सुशील जोशी

खच्चर एक मेहनती जीव है। वह काफी बोझा ढो सकता है। खास तौर से पहाड़ी इलाकों में खच्चर सवारी के काम भी आता है। मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य और दुख हुआ कि जीव विज्ञान में इस उपयोगी चौपाए को एक प्रजाति की हैसियत भी नहीं दी गई है। दरअसल, पहले जब मैंने प्रजातियों के बारे में पढ़ा था तो मुझे ऐसा लगा था कि खच्चर एक स्वतंत्र प्रजाति है मगर धीरे-धीरे यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य साफ हुआ कि खच्चर कोई प्रजाति नहीं है। इसका सम्बन्ध जीव विज्ञान में प्रजातियों व अन्य जैविक समूहों की परिभाषा से है। तो मैंने इन परिभाषाओं का अध्ययन शुरु किया। और मैंने पाया कि मामला न सिर्फ पेचीदा है, बल्कि दिलचस्प भी है।

क्या है प्रजाति के मायने
प्रजातियों की परिभाषा के पचड़े में पड़ने से पहले एक बुनियादी बात कह देना ठीक रहेगा। जैसा कि हमेशा होता है, हर बात अरस्तू तक पहुँचे बिना मज़ा नहीं आता। दरअसल, 18वीं सदी से पहले और उसके बाद प्रजातियों की समझ में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है। अरस्तू से लेकर कार्ल लीनियस तक प्रजाति एक अपरिवर्तनीय श्रेणी थी। यह सजीवों के एक ऐसे समूह को परिभाषित करती थी जो चिर-स्थायी माना जाता था। अरस्तू मानते थे कि हर प्रजाति का एक मूल तत्व होता है। सन्तानोत्पत्ति वह क्रिया है जिसके ज़रिए यह मूल तत्व अगली पीढ़ी को सौंपा जाता है। इस तरह से देखें तो खच्चर उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी। उसमें न तो घोड़े का मूल तत्व है, न गधे का, तो फिर खच्चर का मूल तत्व क्या है?

कार्ल लीनियस, जिन्होंने सारे सजीवों को समानता के आधार पर समूहों में बाँटने का प्रयास किया था और हमें आधुनिक वर्गीकरण प्रणाली दी थी, भी मानते थे कि प्रजाति एक स्थायी समूह है। दरअसल, वे तो यह भी मानते थे कि हर प्रजाति का एक आदर्श उदाहरण होता है, बाकी सारी विविधता त्रुटि है, विचलन है।
जब जैव विकासवाद ज़ोर पकड़ने लगा तो सबसे पहली चोट प्रजाति की जड़ता पर हुई। लैमार्क ने विकास की प्रक्रिया के बारे में जो विचार दिए थे वे आज मान्य नहीं हैं मगर लैमार्क का बुनियादी योगदान यह माना जाना चाहिए कि उन्होंने प्रजातियों को सतत परिवर्तनशील समूह माना था। इसके बाद डार्विन ने तो चिर-स्थायित्व की चूलें ही हिला दीं। डार्विन ने प्रजातियों के बारे में दो बुनियादी विचार सामने रखे।

डार्विन का पहला महत्वपूर्ण विचार यह था कि एक ही प्रजाति में विविधता उसका स्वाभाविक गुण है। अर्थात् प्रजाति के सदस्यों में विविधता का पाया जाना कोई त्रुटि अथवा विचलन नहीं बल्कि प्रकृति का नियम है। यह लीनियस की समझ से एकदम विपरीत है। डार्विन ने दूसरी बात यह रखी कि प्रजातियाँ सतत परिवर्तनशील हैं और उपरोक्त विविधता ही परिवर्तन का कच्चा माल है। यानी विविधता में ही विकास के बीज हैं। डार्विन के साथ हम जीव विज्ञान में कई कदम आगे बढ़े।

आमतौर पर प्रजाति को इस तरह परिभाषित करते हैं: प्रजाति ऐसे सजीवों का समूह है जो प्राकृतिक रूप से परस्पर प्रजनन कार्य करते हैं और प्रजनन-क्षम सन्तानें उत्पन्न करते हैं। इसके साथ यह शर्त भी जुड़ी है कि वे किसी अन्य समूह के साथ संतानोत्पत्ति न करते हों। यह परिभाषा हमें अन्र्स्ट मेयर से मिली है। इसी का अपेक्षाकृत आधुनिक संस्करण यह है कि प्रजाति ऐसे सजीवों का समूह है जिनमें जिनेटिक सामग्री का प्रवाह सहजता से होता है।

कौन किस प्रजाति का सदस्य
आमतौर पर यह बताना आसान होता है कि कौन-से जीव एक ही प्रजाति के सदस्य हैं। जैसे मनुष्य एक प्रजाति है - होमो सेपिएन्स। इसी प्रकार से अमरूद, सेब, बाघ, बकरी वगैरह भी एक-एक प्रजातियाँ हैं। मगर सिर्फ देखकर इस बात का पता लगाने में धोखा हो सकता है। कई बार दो जीव एकदम एक जैसे दिखते हैं, एक ही स्थान पर रहते हैं मगर प्रजनन क्रिया की दृष्टि से अलग-अलग होते हैं। इसके विपरीत कई बार जीव बहुत अलग-अलग दिखते हैं मगर आपस में सन्तानोत्पत्ति करते हैं।

मगर ये तो व्यावहारिक समस्याएँ हैं। वैसे तो प्रजाति की इस परिभाषा को लागू करने में व्यावहारिक समस्याएँ भी काफी कठिन हैं। जैसे यह तो कदापि सम्भव नहीं होगा कि दुनिया के सारे जीवों के बारे में प्रमाण जुटाया जा सके कि वे किस-किसके साथ सन्तानोत्पत्ति कर सकेंगे। यह सही है कि आप प्राणियों की सन्दिग्ध जोड़ियों को ज़बर्दस्ती एक साथ रखकर देख सकते हैं कि वे परस्पर प्रजनन क्रिया करते हैं या नहीं। मगर इसके आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना सम्भव नहीं होगा। कारण यह है कि प्रयोग के दौरान उनके व्यवहार से यह नहीं कहा जा सकता कि प्राकृतिक रूप से मुलाकात होने पर वे क्या करेंगे। इस तरह के कुछ प्रयोग किए भी गए हैं।

वैसे प्रजातियों के बारे में निर्णय करने का एक आधार यह भी है कि क्या उनमें निषेचन प्रणाली अलग-अलग है। निषेचन प्रणाली अलग होने से आशय है कि हो सकता है कि दो समूह वर्ष में अलग-अलग समय पर प्रजनन करते हों, या अलग जगह प्रजनन करते हों, या फिर उनके प्रजननांग में तालमेल न हो आदि, आदि। यह परिभाषा खासतौर से उन प्राणियों पर लागू की जा सकती है जो एक ही भौगोलिक क्षेत्र में रहते हों या अलग-अलग क्षेत्र में रहते हों मगर शक्ल सूरत में एक जैसे हों।

प्रजनन आधार बनाम शरीर रचना
बहरहाल, व्यावहारिक दिक्कतों को छोड़ दें, तो इस परिभाषा में कुछ ज़्यादा बुनियादी दिक्कतें भी हैं।
जैसे यह परिभाषा शुद्धत दो जीवों में लैंगिक सन्तानोत्पत्ति पर टिकी है। यानी पूरी बात यह है कि जीवों का समूह-विशेष प्रजनन की दृष्टि से अन्य समूहों से अलग-थलग है। कुछ बैक्टीरिया ऐसे होते हैं जो लैंगिक प्रजनन नहीं करते। इन पर यह परिभाषा लागू करना बहुत मुश्किल है क्योंकि ऐसा हरेक बैक्टीरिया हर अन्य बैक्टीरिया से प्रजनन की दृष्टि से अलग-थलग है। तो क्या ऐसे हरेक बैक्टीरिया को एक-एक प्रजाति माना जाएगा?

वैसे बैक्टीरिया इस सन्दर्भ में एक और समस्या पेश करते हैं। यह देखा गया है कि बैक्टीरिया में (लैंगिक प्रजनन की प्रक्रिया बगैर) जैनेटिक सामग्री का लेन-देन काफी आसानी से होता है। तो सवाल यह है कि क्या हर एक-एक बैक्टीरिया एक-एक प्रजाति है या सारे बैक्टीरिया (जिनमें जैनेटिक सामग्री का लेन-देन होता है) एक ही प्रजाति के सदस्य हैं?

ऐसे प्राणियों के मामले में प्रजनन कार्य की बजाय उनकी शरीर रचना और उनकी शरीर क्रिया को ध्यान में रखना होता है। यानी आपको उनके जैव रासायनिक लक्षणों को देखना होगा। आमतौर पर इनके बारे में यह देखा जाता है कि उनका मेेज़बान यानी होस्ट कौन है या वे किन पोषक पदार्थों का उपभोग करते हैं और उनके द्वारा बनाए गए पदार्थ यानी मेटाबोलिक प्रॉडक्ट्स कौन-से हैं।

प्रजनन-आधारित परिभाषा की एक समस्या का सम्बन्ध जीवाश्मों से है। बात ऐसे प्राणियों के जीवाश्म की है जो अब धरती पर नहीं पाए जाते। जैसे डायनासौर। जब ऐसे जीवाश्म प्राप्त होते हैं तो यह पता लगाना असम्भव है कि प्राणियों के रूप में वे किन अन्य जीवाश्म प्राणियों के साथ इश्क लड़ाते होंगे। और यदि वे आज के प्राणियों से मिलें तो क्या करेंगे। तो जीवाश्मों की प्रजाति का निर्धारण करना इस परिभाषा के अनुसार कठिन है। इनके मामले में प्रजाति की विकास-आधारित अवधारणा को लागू करना होता है। मगर उसमें भी कई समस्याएँ हैं। वैसे जीवाश्मों की प्रजाति के बारे में अलग से एक लेख में विचार करना ही उचित होगा।

और हमारा खच्चर
और तीसरी समस्या हमारे बेचारे खच्चर की है। जैसा कि आप जानते ही होंगे, खच्चर नर गधे और मादा घोड़े से उत्पन्न संकर प्राणी है। यदि नर घोड़ा हो और मादा गधा हो तो खच्चर जैसा एक अन्य प्राणी (हिनी) पैदा होता है। सामान्यत:, कुदरती तौर पर, घोड़े और गधे मिलकर सन्तानोत्पत्ति नहीं करते, इसलिए वे अलग-अलग प्रजाति के सदस्य हैं। मगर इन्सान की प्रेरणा से गधे और घोड़े बच्चे पैदा करते हैं। यह प्राणी गधे और घोड़े दोनों की अपेक्षा अधिक ताकतवर होता है और ज़्यादा बोझ ढो सकता है। खच्चर में जो अतिरिक्त ताकत व सहनशीलता पाई जाती है वह संकर स्फूर्ति (हाइब्रिड विगर) का परिणाम है। जन्तुओं में ऐसे मामले कम पाए जाते हैं मगर वनस्पतियों में इस तरह के संकर काफी मिलते हैं। मगर इसकी एक विशेषता यह है कि यह सन्तान पैदा नहीं कर सकता। समस्या गुणसूत्रों के कारण पैदा होती है।

घोड़े के युग्मज (प्रजनन हेतु अर्धसूत्री विभाजन द्वारा निर्मित कोशिकाएँ) में 32 गुणसूत्र हैं जबकि गधे के युग्मज में 31 होते हैं। इनके मेल से जो कोशिका बनती है उसमें 63 गुणसूत्र होते हैं। यह खच्चर की कोशिका है। इसकी कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या विषम होती है - इसलिए अर्धसूत्री विभाजन (गुणसूत्रों का आधा-आधा बँटना) सम्भव नहीं होता। लिहाज़ा खच्चर प्रजनन-क्षम नहीं होता।

वैसे देखा गया है कि कभी-कभार, मानव हस्तक्षेप से, खच्चर गधे के साथ समागम करके बच्चे जनता है। मगर साधारण तौर पर खच्चर बच्चे पैदा नहीं कर सकता। अब प्रजाति की परिभाषा लागू कीजिए। आप पाएँगे कि खच्चर एक प्राणी तो है मगर एक प्रजाति नहीं है। घोड़ा एक्वस केबेलस है और गधा एक्वस एसिनस। इसलिए खच्चर का जीव वैज्ञानिक नाम एक्वस केबेलसअएसिनस है।

अलबत्ता, यहाँ मैंने सिर्फ यह बताने की कोशिश की है कि प्रजाति जैसी बुनियादी अवधारणा किस तरह की दिक्कतें प्रस्तुत करती है। जीव वैज्ञानिकों के लिए यह फैसला करना सदा आसान नहीं होता कि दो जीव समूहों को एक प्रजाति माना जाए या उन्हें अलग-अलग प्राजितयों में वर्गीकृत कर दिया जाए। खासतौर से प्रजातियों के विकास (स्पीशिएशन) की प्रक्रिया को समझने में यह समस्यामूलक हो जाता है।
प्रजाति के कुछ और पहलुओं की बातें फिर कभी करेंगे। जैसे अलैंगिक जीवों में प्रजाति की समस्या, जीवाश्मों की प्रजाति की समस्या वगैरह। 


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन में रुचि।