लेखक :  जयश्री सुब्रह्मण्यम                                                                                                [Hindi PDF, 157 kB]
अनुवाद: राजेश खिंदरी

"-2 धन -2 कितना होता है?”
“धन 4”
“धन 4 क्यों?”
“क्योंकि ऋण ऋण धन होता है।”
“कौन-सी संख्या बड़ी है -1 या -4?”
“-1”
“क्यों?”
“क्योंकि - 4, -1 के बाईं तरफ होता है।”
किसी भी शिक्षक के लिए ऐसे जवाब और तर्क कभी-कभार घटने वाला अनुभव कतई नहीं होगा, वो भी ऐसे बच्चों के साथ जो कि माना गया है कि पिछले साल पूर्णांक संख्याएं और उनकी संक्रियाएं यानी ऑपरेशन पढ़ चुके हैं।
संख्याओं की दुनिया में ऋणात्मक संख्याओं का आगमन काफी देरी से हुआ है, और वो भी काफी विरोध के बिना नहीं। (ऋणात्मक संख्याओं का संक्षिप्त इतिहास अलग से बॉक्स में दिया गया है।) बहुत से कारण हैं जिनकी वजह से ऋणात्मक संख्याएं अवधारणात्मक रूप से काफी मुश्किल हो जाती हैं:

1. सब ऋणात्मक संख्याएं शून्य से भी छोटी हैं।
2. उनके दो स्वतंत्र पहलू होते हैं - मान और चिन्ह। उदाहरण के लिए ऋणात्मक संख्या -15 का मान 15 है और चिन्ह ऋण।
3. ये दोनों पहलू एक दूसरे से विपरीत रूप से संबंधित हैं यानी कि वो संख्या जिसका मान ज़्यादा है वह उस संख्या से छोटी होगी जिसका मान कम है। उदाहरण के लिए -20, -15 से छोटी है जबकि -20 का मान -15 के मान से ज़्यादा है।
यह देखते हुए कि इन सब पहलुओं की वजह से कई सदियों तक बेहतरीन गणितज्ञों को समस्याओं से जूझना पड़ा, हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि स्कूली बच्चों को ऋणात्मक संख्याएं समझना और उनके साथ क्रियाएं कर पाना काफी मुश्किल लगता है।
आमतौर पर बच्चों को छठवीं कक्षा यानी लगभग 11-12 साल की उम्र में ऋणात्मक संख्याएं सिखाना शु डिग्री किया जाता है। जो भी बच्चों को ऋणात्मक संख्याएं सिखाने की कोशिश करे, उसके सामने निम्न तीन प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ खड़े होंगे।

1. इनका परिचय कैसे कराया जाए यानी शुरुआत कैसे करना।
2. शून्य, ऋणात्मक व धनात्मक संख्याओं के बीच में क्रमबद्धता कैसे समझाना।
3. ऋणात्मक संख्याओं के बीच क्रियाएं कैसे समझाना।
हम पहले दो सवालों को एक साथ लेते हुए शुरुआत करेंगे क्योंकि एक स्तर पर ये दोनों आपस में गहराई से जुड़े हैं - यहां तक कि कुछ पुस्तकों में तो परिचय ही ऐसे करवाया जाता है कि ऋणात्मक संख्याएं वे संख्याएं हैं जो शून्य से छोटी होती हैं।

ऋणात्मक संख्याएं और उनका क्रम
ऋणात्मक संख्या पढ़ाने में मुश्किल आती है उसके पीछे एक कारण है कि जब इन्हें रोज़मर्रा के उदाहरणों के ज़रिए सिखाने की कोशिश करें तो उसमें भी निहित समस्याएं हैं। यह सुझाव हो सकता है कि उधारी को ऋणात्मक संख्याओं से दर्शाएं और चूंकि यह अपने आसपास पाई जाने वाली एक सामान्य घटना है इसलिए बच्चों को ऋणात्मक संख्याओं का मूर्त अनुभव मिलेगा। परन्तु इस उदाहरण के साथ मुश्किल यह है कि पूर्णांकों के क्रम का जो परिचय हम देना चाहते हैं, वो उधारी के बारे में जैसे हम सामान्य तौर पर चर्चा करते हैं, उसके विपरीत है। अगर ‘ए’ पर 100 रुपए की उधारी है और ‘बी’ पर 200 रुपए की, तो हम ये नहीं कहते कि ‘बी’ के पास ‘ए’ से कम पैसे हैं। बल्कि हम कहते हैं कि ‘ए’ पर ‘बी’ से कम उधारी है।
इसलिए अगर हम ऋणात्मक संख्याओं का परिचय करवाने के लिए उधारी से संबंधित गतिविधि करें और 100 व 200 रुपए की उधारी को -100 व -200 के रूप में प्रदर्शित करें, तो यह कहना स्वाभाविक लगेगा कि -200, -100 से बड़ा होता है जबकि गणितीय रूप में दरअसल -200, -100 से कम या छोटा होता है।

रोज़मर्रा जीवन का यह एक ऐसा उदाहरण है जिसे ऋणात्मक संख्याओं की शरुआत करने के लिए सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है। और इसी वजह से चूंकि यह हमारे जीवन से लिया हुआ उदाहरण है इसके बारे में हम जो कहते-समझते हैं उसकी एक अपनी भाषा है - वह भाषा जो ऋणात्मक संख्याओं की गणितीय भाषा से मेल नहीं खाती।
अगर संख्याओं को एक लाइन पर दर्शाने के पीछे जीवन की परिस्थितयों को समझाने का प्रयोजन होता तो हमारी संख्या रेखा ऐसी नहीं दिखती जैसी कि यह है। इसकी बजाए स्वाभाविक होता कि हम दो संख्या रेखाएं बनाते। पहली रेखा 0, 1, 2, 3,........ आगे बढ़ती जाती - दाहिनी तरफ पूर्णांकों के रूप में लगातार बढ़ती हुई, जिस पर हम आय इत्यादि जैसी संख्याओं को दर्शाते। दूसरी रेखा -1, -2, -3,....... से शु डिग्री होकर आगे बढ़ती जाती जिस पर दाहिनी ओर लगातार ऋणात्मक संख्याएं दर्शाई जातीं जिन पर हम ‘उधारी’ प्रदर्शित कर सकते। इसी तरह हम दरअसल आय और व्यय का हिसाब रखते हैं - दो अलग-अलग खातों में।

संख्याओं को दो अलग-अलग रेखाओं पर दर्शाने से, हम इस तरह के निरपेक्ष (absolute) सवालों को दरकिनार कर सकते हैं “क्या -1, 1 से कम है?” और ऐसी स्थिति में हम केवल एक तरह की संख्याओं की ही आपस में तुलना करेंगे। 13 और 17 की तुलना करते हुए हम कह सकते हैं कि 17, 13 से बड़ा है; -13 और -17 की तुलना करते हुए हम कह सकते हैं कि -17 का मान -13 से ज़्यादा है। इस परिस्थिति में हम ऐसे सवालों की उपेक्षा कर सकते हैं कि ‘17 बड़ा है या -13?’ क्योंकि जिन संदर्भों के बारे में हम सोच रहे हैं उनमें हमें ज़रूरत नहीं लगती कि इनकी तुलना की जाए।

परन्तु गणित के दायरे में ऐसे सवाल कि ‘क्या -1, 1 से छोटा है?’ काफी महत्वपूर्ण व प्रासंगिक है, इसलिए धनात्मक व ऋणात्मक, दोनों तरह की संख्याओं को एक रेखा पर प्रस्तुत करना स्वाभाविक है। इसलिए रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से लिए हुए उदाहरण/मॉडल ऋणात्मक संख्याओं का परिचय करवाने व उन्हें समझाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
ऋणात्मक संख्याओं का एक अन्य उदाहरण जो इस्तेमाल किया जाता है वो तापमान मापने का है। उदाहरण के लिए मौसम का ब्यौरा देते हुए शून्य से नीचे के तापमान को ऋणात्मक संख्याओं से दर्शाया जाता है। - 4°c, -1°c तापमान से कम है, जो दोनों 00 क् तापमान से कम हैं। यहां पर रोज़मर्रा की सामान्य भाषा और गणित की भाषा में कोई विरोधाभास नहीं है। थर्मोमीटर में धनात्मक व ऋणात्मक (शून्य से नीचे) तापमानों को एक ही रेखा पर दर्शाया जाता है, जैसे हम धनात्मक व ऋणात्मक संख्याओं को एक ही रेखा पर दर्शाते हैं।

परन्तु इस उदाहरण को भी कक्षा में ले जाने में समस्या है। सबसे सामान्य-सी दिखने वाली समस्या तो यही है कि हिन्दुस्तान में बमुश्किल ही शून्य से कम तापमान अनुभव किया जाता है। इसलिए हमारे पास यह पता करने का (अनुभव करने का) कोई तरीका नहीं है कि -4°C, -1°C से कम है। इसलिए यह उदाहरण सचमुच में रोज़मर्रा की ज़िंदगी से लिया हुआ उदाहरण नहीं है। परन्तु असली मुश्किल तो यह है कि विभिन्न तापमान के साथ संख्याओं का संबंध मनमाना (arbitrary) है।
सैल्सियस पैमाने पर पानी के जमने का तापमान 0°C माना गया है, जबकि फैरनहाइट पैमाने पर पानी के जमने को 32°F माना गया है और उसी को केल्विन पैमाने पर 273 K यानी कि इन तीनों पैमानों पर 0 का मतलब यह नहीं है कि ‘तापमान नहीं है।’ अगर हम केल्विन पैमाने का इस्तेमाल करें तो हमें तापमान दर्शाने के लिए ऋणात्मक संख्याओं का प्रयोग करना ही नहीं पड़ेगा।

धनात्मक और ऋणात्मक संख्याओं को समझाने के लिए किताबों में रोज़मर्रा के दो-तीन अन्य उदाहरणों का इस्तेमाल किया जाता है। अक्सर ये उदाहरण एक स्थिर बिन्दु से दोनों दिशाओं में विपरीत ओर जाने पर आधारित होते हैं - जैसे कि समुद्रतल से ऊपर या नीचे की ओर की दूरी। या घर से दाएं या बाएं जाने पर दूरी। इनमें से समुद्रतल से ऊपर-नीचे जाने वाला उदाहरण ऋणात्मक संख्याओं को समझाने के लिए शायद ज़्यादा बेहतर होगा - शायद इसलिए क्योंकि वह हमारी सामान्य सांस्कृतिक मान्यताओं से मेल खाता है कि ऊपर की ओर जाने का मतलब है ऊंचा होना, ऊंचाई पर जाना जो धनात्मक है; नीचे की ओर जाने का मतलब है गहराई में जाना, नीचे जाना और इसलिए ऋणात्मक है। परन्तु दूसरी ओर इस बात पर विवाद हो सकता है कि क्या यह कहा जा सकता है कि समुद्रतल से 100 मीटर नीचे, समुद्रतल से 200 मीटर नीचे से ज़्यादा है?|

संख्याओं की क्रमबद्धता
प्राकृतिक संख्याओं के क्रम, इसलिए समस्त पूर्णांकों के क्रम में यह रूढ़ि अपनाई गई है कि अगर आपके पास दो अलग संख्याएं हों, तो छोटी संख्या को बड़ी संख्या के बाईं ओर रखा जाएगा। छोटी संख्या से बड़ी संख्या प्राप्त करने के लिए, हमें उस छोटी संख्या में धनात्मक संख्या को जोड़ना होता है। इसलिए 1, 2 के बाईं ओर होता है, 10, 15 के बाईं ओर, आदि-आदि और जैसे-जैसे हम दाहिनी ओर बढ़ते जाएं संख्याएं बड़ी होती जाती हैं।
ऋणात्मक संख्याओं के साथ भी इसी परंपरा का पालन होता है। दूसरे शब्दों में, दो ऋणात्मक संख्याओं के बीच, छोटी संख्या को बड़ी संख्या के बाईं ओर लिखा जाएगा। इसका अर्थ है कि पहले हमें मालूम होना चाहिए कि कौन-सी संख्या छोटी है और कौन-सी बड़ी। जबकि रोज़मर्रा के उदाहरणों का इस्तेमाल करते हुए धनात्मक संख्याओं के बारे में यह तय करना आसान है, जैसा कि हमने ऊपर देखा ऋणात्मक संख्याओं के संदर्भ में यह तय करना बिल्कुल भी सरल नहीं है।
अब लेख की शुरुआत में ज़िक्र किए गए सवालों में से एक को देखते हैं - “कौन-सी संख्या बड़ी है, -1 या -4?” अगर हमारे द्वारा सोचे गए उदाहरणों में से कोई भी यह सम्प्रेषित नहीं कर पाता कि -1, -4 से बड़ा है तो शिक्षक के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं बचता कि वो कह दे कि ‘-1, -4 से बड़ा है, क्योंकि -4, -1 के बाईं ओर है।’और आशा रखे कि कोई विद्यार्थी यह नहीं पूछेगा कि - 4, -1 के बाईं ओर क्यों है। क्योंकि दरअसल मामला एकदम उलटा है। -4, -1 के बाईं ओर है क्योंकि -4, -1 से छोटा है। और -4, -1 से छोटा है क्योंकि -4 से -1 प्राप्त करने के लिए हमें उसमें धनात्मक संख्या 3 जोड़नी पड़ती है। यह तर्क हमारे उस तर्क से मेल खाता है जो पहले हमने धनात्मक संख्याओं के लिए अपनाया था कि 1, 4 से छोटा है क्योंकि उसमें 3 जोड़ने पर हमें 4 मिलता है। यह तर्क बच्चों को कैसे समझाएं? इस पूरी चर्चा के बाद यही समझ में आता है कि बच्चों को पूर्णांकों की क्रमबद्धता समझाने के लिए न रोज़मर्रा की ज़िंदगी के उदाहरण काम आते हैं, और न ही शुद्ध गणितीय तर्क।

खेलों के ज़रिए
अब तक की चर्चा से ऐसा लग सकता है कि ऋणात्मक संख्याएं समझाने का कोई तरीका है ही नहीं। ऐसा भी नहीं है। हम शायद अभी भी बच्चों को उनके जीवन के ऐसे दृष्टांतों का सहारा लेकर ऋणात्मक संख्याओं से परिचय करवा सकते हैं जिनमें वे इन्हें इस्तेमाल करते हैं, इनसे सम्मुख होते हैं।
अपनी तरह से बच्चे -1 समझ पाते हैं जब भी वे किसी खेल में हार जाते हैं और अ1 जब वे जीतते हैं। हमने कक्षा छठवीं के बच्चों को एक खेल खिलाकर देखा। पासा फेंकने पर अगर उन्हें सम संख्या मिलती है तो वे जीत जाते हैं, विषम संख्या मिलने पर वे हार जाते हैं। बच्चों को छोटे समूहों में बांटा गया और प्रत्येक समूह के हर विद्यार्थी को 10 राऊंड खेलने को कहा गया। हर छात्र को अपने स्कोर का ध्यान रखना था, गिनते जाना था और अंत में हर समूह को अपने सदस्यों को सबसे ज़्यादा से सबसे कम स्कोर के क्रम में रखना था। यह देखकर हैरानी हुई कि दस राऊंड के अंत में छात्रों को अपने स्कोर की गणना करने में कोई दिक्कत नहीं आई।

अगर कोई 5 राऊंड जीता और 5 हारा तो स्पष्टत: हार-जीत आपस में कट गए और उस छात्रा को 0 स्कोर/अंक मिले। जो छात्र 7 राऊंड हारा और 3 जीता उसे -4 अंक मिले। वे समूह के सदस्यों के स्कोर को भी घटते क्रम में जमा पा रहे थे, सबसे ज़्यादा से लेकर सबसे कम अंक किसे मिले। जिसे -4 अंक मिले उसे -1 से नीचे रखा गया; स्पष्टत: ज़्यादा राऊंड हारना, मतलब कम अंक मिलना। अगर हम बच्चों के इस विवेक/सहजबुद्धि का इस्तेमाल करें तो यह समझना, आसान हो जाता है कि -1 को 0 के बाईं ओर होना चाहिए और -2 को -1 के बाईं ओर रखा जाना चाहिए आदि-आदि। और इस तरह से हमारी संख्या-रेखा का निर्माण हो जाएगा। इससे यह संभव लगता है कि कक्षा छठवीं के छात्रों को ऋणात्मक संख्याओं एवं उनके क्रम का परिचय करवाया जा सकता है - अगर हम ऐसे खेल बना सकें, डिज़ाइन कर पाएं जिनसे बच्चे एक जीवन्त रिश्ता बना सकें।

ऋणात्मक संख्याओं से क्रियाएं
चलिए अब अगले सवाल को देखते हैं “ऋणात्मक संख्याओं के साथ गणितीय क्रियाओं की शुरुआत कैसे करें?” यह एक ऐसा पहलू है जिसमें बच्चों को काफी समस्या आती है और यह स्वाभाविक भी है। सबसे पहली समस्या तो संकेतों के साथ ही है; ‘-’ का इस्तेमाल हम घटाने की क्रिया के लिए करते हैं और ऋणात्मक संख्या को दर्शाने के लिए भी, जिससे बच्चा भ्रम में फंस जाता है। ऋणात्मक संख्याओं से जूझते हुए सबसे पहली बुनियादी समस्या बच्चे के सामने आती है कि (-4-2) जैसे किसी सवाल का अर्थ क्या लगाए। जिस बच्चे ने ऋणात्मक संख्याएं सीखने की अभी शुरुआत ही की है उसे बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं होता कि (-4-2) का अर्थ होता है कि ऋणात्मक संख्या -4 में से 2 घटाना है या फिर दोनों ऋणात्मक संख्याएं हैं जिन्हें जोड़ना है। शुद्धत: गणितीय स्वरूप में -4-2 = (-4) + (-2) है या (-4) - (+2)? बच्चे अभी ये नहीं जानते कि दरअसल दोनों एक ही हैं।
दरअसल ऋणात्मक संख्याओं की पढ़ाई शु डिग्री करने पर बच्चा जो चीज़ें अब तक बहुत अच्छी तरह जानता था, उस सबमें भी गड़बड़ा जाता है।

ऋणात्मक संख्याओं का संक्षिप्त इतिहास

ऋणात्मक संख्याओं के लम्बे और समृद्ध इतिहास का संक्षिप्त विवरण देने का उद्देश्य है कि यह एहसास बने कि समीकरणों को हल करने के लिए ऋणात्मक संख्याओं का उपयोग करने में और धनात्मक संख्याओं की तरह ही ऋणात्मक संख्याओं को संख्याओं के रूप में मानने व समझने के लिए दुनिया भर के गणितज्ञों को कितने पापड़ बेलने पड़े। मज़ेदार बात है कि यह इतिहास कई सदियों और बहुत-सी संस्कृतियों से उभरता है।
ईसा पश्चात् पहली सदी में ही चीन में लोगों को यौगपदिक समीकरणों (simultaneous equations) को हल करने के लिए ऋणात्मक संख्याओं की ज़रूरत का अहसास हो गया था। वे लाल व काली छड़ों का इस्तेमाल क्रमश: धन व ऋण संख्याओं को दर्शाने के लिए करते थे। परन्तु ऋण संख्याएं उस रूप में इस्तेमाल नहीं की जाती थीं जैसे कि हम आज करते हैं; उनका इस्तेमाल केवल समीकरणों को हल करने में मदद लेने के लिए किया जाता था। उनके लिए किसी भी गणितीय समस्या का हल ऋणात्मक संख्या के रूप में नहीं हो सकता था जबकि आज हम ऋण संख्याओं वाले हल को भी मान्यता देते हैं।

ऐसा लगता है कि तीसरी सदी आते-आते ग्रीक सभ्यता में भी ऋणात्मक संख्याओं ने घुसपैठ शु डिग्री कर दी थी परन्तु उन्हें ज़्यादा तरजीह नहीं दी गई। ग्रीक गणितज्ञ डायफेन्टस का मानना था कि x+4 उ 0 जैसा समीकरण अर्थहीन है क्योंकि उसका हल x = -4 के रूप में प्राप्त होता है; यानी कि उसने ऋण संख्याओं को संख्याओं के रूप में नहीं माना। परन्तु फिर भी (x-1) (x-2) जैसी समीकरणों का सामना होने पर उसने इस नियम का इस्तेमाल किया “ऐसी संख्या जिसे घटाना है, को एक और ऐसी संख्या जिसे घटाना है से गुणा करने पर, ऐसी संख्या मिलती है जिसे जोड़ा जा सकता है।”

हिन्दुस्तान में सातवीं सदी में उधारी दर्शाने के लिए ऋणात्मक संख्याओं का इस्तेमाल किया जता था और धनात्मक संख्याएं पूंजी/सम्पत्ति दर्शाने के लिए इस्तेमाल होती थीं। जिस तरह से हम आज ऋण संख्याएं प्रयोग करते हैं, वो शायद पहली बार ब्रह्मगुप्त ने किया। उसने Diaphantine संख्याओं के हल निकालने के अपने गणितीय प्रयासों में ऋणात्मक संख्याओं का इस्तेमाल किया, और ऋण संख्याओं के साथ काम करने के समस्त नियम सामने रखे। परन्तु 12वीं सदी में एक अन्य गणितज्ञ भास्कर ने, ऋण संख्याओं का प्रयोग नामंज़ूर कर दिया क्योंकि उन्हें लोगों की मान्यता प्राप्त नहीं थी।

पश्चिमी सभ्यता में ऋणात्मक संख्याओं का उदय 15वीं सदी तक भी नहीं हुआ था। 16वीं सदी में गणितज्ञ कार्डानो ने समीकरणों के हल में ऋण संख्याओं को स्थान दिया और ऋणात्मक संख्याओं के बुनियादी सिद्धांत प्रस्तुत किए। उसने संख्या -5 को थ्र्:5 के रूप में प्रदर्शित किया। उसने भी ऋणात्मक संख्याओं का वैसा प्रयोग स्वीकार नहीं किया जैसे कि हम आज करते हैं। यहां तक कि 17वीं सदी में देकार्ते व पास्कल जैसे महान विचारक और गणितज्ञ भी ऋण संख्याओं को पूरी तौर पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। पास्कल के अनुसार 0 में से 4 घटाना अर्थहीन था, देकार्ते ने x = -5 को समीकरण का मिथ्या (false) हल बताया। इसलिए देकार्ते के अनुसार किसी समीकरण के दोनों तरह के हल हो सकते हैं - सही और मिथ्या। लगभग उसी समय एक और गणितज्ञ आर्नोल्ड ने ऋणात्मक संख्याओं के उपयोग पर यह कहते हुए सवाल उठाए कि अगर -1, 1 से कम है तो 1/-1 और -1/1 दोनों अनुपात एक समान कैसे हो सकते हैं। उसके अनुसार बड़ी संख्या से छोटी संख्या का अनुपात, छोटी संख्या से बड़ी संख्या के अनुपात से ज़्यादा होना चाहिए।

18वीं सदी में ऑयलर व मैकलॉदिन जैसे गणितज्ञों ने ऋणात्मक संख्याओं का इस्तेमाल सार्थक माना और उन्हें वैसे इस्तेमाल करने लगे जैसे लगभग हम आज करते हैं। परन्तु फिर भी ऋणात्मक संख्याओं के प्रयोग को लेकर तब भी काफी प्रतिरोध था। 18वीं सदी के एक अन्य गणितज्ञ लिबनित्ज़ आर्नोल्ड द्वारा ऋणात्मक संख्याओं के बारे में उठाई गई आपत्ति से सहमत थे हालांकि उनकी यह भी राय थी कि ऋणात्मक संख्याओं के साथ काम किया जा सकता है।

डी मोर्गन ऋणात्मक संख्याओं को काल्पनिक संख्याओं की तरह मानते थे क्योंकि (0 - 4) अकल्पनीय है। 18वीं सदी के फ्रेंच गणितज्ञ कार्नोट ऋणात्मक संख्याओं को यह कहते हुए अस्वीकार करते हैं “एकांकी (isolated) ऋणात्मक संख्याओं को प्राप्त करने के लिए यह ज़रूरी होगा कि शून्य में से प्रभावी (effective) मात्रा को घटाया जाए। परन्तु शून्य में से कुछ हटाना असम्भव है तो फिर हम एकांकी ऋणात्मक संख्या के बारे में कैसे सोच सकते हैं?” गणितज्ञों ने आज की हमारी ऋणात्मक संख्याओं की समझ की ओर शुरुआती कदम 19वीं सदी के आखिरी हिस्से में लिए। इस संदर्भ में दो लोगों का ज़िक्र लाज़मी है - हैंकल व पीकॉक। हैंकल ने ऋणात्मक संख्याओं के लिए किसी भी भौतिक मॉडल को नकार दिया, क्योंकि उसके अनुसार उनके लिए कोई भी उपयुक्त मॉडल उपलब्ध है ही नहीं। उसने ऋणात्मक संख्याओं के लिए शुद्धत: गणितीय नींव रखी और ऋणात्मक संख्याओं के गुणा के नियम प्रतिपादित किए।

पीकॉक ने सांकेतिक बीज गणित की शुरुआत करके ऋणात्मक संख्याओं के बारे में वाद-विवाद का सामना किया जिसमें (ठ्ठ-ड) जैसे समीकरणों की कोई व्याख्या हो यह ज़रूरी नहीं है। दूसरे शब्दों में, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में (6 - 4) के बहुत सारे अर्थ हो सकते हैं, परन्तु (4 - 6) केवल एक संकेत है और उसकी कोई व्याख्या हो यह ज़रूरी नहीं है।

ऋणात्मक संख्याओं से परिचय से पहले, बच्चे के लिए 6-4 का अर्थ था 6 में से 4 घटाना। पर अब उसी सवाल का अर्थ बदल जाता है। (6-4), 6 और ऋणात्मक संख्या -4 का जोड़ भी हो सकता है, और इसलिए बच्चा पशोपेश में पड़ जाता है। अब उसको भरोसा नहीं होता कि इस सवाल का जवाब 2 ही होगा क्या?

इस समस्या से बचने के लिए कुछ लेखकों ने सुझाया है कि ऋणात्मक संख्याओं को दर्शाने के लिए संख्याओं के ऊपर की तरफ बाईं ओर संकेत इस्तेमाल किया जाए, जैसे कि -2 और अ7. इस नए तरीके को अपनाने से बच्चों के लिए (-4-2) की दुविधा खत्म हो जाएगी। इसके बदले हम स्पष्ट रूप से (-4+-2) और (-4-+2) इस्तेमाल करेंगे। पहली स्थिति में हम ऋणात्मक संख्या -2 में ऋणात्मक संख्या -4 जोड़ रहे हैं और दूसरी स्थिति में हम ऋणात्मक संख्या -4 में से, धनात्मक संख्या 2 घटा रहे हैं। यह तथ्य कि दोनों ही स्थितियों में जवाब एक ही होगा, बच्चे के अपने अवलोकन से निकल सकता है - जब एक बार वो इस नए तरीके से जोड़-घटाने में पारंगत हो जाए।

जब हम दो संख्याओं को जोड़ने का नियम बनाने की कोशिश करते हैं, तब भी हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले गणितीय संकेतों की समस्या बरकरार रहती है। दो संख्याओं के जोड़ के नियम को इस तरह से लिखा जा सकता है “दो धनात्मक संख्याओं का जोड़ धनात्मक होता है, और दो ऋणात्मक संख्याओं का जोड़ ऋणात्मक होता है; अगर दोनों संख्याएं विपरीत चिन्ह वाली हों तो जोड़ धनात्मक, ऋणात्मक या शून्य हो सकता है।”
नए संकेतों में इसे इस उदाहरण से दर्शाया जा सकता है :

-4+-2 = -6
+5++7 = +12
+8+-4 = +4
-8++4 = -4
-8++8 + 0
परन्तु जो तरीका हम इस्तेमाल करते हैं उसमें इन्हें ऐसे लिखा जाएगा :
-4 - 2 = -6
5 + 7 = 12
+8 - 4 = 4
-8 + 4 = -4
-8 + 8 = 0

चूंकि इस तरीके में हम कब जोड़ रहे हैं और कब घटा रहे हैं यह व्याख्या का सवाल है, अपने आप में नियम भी भ्रामक हो जाता है। आमतौर पर तो हम नियम को परिभाषित ही नहीं करते। हम इतना भर कह देते हैं “अगर दोनों संख्याएं एक ही चिन्ह वाली हों तो संख्याओं को जोड़ दें (जिसका अर्थ है कि उनका मान जोड़ दें) और उस चिन्ह को सामने लगा दें; अगर दोनों संख्याओं के चिन्ह विपरीत हों तो छोटी संख्या को बड़ी संख्या में से घटा दें, और उसके सामने बड़ी संख्या का चिन्ह लगा दें।” हालांकि हो सकता है कि पूर्णांकों का जोड़ सिखाने का यह एक आसान तरीका हो, परन्तु सोच विचार करने वाला कोई भी बच्चा/बच्ची जिसने अभी सीखा है कि ऋणात्मक संख्या सदैव धनात्मक संख्या से छोटी होती है, इससे ज़रूर भ्रम में पड़ जाएगा, कन्फ्यूज़िया जाएगा। उसके लिए (-8+4) से सामना होने पर, -8 छोटी संख्या होगी न कि 4. हो सकता है कि इस वजह से बच्चा इसे 4-(-8) समझ ले, अगर वो इन चीज़ों को समझने के स्तर पर पहुंच चुका है। अगर ऐसा होता है तो (-8+4) का उसका जवाब 12 होगा, -4 की बजाए जो कि सही जवाब है।

इन संकेतों की वजह से बच्चों को जो समस्या आती है उसे अब कइओं ने पहचाना है। होमी भाभा सेंटर फॉर साइन्स एज्यूकेशन (HBCSE) में गणित शिक्षण पर काम करने वाले समूह ने इसे सुलझाने के लिए एक और तरीका अपनाया है। (8-3) जैसी अभिव्यक्ति के लिए वे लिखते हैं 8 -3 जहां इसमें 8 और -3 दो पद हैं। इस क्रिया का जवाब निकालने के लिए वे दोनों पदों को जोड़ देते हैं, इकट्ठा कर देते हैं। ऋणात्मक संख्याओं के लिए काले रंग के और धनात्मक संख्याओं के लिए लाल रंग के कार्ड इस्तेमाल करते हुए वे अधिकतम लाल व काले कार्ड कैन्सल कर देते हैं, जो भी बच जाता है वो इस सवाल का हल है। (8-3) वाले उदाहरण में 8 लाल कार्ड में से 3 लाल कार्ड को 3 काले कार्ड काट देते हैं, और 5 लाल कार्ड बच जाते हैं। इस तरीके से सीखने में बच्चों की प्रतिक्रिया बेहतर पाई गई है।

जोड़ने के लिए नियम के बाद, हमसे घटाने के लिए भी नियम देने की अपेक्षा होती है। इसके लिए नियम होगा, “अगर हम ऋणात्मक संख्या में से धनात्मक संख्या घटाएं तो हमें ऋणात्मक संख्या मिलेगी। अगर धनात्मक संख्या में से ऋणात्मक संख्या घटाएं तो धनात्मक संख्या मिलेगी। अगर दोनों संख्याएं विपरीत चिन्ह वाली हों तो अन्तर धनात्मक, ऋणात्मक या शून्य हो सकता है।” पहले से परेशान छठवीं कक्षा के किसी बच्चे को एक इतना जटिल नियम बताने पर उसकी हालत कैसी होती होगी यह आप समझ ही सकते हैं। खासतौर पर जब इसके बाद उसे
5 - (-7) = 12
और -5 - (-7) = 2
जैसे उदाहरणों का सामना करना पड़े।

चूंकि अवधारणात्मक रूप में ऋणात्मक संख्याएं काफी मुश्किल हैं, इसलिए उनके परिचय के पहले साल में केवल जोड़ व घटा की क्रियाओं पर ही रुक जाना चाहिए। ऋणात्मक संख्याओं के बारे में और आगे बढ़ने की बजाए गणित में जो सब तब तक पढ़ा है उसका ज़्यादा अभ्यास किया जा सकता है। परन्तु अपेक्षा होती है कि पूर्णांक संख्याओं का गुणा और भाग भी उसी सत्र में करवा देना चाहिए।
ऋणात्मक संख्या से धनात्मक संख्या के गुणा को बारम्बार किए गए जोड़ के रूप में देखा जा सकता है :
3 x (-5) = (-5) x 3 = (-5) + (-5) + (-5)

परन्तु दो ऋणात्मक संख्याओं का गुणा अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता, सिवाय एक गणितीय रचना के। और ऋणात्मक संख्या का ऋणात्मक संख्या से गुणा, धन क्यों होना चाहिए, यह स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा हो ही नहीं सकता। इसलिए हमें इसे बिना समझाए केवल एक तथ्य या नियम के रूप में बताना पड़ता है। और तब वे सीखते हैं “ऋण ऋण धन होता है” बिना इसका ज़िक्र किए कि यह किस क्रिया के बारे में कहा जा रहा है। यह सब करने के बाद हमारे पास दिग्भ्रमित बच्चों की जमात होती है जिन्हें ये नहीं मालूम कि ‘ऋण-ऋण’ ‘धन’ कब होता है।

किस स्तर पर पढ़ाना चाहिए?
हमें इस सवाल पर गौर करने की ज़रूरत है कि हमने अब तक जो देखा और ऋणात्मक संख्याओं के इतिहास के बारे में हम जो जानते हैं, उससे स्पष्ट है कि ऋणात्मक संख्याएं रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं और इसलिए वे इतनी अनिवार्य भी नहीं हैं।
परन्तु अगर हम ऋण संख्याओं के साथ गणितीय क्रियाएं कर पाएं तो उसके कुछ फायदे भी हैं। उदाहरण के लिए अगर हम 422-382 की गणना करना चाहें तो हम दोनों संख्याओं का वर्ग करने से बच सकते हैं अगर हमें यह सूत्र पता हो कि x2-y2 =(x+y) (x-y). इसका इस्तेमाल करते हुए
422-382 = (42+38) x (42-38)
= 80 x 4 = 320

अगर इस सूत्र से (422-412) का पता लगाना हो तो हमें बस (42+41) पता करना होगा, जो दोनों संख्याओं का वर्ग करके उन्हें एक दूसरे से घटाने से कहीं आसान है।
इसी तरह से अगर हम 382 की गणना करना चाहते हैं तो उसका आसान तरीका होगा कि हम (a-b)2 =a2- 2ab+b2 सूत्र इस्तेमाल करते हुए (40-2)2 की गणना कर लें।

ऐसे बहुत सारे उपयोगी सूत्र हैं जिन सबको याद करना छात्रों के लिए काफी कठिन होगा। इसके बजाए अगर हम विद्यार्थियों को समझा पाएं या सिद्ध कर पाएं कि ये सूत्र सही क्यों हैं तो छात्र खुद-ब-खुद भी सूत्र दोबारा खोज सकते हैं। परन्तु इन सूत्रों को सिद्ध करने के लिए हमें पता होना चाहिए कि ऋण संख्याओं का, ऋण व धन संख्याओं से गुणा कैसे करते हैं। उदाहरण के लिए x2-y2 = (x+y) (x-y) सूत्र में हमें पता होना चाहिए कि x गुणा -y और -y गुणा -y क्या होता है।

दूसरी तरफ यह भी तर्क दिया जा सकता है कि आजकल हर जगह केलकुलेटर इतनी आसानी से उपलब्ध हैं कि इस तरह की गणनाएं करने के लिए सूत्रों की ज़रूरत ही नहीं है। हालांकि यह सही है फिर भी सूत्र गणनाएं आसान करने के अलावा और भी बहुत कुछ करते हैं। उनके ज़रिए हम संख्याओं के बीच संबंध देख पाते हैं। अक्सर उपयुक्त सूत्र ढूंढकर इस्तेमाल करने में भी गणित का मज़ा आता है।

इस गणितीय रुचि वाली लेखिका (जो गणित को विज्ञान सीखने के लिए एक उपयोगी साधन मानती है और बच्चों के लिए मज़े का खज़ाना) को लगता है कि शुद्धत: ऐसे खेल जिनसे बच्चे रिश्ता बना पाएं, उनके ज़रिए स्कूली विद्यार्थियों को ऋणात्मक संख्याओं से परिचय करवाना संभव है। परन्तु बच्चों पर बहुत सारी अग्राह्य सामग्री थोपने से पहले कुछ बातों का ख्याल रखने की ज़रूरत है।
1. इस संदर्भ में उपयुक्त खेल सोचना और अलग-अलग उम्र के बच्चों के साथ उनका परीक्षण करना।
2. ऋणात्मक संख्याएं सिखाने के अन्य तरीकों पर और शोध की ज़रूरत।
3. इस बारे में और शोध की ज़रूरत कि बच्चे किस उम्र पर, कितने हद तक और किस तरह से ऋणात्मक संख्याओं के बारे में सीखते हैं।
4. यह संभावना टटोलना कि गणित के कुछ हिस्सों को बच्चों के लिए वैकल्पिक बनाया जा सके। सब बच्चे ज़रूर सब कुछ सीखें परन्तु यह ज़रूरी न हो कि सबको उन मुश्किल/कठिन हिस्सों की परीक्षा भी देनी हो।


जयश्री सुब्रह्मण्यम : गणित के अध्ययन और अध्यापन के पश्चात एकलव्य में गणित शिक्षण पर काम कर रही हैं, भोपाल में रहती हैं।

हिन्दी अनुवाद: राजेश खिंदरी।