एस. बी. वेलणकर

विशाल प्रकृति को समझने में गुरुत्वाकर्षण बल काफी मदद करता है। वहीं सूक्ष्म स्तर पर जब आप परमाणु और उसके भीतर जाते हैं तो ऐसे बल मिलते हैं जिनके सामने ये बहुत शक्तिशाली लगने वाला बल गौण लगने लगता है।

अंक में बल और ऊर्जा की चर्चा के दौरान हमने देखा कि जब भी ऊर्जा व्यय हुई और हमारे पास कोई तरीका नहीं है जो व्यय हुई ऊर्जा को पुन: प्राप्त कर सके तो वह बल घर्षण प्रकृति का बल है। जैसे हीटर में तार का प्रतिरोध-- उसमें जब विद्युत ऊर्जा का व्यय होता है तो ऊष्मा निकलती है; श्यानता बल-- जिसमें द्रव की विभिन्न सतहों के बीच घर्षण होता है और ऊष्मा पैदा होती है। इस तरह पैदा ऊष्मा इतनी जल्दी वातावरण में विसरित हो जाती है कि उसे पुनः प्राप्त करना असंभव होता है। यह सारे बल घर्षण प्रकृति के बल हैं; असंरक्षी बल हैं। अर्थात वे सभी बल जिनके विरुद्ध व्यय ऊर्जा से ऊष्मा प्राप्त होती है, उन्हें घर्षण प्रकृति के बल कहा जाता है।

हमने यह भी देखा था कि गुरुत्वाकर्षण बल इन सब से अलग प्रकृति का बल है जिसमें ऊर्जा को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। यह एक संरक्षी बल है।


* इस लेख का पहला भाग ‘कहां बल और क्या ऊर्जा' संदर्भ के पिछले अंक ( जनवरी-फरवरी 1998 ) में प्रकाशित हो चुका है।


लेकिन गुरुत्वाकर्षण बल प्रकृति का सबसे अशक्त बल है। अगर यह सही है तो स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि तब इस बल के जरिए एक आकाशीय विशाल पिंड फिर कैसे दूसरे को अपनी ओर खींच पाता है? कैसे सूर्य पृथ्वी को, और पृथ्वी चंद्रमा को बांधे हुए है? दरअसल ये पिंड इतने बड़े हैं, इतने विशाले हैं कि उनके बीच एक कमजोर खिंचाव का बल होते हुए भी एक दूसरे को इतना प्रभावित कर पाते हैं। लेकिन वहीं इसकी तुलना अगर दूसरे बलों से की जाए तो समझ में आएगा कि यह कितना कमजोर है।

परन्तु एक बात का ख्याल रखिएगा कि कमजोर बल समझकर गुरुत्वाकर्षण बल को नज़रअंदाज कतई नहीं किया जा सकता। प्रकृति के बारे में एक वृहद पैमाने पर हम जो कुछ समझ पाए हैं वह इसी बल की देन है - पृथ्वी के इर्द-गिर्द चंद्रमा की गति, सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की गति, आकाशगंगा के अंदर सूर्य की गति, ब्रह्मांड के दूर दराज़ के छोरों पर विभिन्न पिंडों की गतियां; इतना ही नहीं आकाशीय पिंडों के भार और दूरियों की गणनाएं भी इसी बल की समझ के कारण संभव हो पाई हैं। यही नहीं बृहस्पति पर शुमेकर-लेवी धूमकेतू कब और कहां पर गिरने वाला है इसकी गणनाएं भी गुरुत्वाकर्षण बल की समझ के कारण ही धरती पर बैठे-बैठे हो पाई थीं।

आवेश के बीच का मामला
आइए, अब एक ताकतवर बल की बात करते हैं। यह तो आपको मालूम होगा ही कि दो आवेशों के बीच आकर्षण या विकर्षण होता है, जैसे कि दो इलेक्ट्रॉन आपस में एक दूसरे को विकर्षित करते हैं। ऐसा क्यों है?
जब दो इलेक्ट्रॉन की बात करते हैं तो स्वाभाविक है कि उनके द्रव्यमान के कारण, वे गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से एक दूसरे को आकर्षित करेंगे। लेकिन इस आकर्षण का मान उनके बीच लगने वाले एक दूसरे बल की तुलना में इतना नगण्य होता है कि उसे एकदम नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। इस दूसरे बल की प्रकृति ऐसी है कि समान आवेश के बीच विकर्षण होता है, और असमान आवेश के बीच आकर्षण। इसीलिए दो इलेक्ट्रान एक-दूसरे को विकर्षित करते हैं।

यह दूसरा बल है कूलम्ब का बल---जो दो आवेशों के गुणनफल के समानुपात और दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपात में होता है।*
आइए अब आकाशीय पिंडों की गतियों से तुलना करके कूलम्ब के बल को समझने का प्रयास करें। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, या चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमता है---इन गतियों को हम किस तरह समझते हैं?

जब वस्तु वृत्ताकार पथ में घूमती है तो उस पर बाहर की ओर एक बल लगता है -- अपकेन्द्र बल, जिसके कारण वस्तु घूमते-घूमते बाहर निकल जाती। धागे से पत्थर बांधकर घुमाने का अनुभव सबको होगा, अगर धागे को छोड़ दें तो वो पत्थर समेत दूर फिका जाता है। मगर यहां तो पृथ्वी लगातार घूमे जा रही है। ऐसा क्यों है? क्योंकि इस अपकेन्द्र बल को गुरुत्वाकर्षण बल संतुलित करके रखता है, जिससे वह अपने पथ पर, अपने कक्ष में घूमती रहती है।

सूक्ष्म धरातल पर भी कुछ ऐसा ही होता है। चलिए ज़रा गहराई में चलते हैं। परमाणु में एक धन नाभि है, जो प्रोटॉन (धन आवेशित) और न्यूट्रॉन (उदासीन कण) से बनी हुई है; और इलेक्ट्रॉन (ऋण आवेशित) उसके चारों ओर घूम रहा है। घूमते घूमते अपकेन्द्री बल की वजह से इलेक्ट्रॉन बाहर की ओर भागता है लेकिन कुलम्ब का आकर्षण बल उसे संतुलित करके रखता है, पकड़ के रखता है।
अगर इलेक्ट्रॉन को उसके कक्ष से ऊपर ले जाना चाहें, नाभिक से दूर तो क्या वह अपने आप ऊपर जा सकता है? अगर वो दूर जाएगा तो


*कुलम्ब का बल Q1xQ2/r2
जहां Q, और Q, आवेश की मात्रा है और दोनों के बीच की दूरी है।


उसकी स्थितिज ऊर्जा बढ़ेगी और यह अपने आप तो बढ़ नहीं सकती, यानी उसे ऊपर ले जाने के लिए हमें ऊर्जा देनी पड़ेगी। इसके विपरीत जब वो अंदर नाभिक की ओर गिरेगा या जाएगा तो उसकी स्थितिज ऊर्जा कम होगी; ऐसी स्थिति में कहां जाएगी यह ऊर्जा? ऐसे समय उसमें से विकिरण निकलते हैं - प्रकाश निकलता है. एक्स किरणें निकलती हैं, ऊष्मा निकलती है, तमाम अलग-अलग तरह के विकिरण के रूप में ऊर्जा निकलती है। इसे रेडिएशन भी कहते हैं। यानी परमाणु में से प्रकाश निकलने की घटना को हमने कूलंब के बल से समझा।

चहुं ओर अगर आवेश ही आवेश है तो फिर आवेश स्वतंत्र रूप से क्यों नहीं दिखते हमें? क्योंकि कभी भी परमाणु की एक इकाई लो हमेशा दोनों ---धन और ऋण आवेश ---मौजूद होते हैं। इसलिए बाहर से देखो तो उनमें कोई विद्युत आवेश नहीं दिखता।

विभव और विद्युत ऊर्जा
चलिए एक स्थिति के बारे में सोचते हैं। मैं छड़ के सिरे से एक ऋण आवेश को ले जा रहा हूं। ऐसा करने के लिए मुझे क्या करना होगा?

जैसे ही मैंने ऋण आवेश को किनारे से सरकाया, तो सिरे पर बचेगा धन आवेश जो इस ऋण आवेश को आकर्षित करेगा। मतलब जब तक कि मैं बल लगाकर ऊर्जा न डालें तब तक मेरे लिए ऋण आवेश को उठाकर ले जाना संभव नहीं है। बल लगाकर मैं इसे खींचकर ले जा सकता हूं। यह जो ऊर्जा मैंने व्यय की वह अब इस आवेश में आ जाएगी और स्थितिज ऊर्जा के रूप में संग्रहित हो जाएगी। तो आवेश में उसकी स्थिति विशेष के कारण जो ऊर्जा है उसी स्थितिज ऊर्जा को हम ‘विभव' से नापते हैं। और इसे नाम देते हैं विद्युत ऊर्जा।

अगर हम आवेश की स्थितिज ऊर्जा बढ़ाना चाहते हैं तो हमें विभवांतर बढ़ाना पड़ेगा। यानी बाहर से ऊर्जा देनी पड़ेगी। कहां से देंगे यह ऊर्जा इस आवेश को?

झरने में जो पानी ऊपर से गिरता है उसकी स्थितिज ऊर्जा को हम विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं, या फिर थरमल पॉवर स्टेशन में कोयला जलता है उसकी रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदल दें, या फिर सेल के अंदर रासायनिक क्रियाओं की मदद से रासायनिक ऊर्जा विद्युत ऊर्जा में बदल दें; या फिर डायनमो को घुमाकर ऊर्जा पैदा कर सकते हैं। कुल मिलाकर कहें तो ऋण आवेश को धन आवेश के विरुद्ध खींचकर ले जाने से विद्युत ऊर्जा मिलती है।

अब विपरीत स्थिति की कल्पना करते हैं। किसी तरह से हमने ऐसी स्थिति बना दी है कि छड़ के एक छोर पर ऋण आवेश है और दूसरे पर धन। अब यदि ऋण सिरे को धन सिरे से तार से जोड़ दें तो ऋण आवेश धन की ओर गिरेगा, धन सिरे की ओर लौटेगा; तब उसकी विद्युत ऊर्जा (स्थितिज ऊर्जा) का क्या होगा?

इसका जवाब देने के लिए आपको उसी शुरुआती नियम का ध्यान रखना होगा - ऊर्जा न तो नष्ट हो सकती है, न उत्पन्न हो सकती है, केवल उसका रूप परिवर्तन होता है। डायनमो को घुमाने में आपको बहुत ताकत लगेगी, क्योंकि वास्तव में आप कर ये रहे हैं कि ऋण आवेश को धन आवेश से खींचकर दूर ले जा रहे हैं। आप अपनी ताकत से आवेश की स्थितिज ऊर्जा यानी ‘विद्युत विभव' बढ़ा रहे हैं। गेंद को गुरुत्वाकर्षण बल के खिलाफ नीचे से उठाकर उपर ले जाने में भी यही हुआ था - गेंद की स्थितिज ऊर्जा बढ़ गई थी। और उपर ले जाकर जब हमने उसे छोड़ दिया तो गेंद ने गति पकड़ ली थी।

छड़ के ऋण और धन सिरों को आपस में जोड़ देने से भी यही होगा - इलेक्ट्रॉन गति पकड़ लेगा।

परन्तु बात यहीं खत्म नहीं होती इसलिए हमें फिर से गुरुत्वाकर्षण बल वाले उदाहरण का सहारा लेना पड़ेगा। गिरती हुई गेंद पर लगातार बल लग रहा है इसलिए उसकी गति लगातार बढ़ती जानी चाहिए परन्तु दरअसल ऐसा नहीं होती। बल्कि ऐसा होता है - कि कुछ समय बाद गेंद स्थिर गति से चलने लगती है, फिर उसका वेग नहीं बढ़ता। वायुमंडल के घर्षण की वजह से ऐसा होता है। अगर वायुमंडल न हो तो गेंद की गति बढ़ती ही जाएगी, जब तक वह जमीन से न टकरा जाए। गिरते हुए जिस समय गेंद की गति स्थिर हो गई, उसकी गतिज ऊर्जा भी स्थिर हो गई। परन्तु गेंद नीचे की ओर आ रही है इसलिए उसकी स्थितिज ऊर्जा तो लगातार कम हो रही है, तो फिर ये ऊर्जा गई कहां? स्पष्ट है कि घर्षण बल के विपरीत कार्य हुआ और ऊर्जा उष्मा में परिवर्तित हो गई।

हमारे विद्युत बल वाले उदाहरण में भी ठीक यही होता है। तार के ज़रिए धन छोर की तरफ जा रहे इलेक्ट्रॉन की गति भी स्थिर हो जाती है। अब सवाल उठता है कि ऐसा कोई माध्यम नहीं होता क्या जिसमें घर्षण बल बिल्कुल ही न हो। अगर ऐसा हो पाए तो इलेक्ट्रॉन का वेग बढ़ता ही चला जाएगा। सुपर-कंडक्टर यानी अतिचालक* में होता है ऐसा। इसमें अगर धारा प्रवाहित कर दो और विद्युत विभवान्तर बंद कर दो तो भी इलेक्ट्रॉन गति कर रहते हैं; क्योंकि उनकी गतिज ऊर्जा नष्ट नहीं हो सकती।

लेकिन कोई भी तार अतिचालक नहीं होता इसलिए घर्षण बल का असर पड़ेगा। पहले तो इलेक्ट्रॉन का वेग बढ़ेगा, धारा बढ़ेगी। मगर बाद में धारा स्थिर हो जाएगी। धारा यानी आवेश की गति की ऊर्जा ** वेग अधिक रहेगा तो धारा अधिक रहेगी, धारा स्थिर है तो गति की ऊर्जा स्थिर हो रही है। परन्तु स्थिति की ऊर्जा यानी विद्युत विभव का क्या होगा, वह कहां जाएगी? यदि बीच में हीटर


* देखिए संदर्भ के 20वें अंक में प्रकाशित लेख 'अतिचालकता'।
** प्रति एकांक समय में किसी अनुप्रस्थ काट से जितना आवेश प्रवाहित होता है वह धारा की माप है।


लगा दिया जाए तो ऊष्मा में, यदि बल्ब लगा दिया जाए तो प्रकाश में, रेडियो लगा दिया जाए तो ध्वनि की ऊर्जा में, पंखा लगा दो तो यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है वह। ... किसी भी काम में लगा सकते हैं, बशर्ते कि तार का प्रतिरोध कम हो अन्यथा अधिकतर विद्युत ऊर्जा, ऊष्मा में परिवर्तित हो जाएगी, जिसे हम अपने काम में वापस नहीं ला सकते। एक और सवाल उठता है कि जब धारा प्रवाहित होती है तो क्या इलेक्ट्रॉन की गति भी हमें दिखती है?

चुंबकत्व से आवेश का रिश्ता
एक गति की ऊर्जा तो यह है---जब हम चलते हैं तो स्थान परिवर्तन दिखता है, एक गति की ऊर्जा वह है---जब अणु या परमाणु गति करते हैं। मगर औसत गति शून्य है, गति है परन्तु स्थान परिवर्तन नहीं है। पिछली बार हमने समझा था कि ऐसी गति ताप के रूप में दिखती है - स्पर्श करो तो वस्तु गरम लगती है। इसी तरह जब धारा प्रवाह करो तो वो चुम्बकत्व के रूप में दिखती है। जब भी आवेश गति करता है तो विद्युत धारा हमेशा चुम्बकत्व के रूप में दिखती है। वास्तव में आवेश की गति की ऊर्जा ही चुम्बकत्व है। इसलिए जब भी चुम्बकीय क्षेत्र शून्य हो जाता है, आवेश चलते-चलते रुक जाता है, तो विद्युत वाहक बल प्राप्त होता है: गतिज ऊर्जा स्थितिज ऊर्जा में बदल जाती है, विभवांतर मिलेगा। यानी चुंबकीय क्षेत्र आवेश की गति की ऊर्जा है।

तो यह दूसरा महत्वपूर्ण बल, कूलम्ब का बल है। इसकी सहायता से हम प्रकृति के एक हिस्से को समझ पाते हैं - आकाशीय पिंडों वाली विशाल प्रकृति को नहीं, बल्कि धरातल की घटनाओं को समझते हैं इससे। श्यानता, पृष्ठ तनाव, प्रत्यास्थता, द्रव, ठोस, गैस, क्रिस्टल संरचना आदि यानी कि पदार्थों का व्यवहार समझ सकते हैं इससे।


एस बी वेलणकरः होलकर साइंस कॉलेज, इंदौर में भौतिक शास्त्र पढ़ाते हैं।