सुशील जोशी
रेडियो-विखण्डन से आयु निर्धारण की विधि को समझने से पहले थोड़ी समझ इस प्रक्रिया के बारे में ज़रूरी है। रेडियो-सक्रियता की खोज 1896 में हेनरी बेकेरल ने की थी। उन्होंने देखा था कि कुछ तत्वों में से विकिरण तथा ऊर्जा निकलती है। आगे चलकर पता चला कि वास्तव में इन तत्वों के परमाणु अस्थिर होते हैं और इनमें से उप-परमाणविक कण निकलते रहते हैं। जब इन तत्वों के परमाणुओं का विखण्डन होता है तो नए परमाणु बनते हैं जो किसी अन्य तत्व के होते हैं। यदि ये परमाणु भी अस्थिर हुए, तो विखण्डन की प्रक्रिया आगे भी चलती रह सकती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक कि स्थिर परमाणु नहीं बन जाते।
इस प्रक्रिया के विस्तृत अध्ययन से कई बातों का खुलासा हुआ। इनमें से सबसे प्रमुख बात यह थी कि इस विखण्डन की दर सिर्फ इस बात पर निर्भर करती है कि सम्बन्धित रेडियो-सक्रिय परमाणुओं की कुल संख्या कितनी है। इस दर को हम अर्ध-जीवनकाल या अर्धायु के रूप में व्यक्त करते हैं। यदि किसी रेडियो-सक्रिय तत्व की एक निश्चित मात्रा ली जाए तो उसमें से आधे परमाणु एक निश्चित अवधि में टूट जाएँगे और नए तत्व के रूप में सामने आ जाएँगे।
प्रकृति में ऐसे कई अस्थिर परमाणु पाए जाते हैं। इनमें युरेनियम, थोरियम, पोटेशियम, कार्बन वगैरह के नाम गिनाए जा सकते हैं। कार्बन का उदाहरण लें तो प्रकृति में कार्बन के सारे परमाणु एक-से नहीं होते। कार्बन के जितने भी परमाणु होंगे, उनमें प्रोटॉन की संख्या (यानी उनकी परमाणु संख्या) तो 6 ही होगी मगर उनके परमाणु भार अलग-अलग हो सकते हैं। एक ही परमाणु संख्या मगर अलग-अलग परमाणु भार वाले ऐसे परमाणुओं को समस्थानिक (आइसोटॉप) कहते हैं। कार्बन के तीन प्रमुख समस्थानिक हैं - परमाणु भार 12, 13 और 14। इन्हें 12C, 13C और 14C के रूप में लिखा जाता है। इनमें प्रोटॉन की संख्या तो 6-6 ही है मगर न्यूट्रॉन की संख्या अलग-अलग होने की वजह से इनके परमाणु भार अलग-अलग हैं। कार्बन के इन तीन समस्थानिकों में से 14C अस्थिर है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह पता चली कि किसी तत्व की अर्धायु पर इस बात का कोई असर नहीं पड़ता कि उसे कितने तापमान पर रखा गया है या उस पर कितना दबाव आरोपित किया गया है। एकमात्र चीज़ जो विखण्डन को प्रभावित करती है, वह है परमाणुओं की कुल संख्या।
इसका मतलब हुआ कि अतीत में भी विखण्डन की दर आज जैसी ही रही होगी। यानी यदि हमें किसी रेडियो-सक्रिय तत्व की शुरुआती मात्रा मालूम हो, तो हम आज उपस्थित मात्रा के आधार पर समय की गणना कर सकते हैं। इसे रेडियोमेट्रिक समय मापन कहते हैं।
आप देख ही सकते हैं कि इस विधि की प्रमुख दिक्कत प्रारम्भिक स्थिति जानने की है। उसी का हल निकालना तो बीसवीं सदी की खास वैज्ञानिक उपलब्धि थी।
कुछ रेडियो-सक्रिय तत्वों की अर्धायु तालिका में देखें। | |||
तत्व का नाम | मूल समस्थानिक | अन्तिम तत्व | अर्धायु |
युरेनियम | 238U | 206PB | 4.47 अरब वर्ष |
युरेनियम | 235U | 207PB | 70.7 करोड़ वर्ष |
थोरियम | 232TH | 208PB | 14 अरब वर्ष |
पोटेशियम | 40K | 40AR और 40 ca | 1.28 अरब वर्ष |
रुबिडियम | 87RB | 87SR | 49 अरब वर्ष |
सेमेरियम | 147SM | 14Nd | 106 अरब वर्ष |
कार्बन | 14C | 14N | 5,730 वर्ष |
कार्बन के समस्थानिक विश्लेषण के आधार पर किसी नमूने की उम्र पता करना अपेक्षाकृत आसान है क्योंकि कार्बन के मामले में हम शुरुआती स्थिति जानते हैं। तालिका से स्पष्ट है कि कार्बन (14C) की अर्धायु करीब साढ़े पाँच हज़ार वर्ष है। यानी शुरु में कार्बन-14 की जितनी मात्रा होगी, साढ़े पाँच हज़ार साल बाद उससे आधी रह जाएगी। तो इस विधि का उपयोग यदि हम 10 अर्धायुओं के बराबर अवधि के लिए करें, तो करीब 50,000 साल पुरानी वस्तुओं के बारे में काफी सटीकता से बात कर सकते हैं। कार्बन विधि का उपयोग आम तौर पर सजीवों के अवशेषों (जीवाश्मों) के सन्दर्भ में किया जाता है। तर्क निम्नानुसार है।
दरअसल, पृथ्वी की उम्र का अनुमान लगाने के लिए सबसे पहला प्रयोग तो 1779 में कॉम्टे डी बुफों ने किया था। उन्होंने एक छोटी-सी धरती बनाई - यानी एक ऐसा गोला बनाया जिसका संघटन उन्होंने पृथ्वी जैसा रखा था। इस गोले को गर्म किया और फिर इसके ठण्डे होने की दर का मापन किया। इसके आधार पर गणना की तो पृथ्वी की उम्र निकली करीब 75,000 वर्ष। लगता है केल्विन का तर्क यहीं से निकला था। |
वातावरण में कार्बन के विभिन्न समस्थानिकों का अनुपात लगभग निश्चित रहता है क्योंकि कार्बन 14 का लगातार निर्माण होता रहता है और विघटन होता रहता है। इसका मतलब है कि सारे सजीव जो कार्बनिक पदार्थ बाहर से लेते हैं उनमें कार्बन के समस्थानिकों का अनुपात उतना ही रहता है, जितना वातावरण में है। मृत्यु के बाद कार्बन का इनपुट रुक जाता है। यानी मृत्यु के समय किसी भी सजीव के शरीर में कार्बन समस्थानिकों का एक निश्चित अनुपात होगा (जो वातावरण में इनके अनुपात के बराबर होगा)। इसके बाद कार्बन-14 विघटित होता रहता है। हम जानते हैं कि जितना भी कार्बन-14 था उसमें से आधा साढ़े पाँच हज़ार सालों में विघटित हो जाएगा। तो किसी भी नमूने में कार्बन-14 की मात्रा के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस जीव की मृत्यु कब हुई होगी।
मगर अन्य तत्वों के बारे में शुरुआती स्थिति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। खास तौर से जिन तत्वों की अर्धायु करोड़ों या अरबों वर्ष है उनके बारे में कहा नहीं जा सकता कि बात कहाँ से शुरु हुई थी। मगर वैज्ञानिकों ने इस समस्या के समाधान का जुगाड़ कर ही लिया।
सबसे पहले तो यह अध्ययन किया गया कि जब कोई तत्व विघटित होता है तो कौन-से तत्व बनते हैं। पता चला कि विघटन के बाद बना तत्व भी प्राय: अस्थिर होता है और आगे विघटित हो जाता है। तो कई वैज्ञानिकों ने विभिन्न रेडियो-सक्रिय तत्वों के क्रमिक विघटन की श्रंखला तैयार कीं। इन श्रंखला का अन्तिम बिन्दु कोई स्थिर तत्व होता है, जहाँ जाकर विघटन रुक जाता है। इनमें सबसे पहले युरेनियम-रेडियम और थोरियम की विघटन श्रंखला की खोज की गई।
इस विधि को पुख्ता बनाने में अगला कदम यह खोज थी कि रेडियो-सक्रिय तत्वों के विघटन के दौरान जो अल्फा कण निकलते हैं वे हीलियम के रूप में प्रकट हो जाते हैं। फ्रेडरिक सॉडी और विलियम रामसे ने यह गणना कर ली कि रेडियम में से अल्फा कण निकलने की दर क्या होती है। यह तो पता चल ही चुका था कि ये अल्फा कण हीलियम के रूप में सामने आते हैं। इन दोनों तथ्यों को जोड़कर रदरफोर्ड ने चट्टान के एक नमूने की उम्र पता की जो 4 करोड़ वर्ष निकली।
मगर अभी बहुत काम करना बाकी था। काफी खोजबीन के बाद पता चला कि जब रेडियम का विघटन होता है तो अन्तिम पदार्थ सीसा यानी लेड बनता है। यह भी पता चल चुका था कि रेडियम खुद भी युरेनियम के विघटन का एक अन्तरिम उत्पाद है। इस खोजबीन को आगे बढ़ाते हुए रदरफोर्ड ने स्पष्ट किया कि रेडियम क्रमिक रूप से पाँच अल्फा कण छोड़ता है और विभिन्न तत्व बनते हैं और अन्त में सीसा बनता है। इस के आधार पर ही रदरफोर्ड ने प्रस्ताव दिया था कि किसी चट्टान में विभिन्न अन्तरिम उत्पादों का विश्लेषण करके उसकी उम्र पता लगाई जा सकती है। इसी विधि का उपयोग करते हुए 26 चट्टानों की उम्रें निकाली गईं जो 9.2 से लेकर 57 करोड़ साल निकलीं।
हमने पहले ही कहा था कि उपरोक्त उम्र निकालने के लिए आपको प्रारम्भिक स्थिति मालूम होनी चाहिए। अभी तक हमने यह चर्चा नहीं की है कि यह प्रारम्भिक स्थिति कैसे पता चली या इसके बारे में क्या मान्यता लेकर आगे बढ़ा गया। चलिए अब उसी की बात करते हैं।
इस सन्दर्भ में पोटेशियम-40 एक उपयोगी समस्थानिक है। यह विघटित होकर आर्गन बनाता है और इसके विघटन की अर्ध-आयु 1.3 अरब वर्ष है। पोटेशियम-40 से आर्गन का बनना एक खास कारण से उपयोगी है। जब तक खनिज पिघली अवस्था में है, तब तक जितनी भी आर्गन बनेगी वह बुलबुलों के रूप में पलायन कर जाएगी। खनिज के ठोस होने के बाद बनी आर्गन वहीं फँसी रहेगी। यानी किसी ठोस नमूने के बारे में हम मानकर चल सकते हैं कि उसमें शुरुआत में सिर्फ पोटेशियम-40 था और आर्गन नहीं थी। अत: आज उस खनिज के नमूने में पोटेशियम-40 और आर्गन के अनुपात के आधार पर गणना की जा सकती है कि वह नमूना कब ठोस रूप में परिवर्तित हुआ था। जैसे यदि किसी चट्टान में बराबर मात्रा में पोटेशियम-40 और आर्गन-40 पाई जाए तो हम कह सकते हैं कि वह चट्टान 1.3 अरब वर्ष पूर्व ठोस अवस्था में आई थी।
मगर अन्य रेडियो-सक्रिय तत्वों के बारे में स्थिति इतनी सुगम व सुविधाजनक नहीं होती। इसके लिए वैज्ञानिकों ने काफी सिर खपाया और एक नई विधि स्थापित की। इस विधि का तर्क इस प्रकार है।
यह तो अब तक साफ हो चुका होगा कि कई तत्व समस्थानिकों के रूप में पाए जाते हैं। ऐसे एक ही तत्व के समस्थानिकों के बीच अन्तर यह होता है कि परमाणु संख्या एक ही होते हुए भी उनके परमाणु भार अलग-अलग होते हैं। ऐसे कई तत्वों के समस्थानिकों के निर्माण की प्रक्रिया दो तरह की होती है। हो सकता है कि कुछ समस्थानिक किसी अन्य तत्व के रेडियो क्षय से बनें। इन्हें रेडियोजनित समस्थानिक कहते हैं। उसी तत्व के कुछ अन्य समस्थानिक रेडियो क्षय से नहीं बल्कि सीधे-सीधे बन जाते हैं। विधि का आधार यह है कि वर्तमान में मूल तत्व (रेडियोसक्रिय) और गैर-रेडियोजनित समस्थानिक की मात्राओं का अनुपात और रेडियोजनित समस्थानिक व गैर-रेडियोजनित समस्थानिकों की मात्रा का अनुपात हमें नमूने की उम्र का सुराग दे सकता है।
इस विधि को आइसोक्रॉन विधि कहते हैं।
विधि का आधार
आइसोक्रॉन काल निर्धारण विधि में मान्यता यह होती है कि किसी भी चट्टान में पुत्री तत्व के रेडियोजनित व गैर-रेडियोजनित, दोनों समस्थानिकों की अज्ञात मात्रा रही होगी। साथ में कुछ मात्रा मूल तत्व की भी रही होगी। यानी ठोस अवस्था में आने से पहले चट्टान में रोडियोजनित पुत्री तत्व और गैर-रेडियोजनित पुत्री तत्व की मात्राओं के बीच कुछ अनुपात रहा होगा जो मूल तत्व की मात्रा से स्वतंत्र है।
समय बीतने के साथ मूल तत्व का कुछ हिस्सा विखण्डित होकर रेडियोजनित समस्थानिक में बदल जाएगा जिसके चलते रेडियोजनित समस्थानिक और गैर-रेडियोजनित समस्थानिक का अनुपात बढ़ता जाएगा। शुरू में मूल तत्व की मात्रा जितनी अधिक रही होगी यह अनुपात उतनी ही जल्दी-जल्दी बढ़ेगा।
दूसरी ओर, मूल तत्व और गैर-रेडियोजनित समस्थानिक का अनुपात समय के साथ कम होता जाएगा। जिन चट्टानों में शुरुआत में मूल तत्व की मात्रा कम रही होगी उनमें रेडियोजनित पुत्री तत्व और गैर-रेडियोजनित पुत्री तत्व का अनुपात उतनी तेज़ी से नहीं बदलेगा जितनी तेज़ी से वह उन चट्टानों में बदलेगा जिनमें शुरुआत में मूल तत्व की मात्रा अधिक थी।
काल निर्धारण के लिए सबसे पहले चट्टान का चूर्ण बनाकर उसके खनिजों को अलग-अलग कर लिया जाता है। प्रत्येक खनिज में मूल तत्व और पुत्री तत्वों की मात्रा के बीच अनुपात अलग-अलग होता है। प्रत्येक खनिज के लिए इन विभिन्न मात्राओं के बीच सम्बन्ध निम्नलिखित समीकरण से व्यक्त किया जाता है:
इसमें D पुत्री समस्थानिक की शुरुआती सान्द्रता,
Di गैर-रेडियोजनित पुत्री समस्थानिक की सान्द्रता (जिसे समय के साथ स्थिर माना गया है),
pमूल तत्व की शुरुआती सान्द्रता,
Pt मूल तत्व की वह मात्रा है जिसका समय के साथ क्षय हुआ है।
गौरतलब है कि p-pt, D+pt औैर Di क्रमश: मूल तत्व, रेडियोजनित पुत्री तत्व और गैर-रेडियोजनित समस्थानिक की वे मात्राएँ हैं जो हमने नापी हैं।
अनुपात D+pt/Di (यानी पुत्री समस्थानिक और गैर-रेडियोजनित समस्थानिक की वर्तमान मात्राओं का अनुपात) और p-pt/Di (यानी मूल तत्व की वर्तमान मात्रा और गैर-रेडियोजनित समस्थानिक की मात्रा का अनुपात) मास स्पेक्ट्रोमेट्री से निकाला जाता है।
अब विभिन्न खनिजों के इन दो अनुपातों के बीच ग्राफ बनाया जाता है। ‘क्ष’ अक्ष पर पहला अनुपात और ‘य’ अक्ष पर दूसरा अनुपात लेते हैं। यदि ये सारे बिन्दु एक सरल रेखा पर आते हैं तो इस ग्राफ को आइसोक्रॉन कहते हैं। इस रेखा की ढलान हमें उस चट्टान की आयु बताती है।
अब इस बात को एक उदाहरण से समझना ज़्यादा आसान होगा। मान लीजिए हम ऐसी चट्टान का अध्ययन कर रहे हैं जिसमें वर्तमान में तीन तत्व पाए जाते हैं - रुबिडियम-87, स्ट्रॉन्शियम-87 और स्ट्रॉन्शियम-86।
आगे का विवरण मूलत: डेव थॉमस के आलेख न्यूक्लियर आइसोक्रॉन पर आधारित है जो वर्ष 2000 में ‘रिपोर्ट्स ऑफ दी नेशनल सेंटर फॉर साइंस एजूकेशन’ में प्रकाशित हुआ था।
मान लीजिए हम तीन चट्टानों के नमूने A, B और C का विश्लेषण करते हैं। मूल समस्थानिक रुबिडियम-87 (87Rb) है। इसके प्रत्येक परमाणु में 37 प्रोटॉन और 50 न्य़ूट्रॉन होते हैं। यह बीटा विघटन के ज़रिए स्ट्रॉन्शियम-86 (87sr) में तबदील हो जाता है। इस क्रिया की अर्धायु 49 अरब वर्ष है। बीटा विघटन का मतलब होता है कि परमाणु का एक न्यूट्रॉन टूटता है जिससे एक प्रोटॉन और एक इलेक्ट्रॉन बनता है और यह इलेक्ट्रॉन बीटा किरण के रूप में निकल जाता है। तो स्ट्रॉन्शियम-87 के परमाणु में 38 प्रोटॉन और 49 न्यूट्रॉन होते हैं। अर्थात् रेडियोजनित स्ट्रॉन्शियम का परमाणु भार तो रुबिडियम के बराबर ही रहता है मगर परमाणु संख्या एक अधिक होती है। स्ट्रॉन्शियम का एक और समस्थानिक है स्ट्रॉन्शियम-86 (86sr)। यह किसी रेडियो-क्षय से नहीं बनता और खुद भी विघटित नहीं होता।
आगे के सारे आँकड़े काल्पनिक हैं और बात को समझने के लिए सरल रखे गए हैं। तीन नमूनों के विश्लेषण से पता चलता है कि उनमें उक्त तीन समस्थानिकों की तुलनात्मक मात्राएँ निम्नानुसार हैं। यह आज की स्थिति है।
तालिका: वर्तमान विश्लेषण में विभिन्न समस्थानिकों की तुलनात्मक मात्राएँ
नमूना | 87Rb | 87sr | 86sr |
A | 60 | 80 | 40 |
B | 30 | 60 | 60 |
C | 10 | 60 | 100 |
अब देखें कि यह स्थिति 49 अरब वर्ष पहले कैसी रही होगी। ध्यान रखें कि 49 अरब वर्ष 87Rb की अर्धायु है। यानी 49 अरब वर्ष पहले 87Rb की मात्रा इससे दुगनी रही होगी और 87च्द्ध की मात्रा उसी अनुपात में कम रही होगी जबकि 86च्द्ध की मात्रा उतनी की उतनी रही होगी। यह स्थिति नीचे तालिका में दिखाई गई है।
तालिका: 49 अरब वर्ष पूर्व विभिन्न समस्थानिकों की मात्राएँ
नमूना | 87Rb | 87sr | 86sr |
A | 120 | 20 | 40 |
B | 60 | 30 | 60 |
C | 20 | 50 | 100 |
हम यह मानकर चल रहे हैं कि ये चट्टानें 49 अरब वर्ष पूर्व पिघली अवस्था से ठोस अवस्था में आई थीं। उस समय जो भी समस्थानिक उपस्थित रहे होंगे वे चट्टानों में कैद हो गए होंगे। अब परिवर्तन होगा तो सिर्फ रेडियो-क्षय के कारण होगा। इसका मतलब है कि रुबिडियम-87 और स्ट्रॉन्शियम-87 की मात्राएँ तो बदलेंगी मगर स्ट्रॉन्शियम-86 की नहीं।
49 अरब वर्ष रुबिडियम-87 की अर्धायु है। इसलिए 49 अरब वर्ष पूर्व आज के मुकाबले दुगना रुबिडियम-87 रहा होगा। आज रुबिडियम-87 की मात्रा 60 है तो 49 अरब वर्ष पूर्व यह 120 रही होगी। यानी आज से 60 अधिक। यह अतिरिक्त मात्रा वही है जो विघटित होकर स्ट्रॉन्शियम-87 बनी है। तो 49 अरब वर्ष पूर्व स्ट्रॉन्शियम-87 की मात्रा 20 (80-60) रही होगी।
अब हमें दो अनुपात पता करने होंगे - 87Rb/86sr 87sr/86sr
तालिका: 49 अरब वर्ष पूर्व विभिन्न समस्थानिकों के अनुपात
नमूना | 87Rb | 87sr | 86sr | 87Rb/86sr | 87sr/86sr |
A | 120 | 20 | 40 | 3.0 | 0.5 |
B | 60 | 30 | 60 | 1.0 | 0.5 |
C | 20 | 50 | 100 | 0.2 | 0.5 |
तालिका: वर्तमान में विभिन्न समस्थानिकों के अनुपात
नमूना | 87Rb | 87sr | 86sr | 87Rb/86sr | 87sr/86sr |
A | 60 | 80 | 40 | 1.5 | 2.0 |
B | 30 | 60 | 60 | 0.5 | 1.0 |
C | 10 | 60 | 100 | 0.1 | 0.6 |
अब करते यह हैं कि इन दो अनुपातों (87Rb/86sr और 87sr/86) का ग्राफ बनाते हैं। विभिन्न खनिजों में एक ही समय के अनुपातों को जोड़ने वाली रेखा का सम्बन्ध चट्टान की आयु से स्थापित किया गया है। इस विधि का गणित काफी जटिल है और मैं फिलहाल उसमें नहीं जाना चाहता मगर इतना ही कहा जा सकता है कि इस विधि ने हमें किसी भी नमूने की आयु पता करने में बहुत मदद की है। विभिन्न चट्टानों (यहाँ तक कि उल्का पिण्डों) के इस तरह के विश्लेषण से धरती की उम्र की रेंज मिलती है - 4.48 से लेकर 4.7 अरब वर्ष।
बात को यहीं समाप्त करता हूँ मगर यह स्वीकार करता हूँ कि आइसोक्रॉन विधि का पूरा तर्क मैंने अभी स्पष्ट नहीं किया है। इसे अगले किसी लेख में ज़रूर करूँगा।
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।