंड से इंडोचीन व दक्षिण चीन की ओर होता है।
तिब्बती पठार (मॉनसून की उत्तरी सीमा) तक पहुंचने के बाद हवा कहां जाती है? हमने पहले ही देखा था कि मॉनसून के पहले (गर्मी के दिनों में) उष्ण-कटिबंधीय क्षेत्र के ऊपरी वायु मंडल में पश्चिमी हवाएं बहती हैं। मॉनसून में यह प्रवाह भी सतही प्रवाह की तरह पलट जाता है और पूर्वी हवाएं चलने लगती हैं। ये पूर्वी हवाएं लगभग 12 कि.मी. ऊंचाई पर दिखाई देती हैं और उनका सबसे शक्तिशाली और तेज़ प्रवाह -- जिसे जेट प्रवाह कहते हैं - ट्रोपोपॉज़ के नजदीक, लगभग 14 कि.मी. की ऊंचाई पर होता है। जेट प्रवाह, हवा की वह धारा है जो कई हजार कि.मी. लंबी, कई सौ कि.मी. चौड़ी तथा कई कि.मी. गहरी होती है।
तिब्बती पठार की भूमिका
मॉनसून की हवाएं ऊपरी वायुमंडल के पूर्वी प्रवाह में कहां और कैसे मिल जाती हैं? इस प्रक्रिया में तिब्बत के पठार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जुलाई के महीने में, जब भारतीय उपमहाद्वीप पर मॉनसून छाया होता है, तब तिब्बत पठारे बहुत तपता है। यह पठार तकरीबन 2000 कि.मी. लंबा और 600-1000 कि.मी. चौड़ा है। इसके फलस्वरूप मॉनसून की हवाएं तिब्बत के पठार पर पहुंचकर ऊपर की तरफ बहती हैं और ऊंचाई पर पूर्वी हवाओं में मिल जाती हैं। ऊपरी वायुमंडल का प्रवाह भूमध्यरेखा के पास उत्तरी गोलार्द्ध में हिन्द महासागर क्षेत्र में सतह पर उतरता है। इस प्रकार मॉनसून प्रवाह का गोलाकार परिपथ पूरा होता है।
मॉनसून खत्म होने के वक्त सूर्य दक्षिण गोलार्द्ध की मकर रेखा की ओर स्थानांतरित होता है। अब उत्तरी गोलार्द्ध में ठंड पड़ने लगती है। एशिया का साइबेरिया इलाका इतना ठंडा हो जाता है कि वहां का हवा दबाव बढ़ता है और दिसंबर तक यहां उच्च दबाव क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इस वक्त निम्न दाब क्षेत्र भी दक्षिण की ओर स्थानांतरित होता है और दिसंबर तक मकर रेखा के आसपास जा पहुंचता है। क्योंकि उस वक्त सूर्य उस क्षेत्र के ऊपर रहता है; साइबेरिया के उच्च दाब क्षेत्र की उत्तर-पूर्वी हवाएँ भूमध्यरेखा के कर्म दाब क्षेत्र की ओर बहने लगती हैं। ये हवाएं मॉनसून हवाओं का मुकाबला करती हैं जिसके फलस्वरूप मॉनसून प्रवाह खत्म हो जाता है। ऊंचाई पर भी हवाओं की दिशा पलटती है और पूर्वी हवाओं के बदले पश्चिमी हवाएं बहने लगती हैं। दिसंबर तक यह बदलाव पूरा हो जाता है।
उष्मा का वितरण
जैसा कि पहले भी कहा गया है कि वायु प्रणाली उष्मा के वितरण में प्रमुख भूमिका निभाती है। अब इस हवा प्रणाली को उष्मा वितरक के रूप में देखिए। गर्मी के दिनों में एशियाई महाद्वीप खासकर भारतीय उपमहाद्वीप की सतह की उष्मा वाष्प के रूप में वायुमंडल में स्थानांतरित होती है। (क्योंकि वाष्प बनने की प्रक्रिया में पानी गर्मी सोखता है)। मॉनसून के मौसम में यह वाष्प बारिश के रूप में गिरती है और इस प्रक्रिया में वह ऊपरी वायुमंडल में उष्मा छोड़ती है (क्योंकि वाष्प जब पानी में बदलती है तब वह अपनी यह ऊष्मा मुक्त करती है)। यह ऊष्मा, और तिब्बतीय पठार की ऊष्मा ऊपरी वायुमंडल की पूर्वी हवाओं को गति दिलाने वाली ऊर्जा प्रदान करती है। यह ऊष्मा इन पूर्वी हवाओं के द्वारा दक्षिणी गोलार्द्ध के हिन्द महासागर में स्थानांतरित होती है। (उत्तर-पूर्वी मॉनसून में, सितंबर से मार्च के बीच ऊष्मा स्थानांतरण विपरीत दिशा में दक्षिणी से उत्तरी गोलार्द्ध में होता है)।
एक पहेली
हालांकि यह सही है कि विभिन्न ऊंचाइयों और विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की ताप एवं दाब भिन्नताओं के कारण मॉनसूनी हवाएं चलने लगती हैं। फिर भी मॉनसूनी बादलों के भीतर की वाष्प के बारिश में बदलने की प्रक्रिया का यह एक पर्याप्त कारण नहीं हो सकता, और न ही मॉनसूनी हवाओं को उत्तरी दिशा में तिब्बतीय पठार तक लाने के लिए यह पूरी तरह से सक्षम हो सकता है। दरअसल तकरीबन 500 कि. मी. चलने के बाद मॉनसून थोड़ा ठहर जाता है, इसके बाद यह जरूरी हो जाता है कि निम्नदाब के ऐसे स्थानीय क्षेत्र बनें जो हवा की धाराओं को उत्तर की ओर आगे बढ़ाएं और बादलों की वाष्प को वर्षा में बदल दें। उदाहरण के तौर पर मॉनसून की अरब सागर की शाखा अरब सागर में बनने वाले निम्नदाब क्षेत्र के कारण ही प्रारंभ में उत्तर की ओर बढ़ती है। परंतु निम्नदाब क्षेत्र उत्पन्न करने वाली मुख्य प्रक्रियाएं बंगाल की खाड़ी में निर्मित होती हैं - तूफान के रूप में। ये तूफान जब भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर पश्चिमी दिशा में चलते हैं। तो हम मध्य मैदानी भागों में बारिश का उपहार पाते हैं।
मॉनसून में अक्सर एक रुकावट आती है। ऐसा तभी होता है जब सामान्य मॉनसूनी दाब स्थितियों में परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिए यदि तिब्बत के पठार का उच्च दाब क्षेत्र क्षीण होता है तो मॉनसून का निम्नदाब क्षेत्र हिमालय की तराइयों में पहुंचता है, और मॉनसूनी हवाएं कमजोर पड़ने लगती हैं। ऐसे में हिमालय के तराई क्षेत्र को छोड़ सारे देश में बारिश बंद हो जाती है, जबकि तराइयों में भारी वर्षा होती है और यहां की नदियों में बाढ़ तक आ जाती है।
चूंकि मॉनसून एक सार्वभौमिक प्रणाली है इसलिए उसे प्रभावित करने वाले कई सार्वभौमिक कारक हैं जैसे स्ट्रेटोस्फीयर के वायु प्रवाह, समुद्री धाराएं (उदाहरणतः एलनीनो), दक्षिणी गोलार्द्ध के दाब क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन, हिमालय के बर्फ कवच का विस्तार, समुद्र सतह का तापमान, मॉनसून के निम्नदाब क्षेत्र और तिब्बत के पठार के उच्च दाब क्षेत्र की स्थिति आदि। लेकिन इन सार्वभौमिक कारकों के अलावा कुछ ऐसे स्थानीय एवं क्षेत्रीय कारक भी होते हैं जो मॉनसून की वर्षा को प्रभावित करते हैं। ये क्षेत्रीय कारक हैं - पर्वत श्रृंखलाओं की उपस्थिति, निम्न दबाव क्षेत्र का बनना, स्थानीय दबाव परिस्थिति आदि।
अभी भी मॉनसून के बारे में नए नए मॉडल लगातार पेश किए जा रहे हैं। मॉनसून का समय पर आना, अच्छी वर्षा होना, अच्छा मॉनसून, बुरा मॉनसून और मॉनसून को प्रभावित करने वाले कारक जैसी बहुत-सी और बातें हैं जिन पर अगले किसी लेख में चर्चा करेंगे।
सवालीराम
सवाल: क्या कारण है कि रेडियो सेट पर कुछ विशेष फ्रीक्वेंसियों पर (रेडियो चलाने के दौरान) रेडियो पर हाथ रखें तो उसकी आवाज़ तेज़ हो जाती है? यह जरूरी नहीं कि सेट पर हाथ का स्पर्श किया जाए, हाथ को पास लाने पर भी ऐसा होता है?
हरि नारायण त्रिपाठी, भीलवाड़ा, राजस्थान
अनुभव तो आपने भी किया होगा? और हो सकता है कि कभी जवाब की तलाश में भी निकले हों। तो फिर क्या, उठाइए कलम और लिख भेजिए अपने जवाब हमें इस पते पर - संदर्भ, द्वारा एकलव्य, कोठी बाज़ार, होशंगाबाद - 461 001.
सही जवाबों को अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा।
इस स्तंभ का उद्देश्य है उलझन को नए ढंग से देखने की कोशिश करना, जो किताबी भाषा से अलग हो। साथ ही जरूरी है समझाने का वो तरीको ढूंढना जो समस्या को आम जिंदगी के अनुभवों से जोड़ सके। इसीलिए एक सवाल को देखने के कई पहलू हो सकते हैं और हर पहलू प्रकाशित हो सकता है। बशर्ते कि मुद्दे की तह तक पहुंचने की कोशिश सही हो।