अंजु दास मानिकपुरी

हर साल गर्मियों में एकलव्य आठ-दस दिन के आवासीय विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन करता है। इसमें माध्यमिक और उच्च विद्यालय के स्तर पर विज्ञान और गणित के चुनिन्दा विषयों पर काम होता है। एक-दो सत्र पाठ्यचर्या और शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी होते हैं। विशेषज्ञ, सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के शिक्षक और शिक्षा से जुड़ी संस्थाओं से कुछ 40-50 शिक्षक शामिल होते हैं। इस प्रशिक्षण का एक प्रमुख सत्र होता है प्रोजेक्ट्स से सम्बन्धित जिसमें प्रतिभागियों द्वारा चुने सवालों की जाँच-पड़ताल की जाती है।

हमारे आसपास निरन्तर घटने वाली घटनाओं का अवलोकन करने या उन्हें ध्यान से देखने पर सामान्यत: कई ऐसे सवाल उठते हैं, जिनका जवाब हम खुद कुछ प्रयास करके ढूँढ़ने की कोशिश कर सकते हैं। कई बार जवाब न मिलने पर हम उन सवालों को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। पर अमूमन ऐसा भी होता है कि जब कभी कोई ऐसा प्लेटफॉर्म मिले जहाँ जिज्ञासा को तरजीह दी जाती हो तो ये सवाल फिर से याद आ जाते हैं। 

कुछ ऐसा ही हुआ एकलव्य द्वारा 2014में होशंगाबाद में आयोजित ग्रीष्मकालीन विज्ञान कार्यशाला में। यहाँ पर उन सवालों को जगह दी गई जो हमारे मन में अक्सर उठते रहते हैं, और चर्चा करते-करते सवालों की झड़ी-सी लग गई। यहाँ पर मैं उनमें से कुछ सवालों का उल्लेख कर रही हूँ:
1. सूर्य को आग का गोला क्यों कहते हैं?
2. हमारे शरीर में लोहे की मात्रा होती है, फिर भी हम चुम्बक की तरफ आकर्षित क्यों नहीं होते?
3. जलने के साथ धुआँ क्यों उठता है?
4. आँख क्यों फड़कती है?
5. उबासी क्यों आती है?
6. मछली और दूध साथ में क्यों नहीं खाते?
7. दिन में सूरज दिखता है पर रात में कहाँ चला जाता है?
8. क्या बिजली बिना तारों के भी प्रवाहित हो सकती है?

ऐसे बहुत-से सवालों को एक जगह लिखा गया और सारे सहभागियों को समूह में बाँटकर कोई एक सवाल के बारे में विमर्श करने को कहा गया। रुचिकर यह था कि सवाल खुद से छाँटने थे, हल समूह में करने थे और मदद सभी से मिल रही थी। स्रोत व्यक्ति हर समय सहयोग के लिए तैयार एवं तत्पर थे।
अब मैं अगर अपने समूह की बात करूँ तो हमारे समूह में छह सदस्य थे और हमने सवाल लिया ‘जलने के साथ धुआँ क्यों उठता है?’। स्वाभाविक रूप से इस सवाल के साथ-साथ बहुत-से और प्रश्न जुड़े हुए थे, मसलन:
1. जलना, दहन - ये सब क्या हैं?
2. धुआँ क्या हमेशा सफेद या काला ही होता है?
3. धुआँ कहने के मापदण्ड क्या हैं?
4. क्या धुएँ का कम या ज़्यादा होना और धुएँ का रंग, ज्वलन-स्रोत या जलने वाले पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है?
5. क्या केवल ऐसे पदार्थ धुआँ छोड़ते हैं जिनमें कार्बन होता है या बिना कार्बन वाले पदार्थ भी धुआँ पैदा करते हैं?
इन उमड़ते-घुमड़ते सवालों के साथ हमारा समूह एकजुट होकर इस सवाल को हल करने के प्रयास की दिशा में आगे बढ़ा। किए गए प्रयास या प्रक्रिया को हम कुछ चरणों में बाँट सकते हैं। सबसे पहले हमने इंटरनेट और एकलव्य के पुस्तकालय से कुछ किताबों का सहारा लेकर धुएँ के बारे में अध्ययन किया और उपरोक्त सवालों को हल करने के लिए कुछ परिकल्पनाएँ बनाते हुए प्रयोग की तरफ आगे बढ़े। फिर हम प्रयोग के लिए सामान जुटाने में लग गए।

पहले दिन हमने बिना किसी खास मापदण्ड को अपनाए यह देखने की कोशिश की कि हमारे आसपास के उपलब्ध पदार्थों को जलाने पर क्या होता है। इसके लिए हमने अलग-अलग पदार्थों को लिया और उन्हें जलाकर देखा। हमने पाया कि अधिकतर पदार्थ धुएँ के साथ जलते हैं। फिर हमारे बीच सवाल उठा कि कहीं ये धुआँ ज्वलन स्रोत के कारण तो नहीं? शंका और सवाल, दोनों साथ-साथ हों तो और भी अच्छा!
हमने कागज़, थर्मोकॉल, लकड़ी, कपड़े की चिंदी, मोम और केले का सूखा व गीला पत्ता लेकर तीन अलग-अलग ज्वलन स्रोत (मोमबत्ती, सिगरेट लाइटर और गैस बर्नर) से जलाकर देखा। प्राप्त अवलोकनों के आधार पर हमने पाया कि ज्वलन स्रोत अलग-अलग लेने पर धुएँ की मात्रा अलग-अलग मिलती है। जहाँ एक ओर मोमबत्ती से पदार्थ को जलाने पर ज़्यादा धुआँ मिल रहा था, वहीं धुआँ सिगरेट लाइटर से भी मिल रहा था पर तुलनात्मक रूप से थोड़ा कम, और गैस बर्नर से एकदम कम।

उपरोक्त विवरण और करके देखने से यह तो स्पष्ट हो गया कि हमारे पास उस समय जो भी पदार्थ थे, जलने के समय सभी धुआँ पैदा कर रहे थे। साथ ही और सवाल भी उठने लगे जैसे मोमबत्ती में से जो धुआँ निकलता है वो पहले ही काफी ज़्यादा दिखता है पर सिगरेट लाइटर और गैस बर्नर में से ज़्यादा धुआँ निकलता नहीं दिखता, कई बार दिखता ही नहीं है - तो इसके पीछे क्या कारण हो सकता है। यहाँ यह स्पष्ट करना वाजिब होगा कि अभी तक हमने धुएँ का विश्लेषण नहीं किया, केवल अवलोकन किया है।
केले के गीले पत्ते को जलाते हुए सफेद धुआँ मिल रहा था तो एक बार हमने सोचा कि शायद इसमें से सफेद धुआँ निकलता है। पर समूह में और बातचीत हुई जिससे हम इस नतीजे पर पहुँचे कि अगर पत्ता गीला है तो उसमें पानी की कुछ मात्रा होगी। यह पानी जलाने पर वाष्पित हो रहा होगा और वाष्प ही हमें सफेद धुएँ के रूप में दिख रही होगी। तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि धुएँ की मात्रा या स्वभाव, पदार्थ गीला है या सूखा, उस पर भी निर्भर करता है? मतलब गीले पदार्थों को जलाने पर उनमें से पहले प्रमुखत: पानी निकलता है जो सफेद धुएँ की तरह दिखता है और जो पदार्थ सूखे हैं वो सीधे जलते हैं, धुआँ छोड़ते हुए।

उपरोक्त उदाहरण से यह तो तय हो गया कि धुएँ का स्वभाव पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है। पर जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया था कि पदार्थ को जलाने पर धुएँ का ज़्यादा या कम होना ज्वलन स्रोत के चुनाव पर भी निर्भर करता है।
इसलिए, अब हमने केवल जलने की तरफ ध्यान दिया और इसके लिए काँच की स्लाइड अलग-अलग ज्वलन स्रोतों पर रखकर धुएँ को इकट्ठा करने का प्रयास किया और अवलोकन करने पर कुछ इस तरह से निष्कर्ष मिले:
1. मोमबत्ती: स्लाइड को मोमबत्ती पर रखके धुआँ इकट्ठा करने पर बहुत ज़्यादा काला पदार्थ मिला।
2. लाइटर: मोमबत्ती से कम लेकिन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था कि कुछ काला पदार्थ जमा हो गया है।
3. बर्नर: कोई काला पदार्थ नहीं था जिसे हम अपनी नग्न आँखों से देख पाते।
अगर हम ध्यान से तीनों स्रोत पर गौर करें तो पाएँगे कि तीनों में ही ईन्धन जल रहा है, पर तीनों के ईन्धन जलने के मायने अलग हैं। जहाँ मोमबत्ती में मोम और धागा, दोनों जलते हैं, वहीं लाइटर और बर्नर, दोनों में एलपीजी जलती है। पर मन में फिर सवाल था कि अगर लाइटर और बर्नर, दोनों मे एलपीजी है तो धुएँ की मात्रा कम या ज़्यादा क्यों है? ऐसे ही सवालों के क्रम बनते जा रहे थे और हम उन्हें हल करने के प्रयास में लगे हुए थे।

इस तरह से यह तो तय हो गया कि धुएँ का कम या ज़्यादा बनना ज्वलन स्रोत पर भी निर्भर करता है। प्राप्त अवलोकन को और पुख्ता करने के लिए हमने ज्वलन स्रोत और पदार्थ, दोनों के द्रव्यमान में जलने के दौरान आए अन्तर को जाँचने का सोचा। इसके लिए हमने सैम्पल को स्थिर रखते हुए दो ज्वलन स्रोतों का चुनाव किया। एक स्रोत हमने वो लिया जिसमें से काफी धुआँ इकट्ठा हुआ था (मोमबत्ती) और एक स्रोत वो लिया जिसमें धुआँ मोमबत्ती की तुलना में बहुत ही कम दिख रहा था (एलपीजी लाइटर)। लाइटर से प्राप्त धुएँ का भार मोमबत्ती से प्राप्त धुएँ के भार की अपेक्षा बहुत ही कम था। यहाँ पर एक बात रखना चाहूँगी कि यह प्रयोग और भी बेहतर तरीके से मैंने घर आकर किया। बेहतर कहने का तात्पर्य है कि मैंने इस प्रयोग में सैंपल को एकदम बराबर मात्रा में लिया अर्थात् सटीकता में नाप-तौल किया, प्रयोग करते समय समान समय सीमा को ध्यान में रखा। ऐसा करने पर मैंने पाया कि मोमबत्ती से प्राप्त धुएँ का भार ज़्यादा था।
उपरोक्त अवलोकन से यह तो स्पष्ट हो पा रहा है कि ईन्धन की खपत मोमबत्ती में ज़्यादा और लाइटर में कम होती है। यानी कि जलने की प्रक्रिया में कहीं कोई व्यवधान हो रहा है, जिससे पूर्ण दहन की स्थिति प्राप्त नहीं हो पा रही है। मतलब धुएँ का सम्बन्ध पूर्ण या अपूर्ण दहन से भी है। इसे सुनिश्चित करने के लिए हमने प्राप्त होने वाले सूट या काले पदार्थ को एक चम्मच में जमा किया और जलाकर देखा कि आखिर कब तक पदार्थ का कालापन बना रहता है। लगातार इस पदार्थ को जलाने पर हमें सफेद राख मिली और बीच-बीच में कुछ चिंगारी भी निकल रही थीं।

एक तरफ जहाँ हमने काले पदार्थ को और जलाया वहीं दूसरी तरफ उसी काले पदार्थ को गरम करके देखा कि क्या होता है। हमने पाया कि इसमें से एक खास गैस निकलती है जिसका परीक्षण करने पर पता चला कि वह कार्बन डाइऑक्साइड थी।
अब हम अपने शुरुआती सवाल पर आते हैं कि क्या बिना कार्बन वाले पदार्थ भी धुआँ देते हैं। इसके लिए हमने मैग्नीशियम चुना और उसे जलाकर देखा। हमने पाया कि यह काफी तीव्रता से जलता है और इससे भी धुआँ निकलता है। इस धुएँ को हमने पहले की भाँति इकट्ठा किया और जलाकर देखा। प्राप्त राख का आगे परीक्षण करने पर हमने पाया कि यह लाल लिटमस को नीला कर देती है। और राख को आगे जलाते रहने पर हमें कुछ चिंगारी निकलती दिखाई देती हैं। इन नतीजों को और निश्चित करने के लिए हमने एक और बिना कार्बन वाले पदार्थ गन्धक को भी जला कर देखा और पाया कि इसे भी जलाते समय धुआँ निकलता है।

इन सब अवलोकनों के आधार पर हम कुछ नतीजों पर पहुँच पाए जैसे:
1. अपूर्ण या आंशिक दहन होने पर धुआँ मिलता है।
2. धुआँ कार्बन या बिना कार्बन वाले अर्थात् दोनों तरह के पदार्थ से मिल सकता है। कई सारे प्रयोग आधारित अवलोकन से यह सुनिश्चित हो पाया।
3. धुआँ एक मिश्रण है जो हवा के साथ निलम्बन (suspension) के रूप में प्राप्त होता है। यह हमने जाँचा तो नहीं कि धुआँ मिश्रण का निलम्बन रूप है पर यह हमें विभिन्न सन्दर्भ सामग्री से पता चला।
तो अभी तक हमने जलने की प्रक्रिया में धुएँ का बनना देखा। देखा जाए तो दहन कई मायने में उपयोगी है - कभी इस प्रक्रिया के माध्यम से गाड़ी चलती है, खाना बनता है, किसी के लिए आग तापने का साधन है तो किसी के लिए कचरा जलाने का माध्यम, तो कोई इस प्रक्रिया का उपयोग करके आतिशबाज़ी करता है।

दहन की प्रक्रिया ताप और पदार्थ की प्रकृति, दोनों पर निर्भर करती है। जो पदार्थ कम ताप पर जलते हैं, वे ज़्यादा ज्वलनशील होते हैं, जैसे पेट्रोल। वहीं जो पदार्थ अधिक ताप पर जलते हैं, वे कम ज्वलनशील होते हैं जैसे कोयला।
एक ऐतिहासिक नज़र
दहन के ऐतिहासिक पहलू पर अगर नज़र डाली जाए तो यह मनुष्य द्वारा खोजी गई पहली और नियंत्रित की जाने वाली रासायनिक अभिक्रिया है। अगर इसके बारे में थोड़ा और जानना है तो बेकर का फ्लोजिस्टोन सिद्धान्त ज़रूर पढ़ें, जो संदर्भ के अंक-86 में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में बखूबी इस बात का वर्णन किया गया है कि कैसे जलने और श्वसन में प्रयुक्त रसायन को पहले अलग-अलग समझा गया और बाद में विभिन्न प्रयोगों के आधार पर इन दोनों को ही ऑक्सीकरण की एक प्रक्रिया माना गया। इसे काफी रोचकता से सुशील जोशी ने प्रस्तुत किया है।

दहन की प्रक्रिया को अगर परिभाषित करने की कोशिश करें तो हम कह सकते हैं कि यह एक विशिष्ट ताप पर होने वाली ऑक्सीकरण की ऐसी रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें ऊष्मा तथा प्रकाश उत्पन्न होते हैं। यह विशिष्ट ताप अलग-अलग पदार्थ के लिए अलग-अलग होता है। विशिष्ट ताप की ज़रूरत को एक उदाहरण लेकर समझते हैं, जैसे एक मोमबत्ती को फूँक दिया जाए तो ताप कम हो जाता है और चूँकि एक खास ताप नहीं मिल पाता जिससे वह जली रह पाए इसलिए मोमबत्ती बुझ जाती है। दहन की प्रक्रिया में ऑक्सीकृत मिश्रण, जो जलने के बाद प्राय: गैसीय रूप में निकलता है, को धुआँ कहते हैं।

पूर्ण दहन की स्थिति प्राप्त करना, कई कारकों जैसे अधजले पदार्थ के रह जाने के कारण थोड़ा मुश्किल होता है। और यह अनजला पदार्थ कार्बन सूट अथवा राख के रूप में प्राप्त होता है। और यही पदार्थ धुएँ की प्रकृति का निर्धारण करते हैं कि वह विषैला, हानिकारक या लाभदायक होगा। देखा गया है, किसी भी प्रकार का धुआँ हो, नुकसान तो करता ही है, पर नुकसान के पैमाने बहुत कम से बहुत अधिक अर्थात् अलग-अलग हो सकते हैं। कई बार यह नुकसान, किसी खास फायदे से भी जुड़ा हो सकता है। जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, जहाँ हमारे लिए नुकसानदेह है वहीं पौधे इस पदार्थ का उपयोग करते हुए अपना खाना बनाते हैं, और हम भी तो अपने जीवन के निर्वहन के लिए पौधों पर निर्भर हैं। लम्बे समय से यह प्रचलन में है कि कुछ पौधों के पत्ते, छाल आदि को जलाने पर जो धुआँ निकलता है वह किसी खास बीमारी को ठीक करने के लिए दिया जाता है। कहते हैं कि पर्शिया के राजा डेरियस को रोज़ चन्दन और हरमाला (पाएगेनम हरमाल) का धुआँ दिया जाता था ताकि उन्हें कभी कोई रोग न हो। हमारे देश में नीम का धुआँ कुछ जगह पर कवकजनित रोग ठीक करने के लिए किया जाता है, पर वहीं दूसरी तरफ इससे श्वसन सम्बन्धी तकलीफ भी हो सकती है। कई बार धुएँ का इस्तेमाल कीटनाशक (pesticide) के तौर पर होता है तो कई बार इसका इस्तेमाल सिग्नल के रूप में भी किया जाता है।

इस तरह इस प्रोजेक्ट के तहत किए गए कुछ प्रयोग और सन्दर्भ पाठ्य सामग्री के आधार पर कुछ नया सीखने को मिला और कुछ सीखी गई बातों को मज़बूती मिली। एक बात और, प्रयोग करने के और अवलोकन करने के कौशल को भी तराशने का मौका था यह।
दहन के लिए तीन कारकों की ज़रूरत होती है -- ईन्धन, ऊष्मा और ऑक्सीकारक। अगर इन तीनों में से कोई पदार्थ खत्म या आनुपातिक तरीके से कम या ज़्यादा हो जाए तो दहन की प्रक्रिया बाधित होती है।
ईन्धन ठोस, द्रव अथवा गैस हो सकते हैं। वो सारे पदार्थ जिन्हें ऑक्सीकृत किया जा सकता है, ईन्धन कहलाते हैं। ईन्धन की आकृति और आकार भी दहन को प्रभावित करते हैं। ईन्धन किस ताप पर आग पकड़ता है, किस ताप पर जलता हुआ दिखाई देता है, किस ताप पर ज्वाला प्रकाश के रूप में दिखती है, पदार्थ का क्वथनांक क्या है और पदार्थ की अभिक्रियाशीलता कैसी है, आदि विभिन्न कारक हैं जो दहन की दर को प्रभावित करते हैं।

पूर्ण दहन की स्थिति का मतलब होता है कि न तो कोई ईन्धन बचे, न ही कोई ऑक्सीकारक। और ऐसा कभी हो ही नहीं पाता। यही कारण है कि पूर्ण दहन की स्थिति प्राप्त करना वास्तव में थोड़ा मुश्किल होता है। ऐसे में यदि पूर्ण ऑक्सीकरण की प्रक्रिया न हो तो अपूर्ण या आंशिक दहन की स्थिति बनती है और हमें धुआँ प्राप्त होता है।
दूसरी महत्वपूर्ण भूमिका दहन में ऑक्सीकारक की होती है। सामान्यत: ऑक्सीकारक की भूमिका में ऑक्सीजन होती है। पदार्थ के ठोस, द्रव या गैस होने पर ऑक्सीकारक की मात्रा अलग-अलग लगती है। उदाहरण के लिए ठोस या भारी द्रव ईन्धन को पूर्ण रूप से जलाने के लिए ज़्यादा ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ती है। और किसी कारणवश ऑक्सीजन की मात्रा कम मिले तो दहन की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है जो गहरे धुएँ के रूप में दिखाई देता है। दहन की प्रक्रिया के लिए ज़्यादातर ऑक्सीजन वातावरण में उपलब्ध हवा से ही प्राप्त होती है। वायु में लगभग 21 प्रतिशत ऑक्सीजन होती है। ईन्धन के जलने के लिए 6-10 प्रतिशत ऑक्सीजन पर्याप्त है पर यदि ऑक्सीजन की मात्रा 21 प्रतिशत कर दी जाए तो जलने की प्रक्रिया अत्यन्त तीव्र हो जाती है।

तीसरी महत्वपूर्ण भूमिका ऊष्मा के स्रोत की होती है, जो रासायनिक, यांत्रिकीय, और विद्युतीय हो सकते हैं, और जो जलने की प्रक्रिया को निरन्तर बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
यदि हम जलने की पूरी प्रक्रिया पर ध्यान दें तो पाएँगे कि इस प्रक्रम को तीन प्रमुख प्रावस्थाओं में बाँट सकते हैं। पहली प्रावस्था को प्रारम्भन (incipient) कहते हैं। इस दौरान दहन के उत्पाद अधिकतर जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड, और सल्फर डाइ-ऑक्साइड होते हैं। जब तक अच्छे से ज्वाला नहीं बनती तब तक ये पदार्थ धुएँ के रूप में दिखाई देते हैं। दूसरी प्रावस्था को उन्मुक्त दहन की प्रावस्था कहते हैं। इस चरण में ईन्धन का विघटन तेज़ी-से होता है और धुआँ काफी ज़्यादा दिखता है। तीसरी प्रावस्था को सुलगने (smoldering) की प्रावस्था कहते हैं। इस समय ऑक्सीजन की ज़रूरत बहुत कम हो जाती है, दहन की प्रक्रिया काफी धीमी हो जाती है, कम ताप पर होती है और इस प्रावस्था में ज्वाला लगभग न के बराबर होती है।

इस पूरे अध्ययन के दौरान कुछ बातें जो उभर कर आईं वे काफी उत्साहवर्धक थीं जैसे सवाल करना, सवाल के उत्तर जानने के लिए अलग-अलग तरह से लेकिन समेकित प्रयास करना, प्रयोग के लिए अलग-अलग तरह से जुगाड़ बनाना, ऐसी क्रियाविधि सुझाना कि सोचे हुए विचार को वास्तव में करके देख सकें, क्रियाविधि के दौरान आई चुनौतियों को न्यून करने की भरसक कोशिश करना और फिर से नए सवाल बनना। अन्त में हम भले ही सटीक उत्तर तक नहीं पहुँचे पर उत्तर जानने के प्रयास में हम यही कह सकते हैं कि धुआँ अपूर्ण या आंशिक दहन का ही सह-उत्पाद है।


 अंजु दास मानिकपुरी: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, धमतरी में कार्यरत हैं। रसायन शास्त्र में पीएच.डी. की है।