लेखक :  आइज़ेक एसीमोव
हिन्दी अनुवाद - के. बी. सिंह                                                                                                                [Hindi PDF, 225 kB]

पेहले जब मैं ज़्यादातर साहित्य लिखा करता था तब कभी-कभी ऐसे मौके आते थे जब मैं अत्यंत उलझ जाता था। ऐसा लगता था जैसे मैं अपने ही लेखन में फंस गया हूं और उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा है। ऐसे हालात से उबरने के लिए मैंने एक तकनीक विकसित की थी जो निश्चित रूप से काम कर जाती थी।
मैं पिक्चर देखने चला जाता था। कोई भी पिक्चर नहीं, बल्कि मारधाड़ से भरपूर ऐसी पिक्चर जो दिमाग पर बिल्कुल ज़ोर न डाले। पिक्चर देखते समय मैं अपनी समस्या के बारे में सचेतन ढंग से सोचने से बचने की पूरी कोशिश करता था। पिक्चर से बाहर आने पर मुझे मालूम होता कि कहानी को फिर से रास्ते पर लाने के लिए मुझे क्या करना होगा। यह तकनीक कभी असफल नहीं हुई।

बहुत साल पहले, पी.एच.डी. थीसिस पर काम करते समय अपने तर्क में मुझे एक ऐसी कमी नज़र आई जो पूरे काम को चौपट कर सकती थी। यह कमी मुझे पहले नज़र नहीं आई थी। भयंकर घबराहट में मैं बॉब होप की एक पिक्चर देखने चला गया जिससे बाहर निकलने पर थीसिस में किया जाने वाला परिवर्तन मेरे ज़ेहन में आ गया था।

मेरा विश्वास है कि सोचना, सांस लेने की तरह एक दोहरी प्रक्रिया है।
अपनी इच्छा से आप सांस लेने पर नियंत्रण कर सकते हैं। आप जल्दी-जल्दी गहरी सांसें ले सकते हैं या सांस रोक सकते हैं, चाहे उस समय शरीर की आवश्यकता कुछ भी हो। हालांकि लम्बे समय तक आप ऐसा नहीं कर सकते। सीने की मांसपेशियां थक जाती हैं, शरीर अधिक या कम ऑक्सीजन के लिए तड़पने लगता है और आप विश्राम की स्थिति में आ जाते हैं। इसके बाद शरीर का स्वचालित तथा अनैच्छिक नियंत्रण स्वत: अपना काम करने लगता है और श्वसन को शरीर की आवश्यकताओं के अनुरूप कर देता है। यदि श्वसन तंत्र की कोई गड़बड़ी नहीं है तो थोड़ी देर में आप पूरा प्रकरण भूल सकते हैं। श्वसन के बारे में चिंता करने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं रहती।

आप जानबूझ कर ऐच्छिक तरीके से सोच सकते हैं, पर मेरी समझ में यह सांस लेने पर ऐच्छिक नियन्त्रण की तरह ज़्यादा प्रभावी नहीं होता है। किसी समस्या को हल करने के लिए अपने दिमाग को आप ज़बरदस्ती जोड़-घटाव के रास्ते पर ले जा सकते हैं, पर जल्द ही दिमागी खांचे तैयार हो जाते हैं और आप उन्हीं के इर्द-गिर्द सीमित रास्तों पर चक्कर लगाते रहते हैं। यदि इन रास्तों से हल नहीं मिलता है तो चाहे जितना सचेतन विचार किया जाए, उससे कोई फायदा नहीं होता।
दूसरी ओर, जब आप दिमाग को खुला छोड़ देते हैं तो वह स्वचालित अनैच्छिक नियन्त्रण के अन्तर्गत आ जाता है। ऐसी हालत में वह नए रास्ते और आश्चर्यजनक जुड़ाव खोज लेता है जिनके बारे में आप सचेतन तरीके से सोच नहीं सकते। उस समय समस्या का हल तब मिलता है, जब आप सोचते हैं कि आप सोच नहीं रहे थे।

मगर मुश्किल ये है कि सचेतन ढंग से सोचने में मांसपेशियों को कोई काम नहीं करना होता। इसके कारण शारीरिक थकावट का कोई लक्षण नहीं होता जो आपको इसे छोड़ने पर मज़बूर कर सके। साथ ही, हल ढूंढने के लिए पैदा घबराहट के कारण आप इस निरर्थक रास्ते पर चलने को मज़बूर होते हैं। प्रत्येक निरर्थक प्रयास के साथ घबराहट बढ़ती जाती है और इस प्रकार आप एक दुष्चक्र में फंस जाते हैं।
ऐसी हालत में, मेरी समझ से, विश्राम के लिए दिमाग को जानबूझकर किसी ऐसी चीज़ में लगाना चाहिए, जो इतनी पेचीदा हो कि विचार करने की ऐच्छिक क्षमताओं को रोक सके, पर इतनी सतही भी हो कि गहरे अनैच्छिक चिंतन को प्रभावित न करे। मेरे मामले में यह मारधाड़ वाली पिक्चर है, आपके मामले में कुछ और हो सकता है।
मुझे लगता है कि अनैच्छिक रूप से विचार करने की क्षमता ही वह पैदा करती है जिसे लोग ‘अंत:प्रज्ञा की कौंध’ या ‘ए फ्लेश ऑफ इन्टयूशन’ कहते हैं। मेरी समझ से यह भी बिना प्रयास के सोच का परिणाम होती है।
विज्ञान के इतिहास में संभवत: सबसे मशहूर ‘अंत:प्रज्ञा की कौंध’ ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी में साइरेक्यूज़ शहर में हुई। थोड़ा धैर्य रखें तो मैं आपको दूसरी कहानी सुनाता हूं।

आर्किमिडीज़ और यूरेका
लगभग 250 वर्ष ईसा-पूर्व साइरेक्यूज़ शहर अपने स्वर्णिम युग में था। शक्तिशाली होते रोमन साम्राज्य के संरक्षण के बावजूद इसका अपना राजा और काफी सीमा तक स्व-शासी सरकार थी। इस समृद्ध राज्य में बुद्धिजीवी खूब फल-फूल रहे थे।
यहां के राजा हेरॉन (द्वितीय) ने सोने की सिल्ली देकर सुनार को एक मुकुट बनाने का आदेश दिया। एक दुनियादार आदमी होने के नाते हेरॉन ने सावधानी से पहले सिल्ली तौली और बाद में मुकुट। दोनों का वज़न समान था। इसका मतलब काम ठीक ढंग से हुआ।
पर इसके बाद वह सोचने लगा कि कहीं सुनार ने थोड़ा सोना निकाल कर उतने ही वज़न का, पर कीमत में काफी सस्ता, तांबा न मिला दिया हो। देखने में यह मिश्र धातु भी शुद्ध सोने जैसी लगेगी पर सुनार को मेहनताने के साथ उतना अतिरिक्त सोना भी मिल जाएगा। सुनार तांबे के बदले सोना पा रहा होगा और राजा हेरॉन मज़े से ठगा जा रहा होगा।
हमारी-आपकी तरह हेरॉन भी ठगा जाना पसन्द नहीं करता था, पर वह इस ठगी का पता लगाने का कोई निश्चित तरीका नहीं जानता था। वह केवल संदेह के आधार पर तो सुनार को सज़ा नहीं दे सकता था। अब क्या किया जाए?
सौभाग्य से हेरॉन इतना खुशकिस्मत था जितना शायद ही दुनिया के इतिहास में कोई राजा रहा हो। उसका एक अत्यंत बुद्धिमान रिश्तेदार था। इस रिश्तेदार का नाम था आर्किमिडीज़, जो शायद न्यूटन के जन्म के पहले दुनिया में सर्वाधिक बुद्धिमान इंसान था।
आर्किमिडीज़ को बुलाकर उसके सामने यह समस्या रखी गई। उसे यह तय करना था कि हेरॉन का मुकुट शुद्ध सोने का था या उसमें थोड़ा तांबा मिला दिया गया था।

यदि हम उस समय आर्किमिडीज़ के मन में चले तर्क-वितर्क को सोचें तो वह कुछ इस तरह हो सकता है। सोना उस समय ज्ञात सबसे भारी पदार्थ था। आधुनिक पैमाने में उसका घनत्व 19.3 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर होता है। इसका मतलब यह हुआ कि एक निश्चित भार का सोना, उतने ही भार की किसी अन्य चीज़ के मुकाबले कम जगह घेरेगा! दरअसल समान वज़न का शुद्ध सोना, किसी भी प्रकार के अशुद्ध सोने के मुकाबले कम जगह घेरेगा, यानी उसका आयतन कम होगा।

तांबे का घनत्व 8.92 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर, यानी सोने के घनत्व का लगभग आधा है। हिसाब की आसानी के लिए, यदि हम 100 ग्राम शुद्ध सोना लें तो उसका आयतन 5.18 घन सेंटीमीटर होगा। मान लीजिए इस शुद्ध दिखने वाले सोने में केवल 90 ग्राम सोना और बाकी 10 ग्राम तांबा है। तब 90 ग्राम सोने का आयतन 4.66 घन सेंटीमीटर और 10 ग्राम तांबे का आयतन 1.12 घन सेंटीमीटर अर्थात कुल आयतन 5.78 घन सेंटीमीटर होगा।

5.18 घन सेंटीमीटर और 5.78 घन सेंटीमीटर के बीच अच्छा-खासा अन्तर है और इससे फौरन पता चल जाएगा कि मुकुट शुद्ध सोने का है या इसमें 10 प्रतिशत तांबा मिला है। (और बचा 10 प्रतिशत सोना बड़ी सफाई से सुनार की तिजोरी में पहुंच गया।)
अब बस इतना करना रह जाता है कि मुकुट का आयतन नापकर उतने ही भार के शुद्ध सोने के आयतन से उसकी तुलना कर ली जाए।
उस समय की गणित द्वारा आसान आकार वाली चीज़ों जैसे घन, गोले, शंकु, बेलन तथा आसान, नियमित और निश्चित मोटाई वाली चपटी वस्तु आदि का आयतन आसानी से निकाला जा सकता था।

हम कल्पना कर सकते हैं कि आर्किमिडीज़ ने कहा होगा, “श्रीमान, बस इतना करना है कि मुकुट को पीट-पीट कर चपटा किया जाए और उसे समान मोटाई के वर्ग की शक्ल दे दी जाए, तब मैं एक क्षण में आपकी बात का जवाब दे दूंगा।”
इस पर निश्चित रूप से हेरॉन ने मुकुट छीनकर कहा होगा, “नहीं, तुम्हें ऐसा कुछ नहीं करना है। यह सब तो मैं तुम्हारे बिना भी कर सकता हूं। मैंने भी गणित के सिद्धांत पढ़े हैं। यह मुकुट बहुत अच्छी कलात्मक कृति है और मैं इसे नष्ट नहीं करना चाहता हूं। बिना बिगाड़े तुम्हें इसका आयतन पता करना होगा।”

पर ग्रीक गणित के पास मुकुट जैसी अत्याधिक अनियमित चीज़ का आयतन निकालने का कोई रास्ता नहीं था और इन्टिग्रल कैलकुलस का उस समय आविष्कार नहीं हुआ था (और अगले लगभग 2000 साल तक होना भी नहीं था)। ऐसी हालत में आर्किमिडीज़ को कहना पड़ा होगा, “श्रीमान, बिना नष्ट किए इसका आयतन निकालने का कोई तरीका अभी तक ईज़ाद नहीं हुआ।”
इस पर हेरॉन ने आर्किमिडीज़ को परखने के लिहाज़ से कहा होगा, “ईज़ाद नहीं हुआ! तो फिर ढूंढो उसे।”
इसके बाद आर्किमिडीज़ सोचने लगे होंगे पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे होंगे। कोई नहीं कह सकता कि उन्होंने कितने समय तक या कितनी गहराई से सोचा होगा या उनके दिमाग में कैसी-कैसी परिकल्पनाएं आई-गई होंगी।
हम बस केवल इतना जानते हैं कि सोचने से थककर आर्किमिडीज़ सार्वजनिक स्नानघरों में आराम करने के विचार से पहुंचे। हम यह लगभग निश्चित रूप से कह सकते हैं कि अपनी समस्या स्नानघर तक ले जाने का उनका कोई इरादा नहीं था, क्योंकि ग्रीक महानगरों के स्नानघर इस तरह के कामों के लिए कतई उपयुक्त नहीं थे।

ग्रीक स्नानघर आराम करने और तनाव से मुक्त होने की जगह उपलब्ध करवाते थे। शहर की लगभग आधी कुलीन आबादी वहां इकट्ठा होती थी और नहाने के अलावा वहां और भी बहुत कुछ था। वे भाप-स्नान करते, मालिश करवाते, व्यायाम करते और तरह-तरह से समाजीकरण करते। हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि आर्किमिडीज़ थोड़ी देर के लिए मुकुट का झंझट भूलना चाहते थे।
कोई भी कल्पना कर सकता है कि वो वहां हल्की-फुल्की बातें कर रहे होंगे, सिकन्दरिया से कार्थेज तक की ताज़ा खबरों और शहर के ताज़ा स्कैंडलों की चर्चा में लगे होंगे, ज़मींदार रोमनों पर बने ताज़ा चुटकुलों का मज़ा ले रहे होंगे और इसके बाद उन्होंने स्वयं को एक गरम पानी वाले ऐसे टब के हवाले कर दिया होगा जिसे किसी उत्साही सहायक ने ज़्यादा ही ऊपर तक भर दिया था।

आर्किमिडीज़ के टब में घुसने पर पानी बाहर छलक गया होगा। क्या आर्किमिडीज़ ने तुरन्त ही इस पर गौर किया या फिर उन्होंने आराम की सांस लेते हुए डुबकी लगाई और थोड़ा हाथ-पैर चलाए? शायद बाद वाली बात ज़्यादा सही हो, जो भी हो उन्होंने इस बात पर गौर किया। यह तथ्य उनके दिमाग की सारी तर्क  ाृंखलाओं से जुड़ गया जो आराम के समय, ऐच्छिक विचार की तुलनात्मक मूर्खताओं से मुक्त थीं और इस प्रकार चकाचौंध कर देने वाली ‘अंत:प्रज्ञा की कौंध’ के रूप में आर्किमिडीज़ को हल मिल गया।

वे टब से कूदकर बाहर निकले और पूरी तेज़ी से साइरेक्यूज़ की सड़कों पर दौड़ते हुए अपने घर की ओर भागे। उन्होंने कपड़े पहनने की भी परवाह नहीं की। साइरेक्यूज़ की सड़कों पर आर्किमिडीज़ के नंगे भागने के विचार ने कहानी सुनने वाली दर्जनों युवा पीढ़ियों को मखौल का ज़रिया दिया होगा। पर मुझे बता देना चाहिए कि प्राचीन ग्रीक नग्नता को बहुत हल्के ढंग से लेते थे। उनके लिए साइरेक्यूज़ की सड़कों पर किसी नंगे आदमी को देखना हमारे लिए फिल्मों पर दिखने वाली नग्नता की तरह ही सामान्य बात थी।

भागते हुए आर्किमिडीज़ लगातार चिल्लाते जा रहे थे, “मुझे मिल गया! मुझे मिल गया!” अंग्रेज़ी न जानने के कारण वे बेचारे ग्रीक में चिल्लाने को मजबूर थे और इसलिए वे लगातार चिल्ला रहे थे, “यूरेका! यूरेका!”
आर्कमिडीज़ का हल इतना सरल था कि उनके द्वारा एक बार समझाए जाने के बाद हर आदमी इसे आसानी से समझ सकता था।

यदि पानी द्वारा प्रभावित न होने वाली किसी भी चीज़ को पानी में डुबोया जाता है तो वह अपने आयतन के बराबर पानी हटाती है क्योंकि दो चीज़ें एक ही समय, एक ही जगह नहीं घेर सकती हैं।
अब मान लीजिए कि आपके पास इतना बड़ा बर्तन है जिसमें मुकुट आसानी से डुबोया जा सकता है और जिसमें से छलकने वाले पानी को बाहर निकालने के लिए टोंटी लगी है।

अब सोचिए यदि बर्तन में टोंटी तक इतना पानी भर दिया जाए कि पानी का स्तर ज़रा-सा बढ़ने पर भी वह टोंटी से बाहर निकल आए।
अब इस पानी भरे बर्तन में मुकुट को सावधानी से उतारा जाता है। मुकुट के आयतन के बराबर आयतन का पानी बाहर निकलेगा जिसे एक छोटे-से बर्तन में एकत्र कर लिया जाता है। इसके बाद मुकुट के बराबर वज़न वाला शुद्ध सोने का एक टुकड़ा इसी तरह पानी में डुबाया जाता है, पानी का स्तर एक बार फिर बढ़ता है और बाहर निकलने वाले पानी को एक और छोटे बर्तन में एकत्र कर लिया जाता है।

यदि मुकुट शुद्ध सोने का है तो दोनों बार बाहर निकलने वाले पानी का आयतन समान होगा। पर यदि मुकुट की धातु में मिलावट है तो शुद्ध सोने के मुकाबले अधिक पानी बाहर निकलेगा और इसे आसानी से देखा जा सकता है।
इस तरीके में न तो मुकुट को किसी तरह का नुकसान पहुंचेगा, और न ही उस पर कोई खरोंच तक पड़ेगी। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस प्रयोग द्वारा अनजाने ही आर्किमिडीज़ ने ‘उत्प्लावन का सिद्धान्त’ खोज लिया था।

क्या मुकुट शुद्ध सोने का था? मैंने सुना है कि इसमें मिलावट पाई गई थी और सुनार को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। पर मैं इसके बारे में पूरी तरह निश्चित नहीं हूं।#
यह ‘यूरेका चमत्कार’ कितनी बार हुआ? आराम फरमाते हुए ऐसी गहरी कौंध कितनी बार सामने आती है और कितनी बार ‘मुझे मिल गया!’ की विजयी चीख हमारे मुंह से निकलती है? इस दु:खदाई दुनिया में निश्चित रूप से शुद्धतम हर्षोन्माद के क्षण होते हैं ये।

मैं चाहता हूं कि कोई ऐसा तरीका हो जिससे मैं इन सवालों के जवाब दे सकूं। मुझे संदेह है कि विज्ञान के इतिहास में ऐसा अक्सर होता रहा है। मुझे संदेह है कि ऐच्छिक विचार की शुद्ध तकनीक द्वारा बहुत थोड़ी-सी महत्वपूर्ण खोजें हुईं हैं। मेरा मानना है कि ऐच्छिक विचार संभवत: खोज की ज़मीन तैयार करता है (इतना भी है तो), पर काम को पूरा करने या इसके पीछे की असली प्रेरणा तभी आती है जब विचार अनैच्छिक नियन्त्रण के अधीन होते हैं।

पर दुनिया एक षडयंत्र के अंतर्गत इस तथ्य को छिपाती है। वैज्ञानिक तर्क के प्रति वचनबद्ध होते हैं। वे पूर्वानुमानों से परिणामों तक पहुंचने के लिए बहुत कुशलतापूर्वक काम करते हैं और इन परिणामों की जांच करने के लिए बहुत ध्यान से प्रयोगों को संगठित करते हैं - इस विधि के प्रति भी वे अत्यंत वचनबद्ध होते हैं। यदि कुछ प्रयोगों से कोई नतीजे नहीं निकलते तो उन्हें अंतिम रिपोर्ट में से छोड़ दिया जाता है। यदि कोई प्रेरक अनुमान सही ठहरता है तो भी उसे प्रेरक अनुमान की तरह नहीं लिखा जाता। इसके बजाए तथ्य से जुड़े स्वैच्छिक विचार का एक ऐसा क्रम खोजा जाता है जिस पर चल कर इस विचार तक पहुंचा जा सके, और केवल उसे ही अंतिम रिपोर्ट में दर्ज किया जाता है।

इसका नतीजा यह निकलता है कि वैज्ञानिक शोधपत्र पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति इस बात की कसम खाएगा कि मूल बिंदु से लक्ष्य तक, छोटे-छोटे टुकड़ों में, निरंतर चलकर पहुंचने के बीच ऐच्छिक विचार के अलावा और कुछ नहीं रहा है। परन्तु यह बात बिल्कुल भी सही नहीं होती।

यह कितनी शर्मनाक बात है। न केवल यह विज्ञान को उसकी अधिकांश आभा से वंचित कर देती है बल्कि, ‘अंतर्दृष्टि’, ‘प्रेरणा’ तथा ‘रहस्योद्घाटन’ जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं को रहस्यमय बना देती है।
वास्तव में वैज्ञानिक उस चीज़ को स्वीकार करने में शर्म महसूस करते हैं जिसे हम लोग रहस्योद्घाटन कह सकते हैं, जैसे इसे स्वीकार करना तर्क को धोखा देना होगा। जबकि हम जिसे रहस्योद्घाटन कहते हैं, उसका मतलब, तार्किक विचार के प्रति समर्पित जीवन वाले व्यक्ति के मन में आया ऐसा तर्कपूर्ण विचार है जो ऐच्छिक नियंत्रण में नहीं है।

आधुनिक समय में कभी-कभी हमें अनैच्छिक तर्क की झलक मिलती है और ऐसा जब भी होता है, बहुत सम्मोहक होता है। उदाहरण के लिए फ्रेडरिक अगस्ट केकुले वॉन स्टारडोनिट्ज़ का किस्सा लें।

केकुले का यूरेका! यूरेका!
लगभग सवा सौ साल पहले, केकुले के समय में, जीवित ऊतकों से संबंधित कार्बनिक अणुओं की संरचना को लेकर रसायनशास्त्रियों में गहरी उत्सुकता थी। अधिकतर अकार्बनिक अणु इस अर्थ में सरल होते हैं कि वे कुछ ही परमाणुओं से मिल कर बनते हैं। उदाहरण के लिए पानी का अणु हाइड्रोजन के दो तथा ऑक्सीजन के एक परमाणु (H2O) से मिलकर बनता है। साधारण नमक का एक अणु सोडियम तथा क्लोरीन के एक-एक परमाणु (NACl) से मिलकर बनता है, आदि।

दूसरी ओर कार्बनिक अणु आमतौर से बहुत सारे परमाणुओं से मिलकर बनते हैं। इथाइल एल्कोहल के अणु में 2 कार्बन, 6 हाइड्रोजन तथा 1 ऑक्सीजन परमाणु (C2H6O) होते हैं। इसी तरह साधारण शक्कर के एक अणु का फॉर्मूला C12H22O11 होता है। अन्य अणु और भी अधिक पेचीदा होते हैं।

इसके अलावा जहां अकार्बनिक अणुओं में परमाणुओं की संख्या और प्रकार जानना आमतौर पर काफी सरल होता है, वहीं कार्बनिक अणु के मामले में कुछ अन्य जानकारियों की भी ज़रूरत होती है। डाइमिथाइल ईथर का फॉर्मूला इथाइल एल्कोहल की तरह (C2H6O) होता है। पर इनके गुण बिल्कुल अलग होते हैं। ऐसा लगता है कि अणुओं के भीतर परमाणुओं के जुड़ने की व्यवस्था अलग-अलग होगी, पर इस व्यवस्था का पता कैसे लगाया जाए?

1852 में अंग्रेज़ रसायनशास्त्री एडवर्ड फ्रैकलैंड ने गौर किया कि किसी खास तत्व के परमाणुओं में एक निश्चित संख्या में अन्य परमाणुओं से जुड़ने की प्रवृत्ति होती है। जुड़ने की इस संख्या को ‘संयोजकता’ (वेलेन्सी) कहा गया। 1858 में केकुले ने इस अवधारणा को एक व्यवस्था में बदल दिया। उन्होंने (काफी रासायनिक साक्ष्यों के आधार पर) तय किया कि कार्बन परमाणु की संयोजकता 4, हाइड्रोजन की 1 तथा ऑक्सीजन की संयोजकता 4 होती है आदि।

क्यों न परमाणुओं को संकेतों में व्यक्त किया जाए तथा उनके साथ डैश लगाए जाएं जिनकी संख्या संयोजकता के बराबर हो। तब इन परमाणुओं को बच्चों के बहुत-से खिलौनों की तरह आपस में जोड़कर ‘संरचनात्मक फॉर्मूले’ बनाए जा सकते हैं। इस व्यवस्था के आधार पर इथाइल एल्कोहल का फॉर्मूला और डाइमिथाइल ईथर का फॉर्मूला इस प्रकार होगा।
इन दोनों में 2 कार्बन परमाणुओं में प्रत्येक के साथ 4 डैश जुड़े हैं, हाइड्रोजन के 6 परमाणु 1-1 डैश के साथ जुड़े हैं तथा ऑक्सीजन का 1 परमाणु 2 डैश के साथ जुड़ा है। ये दोनों अणु समान घटकों से बने हैं पर उनकी व्यवस्था अलग-अलग है।

केकुले का सिद्धांत अत्यंत कारगर साबित हुआ। बाद में इस सिद्धांत का काफी विस्तार हुआ तथा इसमें और गहराई आई। आज भी रसायनशास्त्र की किताबों में केकुले की रचनाओं पर आधारित फॉर्मूले पाए जाते हैं। वे असलियत का अति-सरलीकरण होते हुए भी अत्याधिक उपयोगी हैं।
1858 के बाद केकुले के संरचनात्मक फॉर्मूले बहुत-से कार्बनिक अणुओं पर लागू किए गए। संरचनाओं की समानताएं और भिन्नताएं, अणुओं के गुणों की समानताओं तथा भिन्नताओं से ठीक-ठीक मेल खाती थीं। ऐसा लगा कि कार्बनिक रसायन को तार्किक बनाने की कुंजी हाथ लग गई है।

इसके बावजूद एक चीज़ परेशान करने वाली थी। सुपरिचित रसायन बेंज़ीन इस खांचे में फिट नहीं हो रहा था। इसमें समान संख्या में कार्बन और हाइड्रोजन परमाणु माने जाते थे। इसका आणविक भार 78 था जबकि एक अकेले कार्बन-हाइड्रोजन संयोजन का आणविक भार 13 होता था। इस प्रकार बेंज़ीन अणु में 6 कार्बन-हाइड्रोजन संयोजनों को शामिल होना था तथा इसका फॉर्मूला (C6H6) माना जाता था।
समस्या यहीं से पैदा होती थी। केकुले फॉर्मूले के हिसाब से हाइड्रोकार्बनों (केवल कार्बन और हाइड्रोजन परमाणुओं से बने अणु) की कल्पना हाइड्रोजन से जुड़े कार्बन परमाणुओं की  ाृंखला के रूप में की जाती थी। यदि ‘हेक्सेन’ (Hexane) की तरह कार्बन की सारी संयोजकताएं हाइड्रोजन परमाणुओं से ही भरी जातीं तो यह इस प्रकार दिखता -

इस प्रकार के यौगिक को संतृप्त माना जाता है। ऐसे संतृप्त हाइड्रोकार्बनों में दूसरी चीज़ों से क्रिया करने की क्षमता बहुत कम पाई जाती है।
यदि कुछ परमाणुओं की संयोजकता भरी न हो तो कार्बन परमाणुओं को जोड़ने में ‘हेक्सीन’ (Hexene) की तरह द्विक-बंध यानी डबल-बांड बन जाते हैं जैसा नीचे दिखाया गया है-
हेक्सीन असंतृप्त होता है क्योंकि इसके द्विक-बंध में आसानी से खुल जाने की प्रवृत्ति होती है और यह दूसरे परमाणु को जोड़ लेता है। हेक्सीन रासायनिक रूप से सक्रिय होता है।

अगर किसी अणु में 6 कार्बन परमाणु हों तो उसके समस्त संयोजकता बंधों को भरने के लिए हाइड्रोजन के 14 परमाणुओं की ज़रूरत होगी - ताकि वह हेक्सेन की तरह निष्क्रिय बन सके। दूसरी ओर हेक्सीन में केवल 12 हाइड्रोजन होते हैं। यदि हाइड्रोजन परमाणु और कम हों तो एक से अधिक द्विक-बंध, या त्रिक-बंध भी हो सकते हैं और तब यौगिक हेक्सीन के मुकाबले और अधिक सक्रिय होगा।
इसके बावजूद बेंज़ीन जिसका फॉर्मूला क्6क्त6 है और जिसमें हेक्सेन के मुकाबले 8 हाइड्रोजन परमाणु कम हैं, पर वह हेक्सीन से भी कम सक्रिय है, जिसमें हेक्सेन के मुकाबले केवल 2 हाइड्रोजन परमाणु कम हैं। वास्तव में बेंज़ीन हेक्सेन से भी कम क्रियाशील है। ऐसा लगता है कि बेंज़ीन अणु के 6 हाइड्रोजन 6 कार्बन परमाणुओं को हेक्सेन के 14 हाइड्रोजन परमाणुओं के मुकाबले ज़्यादा संतुष्ट कर देते हैं।

कुछ लोगों को यह महत्वहीन लग सकता है। केकुले फॉर्मूला इतने अधिक यौगिकों के मामले में इतनी खूबसूरती से काम करता है कि कोई भी बड़ी आसानी से बेंज़ीन को सामान्य नियम का अपवाद बता सकता है।

पर विज्ञान अंग्रेज़ी व्याकरण नहीं है। यहां आप बड़ी आसानी से किसी चीज़ को अपवाद नहीं कह सकते हैं। यदि अपवाद सामान्य व्यवस्था में फिट नहीं होता है तो ज़रूर सामान्य व्यवस्था में कोई खामी होगी।

या फिर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने पर यह कहा जा सकता है कि यदि सामान्य व्यवस्था को अधिक विस्तार दिया जाए तो अक्सर अपवादों को उसमें फिट किया जा सकता है। आमतौर पर ऐसे विस्तार महान प्रगति का कारण बनते हैं। इस कारण भी अपवादों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

करीब सात वर्षों तक केकुले को बेंज़ीन की समस्या परेशान करती रही और वह इस पहेली को हल करने की कोशिश करते रहे कि आखिर बेंज़ीन के केवल 6 हाइड्रोजन परमाणु, 6 कार्बन परमाणुओं की  ाृंखला को कैसे संतुष्ट कर देते हैं, जबकि हेक्सीन के 12 हाइड्रोजन परमाणु यही काम नहीं कर पाते हैं। उनकी समझ में कुछ नहीं आया।

अपनी कहानी खुद सुनाते हुए वे बताते हैं कि सन् 1865 में एक दिन बेल्जियम के घेंट शहर में कहीं जाने के लिए वे एक सार्वजनिक घोड़ागाड़ी में बैठे हुए थे। वे थके-थके से थे और पत्थर की सड़क पर घोड़ों के खुरों की हल्की आवाज़ उनको लोरी जैसी लग रही थी। थोड़ी ही देर में वे गहरी अर्ध-निद्रा में चले गए।
नींद में उन्हें दिखा कि कुछ अणु एक दूसरे के साथ  शृंखला बना कर जुड़ रहे हैं और वे  शृंखलाएं घूम रही हैं। (ऐसा होता भी क्यों न? आखिरकार जागते हुए उनका दिमाग इन्हीं चीज़ों से जो भरा रहता था।) फिर एक  शृंखला इस तरह से घूमी कि उसके दोनों सिरे आपस में मिल गए और वह एक अंगूठी जैसी बन गई - और केकुले एक झटके से जाग गए।

निश्चित रूप से वे चीखे होंगे, ‘यूरेका’ क्योंकि वास्तव में उन्हें हल मिल गया था। बेंज़ीन के 6 कार्बन परमाणु  शृंखला के बजाए घेरा बनाते हैं, इसलिए उसका संरचनात्मक फॉर्मूला ऊपर बताए अनुसार होता है।
इसमें भी तीन द्विक-बंध थे, इसलिए आपको लग सकता है कि इसे अत्यंत सक्रिय होना चाहिए, पर यहां एक अन्तर है। घेरे में जुड़े परमाणुओं से  शृंखला में जुड़े परमाणुओं के मुकाबले अलग व्यवहार की अपेक्षा की जा सकती है और इसी कारण एक स्थान पर द्विक-बंधों का गुण दूसरे स्थान पर भी वैसा ही होना ज़रूरी नहीं है। कम-से-कम रसायनशास्त्री इस अनुमान पर काम करने के बाद यह जांच सकते थे कि वे विरोधाभासों में फंसते हैं या नहीं।

कोई विरोधाभास पैदा नहीं हुआ। इस व्यवस्था ने बेहद उम्दा तरीके से काम किया। पता चला कि कार्बनिक अणुओं को दो समूहों में बांटा जा सकता है- एरोमैटिक तथा एलीफैटिक। एरोमैटिक अणुओं में बेंज़ीन जैसे या ऐसे ही अन्य घेरे होते हैं जबकि एलीफैटिक में नहीं होते। दोनों समूहों में गुणधर्मों की विभिन्नता को जगह देते हुए केकुले की संरचनाएं अत्यन्त उपयोगी साबित हुईं।

लगभग 70 साल तक केकुले का दृष्टिकोण वास्तविक रासायनिक तकनीक के क्षेत्र में अच्छी तरह कारगर रहा। इसने रसायनशास्त्रियों को रासायनिक क्रियाओं के जंगल में रास्ता दिखाया और इसके कारण अनेकानेक नए अणुओं का संश्लेषण संभव हुआ। इसके बाद 1932 में लाइनस पॉलिंग ने रासायनिक संरचनाओं पर क्वान्टम यांत्रिकी को लागू किया और समझाया कि बेंज़ीन का अणु इतना खास क्यों है। इस प्रकार सिद्धान्त ने भी उसी चीज़ को सही ठहराया जो व्यवहार में पहले ही सिद्ध हो चुकी थी।
क्या दूसरे मामलों में भी ऐसा ही हुआ? निश्चित रूप से।

और भी यूरेका हैं
सन् 1764 में स्कॉट इंजीनियर जेम्स वॉट ग्लासगो विश्वविद्यालय में उपकरण-निर्माता के तौर पर काम कर रहे थे। विश्वविद्यालय ने उनसे न्यूकोमेन भाप इंजन के एक मॉडल को ठीक करने के लिए कहा। जेम्स वॉट ने बिना किसी समस्या के उसे पूरा ठीक कर दिया, पर जब यह अपनी पूरी क्षमता से काम करता था तो भी ज़्यादा कार्यकुशल नहीं था। यह काफी अक्षम था और बहुत अधिक ईंधन खर्च करता था। क्या इसे बेहतर बनाया जा सकता है?

इस समस्या पर लगातार विचार करने से उन्हें कोई मदद नहीं मिली पर एक इतवार की शाम शांतिपूर्वक, आराम से टहलते हुए इसका हल मिल गया। वॉट दो अलग चैम्बरों का मौलिक विचार लेकर घर वापस लौटे। इनमें से एक केवल भाप के लिए और दूसरा केवल ठण्डे पानी के लिए था ताकि एक ही चैम्बर को बार-बार गरम और ठण्डा करके ईंधन की अत्याधिक बर्बादी न करनी पड़े।

आयरलैण्ड के गणितज्ञ विलियम रोवेन हैमिल्टन 1843 में ‘क्वाटरनियन्स’ के सिद्धान्त पर काम कर रहे थे पर उसे पूरा नहीं कर पा रहे थे जब तक कि उनकी समझ में यह नहीं आ गया कि कुछ परिस्थितियों के अन्तर्गत pxq , qxp के बराबर नहीं होता। यह महत्वपूर्ण विचार उनके दिमाग में तब आया जब वे अपनी पत्नी के साथ शहर में घूम रहे थे।

जर्मन शरीरक्रिया विज्ञानी ओटो लुई तंत्रिका तंंत्र की कार्यप्रणाली, खासकर तंत्रिकाओं के सिरों से निकलने वाले रसायनों की क्रियाविधि का अध्ययन कर रहे थे। 1921 में एक रात वे तीन बजे जाग गए। उस समय लगातार परेशान कर रही एक महत्वपूर्ण समस्या को हल करने के लिए आवश्यक प्रयोग का विचार उनके दिमाग में बिल्कुल साफ था। उन्होंने इसे लिख लिया और फिर सो गए। सवेरे उठने पर वे अपनी प्रेरणा को याद नहीं कर पा रहे थे। उन्हें याद आया कि उन्होंने कुछ लिखा था, पर वे अपनी लिखाई को पढ़ नहीं पाए।

अगली रात वे फिर तीन बजे जाग गए और उनके दिमाग में प्रयोग का नक्शा फिर से साफतौर से उभरा। इस बार उन्होंने कोई गलती नहीं की। वे उठे, कपड़े पहने, सीधे प्रयोगशाला पहुंचे और काम शु डिग्री कर दिया। पांच बजे तक उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया था। उनके काम के नतीजे बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। बाद के वर्षों में यह इतने प्रासांगिक होते गए कि इसी कारण 1936 में चिकित्सा तथा शरीरक्रिया विज्ञान पर मिले नोबल पुरस्कार में लुई की हिस्सेदारी रही।
ऐसी घटनाएं अक्सर होती रहती हैं पर कितने शर्म की बात है कि वैज्ञानिक सचेतन विचार के प्रति इतने विश्वासी हैं कि वे परिणाम पर पहुंचने के वास्तविक तरीकों को लगातार छिपाते रहते हैं।


मूल लेख - आइज़ेक एसीमोव
हिन्दी अनुवाद - के. बी. सिंह। अनुवाद, लेखन एवं संपादन के क्षेत्र में कार्यरत। वर्तमान में त्रैमासिक पत्रिका विश्व पत्रकार सदन में सहायक संपादक हैं। लखनऊ में निवास।
यह लेख एसीमोव के संकलन ‘द एज आफ टुमॉरो’ (The Edge of Tomorrow) से साभार।