राजेश खिंदरी
सदर्भ के अंक-99 में किशोर पंवार ने पौधों में प्रकाश संश्लेषण की दर पता करने के लिए प्रयोगशाला में उपलब्ध पोटोमीटर के विकल्प के रूप में अपने आसपास ढेरों की संख्या में पाई जाने वाली प्लास्टिक की बोतलों और कुछ अन्य सामान्य सामग्री का इस्तेमाल करते हुए शिक्षकों की एक कार्यशाला में जुगाड़ू पोटोमीटर बनवाने के अनुभव एवं विधि के बारे में लेख लिखा था। इस सम्बन्ध में आम तौर पर मिडिल एवं हाई-स्कूल की पुस्तकों में सुझाए जाने वाले हायड्रिला सम्बन्धित प्रयोग में काँच का बीकर, काँच की कीप और काँच की परखनली-उफननली ज़रूरी होते हैं। किशोर ने सही लिखा है कि अक्सर ये सब संसाधन स्कूल की प्रयोगशाला में पाए ही नहीं जाते, या फिर टूटी-फूटी हालत में पाए जाते हैं। इसलिए अक्सर यह प्रयोग केवल पढ़ लिया जाता है, और इसी वजह से इसके विकल्प ढूँढ़ने की ज़रूरत है।
प्रयोग सामग्री का अभाव
ऐसा ही एक अनुभव कुछ महीनों पहले हुआ जब एक राज्य की एस.सी.ई.आर.टी. ने राज्य स्तरीय स्रोत समूह तैयार करने के लिए माध्यमिक शाला में विज्ञान पढ़ रहे चयनित शिक्षकों की एक कार्यशाला आयोजित की (राज्य का उल्लेख जानबूझकर नहीं किया जा रहा है)।
आम तौर पर विभिन्न राज्यों के साथ काम करते हुए एकलव्य के विज्ञान समूह ने पाया है कि अक्सर राज्य स्तर के संस्थानों में प्रयोगशाला या प्रयोग सामग्री का न तो प्रावधान होता है, और न ही व्यवस्थाएँ। पर साथ ही यह दर्ज़ करना ज़रूरी है कि कई राज्यों में एस.सी.ई.आर.टी. के साथ जुड़े अधिकारियों एवं शिक्षकों के जोशीले समूह ज़रूर मिल जाते हैं। इस प्रशिक्षण में भी, जैसे कि विज्ञान समूह की परम्परा रही है, जिन भी अध्यायों एवं अवधारणाओं को शिक्षकों के साथ करने-करवाने की योजना थी उनके लिए ज़रूरी सामग्री की व्यवस्था पहले से कर ली गई थी। और अगर कभी अन्य सामग्री की ज़रूरत होती, तो वो जोश-भरा स्थानीय शिक्षकों का समूह हर शाम अगले दिन के लिए ज़रूरी सामग्री को भागदौड़ कर उपलब्ध करवा देता।
पर एक अध्याय जिसके लिए साधन सामग्री की व्यवस्था नहीं हो पाई थी, और जिसके बारे में एस.सी.ई.आर.टी. के उत्साही अधिकारियों ने कह रखा था कि हम कैसे भी करके इनकी व्यवस्था किसी हाईस्कूल से करवा देंगे या फिर एस.सी.ई.आर.टी. में कई सालों से बहुत सारी प्रयोग सामग्री इकट्ठी हुई है, उसमें से निकलवा देंगे - वो था यही बीकर-कीप-परखनली-हाइड्रिला वाला प्रयोग।
सामग्री की खोज-खबर
जिस दिन यह प्रयोग प्रस्तावित था उस सुबह दो-तीन स्रोत शिक्षकों ने ज़िम्मेदारी ली कि वे पास के एक तालाब का चक्कर लगाकर हाइड्रिला ढूँढ़ लाएँगे। उन्हें पूरा भरोसा था कि वहाँ पर यह जलीय वनस्पति इफरात में मिल जाएगी। विज्ञान के ऐसे प्रशिक्षणों में आम तौर पर प्रयोग सामग्री की व्यवस्था एक दिन पहले ज़रूर कर ली जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सही सामग्री उपलब्ध है और जहाँ तक सम्भव हो वे सब प्रयोग स्रोत समूह द्वारा खुद करके देख लिए जाते हैं। परन्तु शाम को सन्देश आया कि ताला-चाबी के कुछ मसले की वजह से साधन-सामग्री, जिस दिन अध्याय होना है यानी अगले दिन सुबह ही मिल पाएगी।
सुबह का सत्र शुरू होने वाला था तभी दो-तीन कार्टन में सामग्री पहुँची जिसे निकालने पर स्पष्ट था कि एक तो काफी मेहनत-मशक्कत से इसे कहीं-कहीं से जुगाड़ा गया है क्योंकि हर चीज़ पर गर्द की अच्छी खासी पर्त जमी हुई थी। कुछेक सामग्री ऐसी भी निकली जिसका कभी इस्तेमाल हुआ होगा पर फिर बिना कालिख साफ किए या रसायनों को धोए वैसे ही वापस रख दी गई। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण था कि कई सारे बीकर, कुछ परखनलियाँ और एक-दो काँच की कीप के बावजूद इनसे इस प्रयोग का एक भी सम्पूर्ण सैट तैयार नहीं हो पा रहा था - यकीन मानिए 100 से 500 मि.ली. के बीच पाँच-छह तरह की शेप-साइज़ में बीकर उपलब्ध थे, चौड़े मग से लेकर संकरे फूलदान जैसे।
वैकल्पिक सामग्री
पौधों में प्रकाश-संश्लेषण के सन्दर्भ में ऐतिहासिक प्रयोगों के बारे में चर्चा तो ज़रूर की जा सकती है और उनके आधार पर भी इससे सम्बन्धित अवधारणाओं पर गहराई से बातचीत हो सकती है परन्तु कुछ प्रयोग खुद करके देखना और उनके आधार पर राय बनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है - इसलिए पूरा स्रोत समूह जुट गया विकल्प तलाशने में ताकि कम-से-कम कुछ टोलियाँ तो इस प्रयोग को करके देख पाएँ।
यहाँ पर एक और पृष्ठभूमि आवश्यक है। चूँकि अक्सर राज्य स्तर के संस्थानों में प्रशिक्षणों के लिए और उनमें भागीदारी करने आए शिक्षकों के रहने के लिए कोई व्यवस्थित सुविधा या कैम्पस नहीं होता इसलिए पिछले कुछ सालों में देखने को मिला है कि ऐसे प्रशिक्षण आम तौर पर किसी होटल या मैरिज गार्डन आदि में आयोजित किए जाते हैं ताकि रहना, खाना और प्रशिक्षण सब व्यवस्थाएँ एक ही जगह हो जाएँ (जिससे यह भी समझ में आता है कि कम-से-कम ऐसे कामों के लिए तो आर्थिक संसाधनों की कमी नहीं है)। उपरोक्त प्रशिक्षण भी एक ऐसे ही होटल में आयोजित था इसलिए पीने के पानी के लिए रोज़ छोटे-बड़े साइज़ की ढेरों प्लास्टिक की बोतलें उस हॉल में बिखरी रहती थीं। किसी ने सुझाया कि क्यों न इन्हें इस्तेमाल करने का प्रयास किया जाए क्योंकि ये पारदर्शक हैं -- इस प्रयोग में काँच के उपकरणों की ज़रूरत पर इसलिए ज़ोर होता है क्योंकि उनमें से प्रकाश पानी के अन्दर रखी जलीय वनस्पति तक पहुँच पाए। तुरत-फुरत एक बोतल को लिया, कटर के ज़रिए उसके तीन टुकड़े किए गए - नीचे का हिस्सा बीकर के रूप में इस्तेमाल हुआ और ऊपर का कीप बन गया जिसे नीचे के हिस्से से बने बीकर में फँसाया जा सकता है। बोतल की संकरी मुँहनुमा कीप के ऊपर उल्टा करके रखने के लिए एक संकरे-लम्बे बीकर का इस्तेमाल हुआ। इस प्रारूप को बनाते समय समझ में आया कि प्लास्टिक की बोतलों को आसानी से कैसे काटा जा सकता है, ऊपर का हिस्सा कहाँ से काटना चाहिए ताकि कीप ठीक से बोतल के बीकर वाले हिस्से में फँस सके... और ऐसे सब सुझावों के साथ समस्त टोलियों को अपने-अपने उपकरण बनाने एवं सैट तैयार करने को कहा गया।
मुश्किल से आधे घण्टे के अन्दर समस्त दस समूहों ने अपनी-अपनी तरह से जुगाड़ करके एक-एक सैट बना लिया था। अब अगला चरण था इस उपकरण में पानी भरकर जलीय वनस्पति डालने का ताकि फिर पहले छाया में और फिर धूप में रखकर प्रभाव देखा जा सके। अब इसमें एक पेंच आ टपका कि हायड्रिला के नाम पर जो दो तरह के जलीय पौधे आए थे उनके बारे में सब एकमत नहीं थे कि वास्तव में हायड्रिला कौन-सा है और या फिर दोनों ही नहीं हैं। स्रोत समूह को भी इसकी बहुत अच्छी पहचान नहीं थी इसलिए तय हुआ कि कुछ टोलियाँ एक तरह के जलीय पौधे को इस्तेमाल करें और कुछ दूसरे वाले को।
बुलबुला रहित परखनली
प्रयोग सैट करने के आखिरी चरण में इस प्रयोग की सबसे महत्वपूर्ण समस्या फिर से सामने आई कि जुगाड़ू कीप के ऊपर रखी उफननली (या संकरे बीकर) में पानी कैसे भरा जाए ताकि औंधा करके रखते हुए उसमें एक भी बुलबुला न बचे। अक्सर उफननली-परखनली पर अँगूठा लगाकर उसे औंधा करके पानी से भरे बीकर में कीप की नली के ऊपर सरकाकर छोड़ना पड़ता है - परन्तु जैसे कि आप में से कई को अनुभव होगा कि यह कवायद अच्छी-खासी मुश्किल होती है और अक्सर एकाध बुलबुला परखनली-उफननली में घुस ही जाता है। और यहाँ तो हमारे पास उफननली से कहीं ज़्यादा चौड़े (फिर भी अन्य बीकरों की तुलना में) संकरे बीकर भी थे जिनमें पानी भरकर उल्टी कीप पर बिना बुलबुला घुसे औंधा करना था। तो उसके लिए भी एक नायाब तरीका ढूँढ़ निकाला गया। चूँकि इस प्रयोग में पानी का इस्तेमाल होता है इसलिए उस हॉल में दो-तीन बाल्टियों में पानी भरकर रखा हुआ था। हमारी टोली ने उस पूरे उपकरण को पानी की बाल्टी में डुबो दिया और उसी के अन्दर पूरे उपकरण को ठीक से सैट करके पूरा-का-पूरा बाहर निकाल लिया। एकदम आसानी से अंजाम दे दिया गया इस अन्तिम चरण को भी, बुलबुला अन्दर घुसने की सम्भावना ही नहीं थी। सचमुच अगर आप कभी इसे करके देखें तो हैरानी होगी कि इतनी आसानी से यह कदम सम्भव हो पाता है।
जिस-जिस टोली का उपकरण-सैट तैयार होता गया उन्होंने कुछ समय तक कमरे के अन्दर ही रहते हुए देखने की कोशिश की कि औंधी उफननली या औंधे बीकर में बुलबुले इकट्ठे हो रहे हैं क्या। जब पाया कि ऐसा नहीं हो रहा है तो सब टोलियों ने अपनी-अपनी टोली नम्बर लिखकर सैट को बाहर जाकर धूप में रख दिया। तय हुआ था कि हर आधे घण्टे बाद प्रत्येक टोली बाहर जाकर अपने सैट का अवलोकन लेगी। बाहर रखने के बाद पहले अवोलकन में ही सबने बताया कि पत्तियों की सतह पर छोटे-छोटे बुलबुले बनते, बड़े होते और फिर ऊपर की ओर उठकर कीप में से होते हुए, औंधी उफननली या उल्टे रखे बीकर में इकट्ठे होते दिख रहे हैं।
चूँकि सभी टोलियों का लगभग यही अवलोकन था इसलिए यह भी पक्का हो गया कि जलीय वनस्पतियों के दोनों नमूने इस प्रयोग के लिए उपयुक्त एवं कारगर सिद्ध हो रहे थे। तो इस तरह पौधों में प्रकाश संश्लेषण के एक जटिल प्रयोग का इस प्रशिक्षण में न सिर्फ विकल्प सामने आया, पर उस विकल्प की एक अच्छी-खासी पायलेट टेस्टिंग भी हो गई।
राजेश खिंदरी: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
इस लेख में किशोर पंवार के जिस लेख का ज़िक्र किया गया है उसका नाम है ‘प्रयोग करें वहाँ भी जहाँ पोटोमीटर और हायड्रिला न हो’ - संदर्भ अंक-99 में प्रकाशित।