रुद्राशीष चक्रवर्ती

एक  मुहावरा  है,  ‘पलक  झपकते ही’। इसका उपयोग तब किया जाता है जब हम कहना चाहते हैं कि कोई चीज़ अत्यन्त कम समय में घटित हुई - लगभग उतनी तेज़ी से जितनी तेज़ी से हम पलकें झपकाते हैं। हमारी पलकों को झपकने में सेकण्ड का एक अंश ही लगता है। तो आपका क्या ख्याल है, हमें यह समझने में कितना समय लगेगा कि पलकें क्यों झपकती हैं? कुछ सम्भावित उत्तरों पर गौर करते हैं। पहले इन दो तथ्यों को देखिए-
* हमारी दोनों आँखों पर पलकें हैं, और
* जब हम रोते हैं या प्याज़ काटते हैं या ठण्डी और तेज़ हवा वाली रातों में तेज़ रफ्तार से बाइक चलाते हैं, तो आँखों से आँसू तो निकलते ही हैं, साथ ही हम पलकों से अपनी आँखों को बन्द कर लेते हैं। कहने का मतलब है कि हम पलकों का उपयोग अपनी आँखों की सुरक्षा के लिए करते हैं।
मगर आँखें बन्द हो जाने पर हमें कुछ दिखाई नहीं देता। सोते समय हम यही तो चाहते हैं (सपने देखना दूसरी बात है और वहाँ देखने का अलग ही मतलब होता है)। अलबत्ता, जागते हुए हम ऐसा नहीं चाहेंगे। तो सवाल यह है कि रोज़ाना जब हम 16-18 घण्टे जागते हैं, तो उस दौरान पलकें हमारी आँखों की रक्षा कैसे करती हैं। ज़ाहिर है, झपककर।
और पलक झपकना हमारी आँखों की रक्षा दोे तरह से करता है। झपकने  की क्रिया के दौरान पलकें और भवें नीचे आ जाती हैं और वे हवा तथा अन्य कणों को बाहर ही रोक देती हैं। हम कई बार अनैच्छिक रूप से ऐसा करते हैं। इसलिए जब कोई आपकी आँखों पर ज़ोर से फूँक मारता है तो बगैर सोचे आप अपनी आँख झपका देते हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब पलकें आँखों पर बन्द होती हैं (जो वे एक मिनट में औसतन 15-20 बार करती हैं) तब वे आँखों पर दो तरह के तरल पदार्थ फैला देती हैं।
* आँखों की अश्रु ग्रन्थियों में बनने वाले आँसू।
* सेबेशियस ग्रन्थि द्वारा बनाया जाने वाला स्नेहक तेल। सेबेशियस ग्रन्थियाँ भवों के प्रत्येक रोम के बीच में पाई जाती हैं। यह स्नेहक तेल आँसुओं को जल्दी-से वाष्पित होने से रोकता है।
ये दो तरल पदार्थ मिलकर आँखों में घुस आए धूल और उन अन्य कणों को बहाकर बाहर करने में मदद करते हैं जो पलकों की आँखों में धूल झोंककर अन्दर पहुँच जाते हैं। इसीलिए देखा गया है कि जब आप किसी धुआँभरे कमरे में प्रवेश करते हैं तो आप ज़्यादा जल्दी-जल्दी पलकें झपकाने लगते हैं ताकि आँखों में नमी बनी रहे और वे साफ रहें।
मगर जैसा कि वैज्ञानिकों ने पता लगाया है, पलक झपकाने में आँखों की सुरक्षा ही एकमात्र कारण नहीं है, कुछ और भी है।

पलक झपकना और हमारा दिमाग
उपयोगी जीव वैज्ञानिक संख्याओं के हारवर्ड डेटाबेस के मुताबिक मनुष्य की आँख की एक झपक 0.1 से 0.4 सेकण्ड अवधि की होती है। औसतन इसे 0.25 सेकण्ड मान लेते हैं। यदि इसके आधार पर हम यह हिसाब लगाएँ कि हम 1 घण्टे में पलकें झपकाने में कितना समय व्यतीत करते हैं तो यह आएगा 1200 न् 0.25उ 300 सेकण्ड। यानी 5 मिनट।
इसका मतलब यह हुआ कि जागते हुए हर घण्टे में 5 मिनट तो हमारी आँखें बन्द रहती हैं! यह हमारी जागृत अवस्था का लगभग 10 प्रतिशत है। ज़ाहिर है हमारी आँखों को गीला और साफ रखने के लिए पलकों को इतने लम्बे समय तक मशक्कत करने की ज़रूरत नहीं है। तो चक्कर क्या है?
इस गुत्थी को सुलझाने के लिए कुछ दिलचस्प बातों पर गौर कीजिए-
* जब हम कोई रोचक चीज़ पढ़ते हैं, तब प्रति मिनट 15 बार नहीं बल्कि मात्र 3-8 बार पलकें झपकाते हैं। बहुत सम्भावना है कि हमारी पलकें उस वक्त झपकें जब हम पन्ना पलटें या एक पंक्ति के अन्त से अगली पंक्ति के प्रारम्भ पर जाएँ।
* किसी वक्ता को सुनते वक्त श्रोता की आँखें तब ज़्यादा झपकती हैं जब वक्ता कथनों के बीच रुकते हैं।
* लोगों का कोई समूह एक ही वीडियो देखे, तो सब-के-सब लगभग एक ही समय पलक झपकाते हैं। खास तौर पर वे उस समय आँखें झपकाते हैं जब एक्शन में थोड़ी ढील आती है - जैसे जब कोई पात्र दृश्य में से निकल जाता है या जब कैमरा सरकता है।
* देखा गया है कि ‘मित्र’ इलाके में साइमुलेटर (अभ्यास के लिए बनाई गई विमान की अनुकृति) को उड़ाते समय फौजी पायलट ज़्यादा बार पलक झपकाते हैं और उनकी आँख के बन्द रहने की अवधि भी ज़्यादा होती है, बनिस्बत उस स्थिति के जब वे ‘दुश्मन’ इलाके में हों। पायलट उस समय पलक झपकाने को सबसे ज़्यादा रोककर रखते हैं जब वे शत्रु राडार द्वारा देख लिए गए हों और मिसाइल को देखने व उससे बचने की जुगत कर रहे हों या वायुयान को ज़मीन पर उतार रहे हों।

* व्यक्ति जब किसी ऐसे काम में लगे हों जिसमें दिमाग को एकाग्र रखना पड़ता है (जैसे कीबोर्ड पर काम करना या सुइयों की नोकों के पेचीदा विन्यास को देखना), उस समय वे सामान्य से काफी कम पलक झपकाते हैं। वे अपने काम में इतने लीन हो जाते हैं कि पलक झपकाना ‘भूल’ जाते हैं जिसकी वजह से आँखों में थकान महसूस होती है।
क्या आप इन सबमें कोई पैटर्न देख सकते हैं जो इन विभिन्न घटनाओं के बीच कड़ियाँ जोड़ता हो और पलक झपकाने के पीछे के ज़्यादा गहरे कारण की ओर इशारा करता हो?
शोधकर्ताओं को लगता है कि पलक झपकाने के क्षण वास्तव में बेतरतीबी से नहीं आते यानी ये रैंडम नहीं हैं। तो क्या उपरोक्त बिन्दु यह बताते हैं कि पलक झपकने का सम्बन्ध इस बात से है कि हम उस समय कोई ‘महत्वपूर्ण’ काम कर रहे हैं या नहीं, कोई ऐसा काम जिसके लिए काफी मानसिक श्रम लगता है?
यूएस के प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ के दिसम्बर 2012 के अंक में प्रकाशित एक शोध पत्र में वैज्ञानिकों के एक दल (अधिकांश वैज्ञानिक जापान के ओसाका विश्वविद्यालय के थे) ने बताया था कि पलक झपकना मस्तिष्क के लिए क्षणिक विश्राम का तरीका हो सकता है। इससे मस्तिष्क को थोड़ा भटकने और ‘ऑफलाइन’ जाने का मौका मिलता है। ये संक्षिप्त अवकाश सेकण्ड के बहुत छोटे अंश के भी हो सकते हैं या चन्द सेकण्ड के भी जिसके बाद एकाग्रता पूरी तरह लौट आती है।

इस परिघटना को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने 20 स्वस्थ व्यक्तियों को ब्रेन स्कैनर में बैठाकर उनके मस्तिष्क की निगरानी की। इस दौरान वे ब्रिटिश कॉमेडी सीरियल ‘मिस्टर बीन’ देख रहे थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि वीडियो में जहाँ स्वाभाविक ब्रेक आते थे वहाँ दो बातें होती थीं: ऐसे विराम के समय सारे व्यक्तियों में एक साथ पलक झपकती थी और दिमाग के उस क्षेत्र में सक्रियता में कमी आती थी जो एकाग्रता का नियंत्रण करता है - गोया ध्यान केन्द्रित करने वाले क्षेत्र थोड़ी देर के लिए ‘ऑफलाइन’ चले गए हों। उस छोटे-से पल के लिए दिमाग ‘डीफॉल्ट मोड नेटवर्क’ में या सुस्त अवस्था में चला जाता है। शोधकर्ताओं का मत है कि हो सकता है कि इस वैकल्पिक नेटवर्क की क्षणिक तैनाती दिमागी विश्राम की भूमिका अदा करती हो और इसकी बदौलत आँखें खुलने पर एकाग्रता की क्षमता ज़्यादा होती होगी। यह नेटवर्क तब सक्रिय हो उठता है जब हमारा दिमाग पढ़ने या बोलने जैसे किसी संज्ञानात्मक कार्य में नहीं लगा होता और हमारे विचार कहीं ज़्यादा उन्मुक्तता से इधर-उधर भटकते हैं। यह एक ऐसी चीज़ है जिसकी खोज कई दशक पहले हो चुकी है। इस अवस्था में हम अपनी भावनाओं पर विचार करते हैं - हम यह सोचते हैं कि किसी मित्र ने अभी हाल ही में कोई बात कही थी, उसका अर्थ क्या था। हमने पिछले सप्ताह कोई काम किया था या कल कोई काम करने वाले हैं उसके बारे में सोचते हैं।
जब शोधकर्ताओं ने वीडियो में बेतरतीब  अन्तराल  पर  कृत्रिम ‘ब्लैकआउट’ जोड़ दिए - जो स्वाभाविक ब्लैकआउट्स से अलग थे - जिनकी अवधि लगभग एक पल के बराबर थी, तो मस्तिष्क स्कैन के आँकड़ों में डीफॉल्ट नेटवर्क सक्रिय होता नहीं दिखा। इससे लगता है कि पलक झपकने का मतलब मात्र इतना नहीं है कि क्षण भर के लिए हमें कुछ नहीं दिखता। इस बात की पुष्टि एक और तथ्य से होती है। हम ऐसे ब्लैकआउट्स का संज्ञान तो लेते हैं मगर पलक झपकने की वजह से दृश्य में कोई व्यवधान महसूस नहीं करते हैं। इस नए अनुसन्धान से वैज्ञानिकों को झूठ बोलने और पलक झपकने के पैटर्न के बीच अन्तर्सम्बन्ध को समझने में मदद मिलेगी। यह सम्भव है कि चूँकि झूठ बोलने में हमें ज़्यादा ध्यान देना पड़ता है, इसलिए झूठ बोलते समय व्यक्ति कम पलकें झपकाता है। दिलचस्प बात यह है कि झूठ बोलने के कुछ ही सेकण्ड बाद वह व्यक्ति कहीं ज़्यादा बार पलकें झपकाएगा/गी।

स्वैच्छिक या अनैच्छिक?
वास्तव में पलक झपकना तीन तरह का होता है - स्वत:स्फूर्त (जो जागते हुए हर समय होता रहता है), अनुक्रिया (यदि मैं आपके चेहरे की तरफ एक तकिया फेंकूँ तब होगा) और स्वैच्छिक (जो आप तब करते हैं जब किसी सवाल का जवाब खामोशी से देना चाहते हैं)। वैसे, पलक झपकने को अनैच्छिक क्रिया के रूप में वर्गीकृत किया जाता है क्योंकि इसके लिए आपको कोई चेतन प्रयास नहीं करना पड़ता। यह लगभग साँस लेने जैसा है। मगर कुछ हद तक यह स्वैच्छिक भी है क्योंकि हम इस पर नियंत्रण कर सकते हैं, जैसा कि साँस पर भी कर सकते हैं। इसीलिए हम किसी व्यक्ति को पलक झपकाए बगैर कुछ समय तक घूर सकते हैं (8 मार्च, 2015 को यूएसए के माइकल थॉमस ने अपनी आँखों को पूरे 65.61 मिनट तक खुला रखकर नया विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया था) मगर अन्तत: हमें कार्यिकी के आगे घुटने टेकने पड़ते हैं (यानी पलक झपकाना पड़ता है)।
ईमानदारी से इतना तो कहना होगा कि मानव शिशु इस सहजक्रिया की ज़्यादा परवाह नहीं करते। एक तो जन्म के तुरन्त बाद पलक झपकाने की क्रिया लगभग नहीं होती; और आगे चलकर जब वे पलकें झपकाने भी लगते हैं, तो मिनट भर में एक-दो बार। इस बारे में सुसंगत निष्कर्ष प्रकाशित नहीं हुआ है कि क्यों बचपन में हम इतनी कम बार पलकें झपकाते हैं या उस अवस्था से शु डिग्री करके 20 बार प्रति मिनट तक कैसे पहुँचते हैं। कुछ अध्ययनों में यह ज़रूर बताया गया है कि शैशव से लेकर किशोरावस्था के पूर्व तक पलक झपकने की दर बढ़ती है और उसके बाद उम्र बढ़ने के बावजूद यह स्थिर बनी रहती है। अलबत्ता, 1997 में 5 से 87 वर्ष उम्र के व्यक्तियों पर किए गए एक अध्ययन में पलक झपकने की दर पर उम्र का कोई असर नहीं देखा गया था।

अन्य जन्तुओं में पलक झपकना
हमने अभी तक इस बारे में कोई बात नहीं की है कि अन्य जन्तुओं में पलक झपकने की क्या स्थिति है। बात को समाप्त करने से पहले उसकी भी चर्चा कर ली जाए।
यह तो पक्की बात है कि मनुष्यों के अलावा कई अन्य जन्तु पलकें झपकाते हैं। ज़ाहिर है, ये वही जन्तु हैं जिनकी पलकें होती हैं। अर्थात् साँप और उभयचर जीव और मछलियाँ पलकें नहीं झपकाते। क्योंकि उनकी आँखों में हमारी (या गायों, कुत्तों, हाथियों वगैरह) के समान बाहरी पलकें होती ही नहीं। हाँ, उनमें एक तीसरी पलक होती है जिसे ‘निक्टिटेटिंग झिल्ली’ (nictitating membrane) कहते हैं। यह एक पारदर्शी या पारभासी आवरण होता है जिसे आँखों के सामने खींचा जा सकता है ताकि आँखें नम बनी रहें और दिखाई भी पड़ता रहे। और तो और, सील, ध्रुवीय भालू, ऊँट तथा आर्डवार्क्स जैसे स्तनधारियों में भी पूर्ण विकसित निक्टिटेटिंग झिल्ली होती है।

क्या आप जानते हैं कि कुत्ते, बिल्लियाँ और कई अन्य प्राणि ‘पलकें न झपकाने’ को एक संकेत की तरह यह दर्शाने के लिए करते हैं कि वे हमला करने को तैयार हैं? आपने भी देखा होगा कि जब आप किसी कुत्ते या बिल्ली की ओर आगे बढ़ते हैं, जिसने आपको पहली बार देखा हो, तो वे पलकें न झपकाते हुए टकटकी लगाकर आपको सतर्कता से देखते हैं। ऐसा इसलिए कि वे आपको जानते नहीं और आप पर भरोसा नहीं कर सकते। लिहाज़ा उन्हें पक्का पता नहीं होता कि कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने पलकें झपकाईं और आप हमला कर दें। इसलिए वे टकटकी लगाए देखते हैं, मानो कह रहे हों, ‘गड़बड़ मत करना, नहीं तो सबक सिखा दूँगा।’ यह बात दो तरफा है - यानी यदि आप भी किसी जानवर की तरफ पलक झपकाए बगैर देखेंगे तो उनके लिए यह आक्रामकता या आसन्न हमले का संकेत हो सकता है। दूसरी ओर, यदि कुत्ता या बिल्ली यदि अपनी टकटकी तोड़कर सामान्य रूप से पलकें झपकाने लगे तो आप यह पक्का कह सकते हैं कि वह आप पर भरोसा करने लगा है या कम-से-कम वह आपके प्रति शत्रुता नहीं दर्शाएगा। यह एक आम हावभाव है जो प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले जानवरों में विकसित हुआ है।
मानवेतर प्राणियों में पलक झपकने का सबसे व्यवस्थित अध्ययन ठेठ 1927 में किया गया था। इस अध्ययन में उभयचरों और प्रायमेट्स समेत 39 प्रजातियों को शामिल किया गया था। इसमें इनके पलक झपकाने के व्यवहार का विस्तृत वर्णन दिया गया था। अध्ययन का निष्कर्ष था कि पलक झपकने की दर में वैकासिक इतिहास परिलक्षित होता है और प्रजातियों के बीच इसे लेकर काफी विविधता है।

मई  2013  में PLOS  ONE   में प्रकाशित एक शोध पत्र में प्रायमेट जन्तुओं में पलक झपकने के व्यवहार और अन्य कई कारकों के बीच सह-सम्बन्ध का विवरण दिया गया था। यह अध्ययन 71 प्रजातियों के 141 प्राणियों पर किया गया था। इसके कई परिणामों में से एक रोचक निष्कर्ष यह था कि जन्तुओं के समूह की साइज़ बढ़ने के साथ पलक झपकने की दर भी बढ़ती है। यह अवलोकन एक मौजूदा परिकल्पना के विरुद्ध जाता है जो इन दो तथ्यों पर आधारित है कि पलक झपकने से बाहरी दुनिया से मिलने वाली सूचना में अवरोध पैदा होता है और जब जन्तु समूह का आकार बढ़ता है तो खतरे की सम्भावना भी बढ़ती है जिसके अनुसार निष्कर्ष यह निकलता है कि बड़े समूह के जन्तुओं को कम बार पलकें झपकाना चाहिए ताकि वे अन्य सदस्यों की हरकतों पर लगातार नज़र रख सकें।

इस  विरोधाभास  के  आधार  पर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि समूह की साइज़ बढ़ने के साथ बढ़ी हुई पलक झपकने की दर की भूमिका मात्र एक-दूसरे की निगरानी के सन्दर्भ में नहीं होगी बल्कि इसकी कोई अलग या अतिरिक्त भूमिका होनी चाहिए। ऐसी एक भूमिका सामाजिक संप्रेषण की हो सकती है, जैसे एक-दूसरे के बालों को सहलाने या घूरने की होती है। जैसा कि पहले ही देखा जा चुका है, इन्सानों के सन्दर्भ में पलक झपकने की दर का सम्बन्ध व्यक्ति की छवि पर पड़ता है, इसके आधार पर पलक झपकाने को सामाजिक संप्रेषण का एक औज़ार माना जा सकता है। इस मामले में एक तथ्य यह देखा गया है कि कई प्रायमेट जन्तुओं की पलकें विशेष रूप से सफेद होती हैं और इसका सबसे ज़्यादा असर तब नज़र आता है जब वह जन्तु पलक झपकाता है। ये पलकें आँखों की ओर ध्यान खींचती हैं। लिहाज़ा, इस तरह का रंग एक संकेत है कि पलक झपकना सामाजिक संप्रेषण का एक साधन हो सकता है।
तो, हालाँकि पलक झपकाने की ज़रूरत पर अन्तिम फैसला अभी लम्बित है, मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह क्रिया सिर्फ आँखों में तेल-पानी देने के लिए नहीं है। हम मनुष्यों में आदत होती है कि अपने आसपास की घटनाओं के पीछे सरल-से-सरल कारण की खोज करें। मगर यह आदत अच्छी या उपयोगी हो, ऐसा ज़रूरी नहीं है। कम-से-कम पलक झपकाते ही तो इसे नहीं समझा जा सकता।


रुद्राशीष चक्रवर्ती: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।