प्रेमपाल शर्मा
कहानी
मम्मी बंटी को संस्कृत पढ़ा रही हैं - ‘जगद्गुरु शंकराचार्य।’
“जगद्गुरु कैसे हो सकते हैं? सातवीं सदी में क्या हम अमेरिका जा सकते थे? इंग्लैंड जा सकते थे? तब तो अमेरिका की खोज भी नहीं हुई थी।” बंटी पढ़ाई शुरु होते ही अड़ जाते हैं।
मम्मी चुप। क्या जवाब दें?
“अच्छा, तू इधर ध्यान दे। पाँच बजने वाले हैं और अभी कुछ भी नहीं हुआ।” वे अर्थ समझाने लगीं, “बत्तीस की उम्र में शंकराचार्य भगवान में लीन हो गए।”
“लीन हो गए? मतलब?”
“यानी कि विलीन हो गए? मर गए।”
“मम्मी लीन और विलीन में क्या अन्तर है?”
“एक ही बात है। यानी कि ईश्वर में समा गए।”
“मम्मी आप भी क्या कहती हो! समा कैसे सकता है कोई?”
“तपस्या करते-करते।”
“लो, अच्छी तपस्या की। खाना नहीं खाया होगा। फैट्स खत्म हो गए होंगे। मर गए बेचारे। पागल हैं ये लोग भी। बेकार मर गए। वरना सत्तर साल जीते।”
“मजाल कि आगे बढ़ने दे। गाल बजवा लो, बस। ये क्यों? वो क्यों? चुप भी तो नहीं रह सकता। कर इसे खुद। सब बच्चे खुद करते हैं। खुद करेगा तब पता चलेगा।” वह चली गईं।
वार्षिक परीक्षा शुरु होने वाली है बंटी की। वैसे बंटी की कम, मम्मी की ज़्यादा।
“पापा, ये एग्ज़ाम होली के दिनों में ही क्यों होते हैं? पिछले साल भी इन्हीं दिनों थे।” बंटी परीक्षा से ज़्यादा होली की तैयारियों में डूबे हैं। “इस बार जिंसी को नहीं छोड़ूँगा। कह रही थी मैं बहुत सारा रंग लेकर आऊँगी। मम्मी, मैं डालता हूँ तो भों-भों करके रोने लगती है।”
बंटी आहिस्ता-आहिस्ता पैर रखते हुए आया। “पापा, एक मिनट आओ।”
“क्यों? बोलो।”
उसने होंठ पर अँगुली रखकर चुप रहने का इशारा किया। पापा पीछे-पीछे चल दिए। कोई रास्ता ही नहीं था। उसने खिड़की की तरफ अँगुली से इशारा किया, फुसफुसाते हुए, “उधर देखो।”
पापा को कुछ दिखाई नहीं दिया। उसने खुद पापा की गर्दन ऊपर-नीचे उठाई-गिराई, “वो, वो!”
“उधर है क्या?”
“धीरे। खिड़की के किनारों पर देखो न!”
“क्या है, बताओ तो।”|
“गिलहरी के बच्चे। तीन-तीन। देखो कैसे सो रहे हैं। दिखे?”
खिड़की के बीच अमरूद का पेड़ था। कई बार झाँकने के बाद दिखाई दिए तो पापा की भी आँखें खिल गईं। “कैसे मज़े से सो रहे हैं! मैंने तो पहली बार देखे।”
“गिलहरी के बच्चे! हैं ना कितने मज़ेदार, पापा! देखो उसकी पूँछ पीछे वाले के मुँह पर आ रही है।”
तभी पापा को ज़ोर की छींक आई।
“धीरे, पापा! लो एक तो जग भी गया। च्च-च्च! अब ये तीनों भाग जाएँगे। आपको भी अभी आनी थी छींक, पापा!”
पापा चाहते हैं कि कहें कि कहाँ तक याद किया पाठ, लेकिन उसकी तन्मयता देखकर उनकी हिम्मत नहीं हुई।
मम्मी इधर-उधर तलाश कर रही हैं बंटी को। “देखो, अभी यहीं छोड़कर गई थी रसोई तक। यह लड़का तो जाने क्या चाहता है। इसका ज़रा भी दीदा लगता हो? बंटी...ई...ई...।”
उनकी आवाज़ को मील नहीं तो किलोमीटर तक तो सुना ही जा सकता है। लौट-फिर कर झल्लाहट फिर पापा पर, “अपनी किताबों में घुसे रहोगे। बताओ न कहाँ गया? मुझे संस्कृत खत्म करानी है आज। इसे कुछ भी नहीं आता। तुमसे पूछकर गया था?”
“मुझसे पूछकर तो कोई भी नहीं जाता। तुम पूछती हो?”
“हाँ, अब पूछ रही हूँ। बताओ। हाय राम, मैं क्या करूँ? कल क्या लिखेगा ये टेस्ट में? इसे कुछ भी तो नहीं आता।”
“आ जाएगा। सुबह से तो पढ़ रहा है। दस मिनट तसल्ली नहीं रख सकतीं? बच्चा है। थोड़ी मोहलत भी दिया करो।”
“इसे आता होता तो मैं क्यों पीछे पड़ती। संस्कृत को भी कह रहा था कि इसे क्यों पढ़ाते हैं। क्या होगा इससे। बीजगणित भी क्यों। भूगोल भी क्यों। तो इसे घर में क्यों नहीं बिठा लेते?” वह रसोई में लौट गईं।
“मम्मी।” बंटी की आवाज़ सुनाई दी।
“आ गया न।” मम्मी रसोई से बाहर थीं। “आओ बेटा!”
लेकिन बंटी कहीं नज़र नहीं आया। “आ जा, आ जा तू! तेरी धुनाई न की तो मेरा नाम नहीं।” वह फिर वापस लौट गईं।
बंटी दीवान के नीचे ज़मीन पर चिपके थे। इतनी पतली जगह में जहाँ कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। “हमें कोई नहीं ढूँढ़ सकता और हमने आपकी सारी बातें सुन लीं। पापा से कैसी लड़ाई की आपने!”
उसकी आँखें पुस्तक पर गड़ी हैं। कुछ लिख रहा है कॉपी में, एक विश्वास के साथ। “पापा, वो छोटा-सा कुत्ता था न, वह मर गया।” एक पल उसने सिर उठाया और अपने काम में लग गया, “बेचारा गाय की मौत मरा।”
अब पापा के चौंकने की बारी थी। कुत्ते की मौत तो सुना है, गाय की मौत क्या होती है! “कैसे?”
“वैसे ही मरा जैसे गाय मरती है। लम्बी-लम्बी साँसें ले लेकर।” बंटी साँस खींच-खींचकर बताने लगा।
“तुमने कहाँ देखी गाय मरती?”
“बहुत सारी। हमारे स्कूल के पीछे जो मैदान है, उसमें। उनके मुँह से खूब झाग निकलता था। मैं और नारायण रोज़ देखते थे। पता नहीं वहाँ कौन-सी चीज़ें खाकर वे मर जाती थीं। वैटरनरी डॉक्टर भी आते थे। तब भी। वहाँ तितली भी मरी मिलती थी। अच्छा यह बताओ, यह किस चीज़ का निशान है?” उसने कॉपी के अन्तिम पन्ने पर छोटा-सा पंजा बना दिया।
पापा समझे नहीं। पढ़ाई करते-करते अचानक यह कुत्ता, गाय, तितली, निशान कहाँ से आ गए?
“मोर का! बारिश में मोर के निशान ऐसे ही होते हैं। बहुत मोर भी होते थे स्कूल के पीछे की तरफ।”
“बंटी, क्यों गप्पे हाँक रहे हो? कितना काम हुआ है? मैं आज तुझे खेलने नहीं जाने दूँगी चाहे कुछ भी हो जाए। पापा भी गप्पे मारने को पहुँच गए।”
पापा-बंटी, दोनों धम्म-से सीधे होकर बैठ गए।
“पापा, मुझे सब फोन पर बहनजी कहते हैं।” वह मुस्करा भी रहा था और बुदबुदा भी रहा था। “बताओ न क्यों?”
पापा समझे नहीं, “बताओ न, क्या हुआ?”
“मैंने अभी फोन उठाया तो उधर से आवाज़ आई - बहनजी नमस्कार। मिश्राजी हैं? सब ऐसा ही कहते हैं।”
“तो बहनजी बनने में क्या परेशानी है?”
बिट्टू ने भी उसका प्रश्न सुन लिया था। “पहले मुझसे भी बहनजी कहते थे, फिर मैंने अपनी आवाज़ मोटी की। अब कोई नहीं कहता।”
“हूँ।” बंटी ने अपनी चिरपरिचित बोली में आवाज़ निकाली, “कैसे?”
बिट्टू ऐसे किसी उत्तर के लिए तैयार नहीं था। भाग लिया। “मैं भी अगले साल टीनेज हो जाऊँगा। तब मुझे कोई बहनजी नहीं कहेगा।”
“अब पढ़ेगा भी! टीनेज हो जाएगा, पर पढ़ना-लिखना आए या न आए।” मम्मी की डाँट थी।
“आपको और कुछ आता है डाँटने के सिवाय? जब देखो तब, हर समय डाँटती रहती हैं।”
अगली सुबह इतिहास-भूगोल की परीक्षा थी। माँ इतिहास में कमज़ोर हैं, इसलिए मेरे पास छोड़ गईं। हम दोनों को गरियाते हुए, “लो, लो इसका टेस्ट। बहुत बड़े इतिहासकार बनते हो।” गुस्से, खिसियाहट का लावा जब बहता है तो न तो वह हमारे उत्तर का इन्तज़ार करती हैं और न हम उत्तर देने की हिम्मत करते हैं। बंटी को यह बात पता है। उसके चेहरे से साफ है कि उस पर इसका कोई असर नहीं है। उसे यकीन है कि पापा पर भी नहीं है
वह मेरे पास बैठा इतिहास के प्रश्नों के जवाब लिख रहा है। मेरी कई चेतावनियों के बावजूद वह पहले प्रश्न की दूसरी लाइन पर ही टिका है।
“पापा, टीकू ताऊजी हमारे घर क्यों नहीं आते?” उसकी आँखें मेरी आँखों में घुस रही हैं। “मैंने तो उन्हें कभी बोलते भी नहीं देखा। बताओ न, क्यों नहीं आते?”
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम उर्फ गदर की विफलता के कारणों में से उसके मन में यह प्रश्न उठा है उत्तर लिखते-लिखते।
“फिर बताऊँगा।”
“पहले बताओ। आप कभी भी नहीं बताते। ऐसे ही कहते रहते हो, फिर बताऊँगा! फिर बताऊँगा!”
“नहीं। इतिहास के पेपर के बाद पक्का।” पापा के पास आते ही उसे सबसे पहले मानो यह रटन्त पढ़ाई भूलती है। बंटी की भूगोल की किताबें नहीं मिल रही हैं। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। मासिक टेस्ट हो या छ:माही, किसी-न-किसी विषय की किताब तो गायब हो ही जाती है तब तक।
काफी देर से कोई आवाज़ नहीं सुनी तो मम्मी भी बेचैन होने लगती हैं। बंटी और इतनी एकाग्रता से पढ़ रहे हों?
बंटी का चेहरा उतरा हुआ है। “मम्मी किताब नहीं मिल रही।”
“अच्छा, तो तू उसी की खुसर-पुसर में लगा हुआ था! मैं कहूँ कि आज तो बड़े ध्यान से पढ़ रहा है। बंटी, हर बार तुम ऐसा ही करते हो। भइया की किताब तो कभी नहीं खोती। किताब नहीं मिली तो आज तेरी हत्या कर दूँगी! ढूँढ़।” मम्मी की आवाज़ में तैरते चाकू की समझ है बंटी में। तुरन्त दौड़कर ढूँढ़ने लग गया। डबल बेड के नीचे, सोफे की गद्दियों के नीचे, पुरानी पत्रिकाओं के पीछे। यह सभी उसकी किताबों की जगहें हैं। चप्पे-चप्पे पर। जानकर भी रखता है, अनजाने में भी। उसे जब पता चलेगा कि पापा ने इतिहास के टेस्ट के लिए कहा था तो उस दिन इतिहास की किताब रहेगी, लेकिन अगले दिन नहीं। इतिहास के टेस्ट का मुहूर्त ढलते ही इतिहास की किताब मिल जाएगी, लेकिन भूगोल की गायब। नहीं खोता तो माचिस के ढक्कन, पुराने सेल, चॉक, स्टिकर, डब्ल्यू.डब्ल्यू.ओ. के कार्ड, चॉकलेट के रैपर्स, सचिन तेंदुलकर का चित्र, पिल्लों के गले में बाँधी जाने वाली घण्टियाँ।
“बंटी, तुम पानी की टंकी की तरफ से मत जाया करो। उधर एक कुत्ता रहता है कटखना। उसने रामचन्द्रन की बेटी को काट लिया है।”
“कैसे रंग का है, मम्मी?” बंटी तुरन्त दौड़कर आ गया।
“काले मुँह का। लाल-सा।”
“वो तो मेरा सिताबी है। एक ही आवाज़ में मेरे पास आ जाता है। उसे तो मैं और एडवर्ड सबसे ज़्यादा ब्रेड खिलाते हैं।” माँ-बेटे, दोनों भूल चुके हैं किताब, टेस्ट, चेतावनी।
“मैं कहती हूँ, तुम नहीं जाओगे उधर। काट लिया तो चौदह इंजेक्शन लगेंगे इतने बड़े-बड़े, पेट में, समझे!”
बंटी पर कोई असर नहीं। उसे अपने दोस्त पर यकीन है। “मम्मीे, वो तो अभी ज़्यादा बड़ा नहीं हुआ। कल ऐनी और उसकी फ्रेंड खेल रही थीं, मम्मी! बड़ा मज़ा आया। मैंने बुलाया। टीलू...टीलू...टीलू...! और ऐनी की ओर इशारा कर दिया। बस ऐनी के पीछे पड़ गया। ऐनी भागते-भागते अपने घर में घुस गई।” बंटी का चेहरा सुबह के सूर्य-सा खिल उठता है, ऐसी हरकतों के विवरण बताते वक्त।
मम्मी को शादी में जाना है। मम्मी के तनाव मम्मी के किस्म के ही हैं। पहले इस पक्ष में सोचती रहीं कि साथ ही ले जाती हूँ बंटी को। कुछ खा-पी भी लेगा। मस्ती कर लेगा तो कल पढ़ाई भी करा लूँगी। “लेकिन, लेकर तभी जाऊँगी, जब तुम ये, ये काम कर लोगे।”
बंटी चुप रहा। जैसे कोई वास्ता ही न हो इस बात से।
“सुना कि नहीं? जब तक टेस्ट नहीं होंगे तब तक नहीं ले जाऊँगी। और लिखित में लूँगी।”
उसने ऐन वक्त पर मना कर दिया। “मैं नहीं जाता। कौन जाए बोर होने के लिए।” पापा ने भी समझाया पर नहीं माना। “मैं पढ़ता रहूँगा।” यह और जोड़ दिया।
अब आप क्या करेंगे? मम्मी की सारी योजनाएँ धरी-की-धरी रह गईं। वह जाने की तैयारी कर रही हैं। बालों को धो रही हैं, पोंछ रही हैं और बीच-बीच में बंटी को आकर देख जाती हैं - पढ़ रहा है या नहीं। ऐसे छोड़ते वक्त उनकी चिन्ता और चार गुना ज़्यादा हो जाती है। बंटी को जन्म-भर के काफी उपदेश, हिदायतें देंगी। बंटी पूरी तन्मयता से मेज़ पर बैठे हैं। उस्ताद की तरह। उसे पता है, इधर मम्मी बाहर, उधर वह। छह बज गए और मम्मी अभी तक नहीं गईं। बंटी उठे और मम्मी के सामने थे। “मम्मी, क्या कर रही हो? कैसी बदबू आ रही है?”
मम्मी क्या जवाब दें बच्चे की प्रतिक्रिया का।
“मम्मी, हमारी अँग्रेज़ी वाली मैम के पास आप चले जाओ तो बदबू के मारे नाक फट जाए। जाने कितने तरह के इत्र लगाकर आती हैं। एक दिन उन्होंने मुझे कहा कि मेरी मेज़ की दराज़ से किताब ले आओ। मम्मी, सुनो तो। उसमें इतनी चीज़ें थीं - फेयर एंड लवली, पाउडर, लिपस्टिक, जाने क्या-क्या। मम्मी, वह स्कूल में क्यों रखती हैं ये सारी चीज़ें?”
गाल रगड़ती मम्मी का मानो दम सूखता जा रहा है। “अब तू मुझे तैयार भी होने देगा? तूने काम कर लिया?”
“अभी करता हूँ न। मैंने आपको बता दिया न। मम्मी! क्योंे लगाती हैं वे इतनी चीज़ें?”
“तुझे अच्छी नहीं लगतीं?”
बंटी चुप। क्या जवाब दे।
“तेरी बहू लगाया करेगी, तो...”
“मुझे सबसे अच्छी सविता सिंह मैडम लगती हैं। उनसे बिलकुल बास नहीं आती।”
पढ़ने को छोड़कर उसे सारी बातें अच्छी लगती हैं।
“मम्मी, हमारी क्लास में एक लड़की है। वह भी 15 मार्च को पैदा हुई थी। मैं भी।”
अगले दिन पूछ रहा था। “मैं 12 बजे पैदा हुआ था न? वो साढ़े बारह बजे हुई थी।”
“तू सवा बारह बजे हुआ था।”
“हूँ! तब भी मैं 15 मिनट बड़ा तो हुआ ही न।”
इस हिसाब में उससे कोई गड़बड़ नहीं होती। गड़बड़ होती है तो स्कूल की किताबों के गणित में। “पापा, ये बीजगणित क्यों पढ़ते हैं? क्या होता है इससे?” बंटी प्रसन्नचित्त मूड में था। शायद पापा भी।
“बेटा, हर चीज़ काम की होती है। कुछ आज, कुछ आगे कभी।”
“कैसे?”
“जैसे जो आप लाभ-हानि, परसेंट के सवाल करते हो, उससे आपको बाज़ार में तुरन्त समझ में आ जाता है कि कितना कमीशन मिलेगा। कौन-सी चीज़ सस्ती है, महँगी है। बैंक में ब्याज-दर आदि। तुरन्त फायदा हुआ न? बीजगणित तब काम आएगा, जब बड़ी-बड़ी गणनाएँ करोगे, जैसे पृथ्वी से चाँद की दूरी, ध्वनि का वेग, आइंस्टाइन का फॉर्मूला...।”
बंटी की समझ में सिर्फ पहली बात ही आई है, दूसरी नहीं। चुपचाप काम में लग गया। इसलिए भी कि इससे ज़्यादा प्रश्नों पर पापा-मम्मी चीखकर, डाँटकर चुप करा देते हैं। थोड़ी देर बाद उसने फिर चुप्पी तोड़ी, “और पापा, किसी को यह सब नहीं पता करना हो तो उसके क्या काम आएगा यह सब?”
पापा के पास कोई जवाब नहीं है। “अब तुम पहले अपना होमवर्क पूरा करो।”
बीजगणित में फेक्टर्स की एक्सरसाइज़ थी। पहले प्रश्न पर ही अटका पड़ा है।
“जब तुम्हें आता नहीं तो पूछते क्यों नहीं? बोलो, हमारी परीक्षा है या तुम्हारी?” तड़ातड़ कई चाँटे पड़ गए पापा के।
बाल पकड़कर बंटी को झिंझोड़ डाला। “खबरदार! जो यहाँ से हिला भी, जब तक ये सवाल पूरे नहीं हो जाते। चकर-चकर प्रश्न करने के लिए अक्ल कहाँ से आ जाती है? जो साँस भी निकाली तो हड्डी तोड़ दूँगा।”
पापा छत पर टहल रहे हैं - अपराधबोध में डूबे। क्यों मारा? क्या मारने से पढ़ाई बेहतर होगी? और इतनी दुष्टता से! कहीं आँख पर चोट लग जाती तो? वह जल्दी रोता नहीं है। लेकिन आज कितना बिलख-बिलखकर रोया था।
“मैथ्स, मैथ्स, मैथ्स! क्या मैं मर जाऊँ? शाम को पाँच बजे से आठ बजे तक मैं पढ़ता हूँ कि नहीं? बैडमिंटन नहीं जाना, नहीं गया। कम्प्यूटर मत जाओ, वहाँ नहीं जाता। क्या दुनिया के सारे बच्चे एक जैसे होते हैं? आपको भी तो कुछ नहीं आता होगा। मारो! मारो! मेरी गर्दन क्यों नहीं काट लेते!”
बार-बार उसका चेहरा आँखों में उतर रहा है - आँसुओं से लथपथ। डरा हुआ-सा। जल्दी उठकर पढ़ने में लगा है। अलार्म लगाकर सोया था। सुबह के भुक-भुके में बरामदे से बंटी की आवाज़ आई, “पापा! देखो चाँद।”
पापा अभी भी उसकी परीक्षा के बारे में सोच रहे थे। उठकर उसके पास पहुँचे।
“इधर देखो, इधर पापा! कितना बड़ा है। पेड़ों के बीच। सीनरी ऐसी ही होती है। मैं भी बनाऊँगा ऐसी। एग्ज़ाम के बाद।”
कोई नहीं कह सकता कि रात को बंटी की पिटाई हुई है और आज उसकी परीक्षा है।
प्रेमपाल शर्मा: रेलवे बोर्ड में संयुक्त सचिव हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लम्बे समय से लेखन। शिक्षा के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि। दिल्ली में निवास।
सभी चित्र: आशुतोष भारतद्वाज: समकालीन चित्रकार हैं। एम.एस. यूनिवर्सिटी, बड़ौदा से पढ़ाई की है। बड़ौदा में रहते हैं।