विश्वभारती थी उनकी प्रिय कर्मभूमि। छोटे-बड़े का भेद वहां की पावन रांगामाटी में घुल-मिलकर एक हो जाता। था। त्रिपुरा के राजकुमार और कूचबिहार की राजकन्या भी सब के साथ काठ की बेंच पर बैठकर खाना खाते और अपने-अपने आसन लेकर पेड़ों की सुशीतल छाया तले, परम उल्लास से पढ़ने बैठ जाते।
बालक रवीन्द्रनाथ जब बंगाल अकादमी में शिक्षा प्राप्त करने गए तो उन्हें अपना स्कूल, कारागार-सा लगा। उन्होंने उसी के विषय में, एक स्थान पर लिखा है, "जो हमें पढ़ाया जाता, कभी हमारी समझ में नहीं आता, न हम सीखने की चेष्टा करते और न स्कूल-अधिकारियों को ही हमारे न सीख पाने की चिन्ता रहती। अब मेरा स्वयं एक आश्रम है। वहां के बच्चे भी शैतानियां करते हैं, पर वे बाल हैं न! नटखट तो होंगे ही। और अध्यापक वे भी बहुत क्षमाशील नहीं होंगे, किन्तु जब कभी मेरे आश्रम के विद्यार्थी ऐसी कुछ शैतानियां कर, दण्ड देने के लिए प्रेरित करते हैं, तब मुझे अपने स्कूलीय जीवन में की गई शैतानियां स्मरण हो आती हैं।"
यही कारण था कि कभी भी आश्रम के किसी छात्र एवं छात्रा को कड़ी सजा नहीं मिलती थी। अपने आठ वर्षीय आश्रमकालीन जीवन में मुझे केवल एक छात्र और छात्रा को आश्रम छोड़कर चले जाने का कठोर दण्ड मिलने का स्मरण है। आश्रम के किसी भी पाठ-भवन (स्कूल) के छात्र या छात्रा पर हाथ न उठाया जाए, यह गुरुदेव का आदेश था, किन्तु इस आदेश को कभी-कभी अध्यापकगण लांघ जाते थे। ठीक से काम न करने पर या मायने याद करके न लाने पर एक कोने में खड़ा कर दिया जाता, पर कोने में मुंह लटकाए खड़े हैं और घास के पेड़ों के नीचे लगी अन्य कक्षाओं के छात्र-छात्राएं देख रहे हैं, यहीं क्या कम सजा है? दूसरी कक्षाओं के छात्रवृन्द की दृष्टि की छुरियां पैनी की जा रही हैं कि कक्षा छूटते ही ताने कसे जाएंगे, खिल्ली उड़ाई जाएगी। और अभी-अभी रसोइया प्रभाकर वहीं से होकर निकल गया। मुंह फेरकर हंस रहा था, वह जाकर सब नौकरों से कहेगा और सब पूछेगे, "क्यों दीदीमनी, आज कैसी सज़ा पाकर खड़ी थी?''
अपने बाल्यकाल के स्कूली जीवन में शिक्षा संस्थाओं के यांत्रिक रूप की शिक्षा प्रणाली में जिन-जिन छोटी-मोटी त्रुटियों को गुरुदेव ने देखा था, उन्हें अपने आश्रम में, उन्होंने किसी रूप में नहीं रहने दिया था। यहां किसी भी विषय को लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। संगीत-भवन की कोई भी छात्रा शिक्षा -भवन (कॉलेज) की किसी भी कक्षा में आकर पढ़ सकती थी। बालकों के कोमल हृदयों को, किताबी बेडियों में जकड़ा नहीं जाता था। पुस्तकें भी बड़ी रोचक, तस्वीरों से भरी, मुलायम जिल्द और मखमली पन्नेदार होती थीं। बच्चे ऐसे प्रेम से पुस्तकें खोलकर बैठ जाते, जैसे परीक्षा की पुस्तकें नहीं, मिठाई का डिब्बा हो।
शिशु-भवन के नन्हें छात्रों की एक घण्टी लगती ‘गल्पेर' क्लास (कहानी की कक्षा )। जब कभी पता लगता कि आज उनका यह 'वर्ग' श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर लेंगे तो बड़े-बूढों की भीड़ जुट जाती। गिम्स और हैन्स एण्डरसन की कलम का जादू फीका पड़ जाता! मैंने भी उसी कक्षा में, एक बार उनसे 'मोमेर पुतुल' (मोम की गुड़िया) की कहानी सुनी थी। एक के बाद एक कर तीन पीरियड़ निकल गए और हम सब, मंत्रमुग्ध खड़े वह अनूठी कहानी सुनते रहे थे। कैसी सजीव कल्पना थी और कैसी लच्छेदार भाषा!
'सिन्हा सदन' के सामने बिखरी ऐसी ही असंख्य कक्षाएं - कहीं ढीला खद्दर का कुरता पहने, ऊंची धोती के ऊपर अण्डी की चादर लपेटे, हिन्दी का वर्ग ले रहे हैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कहीं शेक्सपियर के नाटकों की विद्वतापूर्ण व्याख्या कर रहे जर्मन प्रोफेसर डॉ. ऐलेक्स ऐरनसन, मार्जारी साइक्स, कहीं सांख्य योग और चार्वाक् की चर्चा कर रहे हैं प्रोफेसर अधिकारी और कहीं, शैलज दा के इसराज के मधुर स्वरों के बीच गूंज रही रवीन्द्र संगीत की कोई नई स्वर-लिपि। आज बांग्लादेश का लोकप्रिय गीत ‘आमार सोनार बांग्ला, आमी तो माय भालोबाशी' जब आश्रमवासियों के स्निग्ध कण्ठस्वरों से पहली बार गूंजा था तब उसकी मौलिक गूंज ही अनूठी थी।
‘सिन्हा सदन' में आयोजित एक जलसे में, स्वयं शान्ति दा (शान्तिमय घोष), बाउल की अनुपम सज्जा में जब नाच-नाचकर गाने लगे थे - ‘आमार सोनार बांग्ला, आमी तोमाय भालोबाशी', तो दर्शकों के पैर जैसे स्वयं ही किन्हीं हिप्नोटाइज्ड माध्यमों की भांति, ताल देने लगे थे। ऐसे ही, एक बार जब द्वितीय युद्ध-विभीषिका ने भारत को भी त्रस्त कर दिया था, कलकत्ता में गिराए गए इक्के-दुक्के जापानी बमों ने आश्रम की शांति भी, कुछ अंश में, भंग कर दी थी। गुरुदेव का नया गीत 'हिंसाय उन्मत्त पृथ्वी, नित्य निठुर द्वंद्व', मीठी शीतल बयार का बिजना डुला गया था। सचमुच ही, शांतिनिकेतन गुरुदेव की पवित्र तपोभूमि का साकार स्वप्न था। न वहां चहारदीवारियों से घिरी कक्षाएं थीं, न किसी छत का अंकुश। जहां तक दृष्टि जाए, उन्मुक्त नील गगन था।
पढ़ते-पढ़ते जी ऊब जाए तो आसमान पर चहकते परिन्दों को देखने पर बन्दिश नहीं, लिखते-लिखते हाथ थक जाते तो क्षण -भर कलम रखकर पास से गुजरते सन्थाल-दल के अगुवा की दो-गजी मादक वंशी के स्वर को सुनने पर कोई बंदिश नहीं थी, रेखागणित और बीजगणित के कठिन साध्यों के बीच इधर-उधर देखकर ताज़गी पाने पर कोई रुकावट नहीं थी, सामने की डाल पर कबूतर बैठे हैं या गिलहरी कुटुर-कुटुर कर कुछ खा रही है, यह सब देखते-देखते भी विद्यार्थी पानीपत के तीनों युद्धों की दुरूह तारीखें कण्ठस्थ कर लेते थे। अकबर की धार्मिक नीति या विलियम बैंटिक के शासनकालीन सुधारों का गुरुत्तर बोझ, आश्रम के छात्रों के कन्धों पर भी उतना ही था, जितना अन्य शिक्षण संस्थाओं के छात्रों पर, किन्तु पढ़ने-पढ़ाने की ऐसी मौलिक व्यवस्था थी कि नन्हें मस्तिष्कों पर स्कूली पढ़ाई, कभी भी बोझ बनकर नहीं उतरी। आत्मसंयम, उनको आश्चर्यजनक रूप से सचेत बनाए रखता।
आश्रम के छात्र-छात्राओं को सूर्य निकलने से पूर्व ही बिस्तर छोड़ देना पड़ता था। इसके लिए तीन घण्टियां बजतीं। तीसरी घण्टी बजने पर भी यदि कोई नहीं उठता, तो सज़ा मिलती। प्रात:कालीन नाश्ता किए बिना ही फिर उसे कक्षा में जाना पड़ता। नहा-धोकर अपना बिस्तर लगाकर, सब लायब्रेरी के सामने खड़े होकर एक प्रार्थना करते। पन्द्रह मिनट सुबह और पन्द्रह मिनट शाम। नित्य यह प्रार्थना-सभा होती। प्रार्थना के भी कई गीत विशेष रूप से इसी सभा के लिए, ‘विभास', 'भैरवी', 'भैरव' में बांधे गए थे। 'भेगे छो दुआर एशेछो ज्योतिर्मय', 'ओ अनाथेर नाथ', ‘बाहिर पथे विरागीहिया किशेर खोंजे ऐली' आदि वैतालिक गीतों के आरोह के लिए, मांसल कण्ठों के विशिष्ट गायक नियुक्त थे। कुण्डामुण्डी रेड्डी, जगबन्धु अमिता दी ही प्रायः वैतालिक का संचालन करते। रेड्डी दा जब 'तोमारी होक जय' गाते तो लगता एक साथ बीसियों बादल गरज उठे हैं। ऐसे ही जगत्बन्धु के गुरुगम्भीर कण्ठ-स्वर में कहीं भी उसके कैशोर्य की झनकार नहीं रहती, उस छोटे से शरीर में न जाने विधाता ने कहां कौन-सा अदृश्य माइक फिट कर दिया था। प्रात:कालीन प्रार्थना के पश्चात् सब अपनी-अपनी कक्षाओं में चले जाते। कला -भवन के छात्र एवं छात्राएं कला भवन की ओर और संगीत-भवन का दल अपनी कक्षाओं में। शिक्षा एवं पाठ -भवन के दल यत्र-तत्र पेड़ों के तले बिखर जाते और क्षण भर में कोलाहल शांत हो जाता। घण्टा फिर बजता और कक्षाओं में पढ़ाई होने लगती।
'गौरा पंत 'शिवानी' : (1923-2003): हिन्दी साहित्य लेखन में शिवानी के नाम से मशहूर गौरा पंत ने 'शांति निकेतन' से स्नातक उपाधि लेने के पश्चात स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य शुरू किया। उनके 30 में ज्यादा उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। साहित्य सृजन के लिए बे 'पद्मश्री' सम्मान से भी नवाजी गई हैं। हाल ही में उनका निधन हो गया है।
यह लेख शिवानी की पुस्तक ‘आमादेर शांतिनिकेतन' से लिया गया है। 'आमादेर शांतिनिकेतन' शिवानी के शांति निकेतन में आठ साल रहने और पढ़ने के अनुभवों एवं संस्मरणों पर आधारित है। यह पुस्तक हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है।