हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में__

भारत में स्त्री-पुरुष असमानता अंशतः स्त्री के पुरुष पर आर्थिक रूप से निर्भर होने के कारण भी है। महिलाओं के पास सम्पत्ति के रूप में कुछ नहीं होता; यद्यपि वे परिवार के हित में अथक परिश्रम करती हैं, किन्तु आर्थिक निर्भरता के कारण न तो परिवार में और न ही समाज में उनको उचित सम्मान प्राप्त होता है। महिलाओं में शिक्षा के निम्न स्तर के कारण अधिकारों के बंटवारे में भी असमानता रहती है। बहुत सारे कारणों में यह भी एक कारण है कि, क्यों स्त्री-शिक्षा न सिर्फ सामाजिक व आर्थिक विकास में मददगार साबित होती है बल्कि समाज में समानता भी स्थापित करती है। एक बार यह प्रक्रिया शुरू हो जाए तो अपने आप को बढ़ावा देती रहती है - अगर स्त्री-पुरुष समानता बेहतर होगी तो ज्यादा लड़कियां स्कूल जाएंगी, जिससे लड़कियों की शिक्षा की दर में वृद्धि होगी . . .।

हिमाचल प्रदेश में शिक्षा
जैसा कि सभी जानते हैं कि भारत के सभी राज्यों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की शिक्षा की दर बहुत कम है। 1991 की जनगणना के अनुसार 7 वर्ष तथा उससे ऊपर की महिलाओं में शिक्षा की दर 39% थी जबकि पुरुषों में यह दर 69% थी। अंतर्राष्ट्रीय आंकड़ों को देखें तो यह विभेद बहुत ऊंचा है। मानव विकास रिर्पोट 1998 के अनुसार केवल पांच ऐसे और देश हैं जिनमें महिलाओं की शिक्षा दर भारत से भी नीची है - ये देश हैं। भूटान, सीरिया, टोगो, मलावी और मोज़म्बिक। इन पांचों देशों की जन संख्या मिलाकर भी राजस्थान की आबादी से कम है; और दुनिया का ऐसा कोई देश नहीं है जहां महिला पुरुष शिक्षा में राजस्थान जितनी असमानता हो।

भारत भर में पाए जाने वाले इस सामान्य पैटर्न में एक अपवाद है - वह है हिमाचल प्रदेश जहां स्त्री-पुरुष शिक्षा की दर में ज़बरदस्त समानता है। वहां लड़के-लड़कियों की शिक्षा में भागीदारी लगभग बराबर है। हिमाचल प्रदेश में बालिका शिक्षा की दर में इस वृद्धि को शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के प्रयासों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 50 वर्ष पूर्व हिमाचल प्रदेश में स्त्री शिक्षा की दर बिहार और उत्तर प्रदेश से फर्क नहीं थी। आज हिमाचल प्रदेश केरल के बाद दूसरे क्रम पर है - विशेष रूप से अगर स्कूल उपस्थिति तथा छोटे बच्चों में साक्षरता की दर को देखें। छोटी आयु वर्ग के बच्चों में लगभग समस्त बच्चे स्कूल जाते हैं, न सिर्फ लड़के बल्कि लड़कियां भी। उच्च शिक्षा में ज़रूर उनमें असमानता बरकरार है, पर हिन्दुस्तान के अन्य क्षेत्रों की तुलना में काफी कम। और उच्च शिक्षा के स्तर पर भी यह असमानता लगातार कम हो रही है।


एक और रोचक तथ्य है कि प्रारंभिक शिक्षा के स्तर पर लगभग यही स्थिति उत्तरप्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में भी पाई जाती है। हिमाचल प्रदेश
की बनिस्बत यहां पर बच्चों के शाला जाने की दर कम है, परन्तु फिर भी उत्तर प्रदेश के ये इलाके बहुत पीछे नहीं हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल जैसे विकसित इलाकों में तो परिस्थिति एकदम हिमाचल प्रदेश जैसी ही है। यह तथ्य और भी महत्वपूर्ण बन जाता है क्योंकि उत्तरप्रदेश के अन्य इलाकों में प्राथमिक शिक्षा की दर बहुत नीची है। उत्तर प्रदेश भारत के शैक्षिक स्तर पर सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। उत्तराखण्ड़ व हिमाचल प्रदेश में स्त्री शिक्षा की दर में तेजी से हो रही इस वृद्धि से स्पष्ट है कि ऐसा केवल शिक्षा नीति की वजह से संभव नहीं हुआ है वरन् पहाड़ी क्षेत्र की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि का भी हाथ है इसके पीछे।

शिक्षा और महिलाओं में कार्य
एक महत्वपूर्ण कारण है कि यहां बहुत ज्यादा महिलाएं मेहनत-मज़दूरी के कामों में जुटी हुई हैं - घरेलू काम करने के अलावा महिलाओं की बड़ी भागीदारी परिवार को आर्थिक मदद के रूप में घर से बाहर काम करने में है। यह स्थिति भारत के अन्य उत्तरी प्रान्तों के बनिस्बत हिमाचल प्रदेश में कहीं अधिक है।

इस स्थिति का संबंध पहाड़ी आर्थिक व्यवस्था के कुछ विशेष पहलुओं से भी जोड़कर देखा जा सकता है। अगर सरलीकृत स्तर पर ही सोचें तो एक ओर सघन जनसंख्या और भूमि के अभाव के कारण गंगा के मैदान में मज़दूरों की बहुतायत है, तो दूसरी और पहाड़ी अर्थव्यवस्था जहां ज़मीन और प्राकृतिक स्रोतों की कमी उतनी ज्यादा नहीं है। इनमें पहली स्थिति में महिलाओं को चारदीवारी के अंदर ही रखा जाता है, और घरेलू काम के सिवाय वे बोनी या कटाई के समय ही 'घर से बाहर कार्य करती हैं। लेकिन पहाड़ी अर्थव्यवस्था में जहां जंगल हैं तथा चारागाह बहुतायत में हैं (कृषि योग्य भूमि ज़रूर कम है, वहां श्रमिकों की खपत अधिक हो सकती है और महिलाएं कहीं ज्यादा बड़े पैमाने पर मेहनत-मज़दूरी में शरीक होती हैं। महिलाओं की श्रमिक के रूप में घर से बाहर भागीदारी की परंपरा से भी उनकी आर्थिक तथा सामाजिक ढांचों में हिस्सेदारी बढ़ी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश या हरियाणा से अगर कोई हिमाचल प्रदेश जाए तो बस स्टेंड पर, सामाजिक जगहों पर, गांव से लेकर

*काम करने वाली' श्रेणी में आने वाली महिलाओं की संख्या का आंकड़ा 1991 की जनगणना के अनुसार, आंध्र प्रदेश को छोड़ दें तो किसी भी अन्य बड़े प्रदेश की अपेक्षा, हिमाचल प्रदेश में सर्वाधिक है। महिलाओं की श्रमिक के रूप में भागीदारी उत्तराखण्ड में हिमाचल प्रदेश से भी अधिक है।

शहर तक चाय की दुकानों में, सिनेमा हॉल तथा सरकारी कार्यालय में भी महिलाओं की तादाद देखकर हैरानी होती है।

महिलाओं की मेहनत-मज़दूरी में ज्यादा भागीदारी से यह अपने आप सिद्ध नहीं हो जाता कि महिलाओं और पुरुषों में समानता होगी। अगर रोज़गार की शर्तें विपरीत हों तो घर से बाहर काम करना महिलाओं के लिए अतिरिक्त बोझ बन जाता है। किन्तु महिलाओं के घर से बाहर काम करने के कई सकारात्मक सामाजिक प्रभाव हैं; उदाहरण के लिए परिवार में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव में कमी आती है। क्योंकि लड़कियों को इस माने में अच्छी नज़र से देखा जाता है कि वे बड़ी होकर परिवार चलाने में सहायता करेंगी। इसी प्रकार ऐसे घरों में बुजुर्ग महिलाओं की बात सुनी जाती है। कामकाजी श्रेणी में आ जाने से उनके लिए सामाजिक कामों में दखल देना संभव हो पाता है, यहां तक कि सक्रिय राजनीति में भी।

इसके और भी बहुतेरे सामाजिक असर हैं जो अभी भी अच्छी तरह से समझे नहीं गए हैं। उदाहरण बतौर, हिन्दुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाने वाली क्षेत्रीय विविधता का अध्ययन करने पर देखने को मिलता है कि जहां भी महिलाओं की मज़दूरी में भागीदारी ज्यादा होती है वहां अपराध दर कम पाई गई है।

ऐसा समाज जहां महिलाएं अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन में सक्रिय भागीदारी रखती हैं, शायद उस समाज से बुनियादी रूप से काफी फर्क होगा जहां उन्हें केवल घरेलू काम तक सीमित रखा जाता है।

जहां तक शिक्षा का सवाल है। महिलाओं के घर से बाहर काम करने के बहुत सारे सकारात्मक आयाम हैं। जो सीधे लड़कियों की स्कूली शिक्षा पर असर डालते हैं। एक तो महिलाओं के घर से बाहर मज़दूरी करने से परिवार को होने वाली आय के लड़कियों की शिक्षा पर खर्च होने वाले हिस्से में बढ़ोतरी होती है। 'प्रोब टीम' ने अपने अध्ययन के दौरान देखा कि हिमाचल में माता-पिता लड़कियों के रोज़गार के अवसर के प्रति अधिक आशान्वित होते हैं। और यह भी पाया कि वहां पर लड़कियां भी अधिक महत्वाकांक्षी होती हैं। दूसरा कारण यह भी है कि महिलाओं के घर से बाहर काम करने के कारण शिक्षा किसके लिए जरूरी है, यह निर्णय पुरुष केन्द्रित कम होते हैं।

तीसरी मुख्य बात यह है कि शायद कुल मिलाकर समाज पर भी इसी तरह का प्रभाव पड़ता है, जहां लड़कियों की शिक्षा की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जाता है (न सिर्फ पालकों द्वारा बल्कि नीतिगत स्तर पर भी), चूंकि महिलाएं सामाजिक दायरों में भी दखल रखती हैं। चौथा कारण यह है कि यदि महिलाएं घर से बाहर काम करने की आदी हैं तो उन्हें शिक्षण कार्य में भी आसानी से लगाया जा सकता है। हिमाचल प्रदेश में महिला शिक्षकों का औसत 40% है जबकि उत्तर भारत के अन्य प्रदेशों में केवल 20% है। स्वाभाविक है कि इससे लड़कियों की स्कूल जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है।

पांचवां कारण यह है कि इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं के घर से बाहर काम करने से माता-पिता किशोरावस्था में पहुंची अपनी लड़कियों को पढ़ने के लिए बाहर भेजने से

*महिलाओं का घर से बाहर काम करना तथा लड़कियों की शिक्षा के सकारात्मक पहलू एक दूसरे से संबद्ध हैं, किन्तु इसके नकारात्मक पहलुओं को भी ध्यान में रखना होगा। विशेष तौर पर माता-पिता दोनों के घर के बाहर काम करने से घर की सबसे बड़ी लड़की पर घर के काम का पूरा बोझ आ जाता है। इस समस्या को हिमाचल प्रदेश के लोगों ने कैसे सुलझाया है (जबकि हिमाचल प्रदेश में बाल मज़दूरों की संख्या अत्यंत अधिक होती थी, यह एक अध्ययन का विषय है।

हिचकिचाते नहीं हैं। जबकि उत्तरी भारत में कहीं भी और यह एक सामान्य समस्या है कि माता-पिता किशोरावस्था में पहुंच चुकी बेटियों को गांव से बाहर नहीं जाने देते।

अंत में यही कहा जा सकता है कि इतनी बड़ी तादाद में घर से बाहर काम करने से जहां महिला-पुरुष असमानता में कमी आती है, लड़कियों को स्कूल भेजने के प्रति एक सकारात्मक माहौल भी बनता है।

वैवाहिक कार्यक्रम
हिमाचल प्रदेश के समाज का एक अनोखा पहलू है वहां के वैवाहिक रीति रिवाज़। इनका सीधा संबंध लड़कियों के स्कूल जाने से संबंधित निर्णयों पर पड़ता है। क्योंकि उत्तर भारत में लड़कियों के बड़े हो जाने पर विवाह करवाना ही मुख्य लक्ष्य बन जाता है।

उत्तरी भारत में वैवाहिक रीति रिवाज़ में आम तौर पर निम्न पहलू समाहित होते हैं।

  1. दुल्हन के परिवार को दहेज जुटाना पड़ता है।
  2. शादी के बाद लड़की को उसके ससुराल के गांव में जाकर रहना पड़ता है, अक्सर दूर-दराज़ किसी गांव में।
  3. यह अपेक्षा होती है कि महिलाएं अपने से ज्यादा हैसियत वाले पुरुष से शादी करें उदाहरणतः दूल्हा ज्यादा पढ़ा लिखा हो।

इन पुरुष प्रधान मान्यताओं की वजह से एक लड़के और लड़की के विवाह में बहुत-सी असमानताएं पैदा हो जाती हैं, जो उनके पालन पोषण में भी झलकती हैं। लेकिन हिमाचल प्रदेश में ये परंपराएं काफी लचीली हैं। यहां भी दहेज एक मान्य प्रचलित प्रथा है लेकिन उत्तर भारत के दूसरे प्रदेशों की तरह उतनी रूढ़िग्रस्त नहीं है। वास्तव में पत्नी के लिए कीमत देना भी उस इलाके में सामान्य प्रथा है और शायद यह प्रथा कुछ समय पहले तक दहेज की तुलना में ज्यादा प्रचलित प्रथा थी

इसी तरह हिमाचल प्रदेश में शादी शुदा औरत का उसके मायके से कटाव उत्तर भारत के अन्य स्थानों की अपेक्षा कम ही होता है। विवाहित महिला अपने माता-पिता और भाई से संपर्क व संबंध बनाए रखती है, और उनके यहां नियमित तौर पर आती-जाती रहती है। साथ ही दोनों तरफ के समधियों में ऊंच-नीच का रिश्ता (जिसमें दूल्हे के परिवार का दर्ज़ा ऊंचा होता है) भी दूसरे प्रान्तों की अपेक्षा हिमाचल प्रदेश में तुलनात्मक रूप से कमजोर होता है।*

जैसे कि महिलाओं की मेहनत मज़दूरी के काम में भागीदारी में देखा गया, हिमाचल प्रदेश में ज्यादा संतुलित शादी-विवाह प्रथाओं के प्रचलन से भी शायद लड़कियों की शिक्षा दर पर सकारात्मक असर पड़ा है। दूसरे उत्तरी प्रान्तों में माता-पिता सोचते हैं कि लड़कियों को पढ़ाने से क्या लाभ जबकि शादी के बाद उनको ससुराल में ही रहना है तथा परिवार को छोड़कर चले जाना है। हिमाचल प्रदेश में माता-पिता शादीशुदा लड़कियों से सशक्त संबंध बनाए रखते हैं; और इस वजह से उन्हें सरोकार रहता है कि लड़की शादी के बाद भी सुखी रहे, और उनका अंदेशा होता है कि लड़की की शिक्षा से इस पर असर पड़ेगा।

चूंकि हिमाचल में लड़कियों को अपने से ‘ऊंचे' पुरुष से शादी करना ज़रूरी नहीं होता इसलिए माता-पिता पर भी यह दबाव नहीं रहता कि यदि लड़की ज्यादा पढ़-लिख गई तो उसके विवाह में कठिनाई होगी। यह चिंता दूसरे उत्तर भारतीय प्रदेशों के माता पिता में ज़रूर दिखती है, विशेष रूप में ऐसे समुदायों में जहां पुरुषों का शिक्षा स्तर कम है। ऐसे समाज में किसी सुशिक्षित लड़की के लिए

*वैवाहिक कार्यक्रम के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और वस्तुगत (दहेज संबंधी) इन अंतरों के बारे में। अभी भी बहुत कुछ जानना और समझना बाकी है। हो सकता है इस फर्क का प्रमुख कारण भी हिमाचल प्रदेश में महिला श्रमिकों की बहुत बड़ी संख्या हो।

'सुयोग्य' वर ढूंढना कठिन होगा।

हिमाचल प्रदेश तथा हरियाणा में महिलाओं की स्थिति पर वर्ष 1998 में किए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से स्त्री-पुरुष संबंधों के सकारात्मक पहलू स्पष्ट रूप से उभरते हैं। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि जेंडर' समानता ने दूसरे प्रदेशों की बनिस्बत हिमाचल प्रदेश में लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित किया है।

जन सहयोग
इन सकारात्मक सामाजिक सरोकारों के अलावा जन सहयोग ने भी लड़कियों की शिक्षा के विस्तार में एक महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। एक लंबे अर्से से राज्य शासन ने प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने व अनिवार्य रूप से लागू करने को महत्व दिया है, विशेष तौर पर बालिका शिक्षा को। लड़कियों को स्कूल में आने के लिए विशेष प्रोत्साहन दिए गए हैं। ज्यादातर पाठशालाओं में महिला शिक्षकों की नियुक्ति की गई है। पूरे राज्य में आंगनवाड़ी का जाल फैला हुआ है जिससे कामकाजी मांओं को अपनी बच्चियों को स्कूल भेजने में सुविधा होती है। दूसरी बात यह है कि ग्रामीण स्तर पर सामुदायिक काम में केवल पुरुष ही नहीं हिस्सा लेते,

उदाहरणतः बहुत से गांवों में ग्राम पंचायत के अलावा सक्रिय महिला मंडल भी होते हैं। कई इलाकों में ऐसा भी है कि पुरुषों के गांव से बाहर काम की तलाश में निकल जाने से उनका स्थान महिलाओं ने ले लिया है। तथा वे स्थानीय स्तर पर सक्रिय रूप से कार्यरत हैं। स्वाभाविक है कि इससे ग्रामीण समुदाय शिक्षा संबंधी मुद्दों की तरफ ध्यान देता है, खास तौर पर लड़कियों की शिक्षा के संबंध में।

राज्य शासन ने भी लड़कियों की शिक्षा को लेकर प्राथमिकताएं निर्धारित की; इन प्राथमिकताओं के मद्दे-नज़र यह समझना कठिन नहीं है कि दूसरे प्रांत जहां पुरुष-स्त्री रिश्ते और सामाजिक परिस्थितियां हिमाचल प्रदेश जैसी ही , वहां की शिक्षा में ऐसे बदलाव देखने को क्यों नहीं मिलते। उदाहरण के तौर पर मध्य भारत में आदिवासियों में भी महिला मज़दूरों की संख्या बहुत है और संतुलित वैवाहिक पद्धतियां प्रचलित हैं। इन समुदायों को राजनीति ने हाशिए पर रख दिया है और इन्हें केवल अंशत: स्कूली शिक्षा सुविधाएं ही उपलब्ध हैं। परिणाम यह है कि आदिवासियों में बच्चों को स्कूल भेजने की मनोवृत्ति काफी कम है, और सबसे ज्यादा असर लड़कियों की शिक्षा पर पड़ता है। परन्तु एक रोचक तथ्य यह भी है कि उन आदिवासी क्षेत्रों में जहां शिक्षा सुविधाओं का व्यापक विस्तार हुआ है, वहां स्थिति काफी फर्क है। ऐसा या तो वहां संभव हुआ है जहां लोगों के पास राजनैतिक मोल-भाव की ताकत थी जैसे कि उत्तर-पूर्व के अधिकतर क्षेत्रों में: या फिर ऐसे दक्षिण बिहार जैसे इलाकों में जहां ईसाई मिशनरियों ने काफी प्रयास किए हैं। इन सब समुदायों में स्कूल पैटर्न काफी हद तक हिमाचल प्रदेश जैसा ही है - जहां लड़के/लड़कियों का स्कूल जाना एक सामान्य घटना है तथा लड़के-लड़की के बीच विभेद बहुत ही कम होता है।

अब सवाल यह उठता है कि उत्तरी भारत के दूसरे राज्यों की तुलना में हिमाचल प्रदेश की सरकार ने ही प्राथमिक शिक्षा को इतना महत्व क्यों। दिया। इसका कारण शायद यह है कि इन प्रदेशों में सामाजिक असमानताओं ने प्रजातंत्र को ही पटरी से उतार दिया है। आइए उत्तर प्रदेश की स्थिति पर विचार करें। विभिन्न अध्ययन यह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के गांवों में आज भी ज़मींदारी प्रथा की जड़ें गहरी हैं, ग्रामीण समाज विभक्त और अपराधों से सराबोर है। अभिजात्य वर्ग, गांव से लेकर राज्य शासन तक, हर स्तर पर संगठित रहता है और अपनी पकड़ बनाए रखता है। और इस वजह से राज्य शासन यानी सरकार को धरातल से कोई लेना-देना नहीं होता, और न उन्हें इस बात की कोई परवाह होती है कि आम जनता की ज़रूरतें क्या हैं। दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश में जाति, वर्ग तथा लिंग भेद काफी कम है। इस तरह के सामाजिक ढांचे की वजह से, और इसलिए भी क्योंकि हिमाचल प्रदेश एक छोटा राज्य है, शायद राजनैतिक नेताओं और आम जनता के बीच दूरी थोड़ी कम है।

हिमाचल प्रदेश की इस शैक्षिक क्रांति ने इस प्रदेश को लोगों के लिए एक रहने लायक जगह बना दिया है। इसके चलते इस क्षेत्र में गरीबी, मृत्युदर, बीमारी, कुपोषण तथा संबंधित समस्याओं में काफी कमी आई है। और इन सबके अलावा अपने आप में ऐसे बच्चों को देखना सुखद लगता है जो आत्मविश्वास से भरे हैं, जिन्हें स्कूल में सीखी बातों पर गर्व है, एवं जो भविष्य के प्रति काफी आशान्वित हैं।

ऐसे समय में जबकि ज़्यादातर अन्य प्रदेशों में बदहाली है तथा स्त्री-पुरुष असमानताएं बनी हुई हैं, ऐसे में इस सकारात्मक अनुभव से काफी कुछ सीखा जा सकता है। यह भी सही है। कि हिमाचल प्रदेश की सफलता को अन्य स्थानों पर 'दोहराया जाना संभव नहीं है, चाहे सामाजिक संदर्भ जो भी हो। फिर भी इससे संभावनाएं पहचानने में तो मदद मिलती ही है। कि आखिर 'पहल' किस दिशा में करनी चाहिए।

हिमाचल प्रदेश की शिक्षा क्रान्ति जेंडर समानता तथा विकास के बीच के संबंध की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करती है। इसे शत-प्रतिशत अपना लेना नकल होगा किन्तु एक सार्थक शुरुआत के लिए इसे समझना भी अपने आप में काफी अर्थपूर्ण होगा। चाहे इस बात को कई बार दोहराया गया होगा फिर भी सच्चाई तो यही है कि हमने इसे समझने की अभी शुरुआत भर की है।


ज्यों द्रेज़: दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में 'डेवलपमेंट इकॉनोमिक्स' के विज़िटिंग प्रोफेसर। पहले 'लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स' में इसी विषय के व्याख्याता रह चुके हैं।

मुल लेख अंग्रेज़ी में। अनुवाद: रजनीकांत शर्मा। होशंगाबाद में रहते हैं। साहित्य से लगाव, शौकिया अनुवादक। यह लेख हाल ही में प्रकाशित 'पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एज्युकेशन इन इंडिया' (प्रोब) पर आधारित हैं। ज्यों द्रेज़ प्रोब टीम के एक सदस्य हैं।

इस लेख के सभी फोटो 'प्रोब रिपोर्ट में लिए गए हैं।