किशोर पंवार
पौधे भोजन कैसे बनाते हैं इसके बारे में हमने कुछ-अंक पहले संदर्भ में चर्चा की थी। उस लेख में हमने देखा था कि किस तरह, छोटे छोटे आसान से प्रयोगों द्वारा, पौधों में भोजन निर्माण की प्रक्रिया को कदम दर-कदम समझा गया।* कुल मिलाकर हमने यह जाना कि पौधे अपने हरे भाग में स्थित क्लोरोफिल की सहायता से पानी और कार्बन डाइऑक्साइड से मंड बनाते हैं। इस क्रिया में पानी को तोड़कर उससे ऑक्सीजन अलग करने, और हाइड्रोजन को कार्बन डाइऑक्साइड से जोड़ने में जो ऊर्जा लगती है वह सूर्य के प्रकाश से मिलती। है। इस तरह प्रकृति में यहां-वहां बिखरे
पौधों में भोजन के बारे में शुरुआती खोजबीन पर विस्तृत जानकारी के लिए संदर्भ के अंक 27 में प्रकाशित लेख ‘पौधों में भोजन का निर्माण' देखिए।
ये ‘हरे एंटीना' सूर्य की विकिरण ऊर्जा को पकड़कर उसे शर्करा, मंड, प्रोटीन और वसा जैसे उच्च ऊर्जा युक्त पदार्थों में बदल देते हैं; जिसे आवश्यकता पड़ने पर ये स्वयं और हमारे जैसे अन्य परपोषी इस्तेमाल कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं।
भोजन निर्माण की इस क्रिया में उपयोग में आने वाला कच्चा माल यानी कार्बन डाइऑक्साइड और पानी क्रमशः हवा और जड़ों से मिलता है। कार्बन डाइऑक्साइड हवा से पेड़-पौधों की पत्तियों की सतह पर पाए जाने वाले रंध्रों, जिन्हें स्टोमेटा कहते हैं, के द्वारा होती हुई पत्तियों के अंदर पहुंचती है। आवश्यक पानी जमीन से जड़ों द्वारा सोख लिया जाता है। इतना सब जान लेने के बाद भी बहुत से सवाल अनुतरित रह जाते हैं - का प्रकाश इस क्रिया में किस तरह मददगार है; पत्तियों में उपस्थित हरा पदार्थ ‘क्लोरोफिल' क्या है: पत्तियों में यह कहां मिलता है; प्रकाश संश्लेषण में इसकी क्या और कैसी भूमिका है, आदि, आदि।
सवाल यह भी है कि हवा की कार्बन डाइऑक्साइड पत्तियों में कहां जाती है? उसे कौन ग्रहण करता है? उससे ग्लूकोज़ और मंड कैसे बनता है? इस लेख में हम इन्हीं प्रश्नों के उत्तर जानने का प्रयास करेंगे। अपनी खोज की
शुरुआत करते हैं पौधों में ‘भोजन निर्माण के कारखानों' यानी पत्तियों से।
पत्तियां और प्रकाश
आपने कभी सोचा है कि कुछ अपवाद छोड़कर सभी पेड़-पौधों की पत्तियां हरी ही क्यों होती हैं, किसी दूसरे रंग की क्यों नहीं? यह तो आप जानते ही होंगे कि कोई वस्तु हमें उसी रंग की दिखती है जिस रंग को वह परावर्तित कर देती है। जैसे, कोई फूल लाल रंग का है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसकी पंखुड़ियां लाल रंग को नहीं सोख रही हैं अतः वह हमें लाल दिखाई देता है। ठीक यही बात पत्तियों पर भी लागू होती है।
यदि आपने रेडियो सुना है तो उद्घोषकों के मुंह से यह भी सुना होगा कि 'हम मीडियम वेव पर फलां फलां किलोहर्ट्ज़ पर प्रसारण कर रहे हैं।' या 'हम इतने किलोहर्ट्ज़ पर आकाश-वाणी, भोपाल से बोल रहे हैं। जब मैं छोटा था तब गांवों में रेडियो का वही महत्व था जो आज टी. वी. का है। तब तो 'शॉर्ट वेव, मीडियम वेव, किलोहर्ट्ज़' ये सब बातें समझ न आती थीं, परन्तु अपनी उच्च शिक्षा की पढ़ाई के दौरान जब किताबों में सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगों का चार्ट देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ। पता चला कि सूर्य
सूर्य प्रकाश के विभिन्न हिस्सेः सूर्य प्रकाश को तरंग लम्बाई के आधार पर एक्स तरंगें, पराबैंगनी तरंगें, दृश्य प्रकाश, इन्फ्रारेड तरंगें आदि हिस्सों में बांटा गया है। इसमें से एक छोटे से हिस्से के प्रति हमारी आंखें संवेदनशील हैं। प्रकाश संश्लेषण व विकिरण आधारित ज्यादातर जैविक प्रक्रियाएं सूर्य प्रकाश की विद्युत-चुंबकीय तरंगों के इसी हिस्से (और उसके इर्द-गिर्द के थोड़े से हिस्से) पर आधारित हैं।
की किरणों से भी रेडियो वेव आती हैं; शॉर्ट वेव भी और मीडियम वेव भी। इतना ही नहीं सूर्य के प्रकाश में अल्फा, बीटा, गामा किरणों के अतिरिक्त ‘एक्स' किरणें भी होती हैं।
सूर्य से आने वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगों में 10-12 से.मी. यानी कॉस्मिक किरणों से शुरू होकर 104 से. मी. तक की रेडियो वेव तरंगें होती हैं। इनके बीच, 10-6 से 10-2 से. मी. के बीच अल्ट्रावॉयलेट व अवरक्त किरणें होती हैं। इस हिस्से का केवल एक छोटा-सा भाग यानी, 400 नेनोमीटर से लेकर 750 नेनोमीटर तक की किरणें ही हमें दिखाई देती हैं। इस छोटे-से हिस्से के दोनों तरफ हमारे लिए अंधेरा है। केवल यही भाग रोशनी या दृश्य-प्रकाश है।
दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि सूर्य की किरणों का जो हिस्सा हमारी आंखें देख सकती हैं। वही हमारे लिए 'प्रकाश' है। न्यूटन के समय से हम जानते हैं कि यह ‘प्रकाश सात रंगों से मिलकर बना है। पेड़ पौधों व जंतुओं में पाए जाने वाले वे कार्बनिक पदार्थ जो सूर्य के इस हिस्से की विशिष्ट किरणों को सोखते हैं, रंजक कहलाते हैं। क्लोरोफिल, हीमोग्लोबिन, जेन्थोफिल और एन्थोसाइनिन ऐसे ही कुछ पिगमेंट (रंजक) हैं। क्लोरोफिल की विशेषता है कि वह सूर्य के प्रकाश में से हरे रंग की तरंगों को नहीं सोखता, इसीलिए चारों ओर दुनिया हरी भरी है।
क्लोरोफिल और क्लोरोप्लास्ट
थोडा और गहराई में जाकर पत्तियों के अंदर झांकें तो पता चलता है कि ये हरा पदार्थ क्लोरोफिल, पत्ती की ऊपरी व नीचे की सतह के बीच पाई जाने वाली विशेष प्रकार की कोशिकाओं में भरा होता है। इन कोशिकाओं को मीज़ोफिल कहते हैं। वास्तव में ये कोशिकाएं ही हरी होती हैं और इनके हरे होने का कारण इनमें भरे वे छोटे-छोटे सैंकड़ों कण हैं जिन्हें ‘क्लोरोप्लास्ट' कहते हैं। यदि आप इन हरी-पीली रचनाओं यानी कि क्लोरो प्लास्ट को देखना चाहते हैं तो आसपास के किसी तालाब, नदी या नाले से कोई जलीय वनस्पति ले आइए। वैसे इस कार्य के लिए काई या हाइड्रिला (चोई) अच्छे रहते हैं। किसी तंतुवत काई के एक-दो सूत्र या हाइड्रिला की एक-दो पत्तियां एक स्लाइड पर रखकर कम्पाउंड माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल करते हुए ‘हाई और लो पॉवर' में देखें। ध्यान से देखने पर हाइड्रिला की पत्तियों में हरे-पीले कण आपको रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह एक के पीछे एक चलते नजर आएंगे। इसे देखकर आप निश्चित रूप से आनंदित होंगे। पौधों की पत्तियों में भरी पड़ी भोजन निर्माण की ये इकाइयां अलग अलग आकार और रूप में पाई जाती हैं। जैसे स्पायरोगायरा में स्पायरल रिबिन के आकार की, तो हाइड्रिला में चकतीनुमा।
क्लोरोप्लास्ट की आंतरिक रचना देखने पर पता चलता है कि इनके दो हिस्से होते हैं। एक हिस्से में ऐसे लगता है मानो एक के ऊपर एक रखकर
क्लोरोप्लास्ट के भीतरः
- मक्के की पत्ती की काट जिसे सूक्ष्मदर्शी से देखने पर क्लोरोप्लास्ट दिख रहा है। क्लोरोप्लास्ट के भीतर एक के ऊपर एक जमी चकतीनुमा थाइलेकॉइड रचनाओं के ढेर भी दिख रहे हैं।
2. व 3. क्लोरोप्लास्ट के अंदर की संरचनाओं की जमावट और आपसी संबंध दिखाए गए हैं।
चकतीनुमा थाइलेकॉइड की ढेरियों को ग्रेनम या ग्रेना कहते हैं। ये सब ग्रेना आपस में थाइलेकॉइड की झिल्लियों से जुड़े रहते हैं। थाइलेकॉइड की इन झिल्लियों को स्ट्रोमा कहते हैं।
कोशिका में क्लोरोप्लास्ट के अंदर स्थित थाइलेकॉइड में ही क्लोरोफिल पाई जाती है।
सिक्कों की ढेरिया बनाई गई हैं, जो आपस में भी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। ये ग्रेना हैं। ग्रेना में क्लोरोफिल अपने सहायक रंजकों (केरीटीनाइड और जेन्थोफिल) के साथ भरी रहती है। यही वह जगह है जहां सूर्य का प्रकाश सोखा जाता है और भोजन बनने की शुरुआत होती है। बाहरी झिल्ली से घिरी बाकी जगह स्ट्रोमा है। जिसमें भोजन बनाने में काम आने वाले एंजाइम भरे रहते हैं।
पत्तियों में तो तरह-तरह के पदार्थ और रंजक होते हैं। फिर यह कैसे पता चले कि कौन-सा रंग या रंजक पौधे में होने वाली किस क्रिया में सहायक है। इसका पता ‘ऐन्जलमेन' ने अपने एक साधारण से प्रयोग से लगाया। यह प्रयोग एक बार फिर यह प्रमाणित करता है कि हर बार गहन निष्कर्ष निकालने के लिए विशाल उपकरणों की ज़रूरत नहीं होती।
प्रयोग एक - निष्कर्ष चार
इस जर्मन वनस्पति शास्त्री ने 1880 में किए इस साधारण से प्रयोग से बड़े महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले। इस
ऐन्जलमेन का प्रयोगः ऐन्जलमेन ने एक बेहद साधारण-सा दिखने वाला प्रयोग करके प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के बारे में बहुत-सी बातें पता लगाईं। उसने एक कांच की। पट्टी पर हरी काई के एक तंतु के साथ ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले बेक्टीरिया रखे। इस कांच की पट्टी को सूक्ष्मदर्शी के नीचे रखकर दूसरी ओर से उस पर रोशनी डाली गई। परन्तु एक फर्क था कि उसने रोशनी प्रिज्म में से गुजरकर प्रकाश का वर्णक्रम कांच की पट्टी पर डाला। कुछ देर बाद उसने पाया कि अधिकतर बेक्टीरिया क्लोरोप्लास्ट के उन हिस्सों के पास इकट्ठे हो गए जहां बेंगनी ओर लाल रंग का प्रकाश पड़ रहा था।
साथ ही चित्र में यह भी दिखाया गया है कि क्लोरोफिल दृश्य प्रकाश के बेंगनी और लाल हिस्सों को सर्वाधिक सोखता है। इन दो बातों से उसने निष्कर्ष निकाला कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया क्लोरोफिल द्वारा सोखी गई प्रकाश किरणों पर निर्भर है और उसी क्रिया में ऑक्सीजन निकलती है।
प्रयोग में उसने नदी-नालों में उगने वाली एक हरी काई या शैवाल ‘स्पायरोगायरा' का उपयोग किया। इसकी विशेषता है, इसमें बड़े-बड़े रिबिननुमा स्पायरल क्लोरोप्लास्ट का पाया जाना। प्रयोग में ऐन्जलमेन ने स्पायरोगायरा के एक सूत्र को स्लाइड पर वायुजीवी ऑक्सी-बेक्टीरिया के साथ रखकर सील कर दिया। इस प्रयोग के लिए उसने ऐसा बेक्टीरिया चुना जो हलचल कर सकता हो। स्पायरो गायरा और बेक्टीरिया की इस स्लाइड पर प्रकाश डालने पर अधिकांश बेक्टीरिया स्पायरोगायरा के स्पायरल क्लोरोप्लास्ट के आसपास जमा हो गए। इससे यह पता चला कि भोजन निर्माण की क्रिया में निकलने वाली ऑक्सीजन क्लोरोप्लास्ट से ही निकलती है।
इसी प्रयोग में अब उन्होंने स्लाइड को प्रकाश के वर्णक्रम यानी स्पेक्ट्रम के बीच रखा। ऐसी व्यवस्था उन्होंने माइक्रोस्कोप की रोशनी के स्रोत और स्टेज पर रखी स्लाइड के बीच एक प्रिज्म रखकर बनाई। शैवाल के तंतु को उन्होंने ऐसे रखा कि वह वर्णक्रम के समानांतर रहे। इस बार उन्होंने देखा कि अधिकतर बेक्टीरिया शैवाल के उस हिस्से के इर्द-गिर्द जमा हो गए हैं जहां नीला और लाल प्रकाश पड़ रहा था। इससे पता चला कि अधिकतर ऑक्सीजन इन्हीं दो प्रकाश तरंगों के आसपास निकलती है, क्योंकि अधिकांश बेक्टीरिया यहीं जमा थे। इस प्रयोग से पहली बार क्लोरोप्लास्ट से ऑक्सीजन निकलने का सीधा प्रमाण मिलता है, जिससे यह भी पता चलता है। कि ज्यादा फोटोसिन्थेसिस भी इन्हीं क्षेत्रों में होती है।
पत्तियों पर रोशनीः पत्तियों पर पड़ने वाली सूरज की किरणों में से कुछ पत्तियों के पार निकल जाती हैं, . कुछ को पत्तियां सोख लेती हैं और कुछ किरणों को पत्तियां परावर्तित करती हैं। पत्तियां हरी इसलिए दिखती हैं चूंकि वे प्रकाश की हरी तरंगों को परावर्तित कर देती हैं।
क्लोरोफिल ‘ए’ की आण्विक संरचना
ऐन्जलमेन के प्रयोग से प्राप्त फोटोसिन्थेसिस की क्रिया का स्पेक्ट्रम और क्लोरोफिल का अवशोषण स्पेक्ट्रम आपस में मेल खाते हैं। इससे उसने यह निष्कर्ष निकाला कि क्लोरोफिल द्वारा अवशोषित प्रकाश ही फोटोसिन्थेसिस के लिए जिम्मेदार है; और क्लोरोफिल ही वह रंजक है जिस पर इस पूरी प्रक्रिया का दारोमदार है।
क्लोरोफिल और ऊर्जा का संग्रहण
पौधों की पत्तियों पर जब सूर्य की रोशनी पड़ती है तो उसका हश्र पिछले पन्ने पर दिखाए चित्र के अनुसार होता है। यह तो हम जान ही चुके हैं कि सूर्य प्रकाश के अवशोषण का काम पत्तियों में उपस्थित क्लोरोप्लास्ट करते हैं। वस्तुतः यह काम हरे रंजक क्लोरोफिल द्वारा किया जाता है। इस रंजक की रचना हमारे खून में मिलने वाले रंजक हीमोग्लोबिन से खूब मिलती है। फर्क इतना भर है कि क्लोरोफिल के केन्द्र में जहां मैग्नीशियम है, वहीं हीमोग्लोबिन में आयरन यानी लोहा होता है।
प्रकाश ऊर्जा ग्रहण कर क्लोरोफिल, उत्तेजित अवस्था में आ जाता है। इस उच्च ऊर्जा वाली स्थिति में मैग्नीशियम के इलेक्ट्रॉन, उच्च ऊर्जा स्तर पर चले जाते हैं। ऐसे क्लोरोफिल अणु उत्तेजित यानी एक्साइटेड कहलाते हैं। और फिर अगर ऐसे क्लोरोफिल के अणु से एक इलेक्ट्रॉन बाहर निकल जाता है तो कहा जाता है कि उस क्लोरोफिल के अणु का ऑक्सीकरण हो गया है।
क्लोरोफिल अणु से इलेक्ट्रॉन का निकलना कई प्रकाश रासायनिक क्रियाओं की शुरुआत है। इससे निकला इलेक्ट्रॉन क्लोरोप्लास्ट में उपस्थित विभिन्न इलेक्ट्रॉन ग्राहियों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है और अंत में ये
प्रकाश और अंधकार क्रियाएं
भोजन निर्माण के चरणों के आपसी रिश्ते को इस चित्र की मदद से आसानी से समझा जा सकता है। वस्तुतः प्रकाश संश्लेषण की पूरी प्रक्रिया एक दूसरे से इस तरह जुड़ी है जैसे किसी इंजिन के छोटे-बड़े गीयर। सूर्य की प्रकाश ऊर्जा से पहला गीयर चलता है। जिससे ATP / ADP व NADP गीयर चलते हैं, और उच्च उर्जा युक्त ATP और अपचयित NADP को निर्माण होता है। यही ‘प्रकाश क्रिया' है।
ये दो छोटे गीयर फिर एक बड़े ‘कार्बन स्थरीकरण गीयर' को चलाते हैं, जिससे हवा मे आयी CO2, से PGAL और फिर ग्लूकोज और मंड बनते हैं। चित्र का एक बड़ा और दो छोटे गीयर ‘प्रकाश क्रिया' को दर्शाते हैं और दूसरा बड़ा । गीयर ‘अंधकार क्रिया' को। इस तरह हम पाते हैं कि भोजन निर्माण के ये दोनों चरण एक दूसरे में जुड़े हुए हैं और एक दूसरे के पूरक हैं।
सब इलेक्ट्रॉन निकोटीनामाइड एडीनाइन डायफॉस्फेट, जिसे संक्षेप में एन. ए. डी. पी. कहते हैं, के पास पहुंचते हैं।
जब इलेक्ट्रॉन एक ग्राही पदार्थ से दूसरे द्वारा ग्रहण किए जाते हैं तब कुछ स्थानों पर बहुत अधिक, स्वतंत्र ऊर्जा मुक्त होती है जिसका उपयोग कर' ऐडीनोसीन डायफास्फेट से एडीनोसीन ट्रायफास्फेट बना लिया
जाता है।
ADP + P : क्लोरोफिल ATP
सूर्य का प्रकाश
सन् 1954 में अरनोन ऐलन और वॉटले ने प्रकाश द्वारा ADP से उच्च ऊर्जायुक्त ATP के निर्माण को ‘फोटोफास्फोरायलेशन' नाम दिया।
क्लोरोफिल की सहायता लेते हुए प्रकाश ऊर्जा के उपयोग से पानी को तोड़ा जाता है, जिससे हाइड्रोजन और हाइड्रॉक्सिल आयन अलग-अलग हो जाते हैं। पत्तियों पर पड़ने वाले कुल प्रकाश का लगभग 4% प्रकाश ही क्लोरोफिल द्वारा अवशोषित होता है, जो इस कार्य में काम आता है। सामान्य स्थिति में पानी के विखंडन के लिए इतनी उच्च ऊर्जा की आवश्यकता होती है कि इलेक्ट्रिक आर्क का इस्तेमाल करना पड़ता है, जबकि पेड़-पौधों की कोशिका में यह काम क्लोरोफिल की उपस्थिति में आसानी से हो जाता है।
सक्रिय क्लोरोफिल + 4H2O → समान्य क्लोरोफिल + 4H + 4OH
इस क्रिया में स्वतंत्र हुए हायड्रोजन (इलेक्ट्रॉन + प्रोटॉन) अस्थाई रूप से NADP द्वारा ग्रहण कर लिए जाते हैं।
NADP + 2H NADPH + H
इस तरह ADP मे ATP और NADP मे NADPH + H के बनते ही पौधों के भोजन निर्माण की क्रिया में प्रकाश की भूमिका समाप्त हो जाती है। प्रकाश की सहायता से बने ये उत्पाद ही भोजन निर्माण के अगले चरण में काम आते हैं।
एक क्रिया दो चरण
ब्रिटिश वैज्ञानिक ब्लेकमेन ने 1905 में ही यह बता दिया था कि इस भोजन निर्माण क्रिया के दो चरण हैं। पहला ‘प्रकाश क्रिया' और दूसरा “अंधकार क्रिया। पहले चरण के लिए प्रकाश ज़रूरी है और दूसरा चरण अंधकार में भी चलता रहता है। यानी इस दूसरे चरण के लिए प्रकाश ज़रूरी नहीं होता, किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं कि ये क्रिया अंधेरे में ही होगी; ये क्रिया दिन में भी चलती है। ‘अंधकार क्रियाएं' एन्ज़ाइम द्वारा सम्पन्न होती हैं अतः इनमें थोड़ा ज्यादा समय लगता है।
क्लोरोप्लास्ट के अंदर
यदि हम प्रकाश संश्लेषण का सामान्यीकृत समीकरण देखें तो पता चलता है कि इसमें पानी का ऑक्सीकरण हो रहा है और कार्बन डाइऑक्साइड का अपचयन यानी रिडक्शन।
6CO2+12H2O → C6H12O6 + 6H2O+ 6O2
आइए देखें की कार्बन डाइऑक्साइड का पत्ती के अंदर जाकर क्लोरोप्लास्ट तक पहुंचने के बाद क्या होता है। वायुमंडलीय हवा स्टोमेटा द्वारा अंदर जाती है और उसमें से कार्बन डाइऑक्साइड घुलित अवस्था में क्लोरोप्लास्ट तक पहुंचती है। ऊपर हमने भोजन निर्माण के दो चरणों की बात की है। उनमें से पहना चरण यानी प्रकाश क्रिया ‘ग्रेना' में होती है।
ग्रेना में क्लोरोफिल अपने अन्य सहायक रंजकों के साथ भरा रहता है। यहीं पर होते हैं विभिन्न इलेक्ट्रॉन ग्राही पदार्थ। ग्रेना में ही कार्बन डाइऑक्साइड को अपचयित करने के लिए इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तैयार रहते हैं। और ऊर्जा के भंडार ए. टी. पी. बनते हैं।
दूसरा चरण ‘स्ट्रोमा' में पूरा होता है। यहां CO2, को अपचयित कर उससे विभिन्न शर्कराएं व मंड आदि बनाए जाते हैं। इसके लिए सभी आवश्यक साजो-सामान अर्थात विभिन्न एन्ज़ाइम और CO2, को ग्रहण करने वाले पदार्थ मौजूद होते हैं। ग्रेना और स्ट्रोमा के सभी घटक मिलकर वो जादू दिखाते हैं जिस पर सारी दुनिया का भरोसा है; जिसके दम पर सारी दुनिया टिकी है, सांस ले रही है, पेट भर रही है।
कार्बन डाइऑक्साइड का भविष्य
अब आते हैं हम अपने अगले सवालों पर, मसलन पत्तियों में आने वाली CO2, को कौन ग्रहण करता है? क्या CO2, से सीधे ही मंड बन जाता है या अन्य मध्यवर्ती पदार्थ भी बनते हैं? आदि, आदि। यह पता लगाना आसान नहीं है क्योंकि पत्तियों में एक ही समय में श्वसन और प्रकाश संश्लेषण से संबंधित तमाम रासायनिक क्रियाएं चलती रहती हैं। इनसे बनने वाले पदार्थ पत्तियों में उपस्थित रहते हैं। ऐसे में कैसे पता चले कि कौन-सा पदार्थ किस क्रिया के किस चरण में बना। यह पता लगाना 1940 तक आसान न था।
मुश्किल हुई आसान
किसी प्रकाश रहित या अंधेरे मकान में एक काली बिल्ली छोड़ दी जाए, तो यह पता लगाना मुश्किल होता है कि वह उस मकान के किस कमरे में है, या कहां-कहां घूम रही है उस मकान में। परन्तु यदि उसके गले में एक घंटी बांध दी जाए तो यह पता लगाना आसान हो जाता है कि वह कहां-कहां जा रही है। लगभग यही बात पत्तियों में जाने वाली CO2 की पहचान करने के लिए अपनाई गई। यहां रेडियो सक्रिय कार्बन का इस्तेमाल घंटी के रूप में हुआ। 1940 में केलिफोर्निया के सेमुअल रूबेन और मार्टिन कोमेन द्वारा खोजे गए कार्बन के एक रेडियो सक्रिय आइसोटोप 14CO2 ने यह मुश्किल आसान कर दी। यह कार्बन पत्तियों में कहा जाता है, किस से क्रिया करता है और क्या बनाता है, यह सब जानना बहुत आसान हो गया, क्योंकि इसके उपयोग से बने सभी पदार्थों में 14CO2 को इसकी रेडियो सक्रियता के कारण पहचाना जा सकता था। इस काम में ‘पेपर क्रोमेटोग्राफी' ने महत्वपूर्ण तकनीकी योगदान दिया। इन दोनों
केल्विन का उपकरणः इस उपकरण की मदद से केल्विन ने प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का अध्ययन किया। ऊपर की ओर रखे कांच के चकतीनुमा बर्तन में क्लोरेल्ला एलगी को रखा जाता है। 14CO2 की मौजूदगी में निश्चित समय तक प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करवाकर नीचे के स्टॉप-कॉर्क की मदद से एलगी को बाहर निकाल लेते हैं। तत्पश्चात् इसकी रेडियो ऑटोग्राफी की जाती है।
की सहायता से ही यह पता लगाया जा सका कि आखिर माज़रा क्या है।
शीघ्र ही केलिफोर्निया विश्व विद्यालय के मेल्विन केल्विन और बाशम इस चमत्कारी कार्बन-14 की मदद से पौधों में CO2 के मार्ग का पता लगाने में जुट गए। कई वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद इन्हें कामयाबी मिली। इन्होंने अपने प्रयोग ‘क्लोरेल्ला' नामक एक कोशीय हरी शैवाल पर किए। सबसे पहले उन्होंने अपने बनाए गए विशेष उपकरण में 14CO2 की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को केवल 5 सेकेंड के लिए चलने दिया। प्राप्त एक्सट्रेक्ट (पदार्थ) की रेडियो ऑटोग्राफी करने पर पता चला कि इस अवधि में एक तीन कार्बन वाला पदार्थ फास्फोग्लिसरिक अम्ल (पीजीए) बनता है। इसके बाद उन्होंने प्रकाश संश्लेषण की अवधि 30 सेकेंड, 90 सेकेंड और 5 मिनिट तक बढ़ाई। समय बढ़ाने से प्राप्त एक्स्ट्रेक्ट का विश्लेषण करने पर देखा गया कि अब रेडियो सक्रिय कार्बन ग्लूकोज, फ्रुक्टोज़ और सुक्रोज़ शर्कराओं में मिलता है। इस तरह पता चला कि पीजीए से ही आगे चलकर बड़े अणु बनते हैं। केल्विन ने बताया कि कार्बन का स्थरीकरण एक चक्रीय क्रिया है।
रेडियोऑटोग्रामः 14CO2 की मौजूदगी में 5 सेकेंड और 15 सेकेंड तक चली प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के बाद निचोड़ की पेपर क्रोमेटोग्राफी और रेडियोऑटोग्राम बनाकर अध्ययन करने पर पता चला कि तीन कार्बन वाला पदार्थ फास्फोग्लिसरिक अम्ल (पीजीए) बनता है। इसके बाद प्रकाश संश्लेषण की अवधि 30 सेकेंड, 90 सेकेंड और 5 मिनिट तक बढ़ाई गई तो रेडियो सक्रिय कार्बन ग्लूकोज, फ्रुक्टोज़ और सुक्रोज़ शर्कराओं में भी देखा गया। इस तरह पता चला कि पीजीए से ही आगे चलकर बड़े अणु बनते हैं।
कार्बन डाइऑक्साइड का ग्रहणकर्ता: जेम्स बॉशम ने मालूम किया कि प्रकाश संश्लेषण के दौरान हवा की CO2 का ग्राही एक 5 कार्बन पदार्थ रिबुलोज़ डायफॉस्फेट है। प्रकाश की उपस्थिति में रिबुलोज और पी.जी.ए. क्लोरोप्लास्ट में संतृप्त अवस्था में रहते हैं। परन्तु जैसे ही प्रकाश हटा दिया जाता है तो रिबुलोज डायफॉस्फेट की मात्रा तो एकदम घट जाती है परन्तु पी. जी. ए. की मात्रा अचानक बढ़ जाती है। अतः पी.जी.ए. के बनने और रिबुलोज़ के खर्च होने में एक सीधा संबंध है। बॉशम का मानना था कि हवा से 5 कार्बन रिबुलोज़ ही कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करता है जिससे एक 6 कार्बन वाला अस्थिर पदार्थ बनता है जो तुरंत पी.जी.ए. के दो अणुओं में टूट जाता है।
कार्बन डाइऑक्साइड का ग्रहणकर्ता
परन्तु अभी भी एक प्रश्न अनुतरित है कि हवा की कार्बन डाइऑक्साइड को क्लोरोप्लास्ट में सबसे पहले कौन ग्रहण करता है। जब केल्विन कार्बन के स्थरीकरण पर कार्य कर रहे थे, उसी समय जेम्स बाशम कार्बन के ग्राही पदार्थ की खोज में लगे हुए थे। शीघ्र ही उन्होंने पता लगा लिया कि हवा की CO2 का ग्राही एक 5 कार्बन पदार्थ रिबुलोज़ डायफॉस्फेट है। इसका पता उन्हें अपने एक प्रयोग के दौरान लगा। उन्होंने देखा कि प्रकाश की उपस्थिति में रिबुलोज और पी.जी.ए. क्लोरोप्लास्ट में संतृप्त अवस्था में रहते हैं। परन्तु जैसे ही प्रकाश हटा दिया जाता है तो रिबुलोज़ डायफॉस्फेट की मात्रा तो एकदम घट जाती है परन्तु पी. जी. ए. की मात्रा अचानक बढ़ जाती है। अत: पी.जी.ए. के बनने और रिबुलोज़ के खर्च होने में एक सीधा संबंध है। उन्होंने बताया कि हवा से 5 कार्बन रिबुलोज ही कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करता है। जिससे एक 6 कार्बन वाला अस्थिर पदार्थ बनता है जो तुरंत पी.जी.ए. के दो अणुओं में टूट जाता है।
अब तक हमने बहुत से प्रश्नों पर गौर किया और इस दौरान यह भी देखा कि पत्तियों में ग्लूकोज़ तथा मंड कैसे बनता है। कार्बन के ‘पथ' का पता लगाने के इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए केल्विन को 1961 का रसायन विज्ञान का ‘नोबल पुरस्कार दिया गया। उनके सम्मान में यह चक्र ‘केल्विन चक्र' के नाम से जाना जाता है। इससे यह पता चलता है कि हवा की CO2, को पकड़कर उससे ग्लूकोज़ और अन्य खाद्य पदार्थ बनाना हंसी खेल नहीं है। सूर्य की विकिरण ऊर्जा को स्थिर रासायनिक ऊर्जा में बदलना केवल इन हरे कारखानों के ही बस की बात है, जिन्हें हम जब चाहे तब कुल्हाड़ी की धार के हवाले कर देते हैं।
किशोर पंवारः शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय सेन्धवा, जिला बड़वानी में वनस्पति शास्त्र पढ़ाते हैं। स्कूली विज्ञान शिक्षण में रुचि रखते हैं व विज्ञान लेखन करते हैं।