प्रदीप गोठोस्कर
कक्षा मे आज शोरगुल इतना अधिक था कि शायद ही आप अपनी आवाज़ सुन पाते। लेकिन ऐसा हल्ला-गुल्ला तो प्राय: हर स्कूल मे होना स्वाभाविक ही है जब कभी शिक्षक कक्षा में देर से आते या पीरियड खाली होता तो बच्चे शोर मचाने के लिए जैसे स्वतंत्र हो जाते थे। वैसे कक्षा का हर मिनट अपनी-अपनी तरह से महत्वपूर्ण होता है। बच्चों के लिए कम कि कोई कमी नहीं होती। मारपीट में बीच- बचाव करना, कंचों की लेन-देन, गप्पबाज़ी और एक दूसरे को चिढ़ाना वगैरह वगैरह। मोहम्मद और करीम टेबिल पर शरारतन अपने नाम लिखने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक कक्षा में शिक्षक का प्रवेश हुआ।
"सलाम वालेकुम सर", सभी छात्र खड़े हो गए।
"वालेकुम सलाम'' सर ने अपनी कुर्सी पर बैठते हुए कहा। बैठने से पहले उन्होंने अपना कोट खुटी पर टांगा और ब्लेकबोर्ड पर आज की तारीख लिखी। आज ठंड कुछ अधिक थी। ईरान के इस इलाके में जाड़े के मौसम में कड़ाके की सर्दी होती है। तारीख लिखकर सर कक्षा से मुखातिब हुए, “कक्षा में इतना शोरगुल क्यों हो रहा था? मैंने तुम लोगों से कितनी दफा कहा है कि यदि मुझे कक्षा में आने में देरी हो जाए तब भी तुम लोगों को शांति बनाए रखना चाहिए। ए वाजिद,... कहां ध्यान है तुम्हारा? क्या मैं ये सब बातें दीवार से कर रहा हूं?"
इस रोबदार शुरुआत के साथ शिक्षक ने कलम निकालकर होमवर्क जांचना शुरू किया। यह कक्षा का बंधा हुआ नियम था कि शिक्षक के कक्षा में आते ही सबसे पहले सभी छात्र अपने होमवर्क की कॉपियां बाहर निकालें। यह कोई सुखद बात नहीं थी कि दिन का आगाज होमवर्क के साथ हो, लेकिन नियम तो आखिर नियम ही होता है।
कक्षा की पहली कतार से शिक्षक ने होमवर्क देखना शुरू किया। उनके पास आने की गति से करीम कुछ कुछ विचलित हो रहा था। मोहम्मद ने उसके चेहरे के उतार-चढ़ाव भांपते हुए कहा, "करीम तुमने अपना होमवर्क कर लिया है न?"
करीम मोहम्मद का आत्मीय मित्र था। वे दोनों कक्षा में साथ -साथ बैठते थे और स्कूल में रहते भी साथ-साथ थे। लेकिन करीम गरीब था और मोहम्मद के घर के हालात कुछ बेहतर थे।
होमवर्क तो कर लिया है लेकिन कागज़ पर करके लाया हूं; कॉपी में नहीं। मेरी कॉपी मुझे मिल नहीं रही थी।'' करीम की आवाज़ कांप रही थी। यह सचमुच ठीक बात नहीं थी क्योंकि पिछले हफ्ते ही सर ने करीम को खुले कागज़ पर होमवर्क करके लाने के कारण सज़ा दी थी। और ऐसी बातें उन्हें खूब याद रहती थीं।
"तुम्हीं कहो, मैं क्या करूं; अब तो मेरी खैर नहीं।'' करीम ने जैसे खुद से ही कहा। उसकी आंखें डबडबा आई थीं, "काश मैं कक्षा से गायब हो सकता।'' करीम के ज़ेहन में अजीब से ख्याल आने लगे। इस बीच होमवर्क जांचते हुए शिक्षक उस तक पहुंच गए।
"दिखाओ करीम, कहां है तुम्हारा होमवर्क।'' करीम के पांव थर-थर कांप रहे थे। वह डरता हुआ खड़ा हो गया। उसने तीन-चार कागज़ शिक्षक की ओर बढ़ाए।
"ये क्या? यही तुम्हारा होमवर्क है? खुले कागज़ पर?' सर ने कागज़ को हवा में लहराते हुए कहा “मैंने कितनी बार कहा है ऐसे कागजों पर होमवर्क नहीं चलेगा। होमवर्क कॉपी में ही करना चाहिए, बताया है कि नहीं?”
शिक्षक ने एक निगाह विद्यार्थियों पर डाली, "मैं तुम लोगों से सैंकड़ों दफा कह चुका हूं, होमवर्क हमेशा कॉपी में ही होना चाहिए। इसका खास कारण है। कॉपी में लिखने से तुम्हें अपनी गलती समझ में आती है और साल भर तुम क्या सीखते हो इसकी तुम्हें जानकारी रहती है।'' उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था।
“मैं तुमसे फिजूल में ये सब नहीं कहता और न ही तुम्हें बेवकूफ समझकर कहता हूं।'' उनका मुंह गुस्से से तमतमाया हुआ था। कक्षा में किसी की कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। ऐसे समय चुप रहने में ही खैर थी। शिक्षक फिर करीम से मुखातिब हुए, “मैं तुम्हें आखिरी चेतावनी दे रहा हूं, अगर आइंदा खुले कागज़ पर होमवर्क करके लाओगे तो स्कूल से निकाल दिए जाओगे।"
शिक्षक ने कागज़ के टुकड़े -टुकड़े कर दिए और आगे बढ़ गए। करीम डेस्क पर झुककर सिसकियां लेकर रोने लगा। अपनी कमीज़ की बांहों से आंसू पोंछते हुए वह बुदबुदाया, “अब ऐसी गलती नहीं होगी।''
शिक्षक के ऐसे व्यवहार से कक्षा में सन्नाटा खिंच जाता था। करीम को सहज करने के लिए मोहम्मद को काफी कोशिशें करनी पड़ी। तब कहीं जाकर उसके चेहरे पर हंसी आई।
शाम चार बजे स्कूल की छुट्टी हुई। जाड़े के दिनों में स्कूल जल्दी छूट जाता था क्योंकि बहुत से छात्र दूर दराज के गांवों से आते थे। कुछ लड़के तो सात-आठ किलोमीटर दूर से आते थे और उनके घर पहुंचने तक अंधेरा घिर आता था।
करीम और मोहम्मद स्कूल से देरी से निकलते थे क्योंकि वे दोनों अलग अलग गांव में रहते थे और उन्हें साथ साथ खेलने का मौका केवल स्कूल में ही मिलता था। ज्यादातर वे स्कूल के मैदान में कंचों का खेल खेलते थे। गर्मी के दिनों में छोटे तालाब में तैरना उनका खास शगल था।
अंधेरा धीरे-धीरे उतर रहा था। कल फिर मिलने का वादा करके दोनों ने एक दूसरे से विदा ली। मोहम्मद का गांव स्कूल के नज़दीक ही था।
मोहम्मद घर भर का लाड़ला था। घर पहुंचने पर वह घरेलू काम में व्यस्त हो जाता था।
'मोहम्मद दूध ले आओ', 'मोहम्मद चाय का कप दादी को दे आओ', ‘मोहम्मद यहां धींगा-मस्ती मत करो', ‘मोहम्मद छोटे भाई को संभालो', ‘मोहम्मद जाओ डबल रोटी ले आओ। घर में हर काम के लिए उसे ही याद किया जाता था। इसलिए मोहम्मद को
घर से अधिक स्कूल पसंद था।
उसने जब घर में प्रवेश किया तो अम्मी रस्सी पर कपड़े फैला रही थी। ढलती शाम के साथ दिन भर के काम की थकान उनके चेहरे पर उतर आई थी। कोई कुछ काम न बता पाए इसलिए मोहम्मद गुपचुप दरवाज़े से भीतर गया, फिर दूध पीकर पढ़ने के लिए बैठ गया। बस्ता निकालकर उसने पहले होमवर्क की कॉपी निकाली और गणित हल करने लगा। जब वह लिख रहा था उसे संदेह हुआ कि कहीं कुछ गड़बड़ है। बस्ते को जब उसने खंगाला तो उसे होमवर्क की एक और कॉपी दिखाई दी। एकाएक उसकी समझ में आया कि भूल से करीम की कॉपी उसके बस्ते में आ गई है। करीम और मोहम्मद की कॉपी बिल्कुल एक जैसी थी, क्योंकि दोनों ने एक साथ, एक ही दुकान से कॉपी खरीदी थी। मोहम्मद ने सोचा कि मेरी कॉपी भी मेरे पास है और करीम की कॉपी भी मेरे पास है इसका मतलब करीम के पास उसकी कॉपी नहीं है। सुबह स्कूल में घटी घटना मोहम्मद को याद आने लगी। अगर करीम के पास होमवर्क की कॉपी नहीं होगी तो कल क्या होगा....... ? किसी भी तरह करीम तक उसकी कॉपी पहुंचनी ही चाहिए, नहीं तो उस बेचारे को स्कूल से निकाल दिया जाएगा। उसके मन में अज्ञात भय की लकीरें उभरने लगीं। वह तुरंत अम्मी के पास गया।
"देखो अम्मी, मैं गलती से ......" मोहम्मद की बात पूरी होने के पहले ही अम्मी बोली, "मुझे सताओ मत, एक तो कामकाज से मैं वैसे भी थक गई हूं।' मोहम्मद ने फिर कहा, "अम्मी मेरी बात तो सुनो। भूल से करीम की कॉपी मेरे पास आ गई है अगर मैंने उसे लौटाई नहीं तो कल उसका नाम स्कूल से काट दिया जाएगा।"
क्यों दिमाग खा रहे हो। कहीं जाना नहीं। अच्छा, एक काम करो। पढ़ाई वगैरह बाद में करना, पहले पैसे लेकर जाओ, रात के लिए दो पाव लेकर आना।''
अम्मी मोहम्मद की बात को नज़रअंदाज़ कर रही थी। मोहम्मद ने पैसे लेकर जेब में डाल लिए और जूते पहनकर वह घर से बाहर निकला। तभी उसे एक उपाय सूझा। पाव वाले की दुकान घर से दस मिनट की दूरी पर थी, यदि दौड़ते हुए पास का टीला पार कर करीम के गांव जाए तो समय पर वह पाव लेकर घर भी आ जाएगा और करीम को कॉपी भी दे सकेगा। सभी सवालों का एक ही जवाब था - करीम की कॉपी किसी भी तरह करीम तक पहुंच जाए, बस।
मोहम्मद गांव की दिशा में दौड़ने लगा। तेज़ी से दौड़ते हुए उसने टीला पार किया, उसके बाद छोटे नाले को पार करता हुआ वह करीम के गांव पहुंचा। गांव में जो पहला आदमी उसे दिखाई दिया उसी से उसने पूछा, "चाचा, क्या करीम का घर आपको पता है?"
"किस करीम से मिलना है तुम्हें?", बूढ़े आदमी ने पूछा।
"करीम मेरा खास दोस्त हैं, वो मेरे स्कूल में पढ़ता है। जानते हैं न आप उस टीले के पार बाला स्कूल?" मोहम्मद ने बताया।
"अच्छा-अच्छा वो करीम? मैं अच्छी तरह जानता हूं उसके अब्बू को। उसके घर जाने के लिए पहले सीधे जाना होगा, फिर एक कुएं के पास तुम पहुंचोगे। वहां किसी से भी पूछ लेना अली का घर कहां है।"
बूढ़े चचाजान की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मोहम्मद दौड़ता हुआ आगे बढ़ा। उसे बात करने की ज़रा भी फुर्सत नहीं थी। धीरे-धीरे हल्का अंधेरा घिरने लगा था।
मोहम्मद जब कुएं के नजदीक पहुंचा, वहां कुछ औरतें पानी भर रही थीं, कुछ बातें कर रही थीं और कुछ कपड़े धो रही थीं। मोहम्मद ने उनसे कहा, “क्या आप जानती हैं अली का घर कौन-सा है?'' औरतें आश्चर्य से इस छोटे बच्चे को देखने लगीं। "अली चाचा का लड़का करीम मेरा खास दोस्त है। मुझे ये कॉपी उसे लौटानी है।'' मोहम्मद ने उन औरतों को समझाने की कोशिश की।
औरतों ने उसे अली का घर दिखा दिया। घर रास्ते की बगल में ही था। मोहम्मद छलांग भरता हुआ घर की दहलीज़ पर पहुंचा। उसने दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा एक बुढ़िया ने खोला। मोहम्मद ने उनसे पूछा, “करीम यहीं रहता है न? मुझे उसकी कॉपी वापस करनी है।''
बूढ़ी दादी मां ने करीम को आवाज़ दी। आवाज़ सुनकर जो करीम बाहर आया वह दूसरा ही करीम था। यह करीम उम्र में बड़ा था और मोहम्मद के स्कूल में भी नहीं पढ़ता था। मोहम्मद ने उससे पूछा, "तुम मेरे मित्र करीम को जानते हो? मुझे उसकी ये कॉपी लौटानी है।'' उस लड़के ने कहा, “किस करीम से मिलना है तुम्हें? इस गांव में बहुत से करीम हैं।''
मोहम्मद के पास ज़रा भी समय नहीं था कि वह सारी बात उसे समझाकर बताता। वह दूसरे घर की तरफ बढ़ा। बहुत से घरों से पता करने के बावजूद उसे करीम का घर नहीं मिला। वह खूब थक चुका था, हताश हो चुका था। घर-घर घूमने से उसके पैर भी दर्द करने लगे थे। एक चौराहे पर पहुंचकर अचानक उसे ख्याल आया कि वह करीम के गांव में लगभग एक घंटे से है। अंधेरा भी हो चुका था।
मोहम्मद के चेहरे का रंग उड़ चुका था। वह सोचने लगा, "इस अंधेरे में मैं अपने घर कैसे जाऊंगा।'' वह कभी। भी इतनी देर तक अपने घर से बाहर नहीं रहा था।
वह अपने गांव की दिशा में दौड़ने लगा। जब वह टीले पर चढ़ रहा था तब उसे अचानक ध्यान आया कि लोग कहते हैं कि इस टीले पर भूत-प्रेत रहते हैं। जैसे-तैसे टीले को पार करता हुआ, वह अपने गांव पहुंचा। हांफता हुआ वह पाव की दुकान पर पहुंचा लेकिन दुकान कब की बंद हो चुकी थी।
"अब घर में मेरी खैर नहीं। अब्बाजान पिटाई किए। बगैर नहीं छोड़ेंगे।'' मोहम्मद सोचने लगा। बहुत संभलकर और बचते हुए वह घर में घुसा।
सामने के कमरे में अम्मी और अब्बा सिर पर हाथ रख चिंतामग्न बैठे थे।
अब्बा रेडियो पर रात का समाचार सुन रहे थे। उन्होंने तैश में मोहम्मद की तरफ देखा और रेडियो बंद करके दूसरे कमरे में चले गए। मोहम्मद ने बहुत धीरज से कहा, “अम्मी मैं होमवर्क की कॉपी देने करीम के गांव चला गया था। लेकिन वो मुझे नहीं मिला।''
अम्मी बोली, "अब मुझसे कुछ न कह कमबख्त। तेरे कारण बिल्कुल जान में जान नहीं थी। जा ऊपर जाकर खाना खा ले।''
अम्मी ने उसे अपने पास नहीं बिठाया, टीला पार करते हुए लगे डर के बारे में कुछ भी नहीं पूछा। अम्मी के इस उपेक्षापूर्ण रवैये से मोहम्मद की आंखें छलछला आई। जीना चढ़कर वह ऊपर के कमरे में पहुंचा।
“मुझे खाना नहीं खाना है', चीखते हुए उसने कहा।
मोहम्मद ने बस्ता निकाला और लालटेन की रोशनी में अपना होमवर्क करने लगा। पास रखी थाली की तरफ उसने देखा तक नहीं। देर रात तक वह पढ़ाई करता रहा।
पढ़ाई करते-करते ही जलती हुई लालटेन के पास उसे कब नींद आई पता ही नहीं चला।
स्कूल का अगला दिन, और दिनों की तरह ही शुरू हुआ। कक्षा में आज भी उतना ही शोरगुल था कि आप अपनी आवाज तक नहीं सुन सकते थे। करीम का मन आज अस्वस्थ था। उसका दूसरों की तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं था। शिक्षक जैसे ही कक्षा में आए, शोरगुल थम गया।
"सलाम वालेकुम सर।"
"वालेकुम सलाम" शिक्षक ने अपना कोट निकालकर खूंटी पर टांगा। ब्लेकबोर्ड पर तारीख लिखी और अपनी कुर्सी की तरफ बढ़े। करीम के बगल की जगह आज खाली थी। मोहम्मद आज स्कूल नहीं आया था। वह पढ़ाकू छात्र था और आम तौर पर कभी भी कक्षा से गैरहाज़िर नहीं होता था।
"बच्चो, खोलो अपनी होमवर्क की कॉपी', शिक्षक ने कमीज़ की बांहें मोड़ते हुए कहा। फिर कलम निकालकर वे होमवर्क जांचने लगे। आज जांच पीछे की बैंच से शुरू हुई थी। करीम परेशान हो रहा था। वह डेस्क की दराज़ में इधर-उधर अपनी कॉपी खोजने लगा। उसकी आंखें भर आई थीं। उसे जैसे कुछ भी दिख नहीं रहा था। सर ने क्या कहा, इस ओर उसका ज़रा भी ध्यान नहीं था।
"क्या करूं मैं आज? आज मुझे कोई बचा नहीं सकता।'' करीम होठों ही होठों में बुदबुदाया, "पिताजी को यह बताने में कितना बुरा लगेगा कि मुझे स्कूल से निकाल दिया गया है।" उसके हाथ-पांव कांप रहे थे और मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे। पिछली बैंच से जांच करते हुए शिक्षक करीम के पास तक पहुंचे।
"सर, क्या मैं अंदर आ सकता हूं?" दरवाजे पर खड़े मोहम्मद ने शिक्षक से अनुमति मांगी।
"मोहम्मद, आज देर क्यों हुई? कितनी बार तुम्हें समझाया कि देर होने पर सज़ा मिलेगी, कक्षा के बाहर पूरे दिन खड़े होने की। तुम लड़के आखिर कब अनुशासित होगे।''
मोहम्मद जिस-तिस तरह से अपना बस्ता संभालते हुए बोला, "सर, रात देर तक जागने से सुबह जल्दी नींद नहीं खुली। पड़ोस के गांव गया था।''
शिक्षक ने मोहम्मद की बात अनसुनी करते हुए कहा, "मुझसे बहस मत करो। आज मैं तुम्हें छोड़ देता हूं। लेकिन फिर कभी देर हुई तो याद रखना।''
शिक्षक का वाक्य समाप्त होने से पहले ही मोहम्मद अपनी डेस्क की तरफ लपका। बस्ता खोलकर उसने फुर्ती दिखाते हुए अपनी कॉपी निकाली और करीम की कॉपी चुपचाप उसकी तरफ बढ़ा दी।
"करीम दिखाओ अपना होमवर्क", करीम की कॉपी हाथ में लेते हुए शिक्षक ने कहा। करीम बेचैन हो उठा और अपना चेहरा हथेलियों में छुपाकर सुबकने लगा। शिक्षक उसकी कॉपी देखने लगे।
"शाबास करीम, आज तुमने बहुत अच्छा होमवर्क किया है। शिक्षक ने कहते हुए करीम को कॉपी लौटा दी। करीम कुछ समझ नहीं पाया। मोहम्मद मुस्करा रहा था। वह करीम के कान में फुसफुसाया, “घबराओ नहीं करीम, मैं अपने साथ तुम्हारा होमवर्क भी करके ले आया था।''
प्रदीप गोठोस्कर: खगोलशास्त्री। पुणे स्थित टाटा मूलभूत शोध संस्थान के 'नेशनल सेंटर फॉर रेडियो एन्ट्रोनोमी' में काम कर रहे हैं। मराठी संदर्भ के संपादन मंडल के सदस्य।
हिन्दी अनुवाद एवं चित्र; राजेन्द्र गायकवाड़। आकाशवाणी बैतूल में सेवारत। शौकिया अनुवादक एवं चित्रकार हैं।
यह कहानी अब्बास कियारोस्टॉमी की एक ईरानी फिल्म पर आधारित है। कथा रूपांतर प्रदीप गोठोस्कर मराठी संदर्भ के पहले अंक सितंबर-अक्टूबर 1999 से साभार।