सविता सोहित व शिवानी तनेजा
इस लेख के ज़रिए हम कक्षा में बच्चों की प्रथम भाषा को एक संसाधन के रूप में इस्तेमाल कर व्याकरण के नियमों को ढूँढ़ने के अनुभवों को साझा कर रहे हैं। सविता ने कक्षा में बच्चों की सक्रिय भागीदारी को यहाँ विस्तार से प्रदर्शित किया है। अन्त में शिवानी ने कक्षा की प्रक्रियाओं का संक्षिप्त विश्लेषण किया है।
मुस्कान, भोपाल की एक गैर-सरकारी संस्था है, जिसके द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में हमने यह काम किया। यहाँ भोपाल की बस्तियों में रहने वाले वंचित समुदायों जैसे गोंडी, पारधी, अगरिया -- आदिवासी समुदायों के साथ-साथ दलित, खास तौर पर मांग व अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चे आते हैं। शिक्षा से जुड़ने वाली अपने परिवार की यह पहली पीढ़ी है।
हमारे इस काम के दौरान हर पखवाड़े शिक्षकों के एक छोटे समूह ने शिक्षा के उद्देश्यों को और आगे बढ़ाने के लिए कक्षा में उपलब्ध भाषाओं का उपयोग कैसे करें, इस पर तैयारी कर पाठ योजनाएँ बनाईं।
सविता की कक्षा में 6 से 9 साल की उम्र के 25 बच्चे हैं। वे आदिवासी भाषाएँ गोंडी और पारधी के अलावा मराठी, उर्दू और हिन्दी बोलते हैं। जब ये सत्र शु डिग्री किए गए तब बच्चे शब्द और छोटे वाक्य पढ़ने के स्तर पर थे।
कक्षा में बहुभाषिता का प्रवेश
एक दिन मैंने बच्चों को कहा कि चलो उन सब भाषाओं की सूची बनाते हैं जिन्हें हम जानते हैं और एक-दूसरे से सीख सकते हैं। बच्चों से पूछा कि वे कितनी भाषाओं के नाम जानते हैं और कौन-कौन-सी भाषाएँ बोलते व सुनते हैं। बच्चों के कान में जैसे ही यह बात गई, कुछ बच्चे फटाक से बतलाने लगे।
देव (9 वर्षीय लड़का)- मैं गोंडी भाषा जानता हूँ। बोलता हूँ। हिन्दी भी बोलता हूँ।
देशमणी (9 वर्षीय लड़की)- गुजराती भाषा जानती हूँ।
बलराज (8 वर्षीय लड़का)- मेरी भाषा पारधी है, हिन्दी भी बोलता हूँ। अपनी जात वाले से पारधी भाषा में बात करता हूँ।
दिव्या (9 वर्षीय लड़की)- मेरे घर में मराठी बोलते हैं। मम्मी को मराठी आती है लेकिन मैं तो सबके जैसी भाषा बोलती हूँ।
बोर्ड पर कुछ भाषाओं के नाम तो आ ही गए थे, सो मैं बात आगे बढ़ाने को हुई तभी किन्हीं और बच्चों की आवाज़ आई। इन बच्चों ने अभी तक कुछ नहीं बोला था, शायद इन्तज़ार कर रहे थे कि मैं नाम से उनसे पूछूँगी या किसी और की बात में उनकी भाषा आ ही जाएगी।
राजा (8 वर्षीय लड़का)- उर्दू बोलते हैं और सीखने जाता हूँ। हिन्दी और इंग्लिश भाषा की कहानियाँ सुनते हैं।
महाराज (7 वर्षीय लड़का)- गंगा नगर बस्ती के दूसरी तरफ के लोग बंगाली भाषा बोलते हैं।
क्यादू (10 वर्षीय लड़की)- मेरे घर के पीछे मोहिनी रहती है। उसकी माँ बाँस की टोकरी बनाती है। वो छत्तीसगढ़ी बोलती हैं।
मैंने ये भाषाएँ भी सूची में जोड़ दीं। स्पष्ट था कि हर बच्चा उत्सुक था, और चाहता था कि उसकी भाषा भी बोर्ड पर लिस्ट की जाए। बच्चे यह भी जानते हैं कि अलग समाजों में अलग लोगों के साथ अलग भाषाओं से संवाद होता है।
विभिन्न भाषाओं में व्याकरण
हमारी योजना में वाक्यों में शब्दों के चुनाव, और शब्दों के रूप में बदलाव को पहचानते हुए एकवचन-बहुवचन, लिंग और काल को समझना था। इसमें हम सभी भाषाओं को इस्तेमाल करना चाहते थे। शु डिग्री में हमें यह पक्का नहीं था कि कितने सत्रों में यह काम पूरा किया जा सकेगा।
शु डिग्री में मैंने एक वाक्य लिखा- मैं बाज़ार जा रहा हूँ।
तो कुछ बच्चे जो पढ़ना सीख रहे थे (वन्दना, बलराज, राजा, महाराज, देव) वाक्य पढ़ने की कोशिश करने लगे। सभी बच्चे अपनी गति से पढ़ रहे थे, और एक बार पढ़ने के बाद वापस सबने फट-से वाक्य पढ़ दिया। पूरे समूह को शाबाशी देते हुए मैंने अगला वाक्य ठीक पहले वाले के नीचे लिखा।
मैं बाज़ार जा रहा हूँ।
मैं बाज़ार जा रही हूँ।
दोनों वाक्यों को बच्चों ने पढ़ लिया।
फिर मैंने पूछा कि “क्या दोनों एक जैसे हैं या दोनों वाक्यों के बीच कुछ फर्क लग रहा है?”
देव- एक लड़का बाज़ार जा रहा है। एक लड़की बाज़ार जा रही है।
बलराज- बाज़ार एक जैसा है दोनों में, और दोनों ही बाज़ार जा रहे हैं।
महाराज- एक-एक जन ही बाज़ार जा रहा है। अकेले-अकेले जा रहे हैं।
बोर्ड पर एक और वाक्य लिखा-राजा बाज़ार जा रही है।
इसे पढ़ते हुए बच्चे एक साथ बोल पड़े, “गलत है दीदी। राजा लड़की थोड़ी है न।”
मैंने बच्चों से पूछा, “इसको हम तुम्हारी भाषा में कैसे बोलेंगे?”
उमेश- मेरी भाषा (पारधी भाषा) में छो डिग्री बाज़ार जई रियो छे।
प्रद्यामणी (एक और पारधी बच्ची)- लड़की को जई रई छे बोलेंगेे। छोकरी बाज़ार जई रई छे।
देव (गोंडी भाषा में)- बूआ हाटुम हन्तोर (पापा हाट जा रहा है)।
महाराज- खनक हाटुम हन्ता (खनक हाट जा रही है)।
इस तरह बहुत सहजता से ही बच्चों ने पकड़ लिया था कि लड़का-लड़की की अवधारणा भाषा में झलकती है और लिंग-भेद वाक्य में कहाँ झलक रहा है अर्थात् कैसे प्रस्तुत किया जा रहा है, यह भी समझ पा रहे थे। मैंने पूछा कि “अगर लड़की बोलेगी कि मैं बाज़ार जा रही हूँ, तो कैसे बोलेंगे?”
महाराज - नन्ना हाटुम हन्तना (मैं बाज़ार जा रही हूँ)।
“और मैं बाज़ार जा रहा हूँ?”
“उसको भी यह ही बोलेंगे।”
(नियम वास्तव में जैसा दिख रहा है, वैसा ही है, समझने के लिए मैंने एक और वाक्य बोला) - मैं खेल रहा हूँ... मैं खेल रही हूँ।
क्यादू- नन्ना गढ़सीतना। दोनों के लिए ऐसा ही बोलेंगे।
मैं हर भाषा के वाक्यों के समूह को बोर्ड पर लिख रही थी। बच्चे शब्दों की ध्वनियों के बारीक फर्क को मात्राओं में देख रहे थे।
अब हिन्दी के वाक्यों के नीचे, मैंने अगला वाक्य लिखा- हम बाज़ार जा रहे हैं। बच्चों से पूछा इस वाक्य में क्या हो रहा है।
बलराज- हम दो लोग जा रहे हैं।
रानीका- तीन लोग भी हो सकते हैं।
शेखर- ऐसा भी बोल सकते हैं कि रानीका और बलराज जा रहे हैं। ज़्यादा जन होते हैं तो ‘हम’ बोलते हैं, मैं नहीं बोलते।
उमेश- ‘और’ से पता चलता है कि अकेले नहीं हैं, दो लोग हैं।
दिव्या- ‘रहे’ से समझ आया ज़्यादा लोग हैं।
बच्चों की चर्चा और भाषा के ऊपर कार्यवाही अपने आप आगे बढ़ती जा रही थी। जब जिस बच्चे को बात पकड़ में आ रही थी, वह उत्सुकता से उसको अपने शब्दों में व्यक्त कर रहा था। कुछ बच्चे बोर्ड पर नज़र मारते और कुछ सोचने में ही लगे हुए थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बच्चों के वाक्यों की पोटली खुल गई थी, जो ख्याल मन में आ रहा था, उसको बोल कर देखना चाहते थे।
बच्चे जो बोल रहे थे, मैं बीच-बीच में बोर्ड पर लिखती जा रही थी। समझ आ रहा था कि बच्चे कुछ बात पकड़ रहे हैं, इसलिए तो बोलने में लगे हैं।
दिव्या- हम खाना खा रहे हैं।
प्रद्यामणी- हम बीन रहे हैं।
देव- हम पिकनिक जा रहे हैं।
महाराज- हम कहानी लिख रहे हैं।
दीक्षा- हम हॉस्टल जा रहे हैं।
क्यादू- हम गाना गा रहे हैं।
दूसरी भाषाओं में ये नियम कैसे चलता है, इसको देखने के लिए पारधी और गोंडी पर काम करना शु डिग्री किया।
महाराज सबसे पहले बोला (गोंडी में)- अमो जावा तिनतनोम्।
क्यादू- अमोट दोरसीतनोम् (हम थक गए हैं)।
राजीव- अमोट डेरे ते डैयतनोम् (हम घर जा रहे हैं)।
देव- अमोट माने हम (खुद ही बोला)।
जैसे ही बच्चे गोंडी में बात करने लगे तो दूसरे बच्चों के सवाल शु डिग्री हुए।
“हाटूम क्या है?”
“बाज़ार।”
“दोरसी क्या है?”
“थक गए।”
एक नई भाषा आने से कक्षा में एक अलग उत्सुकता आ गई और इसने चर्चा को एक और रूप दे दिया।
प्रद्यामणि- खून को क्या बोलते हैं?
क्यादू- नत्तुर।
प्रद्यामणि- मेरी भाषा में लोही बोलते हैं।
नूमान- बच्चों को क्या बोलते हैं?
देव- छव्वा।
अमर- छो डिग्री को छीया।
दिव्या- पति को क्या बोलेंगे?
रेनूका- पति को बाबरी।
राजीव- मिददो (गोंडी में)।
बच्चों की उत्सुकता और आपस में तल्लीनता से काम करते हुए देख मुझे लग रहा था कि कुछ सकारात्मक और उपयोगी हो रहा है।
मैं चाह रही थी कि चर्चा को करते-करते बच्चे इस अवधारणा को पकड़ पाते कि सभी भाषाओं में एक नियमावली है, और अपनी भाषा में चल रहे नियमों को ढूँढ़ते। इसलिए मैंने पूछा, “क्या हम सब गोंडी में एक वाक्य बना सकते हैं और देव, राजीव, क्यादू, महाराज हमारी मदद कर सकते हैं?”
सब ने वापस बोर्ड को देखा...
राजा तुरन्त बोला- अमोठ केला तिनतनोम्।
अमर बोला- अमोठ खिचड़ी तिनतनोम्।
बाकी बच्चे खाने की बात के अलावा बोलने की कोशिश कर रहे थे लेकिन हम सबके पास गोंडी में शब्दकोष नहीं था।
बच्चों से पूछा कि हर वाक्य में क्या एक जैसा है।
“अमोठ”
“और क्या?”
“तनोम्।”
“अमोठ माने...?”
“हम”
“जब भी एक से ज़्यादा हैं तो क्या आ रहा है?”
“तनोम्।”
हिन्दी में भी तुमने जो बोला था, उसमें भी ऐसा था... हम... रहे हैं।
बच्चों ने अपने-अपने सन्दर्भों से जुड़े वाक्य बनाए (चर्चित वाक्य संरचना के आधार पर)। हर बच्चे के लिए मैंने उसके कागज़ पर ये वाक्य लिखकर दिए। बच्चे इन छोटे वाक्यों को पढ़ते हुए कहानी आगे बढ़ाते और उसको चित्रित करते। कुछ बच्चे खुद आगे लिखते और कुछ बच्चों के लिए उनकी प्रथम भाषा में या हिन्दी में चित्र के सामने मैं आगे लिखती।
इसी दौरान मैंने कक्षा में बच्चों की भाषा और हिन्दी को मिलाते हुए अभिव्यक्ति के लिए मौके बनाए। अँग्रेज़ी में आ रहे छोटे वाक्यों के लिए बच्चे हिन्दी, गोंडी, पारधी, मराठी भाषाओं में समकक्ष वाक्य बना रहे थे। हमारे कमरे की दीवारें इन सभी भाषाओं से भरने लगी थीं।
काल की अवधारणा
व्याकरण सीखने के अगले चरण में हमने ‘काल’ की अवधारणा पर काम करना शु डिग्री किया। तैयारी के दौरान हमारे बीच यह बात उभर रही थी कि इतने छोटे बच्चों के साथ यह करने की आवश्यकता क्यों है, और हम नहीं कर पाएँगे। मेरा बच्चों की क्षमताओं पर विश्वास बढ़ता जा रहा था। हम लोगों ने तय किया कि जैसे पहले वाक्यों से शु डिग्री किया था, वैसे ही करेंगे, और देखेंगे कि बच्चे किस तरीके से काल को समझते हैं। हम लोग भी आपस में साप्ताहिक फीडबैक और अगली योजना के लिए बैठने लगे क्योंकि हम सबके लिए यह नया था।
अब मैंने बोर्ड पर एक वाक्य लिखा- राज घर जा रहा था।
सबने अटकते हुए धीरे-धीरे पढ़ डाला और फिर धारा प्रवाह पढ़ दिया।
मैंने पूछा, “इसमें क्या समझ आ रहा है?”
करण ने वापस पढ़ते हुए कहा- राज घर जा रहा था।
और फिर ऊपर देखकर बोला- दीदी, वो घर चला गया।
मैंने फिर पूछा, “यह वाक्य क्या बता रहा है?”
बलराज- कोई किसी को बता रहा है।
उमेश- राज किसी को बता रहा है... मैं घर जा रहा था।
मैंने चर्चा को आगे बढ़ाया, “कब की बात होगी?”
करण- अभी तो बात कर रहे हैं।
मैंने बोला, “बहुत रात हो गई थी। राज घर जा रहा था।”
देशमणी- पहले की बात बता रहे हैं। वो घर जा रहा था।
मैंने पूछा, “यह कैसे पता?”
देशमणी- था से समझ में आता है। बहुत पुरानी बात करते हैं तब था, थी आता है।
दो-तीन बच्चे किताबों और वाक्यों में था, थे जैसे शब्दों को अलग से पहचानकर याद कर रहे थे और पुरानी चर्चाएँ अभी की चर्चा से जोड़ रहे थे, लेकिन मुझे समझ आ रहा था कि सब बच्चे चर्चा में साथ नहीं चल पा रहे। मुझे लगा मैंने गलत जगह से चर्चा शु डिग्री कर दी थी।
मैंने चर्चा को भविष्य की तरफ मोड़ा और बच्चों से पूछा, “स्कूल से जाने के बाद शाम को तुम क्या करोगे?”
उमेश- शाम को कहानी पढ़ूँगा।
बलराज- मैं स्कूल से जाकर बीनने जाऊँगा।
सुरभी- हम लोग खेलेंगे।
मैंने एक तरफ सुबह की बातें लिख दीं और एक तरफ शाम को होने वाली बातें लिख दी थीं। फिर पूछा, “अभी जो भी बोला है, वो कब की बात हैं?”
“शाम की।”
“कैसे पता कि पहले की बात नहीं है?”
“पहले की बात ऐसे नहीं बोलते।
आप ही ने तो पूछा था कि शाम को क्या करोगे, तो शाम की तो बात है।”
“सुबह क्या किया था?”
“मैं दुकान गया था।”
नुमान- मैं तोस लाया था।
बोर्ड पर लिखी बातों को देखा और एक खोज की नज़र से बोला- शाम की बातों में थी, थे, था नहीं आ रहा।
राजा तुरन्त बोला- ऐसे भी तो बोल सकते हैं कि शाम को पढ़ाई करेंगे था।
सभी बच्चों ने तुरन्त इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया, “ऐसे नही बोलेंेगे, गलत हो जाएगा।”
एकवचन और बहुवचन व स्त्रीलिंग और पुल्लिंग की अवधारणा को जोड़ने के लिए मैंने दो और वाक्य लिखे- राजा और इकरा घर जा रहे थे।
फिर ठीक नीचे अगला वाक्य- राजा और इकरा घर जा रही थी।
सभी बच्चे हँसने लगे और राजा सबसे पहले बोला- राजा और इकरा घर जा रहे थे; मैं थोड़ी न लड़की हूँ। मैं ही नहीं हूँ, मैं तो हा हूँ।
“ऊपर वाला सही लिखा है। हम दोनों जा रहे थे।”
“क्यों?”
“अगर इकरा के साथ हूँ तो रहे आएगा।”
राजा इन अवधारणाओं को पक्केपन से पकड़ रहा था। मैं सब बच्चों की सहजता और सजगता बढ़ाने के लिए उनकी प्रथम भाषा पर शिफ्ट हुई।
(पारधी) मन्ने काले ताव चढ़ी रयो थो (कल मुझे बुखार चढ़ रहा था)।
(पारधी) मैं गिरी गयो थो (मैं गिर गया था)।
(पारधी) काले हमीये माछली खादी थी (कल हमने मछली खाई थी)।
(गोंडी) नन्ना निन्ने वायवके (मैं कल नहीं आया था)।
(पारधी) काले मैं अण्टी खेली रयो थो (कल मैं अण्टी खेल रहा था)।
(गोंडी) नन्ना निन्ने मैंच गरन्दान (कल मैं मैच खेल रहा था)।
(पारधी) काले अर्चना दीदी बाज़ार गई थी (कल अर्चना दीदी बाज़ार गई थी)।
कक्षा के अन्दर अपनी भाषा में एक-दूसरे से बात करने में बच्चे और स्वाभाविक हो गए थे; वास्तविक दिलचस्पी से एक-दूसरे को बोलने के लिए प्रेरित कर रहे थे। और साथ ही हिन्दी को छोड़कर मराठी या गोंडी में बोली जा रही बात को अपनी भाषा में भी पेश कर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि इसके पहले तक हिन्दी में ज़्यादा मुझे बता रहे थे लेकिन अब आपस में काम कर रहे हैं।
सुरभि से अमर ने पूछा- (पारधी) काले तु सु करी रयो थो (तू कल क्या कर रहा था)?
अमर- मन्ने संजना नु मारीयु थू।
सुरभि- मैं दीक्षा नु संग खेली रई थी।
मैं भी इस सब में शामिल थी क्योंकि बातें सुनकर लिखने की ज़िम्मेदारी मेरी थी, लेकिन अब दिख रहा था कि मैं भी सब में से एक थी और प्रमुख तो कतई नहीं।
मैंने पूछा, “इन सब में आखिर में क्या आ रहा है?”
“थी, थू, थे (सब इकट्ठे बोले)।”
मैंने पूछा, “सो था, थी बोलने से क्या समझ में आता है?”
प्रद्यामणी बोली- हम पहले की बात बोल रहे हैं।
राजीव बोला- पहले की बात कहाँ है, कल ही की तो बात है।
मेरे सामने एक और चुनौती आ गई... पहले का अर्थ सबके लिए भिन्न था। ‘भूतकाल’ को कैसे पेश करूँ या बेहतर यह कि बच्चे इसे खुद कैसे परिभाषित करें।
चर्चा आगे बढ़ी, “पहले की बात कब की बात होती है?”
“जब हमारे माँ-बाप भोपाल आए।”
“जब अपन गाँव की बात करते हैं तब भी तो हम पुरानी बात करते हैं।”
“जंगल में आदिमानव रहता था।”
“इन्सान पत्ता पहनता था। बहुत सारे बाल दिखते थे। अब तो वैसे नहीं दिखते।”
अभी तक की कक्षाओं में चर्चाएँ और काम तो हो रहा था लेकिन कक्षा शु डिग्री किसी बात से होती थी और घूमती हुई विभिन्न पहलुओं को छूती, लेकिन अन्त की स्पष्टता नहीं थी। अगली क्लास में मैंने इस विषय के लिए व्यवस्थित तैयारी की।
‘भूतकाल’ के लिए अब कुछ वाक्य न लेते हुए काम करते-करते मैं कुछ क्रियाएँ करती गई। जैसे मैं बैठी और फिर थोड़ी देर में उठ गई। चॉक गिराई, फिर उठाई, किताब उठाई। फिर बच्चों से पूछा, “मैंने क्या-क्या किया था?”
बलराज- तुम बैठी थी।
अमन- चॉक गिराई थी।
दिव्या- किताब उठाई थी।
राजीव- उठकर फिर से बैठ गई थी।
बात सुनते हुए मैंने कुछ वाक्यों को बोर्ड पर भी लिख दिया। मैंने वापस बच्चों से प्रश्न पूछते हुए बोर्ड का इस्तेमाल किया।
1. आज सुबह से क्या-क्या किया है?
“गाना गाया था। आँखें बन्द करी थीं फिर गाना गाया था।”
नुमान, “तोस लाया था।”
“तुमने कहानी सुनाई थी।”
“अमोट वड़कित्नोम्” (हम सब बात कर रहे थे)।
“हमने दुख की बात करी थी। माँ की मार-पिटाई की बात करी थी।”
2. कल क्या-क्या किया था?
“मैंने खिचड़ी खाई थी।”
“मैंने गोभी की सब्ज़ी बनाई थी।”
“मैं जल्दी सो गई थी।”
“नन्ना अरदान” (मैं गिर रहा था)।
“नन्ना अड़ितना” (मैं रो रही थी)।
“नन्ना मिन्ने साइकिल चालू किनदान” (मैंने साइकिल चलाई थी)।
“आशी रो रही थी” (मैंने भी अपनी बेटी का बताया)।
“अमोट वड़कित्नोम्” (हम सब बात कर रहे थे)।
“प्रियंकाल सुन्छी मत्तना” (सो गई थी)।
3. बारिश के मौसम में क्या किया था?
“हम गाँव गए थे।”
“हमने राखी बाँधी थी।”
“मेरी बस्ती में कीचड़ हो गया था।”
“होस्टल के बच्चे राखी पर घर गए थे।”
सभी वाक्यों को बोर्ड पर लिखते हुए मैं पूछती जा रही थी कि कब की बात है। बच्चे परेशान होकर बोल रहे थे, “दीदी, अभी की तो बात है, सुबह ही तो लाया था, कल ही का तो पूछ रही हो। फिर वापस क्यों पूछ रही हो?”
मैं थोड़ी-थोड़ी उलझन में थी कि बच्चे बोर न हो जाएँ पर वे इतने अच्छे से एक-दूसरे की बात सुनकर अपनी बातें जोड़ रहे थे कि मुझे चर्चा आगे ले जाने में मदद मिल रही थी। बच्चों की उत्सुकता से मुझे आगे काम करने का प्रोत्साहन भी महसूस हो रहा था।
मैंने वापस पूछा, “यह सब बातें कब की हैं... पहले की या आगे की या अभी की?”
राजीव बोला- पानी गिर रहा था तब की बात है। पुरानी बात है।
प्रद्यामणी बोली- कल की बात है। देखो, करन कल नहीं आया था, आज तो आया है।
राजीव समझदारी से बोला- बीता हुआ दिन है इसलिए हम उसके बारे में बात कर रहे हैं।
राजा को भी अपनी बात रखनी थी, सो बोला- आज का दिन भी तो निकलने वाला है, 12 बज गए हैं, है न।
अमरनाथ बोला- बीत चुका है। जो-जो कर चुके हैं सब लोग।
सो बच्चों की बात को पकड़ते हुए मैंने पूछा, “इन सबमें कैसे पता चलता है कि पहले की, बीती हुई बात है?”
इतने अभ्यास के बाद बच्चे फट-से बोले, “था, गए थे, बैठी थी से।”
हम सबने मिलकर सब वाक्यों में से था, थी, थे, थो, हन्दोम्, हंजी मत्तना, मत्तोर, वायवके, गरसदोम् को चिन्हित किया।
मैंने जाँचने के लिए पूछा, “आदिमानव की बात भी पहले की है। उसको कैसे बताएँगे?” सो बच्चे बोले, “बहुत साल पहले की बात है, लेकिन हाँ, पहले की बात है।”
दीपा बोली- बहुत साल पहले जब आदिमानव जंगल में रहते थे... (ऐसे बोलेंगे)।
विक्की ने जोड़ा- हज़ार करोड़ साल कहकर भी कहानी सुनाते हैं, मैंने टी.वी. में देखा है।
चर्चा की बातों को एक करने के उद्देश्य से मैंने बोला, “हम सब बीते हुए समय के बारे में जो-जो बोल रहे हैं, वो लिख सकते हैं ताकि भूले नहीं।” बच्चों की उत्सुकता प्रकट हो रही थी, “जल्दी-से लिख दो। हम तो बोल ही रहे हैं दीदी।”
“जो दिन-समय बीत गया, टाइम निकल गया, वापस नहीं आएगा, गुज़र गए दिन में, अभी से पहले हमने कुछ काम किया था, जो हो चुका है, इसको हम बीती बात या अभी से पहले की बात बोलेंगे।” इस तरह पूरी चर्चा को समेटते हुए बच्चों ने भूतकाल को परिभाषित कर ही दिया।
कक्षा में इसके बाद जो दिखने लगा
इस पूरे काम के बाद बच्चों में विभिन्न नए व्यवहार देखने में आए। कभी कुछ करते-करते बातों में काल को पकड़ने लगते। एक दिन कमरे के बाहर पढ़कर अन्दर आए तो सब अपने आप ही अपनी भाषाओं में बोलकर देख रहे थे, “बाहर पढ़ रहे थे और अभी तो अन्दर बैठे हैं।”
कोई बच्चा अपनी भाषा में कुछ बात बोलता तो दूसरा भी अपनी भाषा में वो ही बात दोहराता। हिन्दी जानने वाले लोग पारधी भाषा को कुछ-कुछ समझ सकते हैं लेकिन गोंडी में मतलब पूछना ही पड़ता था। एक दिन गोंडी भाषा जानने वाला समूह कुछ बच्चों को गोंडी सिखा रहा था और उन्होंने नाम बोलने से शु डिग्री किया, नावा नाम देव मन्दा। कोई अँग्रेज़ी में बोलता तो कोई पारधी में मारो नाम रानिका छे, लेकिन अन्त तक गोले के (मराठी या हिन्दी बोलने वाले) आखरी बच्चे गोंडी में अपना परिचय दे रहे थे।
बच्चे एक-दूसरे की भाषा भी कुछ-कुछ इस्तेमाल करने लग गए। कभी शब्द तो कभी छोटे वाक्य। अँग्रेज़ी भी इन्हीं सब भाषाओं के बीच एक और भाषा बनने लगी।
विश्लेषण के कुछ बिन्दु
कक्षा में बच्चों की प्रथम भाषाओं को इस्तेमाल करते हुए व्याकरण के नियमों की खोज से जुड़ी प्रक्रियाओं ने हमारे लिए सीखने के कई मौके बनाए। इस प्रयास के दौरान ऐसा प्रतीत हुआ कि हम कई मर्तबा बहुत पक्के नहीं थे और टटोल रहे थे कि क्या तरीका सबसे कारगर रहेगा। बहरहाल इस प्रक्रिया के दौरान कई ऐसे संकेत भी दिख रहे थे जो बताते कि हम एक ‘सशक्त करने वाली शिक्षा’ के सही रास्ते पर चल रहे हैं।
1. बच्चे वास्तविक दुनिया की वास्तविक बातें बोल रहे थे। जीवन के अनुभवों का कक्षा की दुनिया में प्रवेश हो रहा था। एक मौखिक संस्कृति से आने वाले, अनुभवों की दुनिया से समृद्ध बच्चों के लिए कक्षा की गतिविधियों ने कोई विशेष जादूगरी नहीं की बल्कि मदद इस तरह हुई कि अपनी ज़िन्दगी को कक्षा में लाने के लिए कोई बाधाएँ नहीं बनाईं। बच्चे ऐसे वाक्य बुन रहे थे जो वे ज़िन्दगी में जीते हैं, और बाकी लोग दिलचस्पी से बातों में शामिल हो रहे थे, जैसे-
मैं गाड़ी देखने जा रहा था (बाकी बच्चों की उत्सुकता थी घर जाने के लिए कि गाड़ी आई कि नहीं)।
मेरी मॉँ को बीनने में खिलौने मिले (दूसरे बच्चे जानना चाहते थे कि कौन-से खिलौने लाई)।
2. बच्चों में विमर्श करने की और अपनी बातों पर ज़िद करने की क्षमताएँ दिख रही थीं।
कभी बच्चे शिक्षिका से ज़िद करते कि वाक्य को ऐसे नहीं, ऐसे लिखो या जैसे शिक्षिका लिख रही है, उसमें उनकी बात व्यक्त नहीं हो रही। कभी-कभी शिक्षिका भी नहीं समझ पाती कि कैसे कोई बात बदल रही है, लेकिन बच्चे की नज़र से बदल तो रही होती है।
शिक्षिका ने लिखा - अमन ने खिचड़ी खाई थी। तो बच्चे की ज़िद थी कि “लिखो ‘स्कूल से जाने के बाद अमन ने खिचड़ी खाई।’ ”
शिक्षिका ने लिखा - चाचा ने मारा था। सो बच्चे का कहना था कि “बड़े चाचा ने मारा था, ये लिखो (नहीं तो लगेगा छोटे वाले ने मारा था)।”
बच्चे आपस में विमर्श करते कि कोई वाक्य कैसे बोला जाएगा और उसमें क्या गलत है, या क्या बदला जाए। कई बार शिक्षिका बच्चों की खास मदद नहीं कर सकती थी क्योंकि वो खुद गोंडी/पारधी नहीं जानती लेकिन ऐसी स्थितियों में बच्चों की क्षमताओं को उभरने के लिए और मौके मिलते।
‘बिल्ली के तीन बच्चे थे’ का अनुवाद करते हुए बच्चों के बीच चर्चा हो रही थी कि बच्चों के लिए तीनी चेबलू या तीनी चेवला लिखा जाए। एक बच्चा कह रहा था, “चेवला भी कहते हैं।” तो दूसरे ने सोचकर बोला, “एक अकेले छोटे बच्चे को चेवला कहते हैं। यहाँ तीन बच्चे हैं तो इसको चेबलू कहेंगे।” सब मान गए और एक मिनकी न तीनी चेबलू था - यह तय किया।
3. कक्षा में भाषाओं की वरीयता नहीं थी; अर्थात् किसी एक भाषा से परे दूसरी भाषा को प्राथमिकता नहीं मिल रही थी। इसके चलते कुछ बातें नज़र में आईं-
- हम कभी द्वितीय भाषा को समझने के लिए प्रथम भाषाओं का इस्तेमाल कर रहे थे तो कभी द्वितीय भाषा लेते हुए बच्चों की विभिन्न प्रथम भाषाओं को परखने में उसका उपयोग कर रहे थे। इससे सब बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित हो सकी क्योंकि ‘हिन्दी’ (ज़्यादातर बच्चों की दूसरी भाषा) सेतु का काम करते हुए भी प्रमुख भाषा नहीं बन रही थी।
- जैसे ही हिन्दी को अलग रखा जाता, कुछ ही पलों में, कक्षा के माहौल में अन्य सब भाषाएँ पनपने लगतीं। इससे समझ आता है कि सभी भाषाओं को एक जगह और एक समय पर उपस्थित रहने में आसानी थी जब स्थानीय प्रभुत्व वाली भाषा को अलग किया गया, या ज़्यादा-से-ज़्यादा इसे एक और भाषा का दर्ज़ा दिया गया। यह तब सम्भव नहीं था जब हिन्दी शिक्षा का माध्यम अर्थात् निर्देशन के साथ-साथ साक्षरता की भाषा का दर्ज़ा लिए हुए थी, या जब बोर्ड पर वह ही भाषा हावी होती थी।
4. कक्षा का माहौल बच्चों को उनकी पहचान और वे क्या-क्या जानते हैं, इसको साझा करने के लिए उत्सुकता को बढ़ावा दे रहा था। सभी बच्चे चाहते थे कि उनकी भाषा, उनकी कहानियाँ अर्थात् उनके जीवन की घटनाओं को कक्षा में जगह मिले। बच्चे अपनी दादी को भीख माँगते वक्त पास में खेलना, पड़ोस में झगड़े, पुलिस से खाई मार-पिटाई इत्यादि के बारे में लिखते और सबसे साझा करते। स्कूल, इस तरीके से, आसानी से अपने में आत्मसम्मान बढ़ाने का माध्यम बन गया। अपनी भाषा सम्बन्धी और सामाजिक पहचान के बारे में उनकी आँखों में सकारात्मकता थी।
5. इस पूरे काम के दौरान खोज की भावना रही। तहकीकात और मुश्किलों को हल करने के नज़रिए से यह काम शब्दों और वाक्यों के साथ खेलते-खेलते होता जा रहा था।
बच्चों के बीच ढूँढ़ने व विश्लेषण करने की स्पष्ट उत्सुकता थी, और विश्वास था कि वे कर सकते हैं। वे तुलना कर रहे थे, अनुवाद कर रहे थे और अपनी भाषा के साथ-साथ सभी भाषाओं पर भी ध्यान दे रहे थे।
जब हिन्दी में वाक्य लम्बा था, लेकिन गोंडी में छोटा, तो उनकी इस पर टिप्पणी होती। फिर उनमें से कोई अपनी भाषा में अनुवाद करके देखता कि तीसरी भाषा में कैसा फैल रहा है। बच्चे अलग शब्दों को खोजने में, कैसे भाषा बनी होगी - जैसे प्रश्नों के बारे में भी उत्सुक थे। बच्चों की उत्सुकता के कारण, चर्चा एक बिन्दु से शु डिग्री होकर विभिन्न जगहों से घूमती।
6. बच्चों के लिए पढ़ाई का बोझ नहीं था। एक बार तो उन्होंने स्पष्ट ‘पढ़ाई’ की माँग रखी। उनको ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे पढ़ रहे हैं क्योंकि न ही उन्हें शिक्षक कुछ सिखा रहा था और न ही वे बहुत लिख रहे थे जो कि पढ़ाई के मूल तत्व माने गए हैं। वरन् भाषाओं के साथ चर्चाएँ और प्रयोग की बहुत अकादमिक सम्भावनाएँ थीं, लेकिन इन गतिविधियों के माध्यम से बहुत-सा साक्षरता बढ़ाने हेतु काम भी होता जा रहा था।
7. बहुभाषीय कार्यक्रम से कक्षा में लोकतांत्रिक संस्कृति और बराबरी का माहौल उत्पन्न हो रहा था। सब बच्चों को बोलना और दूसरे को सुनने की आवश्यकता होती थी। अलग कारणों से हाशिए पर बच्चे, जातिगत पहचान या स्वभाव से शर्मीले बच्चे भी कक्षा में अपनी बात रख रहे थे। इस पूरी प्रक्रिया में ऐसा कोई बच्चा नहीं था जिसने अपना योगदान नहीं दिया हो। बच्चों के बीच की बराबरी के साथ-साथ शिक्षिका के साथ बच्चों के रिश्ते में भी बराबरी आ गई थी। वयस्क होते हुए, शिक्षिका चर्चा को चला रही थी, लेकिन कभी भी उत्तर देने वाली नहीं बन रही थी। शिक्षिका के कई बार कुछ नहीं समझने पर या गलती होने पर, बच्चे ही ठीक कर सकते थे क्योंकि वे ही अपनी भाषा को जानने वाले होते थे। शिक्षिका को कई बार इसका एहसास होता था कि कक्षा में जो हो रहा है, वो उसके नियंत्रण में नहीं है और वो खुद इसको जानती नहीं; सीखने की कोशिश में भी वो अनजान भाषा को जल्दी पकड़ नहीं पाती। यह अनुभव व्यक्ति को नम्र करता है और कक्षा में सबकी सहभागिता और सबके ज्ञान और क्षमताओं को एक अलग पहचान देता है।
यह शिक्षण पद्धति संज्ञानात्मक पहलुओं के साथ-साथ बच्चों के भावनात्मक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण रही।
सविता सोहित: ‘मुस्कान’ संगठन द्वारा संचालित शाला ‘जीवन शिक्षा पहल’ में पिछले आठ वर्षों से अलग-अलग भाषाओं के बच्चों के साथ गतिविधियाँ करती हैं।
शिवानी तनेजा: ‘मुस्कान’ संगठन के माध्यम से भोपाल में शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हैं।