नीरज जैन
20 मई की सुबह मैं ब्राज़ील में लौटा। नहा-धोकर एक झपकी ली, और काम पर जाने को तैयार हो गया। सीढ़ियों से नीचे उतरने ही, मैंने अपने कानों में एक तेज़ भिनभिनाहट महसूस की। पहले सोचा कि दस दिनों की गैर-हाज़िरी के दौरान पड़ोस के घर की चिमनी में आने वाली हवा की आवाज़ और बढ़ गई होगी। लेकिन यह आवाज तो हर तरफ उतनी ही तेज थी और चारों दिशाओं से आ रही थी, मानों कि वह मेरे सिर के अन्दर ही हो। फिर मैने सोचा कि शायद यह मेरे लंबे, थका देने वाले, रात भर के हवाई सफर और कम नींद ले पाने का कोई असर होगा। मैंने सिर झटकारकर इससे पीछा छुड़ाने की कोशिश की। मैं घबरा गया और सोचने लगा कि मुझे टिन्नाइटिस हो गया है। टिन्नाइटिस एक ऐसी अवस्था को कहते हैं जिसमें व्यक्ति के कानों में लगातार कोई आवाज सुनाई देती रहती है। मैं तुरंत घर के अंदर वापस लौट गया। मुझे यह जानकर काफी राहत मिली कि वह आवाज़ अब नहीं आ रही थी। लेकिन जब मैंने खिड़की खोली तो वह आवाज़ फिर से आ गई, खिड़की बन्द कर दी तो आवाज गायब। मुझे यह जानकर बेहद तसल्ली मिली कि भिनभिनाहट का स्रोत मेरे अन्दर नहीं बल्कि बाहर था। इस बात से आश्वस्त, लेकिन फिर भी पूरी बात को समझ न पाने के कारण कुछ उलझा हुआ, मैं बाहर निकलकर अपनी प्रयोगशाला की तरफ चल पड़ा। तभी मुझे बड़ी बड़ी उभरी हुई लाल आंखों और भूरे से पारदर्शी पंखों वाले वो बड़े काले कीड़े दिखाई दिए जो भिनभिनाते हुए पेड़ों के इर्द-गिर्द उड़ रहे थे। इस तरह के कीड़े मैंने पहले कभी भी अपने घर के आसपास नहीं देखे थे। फिर मुझे यही कीड़े और दिखाई दिए...और कीड़े...और... वो लाखों की तादाद में हर कहीं थे - प्रयोगशाला के रास्ते में हर तरफ, बिल्कुल किसी डरावनी कहानी की तरह।
जैसे ही मैं प्रयोगशाला में पहुंचा मेरी दोस्त लॉग ने मुझसे पूछा, “तो. सिकाडा के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?" और तभी मुझे याद आया कि मैंने लोगों को कहते सुना था कि 1998 सिकाड़ा का वर्ष है। यानी वह साल जब सिकाडा अपने 13 साल के जीवनचक्र में बहुत बड़ी संख्या में दिखाई देंगे। बाद में मेरे दोस्त केन ने मुझे इन कीड़ों को पकड़ने का तरीका बताया। केन सब तरह के कीड़े-मकोड़े को बहुत चाहता है और उनके बारे में बहुत कुछ जानता है। सिकाडा पकड़ना काफी आसान था क्योंकि एक तो वे इतनी अधिक संख्या में चारों तरफ मौजूद थे, और फिर पास जाने पर भी उड़ते नहीं थे। बस एक सिकाडा पकड़कर उसने मुझे इस बात से निश्चित कर दिया कि सिकाडा किसी भी तरह का नुकसान नहीं करते थे - न तो काटते थे, न ही डंक मारते थे। केन ने मुझे सिकोड़ाओं में नर और मादा की पहचान करना सिखाया, और उनके बारे में कई और रोचक बाते भी बताई।
13 साल में एक बार
सिकाडा कीटो के होमोप्टेरा गण (Order) के सदस्य है। इसका मतलब यह हुआ कि ये एफिड (Aphid) और लाख के कीड़े से काफी मिलते-जुलते हैं। इनका जीवन चक्र बेहद लंबा और बहुत ही मजेदार होता है। मादा सिकाडा पेड़ों पर अंडे देती है। अंडे फूटने के बाद, लार्वा (Fust Instar Nymph) उन पेडो मे टपककर नीचे ज़मीन में घुस जाते हैं।
जमीन के अन्दर पहुंचने के बाद ये बाल-कीट छोटी जड़ों का रस चूसकर अपना पेट भरते हैं। विकास के दौरान ये बचपन के पांच चरणों से गुजरते हैं। इस दौरान वयस्क बनने की प्रक्रिया में न केवल इनका आकार चींटी से बढ़कर तीन-चार सें. मी. तक पहुंच जाता है--- साथ ही ये कायातरण (Metamorphosis) के कई चरणों से भी गुजरते है। इस प्रक्रिया को 1 2 साल लग जाते है। और फिर तेरहवें साल में जादू होता है। तेरहवें साल की बसन्त ऋतु में, बाहर निकलने से कुछ हफ्ते पहले ये बाल कीट जमीन से बाहर आने के लिए सुरंगे बनाते है। जमीन की सतह तक निकलने वाली ये सुरगें लगभग एक मे. मी. व्यास की होती है। कभी-कभी इन सुरगों से एक चिमनीनुमा सिरा भी बाहर की ओर निकला दिखता है। बाहर आने वाली रात में, सभी बाल-कीट सुरज डूबने के कुछ ही देर बाद अपनी सुरंगों के रास्ते बाहर निकल आते हैं। बाहर आकर ये पेड़ों पर चढ़ जाते हैं और अपने अंतिम कायांतरण से गुजरते हुए, और लगभग तीन-चार से. मी. लंबे वयस्क कीट के रूप में प्रकट होते हैं।
निकलने की शाम आई?
भारत के पांचवें हिस्से जितने बड़े इलाके में फैले इन बाल कीटों को आखिर कैसे मालूम पड़ता है कि बाहर
नर सिकाडा: पती के ऊपर उलटा पड़ा नर सिकाडा। इनसेट में पंख के नीचे दिख रही सफेद-सी रचना टिम्बल है। इसी टिम्बल में पैदा करते हैं ये अपनी आवाज।
निकलने वाली शाम आन पहुंची है? कोई नहीं जानता यह। वैज्ञानिक बेताब हैं इस बारे में जानने को और जुटे हुए हैं इस पहेली को सुलझाने में। बाहर निकलने के बाद अभी तीन चार दिन और लगते हैं सिकाडा के बाहरी कवच जैसै आवरण को कड़ा और गहरे रंग का होने में। और इसके बाद शुरू होता है समूहगान, जिसने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया था कि मुझे कहीं टिन्नाइटिस तो नहीं है? वयस्क सिर्फ कुछ ही हफ्ते जीवित रहते हैं - अपने 13 साल लम्बे जीवन के मुकाबले एक बहुत छोटा सा भाग।
सिर्फ नर सिकाडा ही यह ध्वनि पैदा कर सकते हैं। आवाज़ उत्पन्न करने के लिए उनके पंखों के नीचे ( पेट के पहले खण्ड में ) खास सफेद धारीदार अंग होते हैं। इन अंगों को टिम्बल (Timble) कहते हैं। इनका पेट खोखला होता है - जो शायद सितार की तरह आवाज़ में गूंज पैदा करने के काम आता हो। नर सिकाडा बड़े-बड़े झुण्डों मे रहते हैं और किसी पेड़ पर बैठे सारे नर एक-साथ आवाज़ निकालते है। यह समूहगान मादा सिकाडाओं को आकर्षित करने के लिए होता है। किमी पेड़ के नीचे खड़ा होकर कोई भी इस गान के ऊपर चढ़ने और नीचे गिरने का मजा ले सकता है। और अगर आप पेड़ों की किसी कतार के पास खड़े हैं तो फिर बात ही क्या है। ऐसा लगता है कि आवाज़ पहले पेड़ से शुरू होकर अगले, फिर अगले से होते हुए पूरी कतार का सफर करती है, बिल्कुल एक तरंग की तरह। अगर नर सिकाडाओं को पकड़ा जाए तो वे चिचियाने जैसी एक और ध्वनि पैदा करते हैं - यह ध्वनि दूसरों को खतरे से सतर्क करने के लिए होती है।
संसर्ग के बाद मादा सिकाड़ा पेड़ की छोटी शाखाओं पर बने छोटे-छोटे घोंसलों में अंडे देती है - एक घोंसले में अंडों की संख्या लगभग बीस होती है। एक मादा 600 के करीब अंडे
मादा सिकाडा: पत्ती के ऊपर उल्टी पड़ी मादा सिकाडा। फोटो में वो जगह इंगित की गई है। जहां से वो अंडे देती हैं। एक मादा लगभग 600 के करीब अंडे देती है।
देती है। करीब छह हफ्ते बाद अंडे फूट जाते हैं, लार्वा शिशुकीट नीचे गिरकर जमीन में घुस जाते हैं और अपने तेरह साल के जीवनचक्र की शुरुआत करते हैं।
केन ने मुझे दिखाया कि कैसे सिकाडा को पलटकर देखा जा सकता है कि वो नर है या मादा। मादा सिकाडाओं का पेट नीचे की ओर नुकीला होता है और उसमें अण्डे देने के लिए एक खास अंग (Ovipositor) भी होता है। सिकाडाओं ने मुझे कोडाइकनाल में पाए जाने वाले कुरूंजी पौधों की याद दिलाई। कुरूंजी के सभी पौधों में बारह सालों में एक बार, एक ही साथ फूल खिलते हैं। इसी तरह एक इलाके के बांस के पेड़ों में भी फूल कई सालों में एक बार, एक साथ ही खिलते हैं। कभी-कभी तो ये फूल 40 साल बाद आते हैं।
सिकाडाओं की कई प्रजातियां होती हैं जिनका जीवनकाल चार से लेकर सत्रह साल तक का हो सकता है। कुछ प्रजातियों में वयस्क सिकाडा हर साल प्रकट होते हैं। इनमें हरेक सिकाडा का जीवनचक्र आपस में समन्वित नहीं होता। अन्य प्रजातियों में जीवनचक्र समन्वित होते हैं और वयस्क सिकाडा तेरह साल में एक बार या कुछ प्रजातियों में सत्रह साल में प्रकट होते हैं। लेकिन उन वैज्ञानिकों का सोचो जो यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि सब सिकाडाओं को यह कैसे पता चलता है कि अब बाहर निकलने का वक्त आ गया? क्या उन वैज्ञानिकों को तेरह या सत्रह साल तक इन्तज़ार करते रहना पड़ता है? किस्मत से ऐसा नहीं है। अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले सिकाडाओं के अलग-अलग झुण्ड अपना जीवनचक्र अलग-अलग सालों में पूरा करते हैं।(यहां झुण्ड से मतलब सिकाडाओं के ऐसे समूह से है जिसके सारे सदस्य एक ही साल में पैदा हुए हों।) इन झुण्डों की तुलना हम कुम्भ के मेले से कर सकते हैं। यह मेला भी किसी एक जगह पर बारह साल बाद ही लगता है। पर ऐसी चार जगहें हैं। जहां ये मेले भरते हैं। इसलिए आप चाहें तो तीन साल बाद भी कुम्भ के मेले में जा सकते हैं। इसी तरह तेरह साल का जीवन चक्र वाले सिकाडाओं के तीन झुण्ड हैं - इनमें से एक 1998 यानी इसी साल प्रकट हो चुका है, दुसरा झुण्ड 2001 में और तीसरा झुंड 2007 में प्रकट होगा। इसी तरह सत्रह साल का जीवनचक्र वाले सिकाडाओं के भी बारह झुण्ड हैं।
सिकाडाओं का जीवनचक्र इतना अजीब क्यों होता है? जैविक विकास के क्रम में पेड़-पौधों और जानवरों की विभिन्न प्रजातियों में प्रजाति के जीवित रह पाने , बचे रहने को सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न रणनीतियां पाई जाती हैं। जीव वैज्ञानिक यह मानते हैं कि चूंकि ये सिकाडा इतने असहाय हैं, और इतने स्वादिष्ट भी कि सभी शिकारी जानवर उन्हें खाना बहुत पसन्द करते हैं। इसलिए जब ये अचानक बहुत बड़ी संख्या में एक साथ प्रकट होते हैं - तब अगर सभी पक्षी, गिलहरी और
पेड़ पर ऊपर जाते और नीचे उतरते सिकाड़ा।
दूसरे शिकारी जीव जी भरकर भी इन्हें खाएं, तो भी प्रजाति को आगे बढ़ाने के लिए अंडे देने के समय तक कुछ तो जीवित बच ही जाएंगे। मैंने गिलहरियों, चिड़ियाओं और कुत्तों को सिकाडो भकोसते देखा है। वे एक बार में इतनी तादाद में इन्हें खा जाते हैं कि फिर उलटी करने लगते हैं। मैं कल्पना कर रहा था कि इन दिनों जब चिड़ियों के घोंसलों में मां या पिता खाना लेकर आते होंगे तब बच्चे गर्दन लम्बी करके पता लगाने की कोशिश करते होंगे कि खाने में क्या है? और फिर शायद वे नाक-भौं सिकोड़कर घोंसले में दुबक जाते होंगे, 'अरे नहीं, सिकाडा ... अब नहीं!'
नीरज जैन अमेरिका में पढ़ाते और शोध करते हैं। सभी फोटोग्राफः नीरज जैन।
मूल लेख अग्रेजी में, अनुवाद : दुलटुल विश्वास, टुलटुल विश्वास एकलव्य द्वारा प्रकाशित बाल विज्ञान पत्रिका चकमक में मबद्ध है।