यमुना सनी
आमतौर पर नक्शों का नाम लेते ही दिमाग में एक ऐसी आकृति उभरने लगती है जो किसी पैमाने विशेष पर आधारित होगी, जिसमें सारी बातें सिर्फ संकेतों के मार्फत दर्शायी गई होंगी। शायद नक्शों से हमारी अपेक्षा ही यह होती है कि वे दुनिया को दिखाने का एक सांकेतिक विश्वकोश भर होंगे - जिनमें पहाड़ पहाड़ जैसे नहीं दिखते, नदियां नदियां नहीं होतीं, शहर शहर जैसे नहीं दिखते। होशंगाबाद के लिए छोटा काला बिन्दु, तो भोपाल के लिए थोड़ा बड़ा काला बिन्दु और दिल्ली के लिए थोड़ा और बड़ा काला बिन्दु सतपुड़ा विंध्याचल की अरावली या अन्नामलाई पहाड़ों से तुलना का कोई मौका नहीं। इसी तरह के सांकेतिक नक्शों से बच्चे स्कूली पढ़ाई के दौरान जूझते नजर आते हैं। इन नक्शों को पढ़ना-समझना तो कठिन होता ही है। साथ ही सीखने-समझने के लिए इन नक्शों के साथ कोई गतिविधियां भी नहीं होती।
परन्तु कहीं-कहीं नक्शों को इन संकेतों, पैमानों और पारम्परिक रुढ़ियों के मायाजाल से छुटकारा दिलवाकर उन्हें बच्चों के स्तर पर पठनीय बनाने की कोशिशें हो रही हैं। इनमें से एक कोशिश पिक्टोरियल मेप (चित्रात्मक मानचित्र) के रूप में देखने को मिलती है।
ऐसी ही एक कोशिश एकलव्य संस्था भी कर रही है। एकलव्य द्वारा तैयार किए जा रहे चित्रात्मक एटलस में हरेक भारतीय राज्य का एक मानचित्र होगा, इसके साथ पढ़ने के लिए सामग्री और कुछ रोचक गतिविधियां भी होंगी। इन नक्शों में मानवीय गतिविधियों को केन्द्र में रखते हुए खेती, जंगल, पहाड़, शहर, यातायात, कारखाने आदि दर्शाए जा रहे हैं। चूंकि एटलस अभी निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा है इसलिए निर्माणाधीन नक्शों को बनाते हुए जो अनुभव मिले, बच्चों की जो प्रतिक्रियाएं मिली उन सब को आपके साथ बांटा जा रहा है।
--"यह बड़ी-सी किताब क्या है?'' नन्हें राजकुमार ने पूछा ‘‘और आप क्या कर रहे हैं?''
--"मैं एक भूगोलशास्त्री हूं।' बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा।
--“भूगोलशास्त्री क्या होता है?'' नन्हें राजकुमार ने फिर पूछा।
--“भूगोलशास्त्री वह होता है, जिसे दुनिया की सारी नदियों, समुद्रों, जंगलों पहाड़ों, मरूस्थलों और गांवशहर की जानकारी होती है।”
--एन्टोइन डीसेंट एक्ज़यूपरी
बच्चा गंगा नदी को दर्शाने वाली काली रेम्वा पर अंगुली सरकाते हुए तटरेखा तक आ पहुंचा और आगे तटरेखा को गंगा समझकर अंगुली राजस्थान तक सरकाता चला गया।
भूगोल और नक्शों को लेकर हमारे छात्रों में भी उस नन्हें से राजकुमार जैसी जिज्ञासा होती होगी। नक्शे अपने आप में ढेर सारी जानकारी समेटे रहते हैं। लेकिन जब हम नक्शों को महज़ नदी-पहाड़ों और समुद्रों की स्थिति दिखाने वाला पुर्जा बना देते हैं तो नक्शों को पढ़ने की प्रक्रिया उबाऊ और नीरस-सी रह जाती है। यह ठीक उसी तरह है जैसे कोई छात्र दरवाज़ा खोलना तो जानता हो लेकिन नज़र उठाकर सामने फैले दृश्य का मज़ा न ले पाता हो। स्कूलों में बच्चे जिस तरह नक्शा देखते हैं, उसमे बिल्कुल यही लगता है। इसके कई उदाहरण हमें बार-बार देखने को मिले हैं।
गंगा का बहाव
एक बार एक बच्चे ने भारत के नक्शे पर गंगा नदी के बहाव को उद्गम से अन्त तक दिखाने की कोशिश की। शुरुआत में उसने गंगा का उद्गम कहां से होता है इसकी पूछताछ की। जब उसे गंगा का उद्गम बता दिया तो उसने नक्शे पर गंगा नदी को दर्शाती काली रेखा पर उंगली सरकाना शुरू किया। लेकिन उसकी उंगली बंगाल की खाड़ी पर जाकर नहीं रुकी, जहां गंगा नदी की यात्रा समाप्त होती है। बल्कि उसकी उंगली ने आगे सरकते-सरकते भारत की तटीय रेखा का पूरा चक्कर लगा लिया। बच्चे ने ऐसा क्यों किया होगा?
चूंकि नक्शे पर तटीय रेखा भी काले रंग से ही दशई गई थी और नदी को दिखाने वाली रेखा भी काली थी इसलिए बच्चा समझ ही नहीं सका कि नदी का बहाव कहां पर समाप्त होता है। वह काली रेखा के सहारे राजस्थान जा पहुंचा और वहां पहुंचकर जब समझ नहीं आया कि अब आगे क्या करना है, सो वहीं रुक गया।
नदियां कहां से निकलकर कहां समाप्त होती हैं? जमीन, जंगल, मैदान, शहर किस प्रकार के होते हैं? उनमें बसने वाले कौन लोग हैं? उनकी मुख्य गतिविधियां क्या हैं? उपजीविका, उद्योग-धंधे क्या हैं? इस तरह की अनेक छवियों और कल्पनाओं का मिलाजुला ताना-बाना ही हमें किसी जगह का एक संपूर्ण वास्तविक और जीवन्त चित्र देता है। नक्शा मूलतः इसी संपूर्ण चित्र को दिखाने की कोशिश करता है, लेकिन कम जगह में और प्रतीकों और चिन्हों की मदद से संक्षेप में। नक्शे को समझने के लिए उसमें दिए गए चिन्हों, प्रतीकों को पढ़ लेना ही काफी नहीं है, बल्कि इन संकेतों की मदद से उस जगह की जीवन्त छवि बनाने की कोशिश करना भी जरूरी है। यह सब कर सकने की परिपक्वता बच्चों में किस उम्र में आती है यह तो विशेषज्ञ ही तय कर पाएंगे लेकिन हमारा अनुभव यही बताता है कि हाई स्कूलों में भी नक्शों का वैसा उपयोग नहीं हो रहा है जैसा होना चाहिए।
माध्यमिक स्तर पर विषयों के विभाजन के चलते भूगोल में नक्शों का काफी महत्व है। इसमें जिन मुख्य अवधारणाओं पर जोर है वे हैं - पैमाना, संकेत, चिन्ह, दिशाएं इत्यादि। बच्चों को नक्शे के साथ जो अभ्यास करने होते हैं उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे यह सब उन पर थोपा गया बोझ है जो बच्चों का बस चले तो कभी न ढोएं।
इसका सीधा मतलब है नक्शा देखना बच्चों के लिए एक उबाऊ काम है। इस गतिविधि में आमतौर पर कहीं भी दिलचस्पी या मजे का पुट नहीं है, जिससे छात्रों को आगे बढ़ने में मदद मिले।
हमारी हमेशा कोशिश रही है कि स्कूली पाठ्यक्रमों में दिए गए उबाऊ काले-सफेद नक्शों के बजाए बच्चों को ज्यादा दिलचस्प नक्शे दिखाए जाएं। रंगीन नक्शे बच्चों को निश्चित तौर पर ज्यादा आकर्षित करते हैं। ये देखने में तो ज्यादा सुन्दर होते ही हैं, इनमें देश के विभिन्न राज्यों की भौगोलिक स्थिति, जमीन, पानी वगैरह ज्यादा स्पष्ट रूप से दिखाए जा सकते हैं। साथ ही धरातल की ऊंचाइयों, गहराइयों और सपाट सतहों को भी ज्यादा प्रभावी ढंग से दिखाया जा सकता है।
लेकिन यहां भी छात्र अधिक-से- अधिक यह कर पाते हैं कि रंगों के सूत्रों को बूझकर निश्चित तथ्यों का पता लगा लें। मसलन एक विद्यार्थी रंगों के आधार पर यह तो समझ कता है कि हरा रंग समुद्र में 200 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्र को दिखाता है, नीला रंग पानी को दर्शाता है इत्यादि। गणित की ठीक-सी पकड़ के माथ वह नक्शे पर वास्तविक दूरी बड़ी आसानी से नाप सकता है, लेकिन इन सब तथ्यों में जो निहित होता है, जो अर्थ निकलता है उसको शायद ही छू पाए। यहां सवाल उठता है कि छात्रों की आयु और उनकी परिपक्वता को ध्यान में रखते हुए निहितार्थों और अमूर्त अवधारणाओं को उन तक कैसे पहुंचाया जाए?
नक्शा पढ़ने के परंपरागत तरीकों में इस ज़रूरत पर ध्यान नहीं दिया जाता। जबकि सच्चाई यह है कि नक्शे से जुड़े इस अहम पहलू में अगर सुधार किए जाएं तो नक्शा पढ़ने और समझने की समूची प्रक्रिया में जान आ जाएगी; नक्शे सजीव हो जाएंगे। मुझे याद है जब मैंने स्टीरियोस्कोप की मदद से कुछ हवाई-फोटो देखे थे। सपाट, सफेद और काले फोटो मानों जादुई अंदाज में एक त्रिआयामी दृश्य (परसेप्शन) बन गए। जमीन की ऊंचाइयां, गहराइयां, घाटी, पहाड़ सब मेरी आंखों के सामने थे, मानो मुझे न्यौता दे रहे थे कि आओ हमें देखो, जानो, समझो।
नक्शा पढ़ना तभी सार्थक है अगर नक्शे पर दी गई जगह सदृश्य हो जाए, उसकी एक तस्वीर आपकी आंखों के सामने उभरकर आ जाए। नक्शे में दी गई संक्षिप्त जानकारी वास्तविक जगहों की जीवन्त छवि बन जाए। इमसे न सिर्फ नक्शा बनाने के मूल उद्देश्यों को बेहतर ढंग से समझा जा सकेगा, बच्चों में भी नक्शे के प्रति दिलचस्पी बढ़ेगी।
*किमी जगह/वस्तु के दो अलग स्थानों में खींचे गए फोटो को साथ में रखकर फिर से त्रिआयामी दृश्य प्राप्त किया जा सकता है। स्टीरियोस्कोप नाम के एक उपकरण की मदद में यह बहुत ही जीवन्त रूप में संभव हो पाता है। स्टीरियोस्कोप के जरिए थोड़ा बांई ओर से खींचे फोटो को बांई आंख से और थोड़ा दाहिनी ओर से खींचे फोटो को दाहिनी आंख में देखते हैं। इन दोनों छवियों का सम्मिश्रण हमें एक त्रिआयामी दृश्य के रूप में दिखता है।
हमने समय-समय पर बाज़ार में उपलब्ध तरह-तरह के नक्शों को लेकर बच्चों के साथ चर्चा की है। यह मुख्यतः नक्शा पढ़ने में आने वाली मुश्किलों को समझने की कोशिश थी। जैसा कि पहले भी जिक्र आया है, कि केवल पैमाना, चिन्ह, संकेत इत्यादि पाठ्य पुस्तकीय अवधारणाएं नक्शों को सतही तौर पर पढ़ने में मददगार हो सकती हैं, लेकिन नक्शे से जुड़ी बिल्कुल मूलभूत बातें स्कूली पढ़ाई में नहीं बताई जातीं। वह यह कि नक्शा एक वास्तविक जीवन्त, चहल-पहल से भरी दुनिया के एक हिस्से को कागज़ के एक पुर्जे पर दिखाने की कोशिश है। इसलिए यह जरूरी है कि नक्शा पढ़ने वाले को दुनिया के उस हिस्से की जीवन्तता का अहसास हो। वयस्कों के लिए भी नक्शे को इस तरह पढ़ पाना आसान नहीं होता फिर माध्यमिक स्तर के बच्चों के लिए तो यह निश्चित ही टेढ़ी-खीर है। इसलिए बच्चों की मदद करना बहुत जरूरी है ताकि नक्शों के द्वारा बच्चे दुनिया को देख सकें, जगहों को जान सकें।
संकेतों और चिन्हों के पार
नक्शों को समझने के लिए हमें एक अलग तरह के माध्यम की आवश्यकता है जो बच्चों की क्षमताओं और जरूरतों के अनुरूप हो। ऐसा नक्शा कैसा हो? ऐसा नक्शा जो अमूर्त. अपरोक्ष अवधारणाओं को पढ़ने, समझने के बोझ को कम करे। इसका मतलब यह नहीं कि बच्चा संकेतों व चिन्हों को पढ़ने का प्रयत्न न करे बल्कि वह इस काम को ज्यादा दिलचस्पी और समझ के साथ कर सके, जो आज नज़र नहीं आती। इसके लिए अलग तरह के नक्शों को इस्तेमाल करने की जरूरत है, ताकि बच्चे उस स्तर तक पहुंच सकें। दुनिया की सहज छवियों से शुरुआत करते हुए नक्शों जैसी कठिन अमूर्त अवधारणा को पकड़ने तक का सफर तय करने में बच्चों को मदद मिल पाए, इस चुनौती के लिए सही माध्यम कैसा हो? यहां चीन का एक नक्शा दिखाया गया है जिसे एक सुन्दर रंगीन तैलचित्र की तरह प्रस्तुत किया गया है। हमने पाया कि बच्चे इस माध्यम की ओर स्वाभाविक रूप से आकर्षित होते हैं। जब उन्हें चीन की दीवार, पर्वत, नदियां सभी कुछ आंखों के सामने नज़र आता है। देखिए चित्र।
ऐसी कई संभावनाओं को टटोलकर हमने एक खास तरह का एटलस बनाने पर विचार किया जिसमें भारत के राज्यों के मानचित्र बनाए गए हों। उसके लिए हमने जो पद्धति अपनाई उसमें नक्शे की रेखाओं (कार्टोग्राफी) को रेखाचित्रों और पेंटिंग से मिलाने की कोशिश की। इस विधि में पहले जमीन की ऊंचाइयों के एक आधार मानचित्र के सहारे ज़मीनी आकृतियों का एक लंबवत् चित्रण किया जाता है।
इस तरह के चित्रित नक्शों की मदद से भौगोलिक जानकारी को कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है। उदाहरण के लिए इसमें नदियों को पहाड़ों से निकलते हुए, मैदानों पर बहते और सागर में मिलते दिखाया जा सकता है। किसी भी क्षेत्र को उसके वनों, वनस्पतियों में आच्छादित किया जा सकता है, जिसमें उस क्षेत्र के पक्षी, जीव -जन्तु विचरण करते दिखाए जा सकते हैं। ज़मीन जोतते किसान, प्रमुख फसलें, रेल का जाल, छोटे-बड़े शहरों के प्रमुख व्यापारिक, प्रशासनिक केन्द्रों की चहल
दृश्यों को दिखाने के लिए एकदम टॉप व्यू न लेते हुए तिरछा कोण लिया गया। इस विधि के कई फायदे हैं लेकिन कुछ परेशानियां भी हैं। मसलन पहाड़ों के ठीक पीछे दिखने वाले दृश्यों को दर्शाना मुश्किल है।
पहल इत्यादि इस नए माध्यम के द्वारा दिखाए जा सकते हैं। इन सात चुनिंदा विषयों को मिलाकर किसी भी जगह की एक पूरी तस्वीर नक्शे द्वारा दिखाना संभव हो पाता है।
वास्तव में देखा जाए तो नक्शा टॉप व्यू यानी ऊपर से देखा गया एक दृश्य है। लेकिन हमारे नक्शों में एक ऐसा दृश्य उभरता है जो जमीन से देखे गए और ऊपर से देखे गए दृश्यों का सम्मिश्रण होता है।
ऐसी स्थिति कई बार नक्शा बनाने में मुश्किलें खड़ी करती है। जैसे पहाड़ों के ठीक पीछे पड़ने वाले दृश्यों को दिखाना मुश्किल हो जाता है। चूंकि इस तरह के नक्शे का उद्देश्य ज्यादा जानकारी देना नहीं है इसलिए यह समस्या बहुत गंभीर नहीं है। लेकिन फिर भी आवश्यक और अनावश्यक जानकारी के बीच संतुलन बनाना नक्शे के हर हिस्से के लिए बहुत जरूरी है। उदाहरण के लिए किसी राज्य में धान की खेती के प्रमुख केन्द्र दिखाना ही काफी है, न कि हर उस इलाके को जहां धान की खेती होती हो। ताकि नया नक्शा बोधगम्य बना रहे और प्रचलित नक्शों की तरह संपूर्ण धान प्रदेशों की जानकारी दिखाने के चलते बच्चों के लिए गूढ़ न हो जाए।
नक्शे में शहरों और महानगरों को अक्सर बिन्दुओं या अन्य चिन्हों द्वारा दिखाया जाता है। लेकिन हमारे द्वारा बनाए गए नक्शों में शहरों को कागज़ पर ज्यादा स्थान देकर उनकी
प्रमुख गतिविधियों को कलात्मक तरीके से दर्शाया गया है। इसलिए एक शहर से दूसरे शहर की दूरी बिन्दु से बिन्दु तक पैमाने से नापना नए नक्शों में शायद संभव न हो, हालांकि दिशाएं वही रहेंगी। दूसरी तरफ नए माध्यम के इन नक्शों का एक सशक्त पहलू यह है कि इनके द्वारा शहरी केन्द्रों को उनकी औद्योगिक, प्रशासनिक तथा अन्य प्रमुख गतिविधियों के साथ दिखाया जा सकेगा। पहाड़ी इलाकों के चित्रण में भी यह बहुत उपयोगी है।
इस माध्यम की सबसे बड़ी खूबी है धरातल का दृश्यांकन। पहाड़ों व पर्वत श्रृंखलाओं को चित्रण के प्रचलित तरीकों से नहीं दिखाया गया है। इस नाए माध्यम में पश्चिमी घाट पश्चिमी घाटे की तरह ही दिखता है जबकि हिमालय पर्वत बहुत ऊंचा, उबड़-खाबड़ और विषम दिखाई देता है। अलग-अलग ऊंचाइयों को चित्ररुप देने में एक समान लंबवत पैमाने (वर्टिकल स्केल) को उपयोग किया गया है यानी दिखाई गई ऊंचाइयों की आपस में तुलना की जा सकती है। इसके अलावा धरातल की निरंतरता को यथासंभव बरकरार रखा है। नदी, रेल, सड़क जैसी विषय वस्तुओं को राज्यों की सीमा पर ही खत्म नहीं किया बल्कि पड़ोसी राज्यों में भी जारी दिखाया गया है।
बच्चों का नए नक्शों से परिचय
नए नक्शे पहली नजर में बच्चों को भा गए। उन्होंने इन नक्शों को दिलचस्पी के साथ देखा। उन्हें बार-बार नक्शा देखने के लिए कहने की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने बड़ी आसानी से जगहों को पहचाना। पर्वत, नदियों, जंगलों, बसों और रेलगाड़ियों के बारे में चर्चा की। नदियों के बहाव की दिशा और उनके उद्गम को बच्चों ने बड़ी सरलता से पहचान लिया। जब हमने उनसे पूछा कि फलां नदी उलटी दिशा में क्यूं नहीं बहती तो उनके जवाब थेः
“नहीं, ऐसा नहीं कर सकती, यहां पहाड़ है।'' (नदी के उद्गम की ओर इशारा करते हुए) "नदी ऊंचाई की ओर नहीं बहती।'' किसी ने इस नदी की चौड़ी और संकरी होती घाटी की ओर ध्यान दिलाया।
हमारे हाथ में जो नक्शा था वह महाराष्ट्र का था। उसमें दिखाई दे रहे अरब सागर का वर्णन कुछ ऐसा कियाः
"नीला पानी, मछलियां, पक्षी। सागर में एक विशाल जहाज़ खड़ा है और कुछ लोग मछलियां पकड़ रहे हैं।"
महाराष्ट्र के किन हिम्मों में ज्यादा बारिश होती है? इस प्रश्न पर बच्चों का जवाब था तटीय क्षेत्रों में, पश्चिमी घाट और वींदर्भ में, जबकि मराठवाड़ा सूखा क्षेत्र है।
"ऐसा क्यों?'' हमारा प्रश्न था। उनके जवाब थेः
--"समुद्र के पास होने से तटीय क्षेत्र गीले रहते हैं।"
--"मारे तटीय क्षेत्र में धान की खेती होती है। जिसके लिए ज्यादा पानी की जरूरत होती है। इसका मतलब यहां ज्यादा बारिश होती होगी।"
हालांकि बच्चों को यह ठीक-ठाक पता नहीं था कि ज्वार और बाजरा के लिए कितना पानी लगता है। वे इस बात से असमंजस में थे कि मराठवाड़ा में गन्ने की खेती होती है। आखिर में कोई बोल पड़ा कि गन्ने की खेती में तो ज्यादा पानी की ज़रूरत होती है, और मराठवाड़ा में तो कम बारिश होती है। नक्शे को और ज्यादा बारीकी से देखने पर उन्हें इस सवाल का भी जवाब मिल गया। हमारी मदद से उन्होंने नीरा नहर को पहचाना और जाना कि उस इलाके में 'गन्ना' नहर-सिंचित फसल है।
विंदर्भ और पश्चिमी घाटों में वनों को देखकर बच्चों ने निष्कर्ष निकाला कि वे ज्यादा आर्द्रता वाले क्षेत्र हैं।
एक बच्चे ने बहुत मजेदार बात कहीं कि ऐसा नक्शा बनाने के लिए उसे हवाई जहाज़ से सफर करना होगा!
एक अन्य बातचीत के दौरान बच्चों ने बताया कि पश्चिमी राजस्थान का इलाका पूर्वी राजस्थान की अपेक्षा ज्यादा बंजर है। पूर्वी क्षेत्र में ज्यादा हरियाली है और पानी के स्रोत जैसे तालाब, बावड़ियां भी अधिक हैं।
कुछ लोग यह देखकर हैरान थे कि लोग मरुस्थलों में भी घर बनाकर रहते हैं। मरुस्थलों में भेड़ें और ढोर होते हैं यह भी हैरत वाली बात थी कि इन्हें जिंदा रहने के लिए वहां पानी कहां से मिलता होगा? और भेड़े उन गर्म इलाकों में पलती हैं जहां ऊनी कपड़ों की बिल्कुल ज़रूरत नहीं होती है! वे ऊंट को रेगिस्तान में यातायात का एकमात्र साधन मानकर चल रहे थे। वे यह भी सोचते हैं कि यदि राजस्थान के सूखे इलाकों में कई तरह के ढोर-पशु पल-बढ़ सकते हैं तो बाकी राज्यों में भी ऐसी कोशिशें हो सकती हैं जो लोगों के जीवन-यापन में मदद दे सकें। बच्चों को राजस्थान में घास (सेवन घास) की मौजदगी को लेकर घोर आश्चर्य हुआ कि किस तरह इन सूखी परिस्थितियों में भी घास पनप पा रहा है?
नए नक्शों को तैयार करते हुए इस बात का लगातार ध्यान रखा गया कि आमतौर पर बच्चों को नक्शों में किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। साथ ही इस बात का ध्यान भी रखा गया कि इन नक्शों में ऐसी क्षमता तो हो कि बच्चे खुद से होकर ज्यादातर बातें सीख सकें। बच्चे इन नक्शों को देखकर विभिन्न पहलुओं के बीच परस्पर संबंधों को ढूंढ पाते हैं। जैसे - जंगल और वर्षा, फसलों के प्रकार, वर्षा और सिंचाई, जलवायु और लोगों की जीविका व रहन-सहन, स्थलाकृति और नदी-नालों का प्रवाह वगैरह। यही इन नक्शों की क्षमताओं का अचूक प्रमाण है।
चूंकि बच्चों को इन नक्शों में विभिन्न राज्यों के बहुत से विस्तृत पहलू देखने को मिलते हैं, वे तुरंत ही इन इलाकों की अपने क्षेत्र से तुलना करने लगते हैं। महाराष्ट्र का नक्शा होशंगाबाद (मध्यप्रदेश) के बच्चों को दिखाया गया। इसी तरह राजस्थान का नक्शा त्रिवेंद्रम (केरल) के बच्चों के बीच रखा गया। दोनों ही जगह बच्चे अपने चिर-परिचित अनुभवों से अनजान क्षेत्रों की ओर जाते हुए दिखे। खासकर त्रिवेंद्रम के उष्णकटिबंधीय अनुभव के आदी इन बच्चों के लिए यह सोच पाना भी कठिन था कि ऐसे स्थान भी हो सकते हैं जो कुछ समय बेहद गर्म रहते हों और बाकी समय अत्यंत सर्द। इसी तथ्य से दैनिक और मौसमी तापमान परिवर्तन संबंधी चर्चा हुई, जो केरल के निवासियों के लिए एकदम भिन्न किस्म का अनुभव था।
नए नक्शे ने बच्चों की राजस्थान को लेकर बनी रुढिगत धारणाओं और मिथकों को भी झकझोरा। राजस्थान के नक्शे में चित्रित जानवरों, पशुओं, गांवों और लोगों की वजह से रेगिस्तान को लेकर व्याप्त कल्पना - चारों ओर केवल रेत-ही-रेत और मरुस्थल का जहाज़ ऊंट - भी टूटना शुरू हुई। नए नक्शों की इस क्षमता व संभावना को एटलस के पठन सामग्री वाले अंशों में और भी गहराई तक ले जाने की योजना है।
यह लेख नए तरह के नक्शों पर बच्चों के साथ बातचीत, अनुभवों और प्रतिक्रियाओं पर आधारित है। बातचीत में का पांचवीं में सातवीं के बच्चे शामिल थे। यह कार्य 'नक्शा पड़ना सीखने वाले बलों के लिए एटलस निर्माण के काम का हिस्सा है। एकलव्य के सामाजिक अध्ययन समूह ने माध्यमिक स्तर की कक्षाओं की किताबों में किताबों की पृष्ठ संख्या और कीमतों की सीमाअों को। ध्यान में रखते हुए विभिन्न संभावनाओं को तलाशा था। उस समय जिन समस्याओं का अहसास बना था, एटलस प्रोजेक्ट में उनका गहराई से अध्ययन किया गया और नए तरह के नक्शों के ज़रिए हल खोजने की कोशिश की गई। मौजूदा संरचना में यह एक स्वतंत्र एटलस होगा जिसमें भारतीय राज्यों के रंगीन और भरपूर चित्रों वाले नक्शे होंगे। प्रत्येक राज्य के नक्शे के साथ पढ़ने व अभ्यास के लिए सामग्री भी होगी।
यमुना सनीः एकलव्य के सामाजिक अध्ययन शिक्षण समूह में संबद्ध। माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों के लिए तैयार किए जा रहे एटलस प्रोजेक्ट में प्रमुख भूमिका निभा रही हैं।
अनुवादः कल्याणी डिके : शैक्षणिक कार्यों में रुचि। होशंगाबाद में रहती हैं।