जॉन टेलर गेट्टो

जॉन गेट्टो अमेरिका में करीब तीस साल शिक्षक रहे। यह लेख 1990 में, न्यू यॉर्क राज्य की सैनेट द्वारा, वर्ष के न्यू यॉर्क सिटी शिक्षक नामित किए जाने के अवसर पर दिया व्याख्यान है उनका। ऐसे कई पुरस्कारों से सम्मानित थे गेट्टो। गेट्टो का यह भाषण अमेरिका की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी है। गेट्टो का मानना है कि ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसमें एक ही किस्म की शिक्षा सभी बच्चों को दी जाती है बच्चों की विविधता को नज़रअन्दाज़ करती है। उनकी टिप्पणियाँ स्कूलों की विधि की एक कड़ी समीक्षा है। गेट्टो का यह भी विश्वास है कि अमेरिका की सार्वजनिक शिक्षा में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया सिर्फ स्कूल आधारित होने के कारण, यह बच्चों की परिवार व समुदाय से दूरी को बढ़ा रही है। गेट्टो बच्चों के स्वभाव पर ऐसी शिक्षा के असर की चर्चा भी करते हैं।

गेट्टो की ये बातें अमेरिका के जन स्कूलों यानी सार्वजनिक शिक्षा के बारे में हैं, लेकिन भारत के सन्दर्भ में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। हम भी सार्वजनिक और एक समान शिक्षा में विश्वास रखते हैं। हमारे बच्चे भी स्कूलों में ज़्यादा समय और परिवार-समुदाय में कम समय बिताते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था अमेरिका से काफी मिलती-जुलती है। जॉन गेट्टो के विचार विवादास्पद हो सकते हैं, लेकिन वे यह सोचने को प्रोत्साहित करते हैं कि हम आखिर किस किस्म के स्कूल और बच्चों का किस तरह का विकास चाहते हैं। अभिभावकों के लिए भी यह एक आह्वान है कि वे अपने बच्चों की शिक्षा में सायास शामिल हों।

में इस पुरस्कार को उन श्रेष्ठ शिक्षकों की ओर से स्वीकार करता हूँ जिन्हें मैं वर्षों से जानता हूँ और जिन्होंने बच्चों के साथ अपने व्यवहार को सम्मानीय बनाने के लिए संघर्ष किया है, स्त्री व पुरुष जो सदैव इस बात पर प्रश्न करते रहे कि ‘शिक्षा’ का क्या अर्थ होना चाहिए और इसे परिभाषित व पुनर्परिभाषित करने में हमेशा लगे रहे। वर्ष का शिक्षक, सर्वश्रेष्ठ शिक्षक नहीं होता (ऐसे लोग बहुत शान्त होते हैं और उन्हें सरलता से ढूँढ़ा नहीं जा सकता), परन्तु वे उन चन्द लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो प्रसन्नतापूर्वक अपना जीवन बच्चों की सेवा में व्यतीत कर देते हैं। यह उन्हीं का पुरस्कार है, और मेरा भी।
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हम बड़े भारी स्कूली संकट के दौर से गुज़र रहे हैं जिसका सम्बन्ध उससे भी बड़े सामाजिक संकट से है। हमारा देश उन्नीस औद्योगिक राष्ट्रों में, पढ़ने-लिखने और गणित के मामले में सबसे निचली पायदान पर है। एकदम तले पर! विश्व की नशीली अर्थव्यवस्था, हमारे द्वारा इसके उपभोग पर आश्रित है; अगर हम इतने मुलम्मा चढ़े सपनों को खरीदना बन्द कर दें, तो यह व्यापार औंधे मुँह आ गिरेगा - और स्कूल इसके प्रमुख विक्रय स्थल हैं। हमारे यहाँ किशोरों में आत्महत्या की दर दुनिया में सर्वाधिक है, और आत्महत्या करने वाले बच्चे ज़्यादातर धनाढ्य वर्ग के हैं, गरीब घरों के नहीं। मैनहटन में नए विवाहों में से सत्तर प्रतिशत पाँच वर्ष तक भी टिक नहीं पाते। अस्तु नि:सन्देह कुछ-न-कुछ गलत तो है।

यह महासंकट जिसे हम अपने स्कूलों में देख रहे हैं वह उससे भी बड़े समुदाय में व्याप्त सामाजिक संकट से जुड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमने अपनी पहचान ही खो दी है। जिस तरह से आज बच्चों और वृद्धों को दीन-दुनिया से दूर एक बाड़े में बन्द कर दिया जाता है और उसमें ताला जड़ दिया जाता है -- इस सीमा तक पहले कभी नहीं हुआ था। आजकल उनसे कोई बात तक नहीं करता और बच्चों तथा बुज़ुर्गों के दैनिक जीवन में परस्पर मेल-जोल के बगैर, न तो समुदाय का कोई भविष्य है और न ही अतीत का, केवल एक अटूट वर्तमान है। वस्तुत: ‘समुदाय’ शब्द, जिस प्रकार हम एक-दूसरे से व्यवहार करते हैं, उस पर लागू ही नहीं होता। हम ‘संजाल’ (नेटवर्क) में रहते हैं, समुदायों में नहीं और हर कोई जिसे मैं जानता हूँ, इसी कारण से एकाकी है। इस त्रासदी का प्रमुख कलाकर स्कूल है, उसी प्रकार जिस प्रकार यह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की खाई को बढ़ाने में भी एक महत्वपूर्ण किरदार है। स्कूल का छँटनी-यंत्र के समान उपयोग करके हम एक ऐसी जाति व्यवस्था की रचना कर रहे हैं, अछूतों से भरी हुई, जो भूमिगत रेलों में भटकते हुए भीख माँगते हैं और सड़कों पर सोते हैं।

तीस वर्षों के अपने अध्यापन काल में मैंने सम्मोहित करने वाली अनेकों घटनाएँ देखी हैं: स्कूल और स्कूल-प्रणाली इस ग्रह के महान उद्यम के लिए असंगत हैं। अब कोई यह विश्वास नहीं करता है कि वैज्ञानिकों को विज्ञान की कक्षाओं में प्रशिक्षित किया जाता है या राजनीतिज्ञों को नागरिकशास्त्र की कक्षाओं में या कवियों को अँग्रेज़ी की कक्षाओं में प्रशिक्षित किया जाता है। सच्चाई तो यह है कि स्कूल इस बात के अतिरिक्त और कुछ नहीं पढ़ाते कि कैसे सिर झुकाकर केवल आदेशों का पालन करना चाहिए। मेरे लिए यह महान रहस्य है क्योंकि हज़ारों उदार और फिक्रमन्द लोग स्कूल में बतौर शिक्षक और प्रबन्धक काम करते हैं लेकिन संस्थान का अव्यवहारिक तर्क उनके व्यक्तिगत योगदानों पर भारी पड़ जाता है। यद्यपि शिक्षक चिन्ता करते हैं और बहुत कड़ी मेहनत करते हैं परन्तु संस्थान मनोविकार-ग्रस्त है -- उसमें कोई आत्मा नहीं है। वहाँ एक घण्टी बजती है और एक किशोर आधी लिखी कविता को बीच में छोड़कर, अपनी कॉपी-किताब को समेटकर, दूसरी कोठरी में चला जाता है1, जहाँ उसे कण्ठस्थ करना है कि मनुष्य और बन्दरों के पूर्वज एक थे।

हमारी अनिवार्य शिक्षा पद्धति का आविष्कार मेसाच्यूसेट्स राज्य ने 1850 के आसपास किया था। इसका विरोध हुआ -- कभी-कभी बन्दूकों द्वारा -- और वह भी मेसाच्यूसेट्स की लगभग अस्सी फीसदी आबादी द्वारा। विरोधियों की अन्तिम चौकी जो केप कॉड के घुड़साल में थी, ने अपने बच्चों को 1880 के दशक तक समर्पण नहीं करने दिया था, जब क्षेत्र को सेना द्वारा कब्ज़े में लिया गया और बच्चों को सैनिकों के पहरे में स्कूल भेजा गया।

सैनेटर टेड केनेडी के कार्यालय ने कुछ समय पूर्व एक पत्र जारी करते हुए बताया था कि शिक्षा को अनिवार्य करने से पहले राज्य की साक्षरता दर अट्ठानवे प्रतिशत थी और जो बाद में इक्यानवे प्रतिशत से ऊपर कभी नहीं पहुँची, जितनी वह आज 1990 में भी है।
एक और विलक्षण बात विचारणीय है: घर पर पढ़ाने का आन्दोलन धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ इस मुकाम पर आ पहुँचा है कि आज पाँच लाख बच्चों को सम्पूर्ण शिक्षा उनके अभिभावकों द्वारा ही दी जा रही है। गत माह शिक्षा प्रेस ने एक विस्मयकारी खबर दी कि घरों में शिक्षित बच्चों की सोचने की योग्यता, उनके औपचारिक रूप से शिक्षित हम-उम्र बच्चों से पाँच से सात वर्ष आगे है।

मुझे नहीं लगता कि हमें स्कूलों से निकट भविष्य में छुटकारा मिलेगा, कम-से-कम मेरे जीवन काल में तो कदापि नहीं, परन्तु यदि हमें तीव्र गति से बढ़ते अज्ञान के प्रलय को रोकना है, तो हमें समझना होगा कि स्कूल संस्था ‘स्कूल’ तो ठीक से करती है ‘शिक्षित’ नहीं करती और यह उसकी अन्तर्निहित बनावट का दोष है। यह खराब शिक्षकों का या बहुत कम धन का दोष नहीं है। शिक्षा और स्कूलिंग का कभी भी एक ही होना नितान्त असम्भव है।
स्कूलों की संकल्पना होरेस मैन तथा कुछ अन्य लोगों द्वारा की गई थी जिनका काम भारी संख्या में जनता का वैज्ञानिक ढंग से प्रबन्धन करना था। स्कूलों का काम था सूत्रों को लागू करके सूत्रवत मानवों का उत्पादन करना, जिनके विषय में भविष्यवाणी की जा सके और जिन्हें नियंत्रण में रखा जा सके।

बड़ी हद तक स्कूल यह सब करने में सफल तो हुए, किन्तु उस राष्ट्रीय व्यवस्था में जो निरन्तर बिखर रही है, ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था जिसमें ‘सफल लोग’ ही स्वतंत्र, स्वआश्रित, आत्म-विश्वासी तथा व्यक्तिवादी हैं (क्योंकि सामुदायिक जीवन जो निराश्रितों और दुर्बलों की रक्षा करता है, वह मर चुका है और केवल उसका नेटवर्क बचा हुआ है)। स्कूल प्रणाली के उत्पाद जैसा कि मैंने कहा अप्रासंगिक हैं, वैसे ही अच्छी तरह ‘स्कूल’ किए गए लोग भी अप्रासंगिक हैं। वे फिल्म या रेज़र-ब्लेड बेच सकते हैं, कागज़ों को आगे बढ़ा सकते हैं, टेलीफोन पर बतिया सकते हैं, या बिना मतलब के टिम-टिमाते कम्प्यूटर टर्मिनल को देखते बैठे रह सकते हैं, पर बतौर मनुष्य वे किसी मतलब के नहीं हैं। न स्वयं अपने लिए किसी काम के हैं, न औरों के लिए।

हमारे इर्द-गिर्द जो दुर्दशा है, मैं सोचता हूँ, वह बहुत कुछ उन कारणों से उत्पन्न हुई है, जिसके विषय में पॉल गुडमैन ने तीस वर्ष पूर्व कहा था कि हम बच्चों को मूर्खों की भाँति बड़ा कर रहे हैं। स्कूल व्यवस्था में किसी भी सुधार के लिए ज़रूरी है कि मूर्खताओं से निपटा जाए।
यह मूर्खतापूर्ण और जीवन-विरोधी है कि हम उस व्यवस्था के अंग बने रहें जिसमें आपको आपकी ही आयु और सामाजिक वर्ग के लोगों के साथ कैद करके रखा जाए। वह व्यवस्था आपको प्रभावी ढंग से जीवन की अनन्त विविधताओं और कई प्रकार की सहक्रियाओं से पृथक कर देती है; दरअसल वह आपको अपने ही अतीत व भविष्य से काट देती है और सतत् वर्तमान में बाँध देती है, ठीक उसी तरह जैसा टेलीविज़न करता है।
यह मूर्खतापूर्ण और जीवन-विरोधी है कि घण्टी की आवाज़ होते ही आप एक कोठरी से दूसरी कोठरी में जाएँ, अपनी प्राकृतिक युवावस्था के प्रत्येक दिन ऐसे संस्थान में, जो आपको कोई निजत्व नहीं देता अपितु आपके घर तक भी आपके पीछे लगा रहता है कि आप उसका ‘होमवर्क’ करें।

आप पूछते हैं, “वे पढ़ना कैसे सीखेंगे?” और मेरा उत्तर है “मेसाच्यूसेट्स के सबक को याद करें।” जब बच्चों को पूरा जीवन दिया जाता है, न कि आयु के अनुसार बनाए गए ग्रेडों (कक्षा/क्लास) की कोठरियों में पढ़ने, लिखने और जोड़-घटाना सरलता से करना सीखने हेतु -- बशर्ते कि उन चीज़ों का उस प्रकार के जीवन में कोई मतलब हो जो उन्हें आगे गुज़ारना है।
परन्तु यह न भूलें कि संयुक्त राज्य में हर कोई भी जो पढ़-लिख सकता है या जोड़-घटाना कर सकता है, उसे कोई खास आदर नहीं मिलता। हम बकबकियों का देश हैं; हम बकबकियों को सर्वाधिक तनख्वाहें देते हैं और बकबकियों को सबसे अधिक पसन्द करते हैं। इसलिए हमारे बच्चे निरन्तर बोलते रहते हैं, यानी टेलीविज़न तथा स्कूल के शिक्षकों के मॉडल की नकल करते हैं। अब ‘बुनियादी बातों’ को पढ़ाना अत्यन्त कठिन हो गया है क्योंकि वे आज के समाज के लिए, जिसका हमने निर्माण किया है, बुनियादी नहीं रही हैं।

वर्तमान में दो संस्थान हमारे बच्चों के जीवन को बारी-बारी से नियंत्रित करते हैं: टेलीविज़न और स्कूल। ये दोनों ही बुद्धि के वास्तविक संसार को, धैर्य को, संयम और न्याय को घटाकर अन्तहीन भ्रान्तचित्तता की ओर ले जाते हैं। विगत शताब्दियों में बचपन और किशोरावस्था का समय वास्तविक कार्यों में, असली परोपकारिता में, असली साहसिक कार्यों में तथा ऐसे गुरुओं की खोज में निकल जाता था जो वह सब सिखा सकते थे जिसे तुम वास्तव में सीखना चाहो। समय का बड़ा भाग सामुदायिक खोजबीन में खप जाता था -- स्नेहाभ्यास में, मिलने-मिलाने में, समुदाय के हर स्तर को समझने में और घर कैसे बनाया जाता है एवं दर्जनों ऐसी बातों में जो पूर्ण मनुष्य होने के लिए आवश्यक हैं।
परन्तु जिन छात्रों को मैं पढ़ाता हूँ उनके समय का गणित इस प्रकार है:

प्रत्येक सप्ताह के 168 घण्टों में से मेरे बच्चे 56 घण्टे सोते हैं। इसलिए उनके पास 112 घण्टे अन्य कार्यों के लिए बचते हैं।
हालिया रिपोर्टों के अनुसार, बच्चे सप्ताह में 55 घण्टे टेलीविज़न देखते हैं। अब उनके पास बढ़ने के लिए बचे, सप्ताह में से 57 घण्टे।
मेरे बच्चे सप्ताह में 30 घण्टे स्कूल में पढ़ते हैं, इसमें आप 8 घण्टे तैयार होने, घर से स्कूल और स्कूल से घर जाने के जोड़ लें। इसके अलावा वे औसतन 7 घण्टे हर सप्ताह होमवर्क करते हैं -- कुल योग हुआ 45 घण्टे। उस समयावधि में भी वे सतत् निगरानी में रहते हैं। उनके पास कोई निजी समय या निजी स्थान नहीं होता और यदि वे उपलब्ध समय या अन्तराल का उपयोग अपनी वैयक्तिकता के लिए करने का प्रयत्न करें तो उन्हें दण्डित किया जाता है। इस तरह उनके पास सप्ताह में 12 घण्टे बचते हैं जिसके दौरान अपनी अनुपम चेतना का वे सृजन कर सकें। और हाँ, मेरे शिशु भोजन भी करते हैं और उसमें भी कुछ समय तो लगता ही है -- अधिक नहीं क्योंकि सारा परिवार एक साथ भोजन करे, यह परम्परा तो अब खत्म हो चुकी है, किन्तु यदि हम उन्हें सप्ताह में 3 घण्टे शाम के भोजन के लिए आवंटित करें, तो हम हर बच्चे को सप्ताह में 9 घण्टों का निजी समय देते हैं।

क्या यह पर्याप्त है? किन्तु बच्चा जितना अमीर होगा, उतनी ही कम टी.वी. वह देखेगा। पर धनवान शिशु का समय भी उतनी ही संकीर्णता से ‘कॉमर्शियल एंटरटेनमेंट’ के विस्तृत केटलॉग द्वारा निर्धारित किया जाता है तथा उन्हें ऐसे निजी अध्ययन की  ाृंखला अपरिहार्य रूप से दी जाती है जिसमें शायद ही उसकी रुचि होती हो।
परन्तु ये गतिविधियाँ आश्रित मानवों को तैयार करने के उपाय-भर हैं, जो अपने घण्टों को खुद नहीं भर सकते, ऐसे कोई तरीके ईज़ाद नहीं कर सकते जो उनके अपने ही अस्तित्व को महत्व और आनन्द दें, उनका अर्थ बतलाएँ। यह एक राष्ट्रीय रोग है, यह निर्भरता और उद्देश्यहीनता, और मेरे विचार से स्कूल प्रणाली, टेलीविज़न और स्कूल से इतर चलने वाली विभिन्न कक्षाओं की इसमें अहम भूमिका है।
उस परिदृश्य पर नज़र डालिए जो हमारी एक राष्ट्र के रूप में हत्या कर रहा है - नशीले पदार्थ, बुद्धिशून्य प्रतियोगिताएँ, मनोरंजन के नाम पर सेक्स, हिंसा और अश्लीलता, जुआ और शराब -- और सबसे गन्दे कामोद्दीपक चित्र व लेख -- जीवन जो वस्तुओं को क्रय करने में बीत रहा है, संचय अब दर्शन हो गया है। ये सब निर्भर व्यक्तित्वों की लते हैं और यही वह सब है जिसका हमारे स्कूल नाम की ब्राण्ड को उत्पादन करना है।

में आपको बतलाना चाहता हूँ कि हमने अपने बच्चों से उनका जो समय छीन लिया है, उसका उन पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है -- वह समय जो उन्हें बढ़ने के लिए चाहिए -- और हम हैं कि उन्हें मजबूर कर रहे हैं कि वे अमूर्त बातों पर उसे खर्च करें। आपके लिए यह सुनना आवश्यक है, क्योंकि कोई भी सुधार जो इन विशिष्ट मनोविकृतियों पर प्रहार नहीं करता, वह दिखावे के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
1.जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ वे वयस्कों की दुनिया के प्रति उदासीन हैं। यह सहस्त्रों वर्षों के अनुभव की अवमानना है। बड़े लोग क्या करते हैं इसका सूक्ष्म अध्ययन किसी समय किशोरों को सबसे अधिक प्रोत्साहित करता था, पर आज कोई भी बच्चों के बढ़ने में रुचि नहीं रखता है -- और-तो-और खुद बच्चे भी नहीं -- और कौन उन पर दोष मढ़ सकता है? हम खुद भी तो खिलौने हैं।
2.जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ उनमें अत्यल्प कौतूहल है, और जो लेशमात्र है वह भी क्षणिक। वे देर तक एकाग्रचित्त नहीं रह सकते, उन चीज़ों में भी नहीं जिन्हें उन्होंने चुना था। क्या आप कक्षाओं को बदलने के लिए बार-बार बजने वाली घण्टियों और ध्यान भंग होने की घटना के बीच कोई सम्बन्ध देखते हैं?

3.जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ उनमें भविष्य को समझने की क्षमता बहुत कम है कि कल किस तरह आज से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। जैसा कि मैं अभी कह चुका हूँ, वे निरन्तर वर्तमान में रहते हैं; जिस सटीक समय में वे अभी हैं वही उनकी चेतना की सीमा है।
4.जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ, उन्हें इतिहास का ज्ञान नहीं है। वे नहीं समझते कि किस तरह अतीत उनके अपने वर्तमान का पूर्व-निर्धारण कर देता है, उनके विकल्पों की सीमाएँ बाँध देता है, उनके मूल्यों और जीवन को आकार देता है।
5.जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ वे एक-दूसरे के प्रति क्रूर हैं, उनमें दुर्भाग्य के लिए कोई संवेदना नहीं है, वे कमज़ोरियों पर हँसते हैं और वे उनसे घृणा करते हैं जिनकी सहायता की आवश्यकता साफ दिखाई देती है।
6.जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ वे घनिष्ठता तथा स्पष्टवादिता में असहज महूसस करते हैं। वे असली घनिष्ठता के साथ व्यवहार नहीं कर सकते क्योंकि उनकी जन्म से ही रहस्यों को अपने मन में छिपा कर रखने की आदत पड़ गई है। वह मन जो स्थूल बाहरी व्यक्तित्व के अन्दर है जो उन कृत्रिम टुकड़ों और कतरों से बना है, जिन्हें टेलीविज़न से उधार लिया जाता है या शिक्षकों के साथ चालाकी करने हेतु प्राप्त किया जाता है। इसलिए क्योंकि वे वो नहीं हैं जिनका वे प्रतिनिधित्व करने से मालूम पड़ते हैं, घनिष्ठता के सामने छद्मवेश छिप नहीं पाता, इसलिए घनिष्ठ सम्बन्धों से बचना ही लाज़मी है।

7.जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ वे भौतिकवादी हैं, अपने स्कूल शिक्षकों का अनुसरण करते हैं, जो हर बात को भौतिकवादी ढंग से वर्गीकृत करते हैं और टेलीविज़न के सलाहकारों का अनुसरण करते हैं जो संसार की हर वस्तु बेचते हैं।
8.जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ, वे पर-निर्भर, निष्क्रिय तथा नई चुनौतियों के सामने भी डिग्री और कायर हैं। यह भीरूता ऊपर से दिखावटी बहादुरी से ढँकी रहती है या क्रोध या आक्रामकता के रूप में प्रकट होती है, किन्तु अन्दर से साहसहीनता का शून्य (वैक्युम) है।
यदि इस राष्ट्रीय गिरावट को रोकना है तो मैं कुछ और स्थितियों के बारे में बतला सकता था जिनका निपटारा स्कूल सुधार के हित में करना होगा किन्तु आप अब तक मेरे सिद्धान्त को समझ गए होंगे, चाहे उससे आप सहमत हों या न हों। या तो स्कूलों ने इन मनोविकारों को पैदा किया है, या टेलीविज़न ने, या दोनों ने। यह गणित की सरल विधि है - स्कूल और टेलीविज़न के बीच, बच्चों का सारा समय खा लिया गया। बच्चों के तज़ुर्बे के लिए कोई समय बचा ही नहीं है।

क्या किया जा सकता है? सर्वप्रथम हमें एक ज़बरदस्त राष्ट्रीय बहस की ज़रूरत है, जो बन्द न हो, दिन-ब-दिन, साल-दर-साल, ऐसी अटूट बहस जिसे पत्रकारिता में उबाऊ माना जाता है। हमें स्कूल नामक वस्तु पर तब तक चीखने, चिल्लाने, तर्क करने की आवश्यकता है, जब तक कि समस्या का हल न मिल जाए या वो ऐसी टूट जाए कि दोबारा सुधारी ही न जा सके। इस पार या उस पार। यदि हम इसे ठीक कर सकें तो उससे बेहतर कुछ नहीं। यदि न सुधार सके तो ‘होम स्कूलिंग’ (घर पर शिक्षा) एक अलग रास्ता दर्शाती है जो सम्भावनाओं से भरपूर है। जो धन अभी हम स्कूल प्रणाली पर उड़ेल रहे हैं, उसे परिवार-शिक्षा की ओर मोड़ दें तो एक ही दवा से दो रोगों का उपचार हो जाएगा, परिवार की दुरुस्ती और बच्चों की दुरुस्ती।

ईमानदारी से किया जाने वाला सुधार सम्भव है, पर उस पर कोई लागत नहीं आनी चाहिए। स्कूल जैसे रूग्ण संस्थान पर और अधिक धन खर्च करना तथा लोगों को झोंकना उसे और अधिक बीमार बना देगा। हमें स्कूल प्रणाली की बुनियादी तार्किकता पर पुनर्विचार करना होगा और तय करना होगा कि वह क्या है जो हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे सीखें, और क्यों सीखें। पिछले 140 साल से इस राष्ट्र ने ‘विशेषज्ञों’ को रखकर बनाए गए निर्देश देने वाले केन्द्रों के ज़रिए उद्देश्यों को नीचे की ओर सब पर थोपा है। और अभिजात वर्ग के ये ‘विशेषज्ञ’ सोशल इंजिनियरिंग के ज़रिए वहाँ तक पहुँच जाते हैं। यह ढाँचा चल नहीं पाया है। यह चलेगा नहीं। और यह उस लोकतंत्रीय संकल्प से की गई सबसे बड़ी वादाखिलाफी है जिसने कभी राष्ट्र को कुलीन प्रयोग बनाया था। प्लेटो (अफलातून) के रिपब्लिक को पूर्वी यूरोप में रचने का रूस के प्रयास का विस्फोट हमने अपनी आँखों से देखा; हमारी अपनी उसी तरह की केन्द्रीय रूढ़िवादिता को, स्कूलों को माध्यम के रूप में उपयोग करके लागू करने की कोशिश की सिलाई भी उधड़ रही है, अलबत्ता अत्यन्त ही धीमी गति से और बहुत अधिक कष्ट देते हुए। यह आगे चल ही नहीं सकता क्योंकि उसका मूलाधार ही यांत्रिक, अमानवीय और पारिवारिक जीवन का विरोधी है। मशीनी शिक्षा से ज़िन्दगियों को नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन वे सामाजिक विकृति, मादक वस्तुओं, हिंसा, आत्म-विनाश, उदासीनता तथा उन लक्षणों से पलटवार करेगी जो मैं उन बच्चों में देख रहा हूँ जिन्हें मैं पढ़ाता हूँ।

जब समय आ गया है कि हम पीछे की ओर देखें, एक ऐसे शैक्षणिक दर्शन को दोबारा पाने के लिए जो कारगर हो। एक जिसे मैं विशेष तौर पर पसन्द करता हूँ, यह यूरोप के शासक वर्गों की सहस्त्रों वर्षों तक पसन्दीदा व्यवस्था थी। मैं उसका अपने अध्यापन में जितना हो सके उपयोग करता हूँ, अर्थात् वर्तमान अनिवार्य स्कूल पद्धति नामक संस्थान के बावजूद, जो कुछ कर सकता हूँ। मैं सोचता हूँ कि यह निर्धन बच्चों के लिए भी उतनी ही कारगर होती है जितनी धनाढ्य बच्चों पर।
इस अभिजात्य शिक्षा प्रणाली का सारतत्व यह है कि स्वयं अर्जित ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान का एकमात्र आधार है। इस प्रणाली में हर स्थान पर, हर आयु में आपको ऐसी पद्धति मिलेगी जहाँ बच्चों को बिना किसी मार्गदर्शक के अकेले छोड़ दिया जाता है ताकि वे समस्या से खुद से निपटें। कभी-कभी समस्या खतरनाक भी होती थी, जैसे घोड़े को दौड़ाना या उसे उछलने को बाध्य करना, किन्तु वह ऐसी समस्या थी जिसे हज़ारों बच्चे दस वर्ष की उम्र से पहले ही निपटा लेते थे। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी ने ऐसी चुनौती पर जीत हासिल की हो अगर उसमें अपनी योग्यता के प्रति आत्मविश्वास न हो? कभी-कभी समस्या यही होती है कि एकाकीपन की समस्या का समाधान कैसे करें, जैसा कि थोरो2 ने वॉल्डन पॉण्ड में या आइन्स्टाइन ने स्विट्ज़रलैंड के कस्टम हाउस में किया था।

अभी हो यह रहा है कि हम अपने बच्चों से सारा समय छीन लेते हैं जिसकी उन्हें आत्म-ज्ञान विकसित करने हेतु ज़रूरत है। इसे रोकना होगा। हमें ऐसे स्कूली अनुभव ईज़ाद करने होंगे जो काफी सारा समय लौटा सकें। यह ज़रूरी हो गया है कि हम बच्चों पर विश्वास करते हुए, काफी कच्ची उम्र से ही उन्हें स्वतंत्र अध्ययन का अवसर दें, कदाचित इसका प्रबन्ध स्कूल में ही किया जाए, किन्तु वह संस्थात्मक ढाँचे से दूर हो। ज़रूरत ऐसे पाठ्यक्रमों की खोज करने की है जिसमें प्रत्येक बच्चे के पास अपनी निजी विलक्षणता एवं आत्म-निर्भरता को विकसित करने का अवसर हो।
कुछ समय पूर्व 70 डॉलर देकर अपनी कक्षा की एक बारह वर्षीय लड़की को, उसकी अँग्रेज़ी न बोलने वाली माता के साथ बस से न्यू जर्सी तट (न्यू यॉर्क से दक्षिण, न्यू जर्सी प्रदेश का समुद्र तटीय इलाका) पर भेजा, जहाँ उसे सीब्राट शहर के पुलिस प्रमुख को दोपहर के भोजन हेतु ले जाना था और समुद्रतट में प्लास्टिक की बोतल डालकर उसे प्रदूषित करने के लिए क्षमा माँगनी थी। इस सार्वजनिक क्षमायाचना के बदले मैंने पुलिस प्रमुख से ऐसा इन्तज़ाम कर लिया था कि वे बच्ची को एक पूरा दिन, छोटे शहर की पुलिस प्रक्रिया का प्रशिक्षण देंगे। कुछ दिनों बाद मेरे दो और बारह वर्षीय बच्चे अकेले हार्लेम (न्यू यॉर्क शहर का एक इलाका) से पश्चिमी इकत्तीसवीं गली में गए और वहाँ उन्होंने एक समाचार-पत्र सम्पादक के साथ प्रशिक्षु के तौर पर काम करना आरम्भ किया। उसके बाद मेरे तीन बच्चों ने प्रात: छ: बजे जर्सी के दलदलों में जाकर एक ट्रक कम्पनी के मालिक के मन का अध्ययन किया जो अपने अठारह पहियों वाले वाहन को डलास, शिकागो और लॉस ऐंजेल्स शहरों की ओर रवाना कर रहे थे।

क्या ये किसी ‘विशेष’ कार्यक्रम के ‘विशेष बच्चे’ हैं? एक मायने में हैं, किन्तु इस कार्यक्रम के बारे में मेरे तथा बच्चों के अलावा और कोई नहीं जानता। वे सेंट्रल हार्लेम3 के अच्छे बच्चे हैं, परन्तु उनकी इतनी खराब पढ़ाई हुई थी कि उनमें से अधिकांश तेज़ी से जोड़-घटा तक नहीं सकते थे, और उनमें से एक को भी नहीं मालूम था कि न्यू यॉर्क शहर की जनसंख्या क्या है या न्यू यॉर्क, कैलिफॉर्निया से कितनी दूर है।
क्या इससे मुझे चिन्ता होती है? बिलकुल होती है किन्तु मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे उन्हें स्व-अर्जित ज्ञान प्राप्त होगा, वे स्व-शिक्षक बन जाएँगे -- और केवल स्व-शिक्षा का ही स्थाई मूल्य होता है।
हमें बच्चों को अभी से ही स्वतंत्र समय देना होगा क्योंकि वही स्व-ज्ञान की कुँजी है, और हम उन्हें पुन: असली संसार में यथाशीघ्र भेजें जिससे उनका स्वतंत्र समय काल्पनिकता की बजाय अन्य बातों में लग सके। यह आपात स्थिति है -- गलती को सुधारने के लिए त्वरित कार्यवाही की ज़रूरत है।

पुनर्रचित स्कूल प्रणाली में और क्या होना चाहिए? उसे उद्यमी समुदाय को जोंक की तरह चूसना बन्द करने की ज़रूरत है। अगर इन्सानी इतिहास के बही-खाते की जाँच-पड़ताल करें तो केवल हमारा देश है जिसने बच्चों को स्कूलनुमा गोदामों में भर कर रखा है, उनसे समुदाय की सेवा की किसी भी प्रकार की अपेक्षा के बिना। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि समुदाय-सेवा को स्कूल प्रणाली का आवश्यक अंग बना देना चाहिए। नि:स्वार्थ भाव से काम करने का अनुभव, जो वे इससे सीखेंगे, के अलावा यह बच्चों में जीवन की मुख्यधारा के प्रति जवाबदारी लेने का सबसे उत्तम तरीका है।
पाँच वर्षों तक मैंने छापामार स्कूल कार्यक्रम चलाया, जहाँ मैंने हर बच्चे से, अमीर और गरीब, होशियार और मन्द, साल में 320 घण्टे कठोर सामुदायिक सेवा करवाई। उनमें से दर्ज़नों बच्चे जो बड़े हो गए थे ने कई साल बाद कहा कि किसी की सहायता करने के अनुभव ने उनका जीवन बदल दिया है। इससे उन्होंने नई दृष्टि से देखना, लक्ष्यों तथा मूल्यों पर पुनर्विचार करना सीखा। यह तब हुआ था जब वे तेरह वर्ष के थे, मेरे लैब स्कूल प्रोग्राम में और यह इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि मेरा धनाढ्य ज़िला अस्त-व्यस्त था। जब ‘स्थायित्व’ लौटा, प्रयोगशाला बन्द हो गई। विभिन्न वर्गों के बच्चों का वह समूह अत्याधिक सफल रहा, और इसपर इतना कम खर्च आया कि उसे जारी नहीं रखा जा सका।

स्वतंत्र अध्ययन, सामुदायिक सेवा, साहसिक कार्य, निजता और एकान्त के ढेरों अनुभव, हज़ारों प्रकार की कारीगरी सीखना -- वह एक-दिवसीय हो या दीर्घ-अवधि की -- ये सभी स्कूल व्यवस्था के वास्तविक सुधार आरम्भ करने के शक्तिशाली, सस्ते और प्रभावी उपाय हैं। परन्तु किसी भी पैमाने पर किया गया सुधार हमारे क्षतिग्रस्त बच्चों और हमारे क्षतिग्रस्त समाज को नहीं सुधार सकता जब तक कि हम ‘स्कूल’ के विचारान्तर्गत परिवार को सम्मिलित नहीं करते जो कि शिक्षा का इंजन है। यदि हम स्कूलों का उपयोग बच्चों को अभिभावकों से अलग करने हेतु करते हैं -- तो यकीन मानें -- यही तो स्कूलों का मुख्य कार्य तब से रहा है जब जॉन कॉटन ने 1650 में घोषणा की थी कि कॉलोनी स्कूलों (मेसाच्यूसेट्स के एक अँग्रेज़ी उपनिवेशी कॉलोनी के स्कूल) का यही उद्देश्य है, तथा होरेस मैन ने 1850 में मेसाच्यूसेट्स स्कूलों के लिए इसी उद्देश्य की घोषणा की थी -- हम आगे भी उस डरावने शो के दर्शक बने रहेंगे जिसे हम आज देख रहे हैं।
‘परिवार का पाठ्यक्रम’ किसी भी अच्छे जीवन का हृदय है। हम उस पाठ्यक्रम को छोड़ आए हैं -- अब वक्त है कि हम उसकी ओर वापस लौटें। शिक्षा में समझदारी का उपाय हमारे स्कूलों के लिए यह है कि वे पहल करें और संस्थानों के चंगुल से पारिवारिक जीवन को मुक्त करें।
स्कूल के समय के दौरान ही अभिभावक और बच्चे का मिलाप कराएँ जो परिवार के रिश्तों को सुदृढ़ करेगा। यही मेरा वास्तविक उद्देश्य लड़की को उसकी माँ के साथ पुलिस प्रमुख से मिलने के लिए न्यू जर्सी तट पर भेजने का था।

मेरे पास ‘परिवार पाठ्यक्रम’ को प्रतिपादित करने के कई विचार हैं और मेरा अनुमान है कि आप में से कइयों के पास भी अनेक विचार होंगे। हमारी सबसे बड़ी समस्या ज़मीनी स्तर पर सोचने-विचारने में आने वाली दिक्कतों की है जिससे कि स्कूल व्यवस्था में सुधार हो सके। कई निहित स्वार्थ हैं जो हमेशा समय पर अपना अग्राधिकार कायम कर लेते हैं, स्कूल पद्धति से लाभार्जन करते हैं -- भले ही ऊपर से कुछ और दिखावा करते रहें।
हमें माँग करनी चाहिए कि नई आवाज़ों और विचारों को सुना जाए, मेरे और आपके विचार। हमने पेटभर अधिकृत आवाज़ों को मीडिया, टी.वी. तथा प्रेस के माध्यम से सुन लिया -एक दशक तक सभी के लिए अब खुली बहस की आवश्यकता है, अब और विशेषज्ञों की राय नहीं चाहिए। शिक्षा में विशेषज्ञ कभी सही नहीं रहे; उनके सामाधान खर्चीले और स्वयं का हित साधते हैं और वे सदैव और अधिक केन्द्रीकरण की बात करते हैं। इसके परिणाम हमने देख लिए हैं।
अब लोकतंत्र, वैयक्तिकता और परिवार की ओर लौटने का समय है।


जॉन टेलर गेट्टो: 1935 में जन्मे गेट्टो ने शिक्षक बनने से पहले फिल्मों के स्क्रिप्टराइटर, टैक्सी ड्राइवर, गीतकार, गहनों के डिज़ाइनर आदि काम किए, और हॉट-डॉग ठेला भी सम्भाला है। यह कहते हुए कि बच्चों को और चोट नहीं पहुँचाना चाहते थे, उन्होंने लगभग तीस साल सर्विस की और इस भाषण के कुछ डेढ़ साल बाद शिक्षक का काम छोड़ दिया। 2011 में लकवा लगने तक व्याख्यान देते रहे। उन्होंने शिक्षा पर कई किताबें लिखी हैं।
यह लेख बनियन ट्री द्वारा 2012 में प्रकाशित किताब ‘क़्द्वथ्र्डत्दढ़ छद्म क़्दृध्र्द’ के हिन्दी अनुवाद ‘मूढ़ बनाने का कारखाना’ से लिया गया है। इसका भाषान्तरण ज्वाला प्रसाद मिश्रा ने किया है।