लेखक : रिनचिन
अनुवाद: सुशील जोशी: 

सुबह के साढ़े दस बजे थे और प्रूफ रेंज का भोंपू बजकर अभी-अभी खामोश हुआ था। कितना अजीब है ना? जिस इलाके में जंगल लोगों के जीवन का हिस्सा है, वहाँ यह बेगाना भोंपू समय का प्रहरी बन बैठा है।
अब से लेकर साढ़े चार बजे तक, गाँवों के दो समूहों के बीच का जंगल बन्द रहेगा। इस दौरान यह जंगल हिन्दुस्तानी फौज की आर्ममेंट फैक्टरी के लिए परीक्षण स्थल का काम करेगा। और तो और, गाएँ भी सीख गई हैं कि बम धमाकों से बचने के लिए प्रूफ रेंज से दूर रहना ही ठीक है।

अब वे सुबह-सुबह जंगल में चरने को जाती हैं और, जैसे किसी आन्तरिक घड़ी के चलते, दस बजे का भोंपू बजने से पहले लौट आती हैं। हथियार कारखाने में बने बमों का परीक्षण यहाँ किया जाता है और इस दौरान पूरा जंगल खतरों से भरा होता है। फिर भी, गायों के विपरीत, कुछ लोग अपनी जान को जोखिम में डालते हैं। इनमें से कुछ तो वे लोग हैं जो बम की खोल बीनने को वहाँ घुस जाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें दस किलोमीटर का चक्कर लगाना पसन्द नहीं।
मैं रामबिलासी की चाय की दुकान पर चाय पीकर जीप पकड़ने के लिए सड़क पर खड़ी थी। हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। सामने से अनिल आता दिखा मगर वह तो गलत दिशा में जा रहा था।
“कहाँ जा रहे हो?” वह रुका, मुड़कर मेरी तरफ देखा और फिर धीरे-धीरे बोला, जैसे जवाब सोच रहा हो, “पता नहीं, थोड़ा घूमने जा रहा हूँ।”
“इस समय? वह भी प्रूफ रेंज की तरफ?”
“मुझे यहाँ से दूर जाना है, कहीं बाहर जाना है, नहीं तो मैं ऐसा कुछ कर बैठूँगा जो मुझे नहीं करना चाहिए।” उसका चेहरा तना हुआ था और आवाज़ सख्त थी।
मैंने कहा, “चलो हम साथ चलते हैं।” मैंने अपना छाता थोड़ा उसके सिर पर भी कर दिया। छाता उसको ठीक से ढँक नहीं पाया क्योंकि वह मुझसे काफी लम्बा था। दोनों थोड़े-थोड़े भीगते रहे।
उसने छाते से बाहर निकलते हुए पूछा, “आप कहाँ जा रहे हो?”
“इटारसी तक। वहाँ तक मेरा साथ रहेगा, फिर तुम अपने रास्ते, मैं अपने रास्ते।”
यह सुनकर अनिल ने मुझे घूरा और ज़ोर से हँस पड़ा। “मैं इटारसी तक पैदल नहीं जाऊंगा, बीस किलोमीटर है।”
छाता सँभालते हुए उसके साथ मेरी भी हँसी छूट गई।

“तो चलो जीप में जाएँगे, इटारसी में चाय-समोसा खाएँगेे। और तुम मुझे बताना कि तुम्हें क्या चीज़ परेशान कर रही है और फिर वापिस आ जाना।”
हँसी ने अनिल का तनाव कुछ तो कम कर दिया था और वह थोड़ा सहज हो गया था। वह मान गया। हम चुपचाप जीप का इन्तज़ार करने लगे। सुबह के समय खूब जीपें आती हैं, जल्दी ही हमें एक जीप मिल गई। पूरी खचाखच भरी थी मगर हम दोनों किसी तरह अन्दर घुस गए। इतनी भीड़ थी कि हम चुप ही रहे। स्टेशन पर उतरकर हम असलम बिरयानी सेंटर गए। मुझे अन्दाज़ा था कि जो बातचीत शु डिग्री होने वाली है उसके लिए सिर्फ चाय से काम नहीं चलेगा।
“पिछले हफ्ते 15 अगस्त था।”
“पता है।”
“मैं और सन्तोष अपने पुराने स्कूल गए थे।”
मैंने सिर हिलाया। उस शहर में एक ही पुराना स्कूल था, वैसे वह शहर नहीं बल्कि एक कस्बा ही था। मगर आसपास 50 किलोमीटर के दायरे में वही एक हायर सेकंडरी स्कूल था और सब वहीं आते थे।
“पता है मैं 12वीं में वहाँ टॉपर था?” अनिल मेरी ओर थोड़ा घूरकर देख रहा था, मानो कह रहा हो कि यकीन करो ना करो, सच तो यही है।
“हाँ, पता है।”
“अगले साल सन्तोष ने टॉप किया था। सिर्फ हम दोनों कंप्यूटर असिस्टेंट कोर्स में पास हुए थे। हम दोनों ने सबसे बढ़िया किया था। सिलेक्शन की बात दूर, और किसी ने इंटरव्यू के लिए क्वालीफाय तक नहीं किया था।”
“हाँ, पता है।”
“खैर, हम दोनों स्कूल यह सोचकर गए थे कि थोड़ी मदद करेंगे। वहाँ जाना अच्छा लगता है। कुछ लड़के, कम-से-कम हमारे लड़के हमें हीरो मानते हैं, अच्छा लगता है।”
मैं मुस्कराई। वह बगैर मुस्कराए बोलता रहा।

“हमने सोचा था कि बाँटने के लिए लड्डू फोड़ेंगे। तुम्हें लड्डू के बारे में मालूम है ना?”
“हाँ।”
जिनको नहीं मालूम उनके लिए बता देती हूँ। होता यह है कि हर बच्चे के लिए दो लड्डू आते हैं। मगर ब्लॉक ऑफिस से शिक्षक और बच्चों तक आते-आते आधा या उससे भी कम रह जाता है। हरेक बच्चे को दो तो क्या एक लड्डू भी नहीं मिल सकता। तो लड्डुओं का चूरा कर दिया जाता है और फिर मुट्ठी भर-भरकर बूंदी बाँटी जाती है।
आम तौर पर कुछ बच्चों को लड्डू का चूरा बनाने और बाँटने का काम सौंपा जाता है। कतार में खड़े बच्चों को लड्डू बाँटना एक बड़ा काम माना जाता है। जो लड़के लड्डू बाँटते हैं उन्हें दबंग माना जाता है। ये दोनों लड़के टोकनी में लड्डू का चूरा भरकर कतारों के बीच भाग-भागकर हँसी-मज़ाक करते रहते हैं। और जब सब लड़कों को उनका हिस्सा मिल जाता है, तो बाकी बचा हुआ चूरा वे दोनों आपस में बाँट लेते हैं। इस दौरान यदि कोई भूतपूर्व छात्र आ जाएँ तो बाँटने का काम वे ही करते हैं और शिक्षकों और बड़े लड़कों के साथ ठिठोली भी करते रहते हैं। यह एक ऐसा काम है जिसे स्कूल का हर लड़का कम-से-कम एक बार ज़रूर करना चाहता था।
इस बार सन्तोष और अनिल ने यह काम अपने हाथों में ले लिया था। वे जानते थे कि वे इसके हकदार हैं और शायद वक्त आ गया था।
“तो जब बाहर देशभक्ति के गीत चल रहे थे तब हम अन्दर जाकर मॉनीटरों के साथ बैठ गए। वे लोग लड्डू चूर रहे थे, हम हाथ बँटाने लगे। हम लोग हँसी-मज़ाक कर रहे थे कि तभी हेड मास्टर अन्दर आए और पीछे-पीछे वाइस पिं्रसिपल भी थे। हमें देखकर उनको तो जैसे साँप सूंघ गया। हमने उनकी तरफ देखा, सपाट चेहरे से। ‘क्या कर रहे हो तुम?’ उन्होंने पूछा।

‘क्या कर रहे हैं?’ हमने उल्टा सवाल किया।
‘तुम लड्डू फोड़ रहे हो?’
‘हाँ,’ कहते-कहते सन्तोष खड़ा हो गया। टोकनी उसके हाथों में थी ‘और हम लड्डू का चूरा बाँटने जा रहे हैं।’ वह दरवाज़े से बाहर निकलकर मैदान की ओर बढ़ने को था जहाँ 200 लड़के-लड़कियाँ सारे जहाँ से अच्छा की आखरी पंक्ति गा रहे थे। और लाउडस्पीकर खरखरा रहा था।
‘नहीं,’ हेडमास्टर तीखी आवाज़ में चीखे, ‘तुम यह काम नहीं कर सकते।’ और उन्होंने सन्तोष को अन्दर खींचकर दरवाज़ा बन्द कर लिया।
‘क्यों?’ सन्तोष ने पूछा, ‘क्या परेशानी है?’
‘तुम जानते हो,’ हेड मास्टर ने कहा।
‘आप बताइए,’ सन्तोष बोला।
‘देखते हैं आप हमें कैसे रोकते हैं। हम इस स्कूल के सबसे होशियार छात्र हैं।’ सन्तोष टोकनी लेकर आगे बढ़ा। आँखों ही आँखों में उसने मुझे भी साथ आने का इशारा किया।
‘पागल हुए हो क्या? क्यों मेरी नौकरी छुड़वाना चाहते हो?’ हेडमास्टर अब हमारे आगे लगभग हाथ जोड़ रहे थे। हम तो फिर भी आगे बढ़ जाते मगर तभी वाइस पिं्रसिपल आगे आए।
‘मत करो, मेरी नौकरी भी जाएगी। ज़रा मेरे बारे में सोचो।’
वाइस पिं्रसिपल बोलते गए और मैं थोड़ा हिचकिचाने लगा।
‘हम इसे नहीं सँभाल पाएँगे। थोड़ा समय और रुको, शायद अगले साल।’
मैं ठिठक गया। आगे बढ़ नहीं पा रहा था। सन्तोष ने हम दोनों की ओर देखा। वह भी रुक गया। फिर उसने टोकरी नीचे फेंक दी। वाइस पिं्रसिपल के सामने हम कुछ नहीं कर सकते थे। हम उन्हें बहुत चाहते थे और वे हम में से ही एक थे।

अब हमारे पास क्या बचा था। हम कमरे से बाहर निकल गए। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वे सब-के-सब उकड़ू बैठकर अपने हाथों से फर्श पर से लड्डू का चूरा समेट रहे थे। ‘उन दोनों ने कौन-सी टोकरी भरी थी?’ हेड मास्टर ने पूछा और वाइस पिं्रसिपल से कहा, ‘उसे अपने लड़कों में बाँट देना,’ और बाकी लड़कों से किसी को कुछ न बताने की हिदायत दे रहा था। मेरी तो इच्छा हुई कि वापिस जाकर एक लात मारकर फिर से सब कुछ बिखेर दूँ। पर अजीब बात यह थी कि मुझे गुस्से के साथ रोना भी आ रहा था।”
“मगर उस बात को तो 10 दिन हो गए हैं। फिर तुमने क्या किया?”
“कुछ नहीं, हम घर लौट गए और सब कुछ भुलाने की कोशिश करते रहे। सन्तोष ने थोड़ी पी ली, मैंने भी। और हम सो गए।”
“फिर आज क्या हुआ?”
“परसों रक्षा बन्धन था, पता है?”
“हाँ।”
“मैं अपनी बहनों के यहाँ गया था, आज ही वापिस लौटा हूँ। बस से उतरकर अपने गाँव भुमकापुरा जा रहा था। हेडमास्टर के घर के सामने से निकला तो उन्होंने मुझे आवाज़ दी, ‘अनिल सौभाग्य से तुम आ गए। अन्दर आओ।’ मैं चक्कर में पड़ गया, घर में अन्दर जो बुला रहे थे।
मैंने उनकी ओर देखा, ‘नमस्ते सर’।

‘हाँ, हाँ नमस्ते, नमस्ते। अनिल अन्दर आओ।’
मैं गेट के अन्दर तो गया मगर सीढ़ियों पर रुक गया, नहीं चढ़ा। वे बरामदे में थे और उनके दोनों बेटे उनके पीछे खड़े थे। तुम उनके लड़कों को जानती हो ना? एक लड़का मुझसे दो साल बड़ा है। वह भोपाल जाता है कॉलेज में और छोटा लड़का इटारसी के आदर्श विद्यालय में ग्यारहवीं में पढ़ता है। लड़की बीच में खड़ी थी। उसकी शादी हो चुकी है मगर वह अपनी दो बेटियों के साथ घर आई हुई थी। वह फिर से पेट से है।”
मैंने सिर हिलाया। अनिल ये बातें ऐसे दोहरा रहा था, जैसे मैं गाँव से अनजान हूँ। खैर, मैंने कुछ नहीं कहा।
“हेड मास्टर के हाथ में एक छड़ी थी। मुझे वह छड़ी थमाते हुए बोले, ‘आ जाओ, ऊपर आ जाओ। मेरी रसोई में साँप है। उसे निकालने में मेरी मदद करो। तुम्हीं यह काम कर सकते होे।’
मैं चुपचाप अन्दर गया। साँप कुण्डली मारकर एक कोने में मटके के पास सिर उठाए बैठा था। एकदम चौकन्ना। हेडमास्टर ने कहा, ‘बारिश है ना, बारिश के कारण ये अन्दर आ जाते हैं।’ हेडमास्टर के लड़के मेरे पीछे खड़े थे। उनके हाथ में एक पुराना टायर था।
‘चिन्ता मत करो’, उन्होंने कहा, ‘जब तुम उसे छड़ी पर टाँग लोगे तो हम टायर से मार देंगे।’
मैं रसोई में घुसा।

आम तौर पर जब हम साँप को मारते हैं, तो अलग तरीके से मारते हैं। एक व्यक्ति उसे छड़ी से दबा देता है और दूसरा व्यक्ति उसे छड़ी पर लपेट देता है। अकुशल लोग पुराने टायर से साँप को मारने की कोशिश करते हैं। किसी भी तरीके से करो, कोई कठिन काम नहीं है। कम-से-कम जब मैं अपने लोगों के साथ होता हूँ, मुझे तो ऐसा ही लगता है।
मगर आज मैंने स्थिति को थोड़ा कम करके आँका था। जैसे ही मैंने छड़ी से साँप को दबाने की कोशिश की, वह फुफकारता हुआ उठा। मैं झूठ नहीं कह रहा हूँ। वह खूब लम्बा था, मेरे बराबर लम्बा। जीभ लपलपा रहा था। उसका फन फैला हुआ था, बहुत खतरनाक दिख रहा था। ‘मारो’, मेरी आवाज़ डर के मारे काँप रही थी। कोई जवाब नहीं। मैंने सिर घुमाकर एक नज़र डाली तो पता चला कि वे तीनों रसोई से बाहर निकलकर बरामदे के दूसरी ओर भाग गए थे।

‘मारो, मारो’, वे पीछे से चिल्लाए। ‘साले, कुत्तो, तुम तो इस साँप से भी गए गुज़रे हो,’ मैं बुदबुदा रहा था।
अब मुझे पसीना आने लगा था। टायर मेरे पीछे फर्श पर पड़ा था। साँप पर से पकड़ ढीली किए बिना झुककर टायर को कैसे उठाता। मैं एकदम पत्थर बनकर साँप को देखता रहा। फिर पता नहीं क्या हुआ। साँप ने अचानक अपना फन समेट लिया और छड़ी के आसपास कसकर लिपट गया। मैं रुका रहा, मगर साँप वैसे ही रहा, चुपचाप छड़ी के ऊपर लिपटा हुआ। कहीं यह उसकी कोई चाल तो नहीं है? मैं समझ नहीं पाया। मैंने छड़ी को घुमाया और रसोई के दरवाज़े से बाहर आ गया। और फिर चलकर हेडमास्टर की चारदीवारी से बाहर निकल गया। अब मैं शान्त था। रोड के उस पार पहुँचकर मैंने छड़ी को झटका देकर साँप को झाड़ियों के पीछे नाले में फेंक दिया। वह धप से गिरा, और पीछे मुड़कर देखे बिना सरपट रेंग गया। उस समय मुझे ऐसा लगा कि जैसे हम दोनों ने एक-दूसरे को जीने का एक और मौका दे दिया था।
‘मार डालना था न,’ गेट पर खड़े-खड़े हेडमास्टर ने कहा। ‘साला वापिस आ गया तो?’ मैं कुछ नहीं बोला। ‘खतरनाक है। घर पर नाती-पोते हैं तो हमें सावधानी तो रखनी होगी। पानी पिओगे?’ उन्होंने पूछा। वे अभी भी गेट पर ही खड़े थे। मैं गेट के बाहर था। उनका लड़का एक गिलास पानी लेकर आया। मैंने सिर हिला दिया, कहा, ‘नहीं, कुछ नहीं चाहिए।’ मैंने देखा, उसके पीछे दूसरा लड़का प्लेट में लड्डू लेकर आ रहा था। वह आए, उससे पहले मैं वहाँ से निकल जाना चाहता था। मैं उनका दिया हुआ कुछ भी नहीं खाना चाहता था।
‘अच्छा, मुझे जल्दी है, कहीं जाना है।’ और मैं चल दिया।

‘तुमने अच्छा काम किया,’ उन्होंने पीछे से कहा, ‘बहुत अच्छा। सच में होनहार हो।’
अब मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पलटकर पूछा, ‘आज आपकी रसोई में एक अछूत घुस गया, अब क्या करोगे?’
‘अरे, उसकी चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारा आभारी हूँ कि तुम आए। घर पर गंगाजल है, वह छिड़क देंगे। सब सिंच जाएगा, तुम चिन्ता मत करो।’ ”
यह सुनाने के बाद अनिल हँसने लगा। “वो हमारा गणित का शिक्षक है। वह हर चीज़ का गुणा-भाग जानता है। सोचो, वह मुझे तसल्ली दे रहा था कि उसके घर को गंदा करने की चिन्ता न करूँ।” वह फिर हँसने लगा।
थोड़ा शान्त होने के बाद बोला, “पागल दुनिया है,” उसने बिरयानी का आखरी कौर मुँह में डाल लिया।
“हाँ।” मैं भी अपनी प्लेट को उसकी रफ्तार से खाली करने की कोशिश कर रही थी।
“कुछ नहीं बदलेगा क्या?”
मैंने खाना निगलते हुए कहा, “शायद, जब हम उनके लिए साँप पकड़ना बन्द कर देंगे।”
“पता नहीं, मुझे कभी-कभी लगता है कि वे यह भी सीख लेंगे। वह आसान होगा ना? या समस्या का कोई और हल निकाल लेंगे।” उसने प्लेट को अपने से दूर सरकाकर कहा, “अब हमें चलना चाहिए। अचानक उसने कमान सँभाल ली थी। “तुम्हें यहाँ कुछ काम था ना?”
“हाँ,” मैंने कहा, “हमारी पेशी है। मंगू की माँ भी आ रही है। शायद वह कोर्ट पहुँच भी गई होगी।”
“मंगू के केस के लिए आई हो, वह तो 10 साल से चल रहा है!”
“हाँ,” इस बार मैंने मुस्कराकर कहा, “मेरे सफेद बाल इसके सबूत हैं।”
“तुम्हें लगता है कि तुम लोग जो कुछ करते हो, उससे कुछ निकलेगा?”
“पता नहीं, मगर हम लोग साथ आए हैं और इतने सालों से लगे हुए हैं।”
“तुम लोग तो सब मिलकर चुनाव भी नहीं जीत पाए थे।”

“जीतने को वही एक चीज़ थोड़े न है। हमने लड़ाई जारी तो रखी है,” मैंने कहा। अब मैं थोड़ी झुँझलाने लगी थी।
वह थोड़ी देर कुछ नहीं बोला फिर अचानक से उसने पूछा, “तुमने अखबार में पढ़ा नहीं, उन्होंने बैतूल में 30 घर जला दिए, दो लोगों को मार डाला।”
“हाँ, पढ़ा था। तो क्या लड़ना बन्द कर दें?” मैं थोड़ी गुस्सा हो गई थी और बचाव की मुद्रा में आ गई थी।
“नहीं,” अचानक हमले से चौंककर उसने कहा, “मैं तो पूछने वाला था कि हमें वहाँ जाना चाहिए क्या?”
“कहाँ, बैतूल?”
“हाँ, उन लोगों से मिलने और देखने कि क्या कर सकते हैं।”
“हमें खबर मिली थी कि लोगों ने थाने को घेर लिया था। गो डिग्री और आयशा आज सुबह पता करने गए हैं। वे शाम तक खबर लेकर आएँगे। जब वे आएँगे तो मैं तुम्हें बुला लूँगी।”
“तुम चिन्ता मत करो, मैं खुद ही कल ऑफिस आकर पता कर लूँगा। वे शाम तक आ जाएँगे ना? मैं आयशा को जानता हूँ, हम एक ही क्लास में थे।”
“अरे, मुझे पता नहीं थी यह बात।”
“यदि वह पढ़ाई न छोड़ती तो फर्स्ट आती।”
“और तुम?”
“सेकंड,” वह हँसा, “और सन्तोष थर्ड।”
हम तहसील ऑफिस पहुँच गए थे। मैं अन्दर जाने को ही थी कि अनिल ने पूछ लिया, “आप अकेली वापिस जाओगी?”
“हाँ।”
“फिर मैं आपका काम पूरा होने तक रुक जाता हूँ, वापिस साथ ही चलेंगे।”
“ठीक है,” मैंने कहा, “तुम मंगू की माँ से भी मिल लेना।”


रिनचिन: बच्चों व बड़ों के लिए कहानी लिखती हैं। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में जन संगठनों के साथ जुड़ी हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
सभी चित्र: लोकेश खोड़के: चित्रकार हैं। बड़ौदा के फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स से एम.एफ.ए.। इन दिनों एशिया आर्ट आर्काइव, दिल्ली से जुड़े हैं।