जे. बी. एस. हाल्डेन
शरीर की व्यवस्थाएं - भाग:10
हम आमतौर पर पांच संवेदनाओं या उनसे संबंधित इंद्रियों की बात करते हैं - दृष्टि, श्रवण, स्वाद, गंध और स्पर्श। यह फेहरिस्त अरस्तु के ज़माने से चली। आ रही है और पुरानी पड़ चुकी है।
पिछले सौ वर्षों में शरीर क्रिया वैज्ञानिकों (फिजियोलॉजिस्ट) द्वारा किए गए शोध ने दिखा दिया है कि अकेली वचा में ही कम से कम पांच संवेदनाएं होती हैं - स्पर्श, दयाव, उप्र, गर्मी और दर्द। इनके अलावा हमारे आंतरिक कान में ऐसी संवेदनाएं उत्पन्न होती हैं। जिनसे हमें पता चलता है कि हम सीधे खड़े हैं या उल्टे, ऊपर उठ रहे हैं या गिर रहे हैं, या गोल-गोल घूम रहे हैं।
हमारी मांसपेशियां, कण्डराएं और जोड़ हमें गति तथा शरीर की स्थिति संबंधी सुचनाएं देते हैं। गति और शरीर की स्थिति संबंधी सुचनाएं हमारी चेतना पर बहुत बोझ नहीं डालती, मगर कोई भी कुशल कार्य करने के लिए ये सूचनाएं निहायत महत्वपूर्ण हैं। यदि किसी बीमारी या चोट की वजह से मांसपेशियों की संवेदना नष्ट हो। जाए तो हम बारीक काम नहीं कर पाते जबकि मांसपेशियों में पहले जैसी ताकत होती है।
माक्र्स ने इस बात पर काफी जोर दिया था कि हम दुनिया पर क्रिया करके ही उसके बारे में सीखते हैं। इस तरह की सीखने की प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से खोजबीन करना कठिन होता है, क्योंकि ये संवेदी अंग हमारी भुजाओं व धड़ में काफी गहराई में स्थित होते हैं। मसलन गतियों की संवेदना में मांसपेशियों, कण्डराओं व जोड़ों के तुलनात्मक महत्व को समझना खासा मुश्किल काम है।
अलबत्ता यह ज़रूर किया जा सकता है कि त्वचा के एक छोटे से हिस्से को उद्दीपन (स्टिमुलस) प्रदान किया जाए, यह देखा जाए। कि इस उद्दीपन से किस तरह की संवेदना पैदा होती है। और फिर उस हिस्से को काटकर अलग करके देखा जाए कि उसमें किस तरह के संवेदी अंग या तंत्रिका तंतु उपस्थित हैं। दो ब्रिटिश शरीर-रचना शास्त्रियों बुलार्ड और वेडेल ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है। हमारी उंगली की त्वचा में संवेदी अंग और तंत्रिकाएं प्रचुरता में होती हैं और उंगलियों से हमें काफी समृद्ध संवेदनाएं व सूचनाएं प्राप्त होती हैं। मगर अन्य भागों में। तंत्रिकाएं काफी कम संख्या में होती हैं। मसलन, जांघों पर आप आसानी से ऐसे बिन्दु खोज सकते हैं जो गर्मी या सिर्फ ठण्डक की संवेदना देते हैं। ऐसे बिन्दु खोजना भी मुश्किल नहीं होगा जो हल्के स्पर्श के प्रति असंवेदी होंगे।
तापमान की संवेदना की खोजबीन शायद सबसे आसान है। गर्मी की संवेदना ग्रहण करने वाले अंगों को ‘रूफिनी अंग' कहते हैं। रूफिनी उस व्यक्ति का नाम है। जिसने सबसे पहले इन अंगों का वर्णन किया था हालांकि उसने । इनका कार्य पता नहीं लगाया था। मजेदार बात यह है कि ये अंग मात्र गर्मी से उद्दीप्त होते हैं। ठण्डक के इसी प्रकार के अंग (बल्ब्स ऑफ क्राउसे) सतह के नज़दीक होते हैं। ये ठण्ड या तेज़ गर्मी से सक्रिय हो जाते हैं।
इस व्यवस्था का नतीजा काफी विचित्र होता है। यदि हम अपनी एक उंगली काफी गर्म पानी में डालें तो गर्मी तो बाद में महसूस होती है, पहले ठण्ड का एहसास होता है। और जब पानी का तापमान बढ़ता है, तो पहले ऊष्णता का एहसास होता है उसके बाद गर्मी का। ऊष्णता का एहसास एक शुद्ध संवेदना है जबकि गर्मी ऊष्णता और ठण्डक की मिली-जुली संवेदना है। आगे चलकर दर्द का एहसास होने लगता है और धीरे-धीरे यह बाकी सारी संवेदनाओं को दबा देता है। जब चमड़ी के एक बड़े हिस्से को गर्म किया जाए तो यहीं होता है। मगर यदि हम एक गरम सुई से। त्वचा के ठण्डक की संवेदना वाले किसी एक बिन्दु को स्पर्श करवाएं तो ठण्डक की संवेदना प्राप्त होती है, गर्मी तो बिलकुल नहीं लगती।
स्पर्श की संवदेना के कम-से-कम तीन अलग-अलग अंग होते हैं। इनमें से ‘माइजनर कॉर्पस्कल' और 'मर्केल डिस्क' त्वचा की सतह के नज़दीक होते हैं। इसके अलावा कुछ संवेदी अंग बालों की जड़ों के नज़दीक होते हैं जिनसे हमें पता चलता है कि बाल सीधे हैं या झुके हुए हैं। फिर त्वचा में काफी गहराई में 'पेसिनियन कॉर्पस्कल' होते हैं जो दबाव की अनुभूति देते हैं। त्वचा के संवेदी अंगों में ये सबसे बड़े होते हैं। - लगभग 1 मि.मी. लम्बे। त्वचा में कोकेन का इंजेक्शन देकर या त्वचा को ठण्डा करके या ऐसी ही किसी अन्य विधि से यह किया जा सकता है कि किसी एक संवेदी अंग को ठप्प कर दिया जाए, जबकि शेष संवेदनाएं काम करती रहें। इस तरह के प्रयोगों से पता चलता है कि स्पर्श की संवेदना कितनी पेचीदा है।
और आखिर में, हमारी त्वचा में दो और किस्म की तंत्रिकाओं के छोर होते हैं जो दर्द की अनुभूति उत्पन्न करते हैं। इनमें से एक किस्म के तंत्रिका-छोर सतह के नज़दीक होते हैं और त्वरित दर्द' के लिए जिम्मेदार होते हैं। दूसरी किस्म के तंत्रिका-छोर थोड़ी गहराई में होते हैं और ये जल्दी से उत्तेजित नहीं होते। दर्द यकीनन एक खास किस्म की संवेदना है और थोड़ी मात्रा में हो तो तकलीफ-दायक नहीं होता। लम्बा चलने या फुटबॉल खेलने वाले लोग इस बात को समझते हैं।
कई सारी तंत्रिकाएं संवेदी अंगों के एक-एक समुह से जुड़ी होती हैं। जैसे किसी ठण्डक के बिन्दु से, बालों की जड़ों के नज़दीक के संवेदी अंग से। एक-एक तंत्रिका तंतु से कई शाखाएं निकलती हैं और वे अलग-अलग अंगों से जुड़ी होती हैं। इस व्यवस्था का परिणाम यह होता है। कि हमें संवेदना के स्थान और तीव्रता का काफी अच्छा अंदाज़ लग जाता है। जब कोई तंत्रिका कट जाती है या कुचल जाती है तो कई महीनों तक त्वचा के उस हिस्से से कोई अनुभूति प्राप्त नहीं होती। जब यह तंत्रिका फिर से पनपती है तो शुरू में त्वचा के उस हिस्से में। तंत्रिका तंतुओं की संख्या कम रहती है। इस स्थिति में होता यह है कि प्रत्येक तंतु को त्वचा के एक बड़े हिस्से के लिए काम करना पड़ता है। और विभिन्न तंत्रिकाओं के हिस्से एक-दूसरे पर फैले नहीं होते। तब हम यह तो बता पाते हैं कि चमड़ी को छुआ जा रहा है मगर स्पर्श का एकदम सही स्थान बताने में असमर्थ रहते हैं। इसके अलावा प्रत्येक संवेदी अंग का जुड़ाव मात्र एक तंत्रिका तंतु से होता है, इसलिए संवेदना की तीव्रता का दर्जा तय नहीं हो पाता। हर संवेदना तीव्र और तकनीफदायक होती है।
यदि तंत्रिकाओं की वृद्धि ठीक से न हो, तो यह स्थिति जीवन भर बनी रहती है। मेरी अपनी चमड़ी पर दो ऐसे बिन्दु हैं। एक हिस्सा हाथ पर है - 1915 में एक बम के टुकड़े से यहां की तंत्रिका कट गई थी। दूसरा हिस्सा मेरी पीठ पर हैं। - 1910 में गोताखोरी का एक प्रयोग करते हुए तंत्रिकाएं घायल हो गई थीं। कई हज़ारों घायल लोगों के शरीर पर ऐसे कई हिस्से होते हैं।
त्वचा में संभवत: करीब 10 लाख संवेदी अंग होते हैं। इन विभिन्न अंगों से तंत्रिकाओं में जो संदेश पहुंचते हैं उनकी छंटाई होती है और उन्हें केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में भेजा जाता है। इस प्रक्रिया में । गड़बड़ हो सकती है। ऐसी गड़बड़ी दिमाग में इन संदेशों की व्याख्या के दौरान भी हो सकती है। मसलन, हो सकता है कि युद्ध में मस्तिष्क की चोट से ग्रस्त कोई व्यक्ति हल्के स्पर्श को पहचान सके या यह भी बता सके कि एक समय में उसे एक जगह स्पर्श किया गया या दो जगह। मगर साथ ही यह भी हो सकता है कि वह यह न बता सके कि उसके हाथ में पकड़ी हुई चीज़ अठन्नी है या माचिस की डिबिया।
लिहाजा त्वचा की संवेदनाओं के सावधानीपूर्वक अध्ययन से यह भी बताया जा सकता है कि तंत्रिकाओं या मेरू रज्जु या मस्तिष्क में किस तरह की चोट आई है। इससे सर्जन को काफी मदद मिल सकती है। गौरतलब बात है कि मध्ययुग में इसका उपयोग सर्वथा अलग कारणों से किया जाता था। यदि किसी महिला के शरीर पर ऐसा हिस्सा मिल जाए, जहां उसे दर्द नहीं होता, तो उसे डायन बताकर जला दिया जाता था। हम यह भी जानते हैं कि इंग्लैण्ड में कई लोगों को सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार दिया। गया था क्योंकि वे एक ऐसे तंत्रिका रोग से ग्रस्त थे जिसमें व्यक्ति के शरीर में विचित्र ऐंठन और चेहरे पर विचित्र हावभाव पैदा हो जाते हैं। माना जाता था कि ये लोग शैतान के शिकंजे में हैं। युनाइटेड स्टेट्स में सोलहवीं सदी में सफोक में एक स्त्री को डायन बताकर ज़िन्दा दफन कर दिया गया था, वह दरअसल हंटिग्टन कोरिया नामक रोग से ग्रस्त थी।
आजकल सी. एस. लुइस टोनोंटोटकों और प्रेतबाधा जैसी धारणाओं को पुनर्जीवित करने क़ा प्रयास कर रहे हैं। यदि वे सफल हो गाए तो शायद वे सारी प्रथाएं फिर लौट आएंगी। ये फासिज्म के ब्रिटिश संस्करण की अच्छी साथी साबित होंगी। ये उन चीजों से ज्यादा निर्मम या बेतुकी तो नहीं होंगी जो कुछ वर्षों में जर्मनी में आज़माई गई थीं।
हमें अंधविश्वासों के पुनर्जागरण के प्रति सदैव सचेत रहना होगा। इस तरह के पुनर्जागरण के खिलाफ शायद त्वचा की तंत्रिकाओं व संवेदी अंगों की जानकारी भी एक औज़ार साबित हो।
जे. बी. एस. हाल्टेनः (1892-1961) प्रसिद्ध अनुवांशिकी विज्ञानी एवं बिग्यात विज्ञान लेखक। प्रस्तुत निबंध 1949 में प्रकाशित 'वॉट इज लाइफ' नामक मन में लिया गया है।
अनुवादः सुशील जोशी: एकलव्य के स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं।