राफेल कर्रेरास् व गाय हैन्श

कणों के संसार की शुरुआती झलकियाँ एक विशाल अनुसन्धान प्रयोगशाला के काम को समझने के माध्यम से

क्कङग़् (सर्न), जो एक विशाल यूरोपीय अनुसन्धान प्रयोगशाला है, का उद्देश्य है ‘कण भौतिकी’ का अध्ययन जिसका असली मतलब है उस घटना का अध्ययन जब ऊर्जा पदार्थ में रूपान्तरित होती है।
लेख के पहले भाग में हमने समझने की कोशिश की कि ऊर्जा से कण व पदार्थ कैसे बनता है, और सर्न में इस पर अध्ययन कैसे होता है। इस भाग में हम पदार्थ की प्रकृति पर इन्सानों की सोच के इतिहास और सर्न में हुएशोध व खोजी गई तकनीकों के उद्योग व रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में उपयोग के बारे में पढ़ेंगे। साथ में प्रस्तुत है कण भौतिकी पर एक अतिरिक्त परिशिष्ट।
सदियों से इन्सान पदार्थ की प्रकृति के बारे में सोचता आया है और सृष्टि से सम्बन्धित नियमों के बारे में अपनी समझ बनाने व उन्हें परिभाषित करने की कोशिश की है। पुरातन काल से ही दार्शनिक व वैज्ञानिक यह सवाल पूछते आ रहे हैं कि संसार किन मूलभूत चीज़ों से मिलकर बना है। इनमें से कुछ का मानना था कि अस्तित्व में आने वाली संसार की हर एक वस्तु हवा, धरती, आग और पानी से मिलकर बनी है। आज से तकरीबन 2400 साल पहले यूनानी दार्शनिक डेमोक्रैटिस ने यह तर्क प्रस्तुत किया था कि पदार्थ अलग-अलग तरह के सूक्ष्म कणों से मिलकर ही बना होना चाहिए (चित्र-1)।

आज, मुख्यत: त्वरकों, डिटेक्टर्स व कम्प्यूूटर के चलते हम यह जान पाए हैं कि असल में डेमोक्रैटिस का तर्क सत्य के काफी करीब था। तो अब आप समझ लीजिए कि आधुनिक अनुसन्धान उन सवालों के जवाब ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा है जो कि इन्सान अति पुरातन काल से खुद से पूछ रहा है।

सर्न और अन्य जगहों पर होने वाले विविध तरह के अनुसन्धानों के पीछे इन्सान की स्वभाविक जिज्ञासा, जानने की उसकी ज़रूरत ही है। हम सभी, आप भी, स्वभाविक रूप से जिज्ञासु हैं। यहाँ तक कि यह गुण जानवरों में भी होता है। जब भी हम अपने आप को किसी रहस्यमय स्थिति में पाते हैं या हमारे सामने कोई पहेली होती है तो हम अपने आप को रोक नहीं पाते और लग जाते हैं रहस्य से पर्दा उठाने या पहेली को सुलझाने में। जानने-समझने की यह कोशिश व ज्ञान की खोज करना जीवित प्राणियों की बुनियादी ज़रूरत है।

यही स्वभाविक जिज्ञासा हमें नए आविष्कारों व खोजों की तरफ ले जाती है। अक्सर ही ये सारी खोजें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संसार के बारे में हमारी समझ को बेहतर बनाती हैं व प्रकृति की पहेली को सुलझाने की दिशा में कुछ और कड़ियाँ जोड़ देती हैं। कभी-कभी, सीधे तौर पर इन खोजों का हमारे रोज़मर्रा के जीवन या भविष्य में कोई भी उपयोग नज़र नहीं आता। लेकिन असल में लगभग हर दफे ही इन  खोजों  की  ज़रूरत  हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पड़ती है। अगर हम अपने आसपास देखें तो पाएँगे कि न जाने ऐसी कितनी चीज़ें हैं जिनका उपयोग हम रोज़ाना ही ज़्यादा कुछ सोचे बगैर करते हैं, लेकिन वो असल में उन सब खोजों का ही नतीजा है जो किसी समय शुद्ध तौर पर वैज्ञानिक ही थीं। रेडियो,  टेलीविज़न, कैलक्युलेटर आदि ऐसे ही  कुछ  उदाहरण  हैं।  बुनियादी अनुसन्धान केवल इन्सानी जिज्ञासा को ही शान्त नहीं करते हैं बल्कि भविष्य में हमारे रोज़मर्रा के जीवन की कई व्यवहारिक ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में भी हमारे कदम बढ़ाते हैं।

बुनियादी से व्यवहारिक
बुनियादी अनुसन्धान से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण पहलू है नई व विशिष्ट तौर पर तैयार की गई मशीनें, जिनकी ज़रूरत वैज्ञानिकों को बुनियादी प्रयोगों व शोध को आगे बढ़ाने के लिए पड़ती है। समय-समय पर इन मशीनों से जुड़े तकनीकी आविष्कारों के चलते प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कई नई व महत्वपूर्ण खोजें हो जाती हैं। इन खोजों को हमारे रोज़मर्रा के जीवन में लाने का काम उद्योग करते हैं (चित्र-2)।
- क्या आप किसी ऐसी खोज या आविष्कार का उदाहरण दे सकते हैं?
- हाँ, बिलकुल! सर्न में विकसित हुए पोज़िट्रॉन कैमरे को ही ले लो। यह कैमरा जीव-विज्ञान व चिकित्सा के क्षेत्र में तीन-आयामी एक्स-रे का एक बेहतर विकल्प बनकर उभर रहा है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सर्न मुख्य तौर पर शुद्ध अनुसन्धान (ऊर्जा का पदार्थ में रूपान्तरण) से ही सम्बन्धित है। उसका उद्देश्य पोज़िट्रॉन कैमरे का विकास करना नहीं था।
- सर्न व न्यूक्लियर पॉवर स्टेशन, दोनों की गतिविधियों को ‘न्यूक्लियर’ से क्यों जोड़ा जाता है? इन दोनों के बीच अन्तर क्या है?
- इन दोनों की गतिविधियों के बीच अन्तर काफी स्पष्ट है। जहाँ एक ओर न्यूक्लियर पॉवर स्टेशन में कुछ खास तत्वों (यूरेनियम और प्लूटोनियम) से ऊर्जा बनाई जाती है जिससे गर्मी व बिजली पैदा की जा सके, वहीं दूसरी ओर सर्न में ऊर्जा को बहुत ज़्यादा संकेन्द्रित करके पदार्थ बनाया जाता है। और शायद आपको यह जानकर अचरज हो कि इस प्रक्रिया में बनने वाले पदार्थ की मात्रा बहुत ही कम होती है। पिछले 25 सालों के प्रयोगों के दौरान बमुश्किल एक मिलीग्राम पदार्थ ही बना है।  

तो आप साफ-साफ देख सकते हैं कि सर्न व न्यूक्लियर पॉवर स्टेशन, दोनों की गतिविधियों में अन्तर कहाँ है: न्यूक्लियर पॉवर स्टेशन में पदार्थ से ऊर्जा बनाई जाती है तो सर्न में ऊर्जा से पदार्थ बनाया जाता है।
- यह तो एकदम उलट ही हुआ?
- हाँ, कई मायनों में यह एकदम उल्टा है। इस बिन्दु को और भी स्पष्ट तरीके से समझने के लिए चित्र-3 की मदद ले सकते हैं जिसमें 19वीं शताब्दी के अन्त से न्यूक्लियर फिज़िक्स यानी कि नाभिकीय भौतिकी के क्षेत्र में हुए विकास को दर्शाया गया है।
शायद आपके सामने अब भी कई सवाल होंगे जो आप पूछना चाहते हों। वैज्ञानिक या तकनीकी होने के अलावा ये सवाल सर्न के आर्थिक पहलुओं से भी जुड़े हो सकते हैं, जैसे कि “क्या ये प्रयोग इस लायक हैं कि इन पर इतना खर्च किया जाए?” या फिर समाजशास्त्रीय, जैसे कि “आखिर इस तरह का एक अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय किस तरह से काम करता है?” या “इस समुदाय में काम करने वाले शोधकर्ताओं के उद्देश्य क्या हैं?” या फिर मनोवैज्ञानिक, उदाहरण के तौर पर “क्या हमारा मष्तिष्क इतना सक्षम है कि उन सिद्धान्तों व नियमों को समझ सके जिनके तहत इन कणों का व्यवहार नियंत्रित होता है?” - इस तरह के अन्य कई प्रश्न हो सकते हैं।
इनमें से कुछ सवालों के जवाब  आपको शायद आगे के पन्नों में मिल जाएँ। बाकियों के लिए आपको कुछ अन्य किताबों व लेखों की मदद लेनी होगी। हो सकता है कि उनसे मिली जानकारी के चलते कुछ और सवाल आपके दिमाग में उठें और आप प्रोत्साहित हों उन पर सोचने के लिए। आप चाहे जो भी करें, आप पाएँगे कि खोज की कोई सीमा नहीं है। शायद यही इसकी खूबसूरती है।

कण भौतिकी - एक गहरा गोता
ये सब शुरु हुआ अन्तरिक्ष से आने वाली अपरिचित किरणों से
20वीं सदी की शुरुआत में एक अनोखी घटना सामने आई। यह पाया गया कि हवा, जिसे अब तक आम तौर पर उम्दा कुचालक माना जाता रहा था, असल में विद्युत की कमज़ोर सुचालक होती है। कुछ भौतिकविदों को शक होने लगा था कि हो-न-हो इसका कारण बाह्य अन्तरिक्ष से आने वाले कण हैं। हवा में उड़ने वाले गरम गुब्बारे की यात्रा करके विक्टर एफ. हैस्स नाम के एक ऑस्ट्रियन भौतिकशास्त्री ने यह दिखलाया कि ज़्यादा ऊँचाइयों पर निचले स्तर की अपेक्षा हवा विद्युत की बेहतर सुचालक होती है। यह एक ऐसी खोज थी जिसने बाह्य अन्तरिक्ष से आने वाले कणों की परिकल्पना को सही साबित किया। हालाँकि 1926 तक इस व्याख्या को भौतिकशास्त्रियों द्वारा स्वीकार नहीं किया गया जिसके बाद इस अनोखी घटना को ‘कॉस्मिक रेज़’ (अन्तरिक्ष किरणें) नाम दिया गया।

चित्र-2: शायद हम कण भौतिकी (Particle Physics) में होने वाले अनुसन्धान के विकास को उपरोक्त तरीके से दर्शा सकते हैं। वैसे तो ये अनुसन्धान सीधे तौर पर फौरी व रोज़मर्रा की ज़रूरतों से जुड़ी खोजों से सम्बन्धित नहीं होते हैं लेकिन इनमें कई तरह की तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें चित्र में घिरनियों से दर्शाया गया है। इन तकनीकों का अनपेक्षित लाभ कई अन्य क्षेत्रों में निकल आता है। ऐसे कुछ उदाहरण हैं: उच्च गति इलेक्ट्रॉनिक्स, उच्च निर्वात प्रौद्योगिकी, विशेष चुम्बक, वेल्डिंग की नई विधियाँ, बहुत कम तापमान पर सम्भव प्रौद्योगिकी वगैरह, वगैरह...

आज हम जानते हैं कि यह घटना काफी तेज़ी से गति कर रहे कणों, मुख्यत: प्रोटॉन की वजह से है। लेकिन यह बात अजीब लग सकती है कि हम इस बात का पता लगाने से अब भी कोसों दूर हैं कि आखिर ये किरणें आती कहाँ से हैं। हालाँकि इन कणों के चलते ही 1930 के दशक में पहली बार भौतिकविदों को ऊर्जा को पदार्थ में बदलते हुए देखने का मौका मिला।
एक तरह से देखें तो सर्न में अध्ययन करने के उद्देश्य से कृत्रिम तौर पर कॉस्मिक किरणों को बनाया जाता है। बाह्य अन्तरिक्ष से आने वाली किरणों की मात्रा व परिस्थिति पर वैज्ञानिकों का कोई नियंत्रण नहीं होता लेकिन सर्न के त्वरक जाँच-पड़ताल करने के लिए व्यवस्थित तरीके से एक निश्चित मात्रा में तथा उचित परिस्थितियों में कण उपलब्ध करवाते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद कॉस्मिक किरणें अब भी शोध का विषय बनी हुई हैं क्योंकि इनके प्रोटॉन की गति त्वरक के द्वारा गतिमान किए गए किसी भी कण से कहीं ज़्यादा होती है।

हमारे वायुमण्डल से गुज़रने वाले कण ही वायु की सुचालकता का कारण हैं। ज़्यादा ऊँचाई (बहुत ज़्यादा ऊँचाई पर नहीं) पर अन्तरिक्ष से आने वाले प्रोटॉन से बनने वाले कण भी ज़्यादा संख्या में पाए जाते हैं। जैसे-जैसे ये कण वायुमण्डल से होकर नीचे की ओर बढ़ते हैं वायुमण्डल इन्हें अवशोषित कर लेता है जिसके चलते निचले स्तरों पर इनकी संख्या में कई गुना की गिरावट आ जाती है।

सिद्धान्त पहले प्रयोग बाद में
19वीं सदी के मध्य तक वैज्ञानिकों ने ऊर्जा की एक अच्छी खासी समझ बना ली थी, लेकिन किसी के दिमाग में कभी भी यह ख्याल नहीं आया था कि ऊर्जा को पदार्थ में बदला जा सकता है। वो आइंस्टीन ही थे जिन्होंने साल 1905 में इस विचार पर गम्भीरता से सोचना शु डिग्री किया। उन्होंने खोज की कि कुछ परिस्थितियों में ऊर्जा ऐसे व्यवहार करती है कि मानो उसका द्रव्यमान हो। समय गुज़रने के साथ न केवल यह सिद्ध हो गया कि हमेशा ही ऊर्जा का द्रव्यमान होता है बल्कि यह भी कि सभी द्रव्यमान, और जिसके चलते सभी पदार्र्थों को ऊर्जा के संकेन्द्रित रूप में देखा जा सकता है।
आइंस्टीन का सुप्रसिद्ध सूत्र कउथ्र्ड़2 भी काफी साफ व सटीक तरीके से यही दर्शाता है। उदाहरण के लिए आइंस्टीन के इस फॉर्मूले के हिसाब से 250 लाख किलोवॉट-आवर्स (kilowatt-hours) ऊर्जा का ‘वज़न’ होगा 1 ग्राम। वहीं अगर हमें ऊर्जा से पदार्थ बनाना हो तो हमें 1 ग्राम पदार्थ बनाने के लिए 250 लाख किलोवॉट-आवर्स ऊर्जा को संकेन्द्रित करना होगा, यानी कि पूरे स्विट्ज़रलैंड देश में 6 घण्टों में होने वाली बिजली उत्पादन से भी ज़्यादा ऊर्जा। लेकिन मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं, आपको कोई ऐसा तरीका भी ढूँढ़ना होगा जिससे आप इस सारी ऊर्जा को एक जीवाणु बराबर जगह में संकेन्द्रित कर सकें।

पहले संसूचक (द फर्स्ट डिटेक्टर्स)
जैसे-जैसे अन्तरिक्ष किरणों के बारे में हमारी समझ बेहतर हुई व साथ ही ऊर्जा की वास्तविक प्रकृति उभरकर सामने आने लगी, शोधकर्ताओं ने अवलोकन करने के उद्देश्य से कई तरह के उपकरणों व मशीनों का अविष्कार किया।  
1912 से पहले तक अन्तरिक्ष किरणों का अध्ययन करने का एकमात्र तरीका रहा था हवा की चालकता का मापन करना। यह एक ऐसा तरीका था जिससे अन्तरिक्ष कणों के बारे में कुछ ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती थी। वैसे भी, उस समय के वैज्ञानिक इस बात से अनभिज्ञ-से थे कि अन्तरिक्ष किरणें असल में कण हैं। इस दिशा में पहली महत्वपूर्ण उपलब्धता उस समय मिली जब एक ऐसे काउंटर का विकास हुआ जिसमें से होकर जब भी कोई कण गुज़रता तो यह काउंटर एक इलेक्ट्रिक सिग्नल छोड़ता (चित्र-5)। इस उपकरण की मदद से कणों की उपस्थिति को ज़्यादा सटीक तरीके से परिभाषित किया जा सका। लेकिन कण भौतिकी की शुरुआती खोजें तो दो नई तकनीकों के विकास के बाद ही सम्भव हो पाईं:फोटोग्राफिक इमलशन और क्लाउड चेम्बर। इमलशन के मामले में यह पाया गया कि इसमें से होकर गुज़रने वाले कण के रास्ते को एक माइक्रोस्कोप की मदद से सूक्ष्म काले बिन्दुओं की लड़ी के रूप में देखा जा सकता है। हालाँकि, इन सब में सबसे प्रसिद्ध उपकरण साबित हुआ क्लाउड चेम्बर जिसमें से गुज़रने वाले कण के रास्ते को धुएँ की एक बारीक लाइन के रूप में देखा जा सकता था। ये कुछ-कुछ आसमान में दिखाई देने वाली वाष्प की लकीर की तरह था जो काफी ऊँचाई पर एक हवाई जहाज़ अपने पीछे छोड़ता जाता है।
फोटोग्राफिक इमलशन, क्लाउड चेम्बर व काउंटर 1928 से ले कर 1960 तक कण भौतिकी में प्रमुख तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण रहे।
कणों की गिनती बढ़ती रही
1930 तक दो मूलभूत कणों, धनात्मक प्रोटॉन व ऋणात्मक इलेक्ट्रॉन की खोजें हो चुकी थीं। ये दोनों खोजें न तो अन्तरिक्ष किरणों के अध्ययन के दौरान  हुईं और न ही ऊर्जा को संकेन्द्रित करने के अध्ययनों के दौरान। इस खोज के  बाद कोशिशें की गईं कि पदार्थ की संरचना की व्याख्या इन दो मूलभूत कणों की मदद से की जाए। लेकिन इनमें काफी दिक्कतें आ रही थीं जो दूर हुईं 1932 में न्यूट्रॉन की खोज के बाद। अब जबकि प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन व न्यूट्रॉन सभी की खोज हो चुकी थी तब एक परमाणु के लगभग सभी गुणों को समझना सम्भव हो गया। तो क्या इसका यह मतलब हुआ कि जब ऊर्जा को पदार्थ के रूप में संकेन्द्रित किया जाएगा तो इन तीनों में से ही कोई एक सूक्ष्म कण बनेगा?
कतई नहीं! 1931 में एक ब्रिटिश सिद्धान्तवादी पी.ए.एम. डिराक ने एक ऐसे कण के होने की भविष्यवाणी की जो इलेक्ट्रॉन का एकदम उल्टा था यानी कि विपरीत-इलेक्ट्रॉन (anti-electron) या पोज़िट्रॉन, जिसका आवेश इलेक्ट्रॉन की तरह ऋणात्मक ना होकर धनात्मक होना था। उनकी इस भविष्यवाणी के साथ-साथ ही इस कण को ढूँढ़ भी निकाला गया। 1932 में क्लाउड चेम्बर की एक तस्वीर में एक ऐसे कण के पथ को रिकॉर्ड किया गया जो सिर्फ और सिर्फ एक विपरीत-इलेक्ट्रॉन का ही हो सकता था। इसके बाद से तो इस तरह की भविष्यवाणियों व अवलोकनों का एक ताँता-सा लग गया जिसके चलते ऐसी अनेकों घटनाओं व कणों का अस्तित्व सामने आया जिनके बारे में पहले किसी ने भी नहीं सोचा था।   
1930 में, पॉली ने एक उदासीन कण, न्यूट्रिनो (अँग्रेज़ी के शब्द  neutral  से), के होने का अनुमान लगाया। उसके अन्य गुणों की व्याख्या करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि न्यूट्रिनो के होने का पता नहीं लगाया जा सकता। लेकिन 1956 में इसे भी ढूँढ़ निकाला गया (जानकारी के लिए बता दें कि सर्न में न्यूट्रिनो बनाने व उसके अध्ययन करने की विश्व-भर की सबसे आधुनिक सुविधा उपलब्ध है)।
1932 में एक जापानी भौतिकविद, हिदकी युकावा ने एक अस्थाई कण ‘पाई मीसॉन’ के होने की भविष्यवाणी की, जिसे 1947 में खोज निकाला गया। ‘पाई मीसॉन’ की खोज के दौरान ही वैज्ञानिकों ने एक और अजीबो-गरीब व अस्थाई कण ‘म्यूऑन’ के होने का भी पता लगाया। यह एक तरह का भारी इलेक्ट्रॉन होता है।

1947 से 1964 के बीच में ‘भारी व अस्थाई प्रोटॉन’ के एक पूरे कण-परिवार की खोज हुई: लैम्बडा, सिग्मा, साई और ओमेगा। इसके बाद एक और ‘भारी इलेक्ट्रॉन’ व कई अन्य ‘भारी प्रोटॉनों’ व ‘मीसॉन’ की खोज ऊर्जा को पदार्थ में बदलने के दौरान की गई। ये सभी अस्थाई कण हैं।
त्वरकों (एक्सेलरेटर्स) का उदय
20वीं सदी की शुरुआत में ही ऐसे त्वरक बना लिए गए थे जो कि प्रोटॉन व इलेक्ट्रॉन को गति दे सकें। लेकिन उनसे इन कणों को इतनी ऊर्जा प्रदान नहीं की जा सकती थी कि इनके टकराव से अन्य कण या पदार्थ बनाया जा सके। 1950 तक भी ऐसे त्वरक नहीं बनाए जा सके थे जो कणों को पर्याप्त ऊर्जा दे सकें। साल 1954 में, अमरीका की बर्कली नाम की जगह पर वैज्ञानिकों ने बेवाट्रॉन नामक सिंक्रोट्रॉन में विद्युतीय बल से त्वरित व बलशाली विद्युत चुम्बक (electro-magnets) से दिशा निर्देशित प्रोटॉन से कई अन्य कण, खास तौर पर विपरीत-प्रोटॉन व विपरीत-न्यूट्रॉन, बनाने में सफलता पाई।

इन कणों के होने की भविष्यवाणी 1930 के दशक में ही कर ली गई थी तो 1950 तक इन कणों का न खोजा जा पाना यही दर्शाता है कि इस तरह के शोध कार्य में लगे रहने के लिए दो गुण तो चाहिए ही चाहिए:असीम धैर्य व दृढ़ता। लेकिन इसके बावजूद अगर इस शोध में आगे बढ़ना है तो ज़रूरी होंगे बड़े और शक्तिशाली त्वरक। शुरुआती त्वरकों का आकार मात्र कुछ सेंटीमीटर या ज़्यादा-से-ज़्यादा कुछ दसियों सेंटीमीटर ही था। उसके बाद कई मीटर के आकार के बड़े त्वरकों का निर्माण हुआ; जैसे कि 1954 में बना बर्कली सिंक्रोट्रॉन, कई दसियों मीटर लम्बा और हज़ार टन से भी ज़्यादा भारी। सर्न  का ‘छोटा’ सिंक्रोट्रॉन, जिसे वर्ष 1959 में प्रमाणित किया गया, का व्यास 200 मीटर है। सर्न के बड़े सिंक्रोट्रॉन का व्यास है 2.2 किलोमीटर। जबकि भविष्य के LEP त्वरक (Large Electron-Positron Accelerator), जिन्हें इलेक्ट्रॉन व विपरीत-इलेक्ट्रॉन के टकराव को ध्यान में रखकर तैयार किया जा रहा है, का व्यास आठ किलोमीटर से ज़्यादा होगा! और यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई है।
आखिर इतने विशाल त्वरकों की ज़रूरत क्यों है?
इस सवाल का जवाब देने से पहले एक गलतफहमी पर बात कर लें जिसकी गुंजाइश यहाँ हो सकती है और वो ये कि 8 किलोमीटर व्यास के इतने विशाल त्वरक को किसी बड़ी बिल्डिंग में तैयार किया जाएगा। ऐसा कतई ज़रूरी नहीं। उदाहरण के तौर पर LEP त्वरक के मामले में, यह पूरी मशीन एक 3 से 4 मीटर चौड़ी ज़मीनी सुरंग में लगाई जाएगी।

किसी प्रोटॉन या इलेक्ट्रॉन को त्वरित करने वाले त्वरक के विशाल होने का मुख्य कारण हैं चुम्बक। इनका इस्तेमाल कणों को गति व दिशा देने के लिए किया जाता है लेकिन इनकी चुम्बकीय शक्ति असीमित नहीं होती। त्वरक का व्यास जितना कम होगा, कणों को घुमावदार पथ पर रखने के लिए उतने ही ज़्यादा ताकतवर चुम्बक की ज़रूरत पड़ेगी। इसका सीधा मतलब हुआ कि त्वरक का व्यास ज़्यादा रखना होगा। यह कुछ-कुछ सड़कों पर घुमावदार मोड़ों का एक बड़े त्रिज्या वाले गोले का हिस्सा होने जैसा ही है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि 80 मील प्रति घण्टे की रफ्तार से चल रही कार छिटक कर अपने पथ से न भटके।
समस्या इलेक्ट्रॉन के मामले में और भी बढ़ जाती है। इलेक्ट्रॉन को जब भी किसी ऐसे पथ पर त्वरित किया जाता है जिसका व्यास छोटा हो तो वह अपनी ऊर्जा खोने लगता है क्योंकि ऐसे ज़्यादा घुमावदार पथ पर उसकी ऊर्जा प्रकाश के रूप में उत्सर्जित होने लगती है। इसी के चलते LEP त्वरक, जिन्हें इलेक्ट्रॉन को गति देनी पड़ती है, को इतना विशाल होना पड़ेगा।

लेकिन हम अब भी एक मच्छर का मुकाबला नहीं कर सकते
किसी के दिमाग में यह ख्याल आ सकता है कि LEP त्वरक जैसी बड़ी मशीनों में किसी कण के द्वारा ऊर्जा की एक विशाल मात्रा अर्जित की जाती होगी, लेकिन ऐसा है नहीं। अब तक की बनाई गई सबसे बड़ी मशीनों में भी गतिमान कणों की गतिज ऊर्जा एक मच्छर की ऊर्जा से भी कम होती है! हालाँकि, जिस बात का फर्क पड़ता है वो है ऊर्जा का संकेन्द्रण। एक त्वरक में ऊर्जा की मात्रा मच्छर की तुलना में कहीं छोटे कण में संकेन्द्रित होती है जिस वजह से अगर दो मच्छर आपस में टकराएँ तो नए कण नहीं बनते लेकिन वहीं अगर दो प्रोटॉन या दो इलेक्ट्रॉन एक मच्छर के बराबर ऊर्जा से एक-दूसरे से टकराएँ तो नए कण बनते हैं।

इस सन्दर्भ में अब समय आ गया है कि हम ‘100 करोड़ इलेक्ट्रॉन-वोल्ट’ -- गीगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट (GeV) -- के महत्व को समझें जोथोड़ा भ्रामक हो सकता है। हम कहते हैं कि फलाँ त्वरक एक कण को 30 या 140 GeV से गतिमान करता है। दरअसल 1 गीगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट (1 GeV) ऊर्जा की ही एक इकाई है जिसका उपयोग कण-भौतिकी में किया जाता है व यह संख्या लगभग ऊर्जा की उस मात्रा को दर्शाती है जिसे 1 प्रोटोन बनाने के लिए संकेन्द्रित करना पड़ेगा (सर्न के सुपर प्रोटॉन सिंक्रोट्रॉन में प्रोटॉन को 400 GeV के लगभग ऊर्जा दी जाती है)। ‘गीगा’ का मतलब होता है एक बिलियन यानी कि 100 करोड़। इसका मतलब हुआ कि शोध के दौरान कुछ दसियों या सैकड़ों बिलियन इलेक्ट्रॉन-वोल्ट ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाता है। सुनकर तो ऐसा लगता है कि न जाने यह ऊर्जा की कितनी बड़ी मात्रा हो, लेकिन हकीकत में अगर रोज़मर्रा की ऊर्जाओं से इसकी तुलना करें तो यह छटाँक भर भी नहीं। और किसी भी तौर पर इसकी तुलना समतुल्य आम वोल्टेज के बिजली के करेंट से नहीं की जानी चाहिए। एक इलेक्ट्रॉन-वोल्ट इतनी छोटी इकाई है कि एक टेबल से नीचे गिरती हुई पेंसिल की ऊर्जा भी गीगा इलेक्ट्रॉन-वोल्ट से ज़्यादा होती है। तो कुल-मिलाकर त्वरक का असाधारण पहलू किसी कण को दी जाने वाली कुल ऊर्जा नहीं बल्कि उस कण का अतिसूक्ष्म आकार है जिसे ऊर्जा दी जा रही है।
इस प्रकार हज़ारों-करोड़ों इलेक्ट्रॉन-वोल्ट ऊर्जा का रोज़मर्रा की वस्तुओं पर तो असर नगण्य होगा लेकिन जैसा कि हमने पहले हिस्से में देखा इलेक्ट्रॉन या प्रोटॉन जैसे अतिसूक्ष्म कणों पर इनका असर असाधारण होगा। कणों के मामले में ये ऊर्जा पर्याप्त होगी ताकि ऊर्जा का पदार्थ में रूपान्तरण हो सके व अन्य कण बनें। लेकिन आप त्वरकों के आकार से ही समझ सकते हैं कि इनमें जिस तरह की प्रक्रियाएँ शामिल होती होंगी वो इतनी सीधी-सपाट भी नहीं जैसा कि हमारी अब तक की बातचीत से झलक रहा है।

हम अलग-अलग ‘बिन्दुओं’ से बने हुए हैं जो तीन-तीन के समूहों में अन्य ‘बिन्दुओं’ के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं
सबसे आधारभूत कणों को देख पाना बहुत कठिन है, लेकिन हम उन्हें ऐसे ‘बिन्दुओं’ या ‘डॉट्स’ की तरह मान सकते हैं जिनका एक निश्चित द्रव्यमान तो है लेकिन उन्हें मापने की अभी तक की तमाम कोशिशें नाकाफी साबित हुई हैं।
पर हम यह तो जानते हैं कि जब ऊर्जा को संकेन्द्रित किया जाता है तो वह इन ‘बिन्दुओं’ में रूपान्तरित हो जाती है। इन बिन्दु-रूपी कणों के दो प्रकार हैं: एक जो अन्य कणों से स्वतंत्र हमेशा अस्तित्व में रहते हैं (उदाहरण के तौर पर इलेक्ट्रॉन, म्यूऑन या न्यूट्रिनो) और दूसरे जो स्वत: एक-दूसरे से जुड़कर समूह बना लेते हैं (क्वार्क)।
जब दो क्वार्क आपस में जुड़ते हैं तो मीसॉन बना लेते हैं, जो हमेशा अस्थाई होता है। जब ये तीन के समूह में जुड़ते हैं तो ऐसे में हमारे पुराने परिचित साथी स्थाई प्रोटॉन, न्यूट्रॉन तथा ‘हैवी प्रोटॉन्स’ (भारी प्रोटॉन) के परिवार के सदस्यों के सरीखे अन्य अस्थाई कण बनते हैं।
अगर हम अपनी बातचीत सिर्फ स्थाई कणों तक ही सीमित रखें, वो स्थाई कण जो हमें और हमारे आसपास के संसार को रचते हैं, तो इन मूलभूत कणों की फेहरिस्त काफी छोटी होगी:
- ऐसे ‘बिन्दु’ जो स्वतंत्र नज़र आते हैं: इलेक्ट्रॉन,
- ‘सामूहिक बिन्दु’: u व b क्वार्क,
बस इतना ही!

एक गाय के बुनियादी अवयव
इसमें तो कोई शक नहीं कि इलेक्ट्रॉन और  u व  b क्वार्क से हम एक गाय नहीं बना सकते, लेकिन यह कल्पना तो कर ही सकते हैं कि अगर करना हो तो हम कैसे करेंगे।
1.    सबसे पहले दो u क्वार्क और एक b क्वार्क लेकर एक प्रोटॉन बना लो। अब इस ऑपरेशन को तब तक दोहराते रहो जब तक प्रोटॉन की एक अच्छी खासी मात्रा न जुट जाए।
2.    उसके बाद एक u क्वार्क और दो b क्वार्क को मिलाकर पर्याप्त मात्रा में न्यूट्रॉन भी बना लो।
3.    इसके साथ ही ज़रूरत होगी अच्छी संख्या में इलेक्ट्रॉन की (असल में हमें ठीक उतने ही इलेक्ट्रॉनों की ज़रूरत होगी जितने प्रोटॉन हैं)।
4.    अब परमाणुओं को बनाना होगा: एक गाय के लिए हमें मुख्य तौर पर कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन और नाइट्रोजन के परमाणुओं की ज़रूरत होगी।
    हाइड्रोजन बनाने की विधि: एक प्रोटॉन लीजिए और उसके नज़दीक एक इलेक्ट्रॉन को छोड़ दीजिए। इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन के चारों तरफ एक लगभग गोलाकार पथ पर घूमने लगेगा। किसी भी स्थिति में यह प्रोटॉन के आसपास ही रहेगा।
    कार्बन बनाने की विधि: 6प्रोटॉन लीजिए व 6या 7 न्यूट्रॉन और इन्हें एक दूसरे के सम्पर्क में कुछ क्षणों के लिए छोड़ दीजिए ताकि ये आपस में गुँथकर एक ठोस गेंदाकार ले लें। इसके बाद 6 इलेक्ट्रॉन इसके नज़दीक छोड़ दीजिए जो इस गेंद के चक्कर लगाने लगेंगे।
    नाइट्रोजन बनाने के लिए सात प्रोटॉन, 7 या 8 न्यूट्रॉन और सात इलेक्ट्रॉन लेकर प्रक्रिया को दोहराएँ। इसी तरह ऑक्सीजन बनाने के लिए आपको 8 प्रोटॉन, 8 से 10 न्यूट्रॉन और 8 इलेक्ट्रॉन की ज़रूरत होगी। इसके अलावा आपको हड्डियों के लिए कैल्शियम व फॉसफोरस, खून के हीमोग्लोबिन के लिए आयरन और कई अन्य पदार्थों की ज़रूरत होगी जोकि प्रोटॉन, न्यूट्रॉन व इलेक्ट्रॉन के ही अलग-अलग संयोजनों से बनेंगे।
5.    परमाणुओं को जमाकर अणु बना लीजिए। पानी का एक अणु बनाने के लिए आपको चाहिए होंगे हाइड्रोजन के दो व ऑक्सीजन का एक परमाणु। सम्भव है कि कुछ अन्य अणुओं को बनाने के लिए आपको सैकड़ों या हज़ारों परमाणुओं को जमाना पड़े।
6.    अब इन परमाणुओं की मदद से कई दसियों हज़ारों लाखों जीवित कोशिकाओं का निर्माण कीजिए।
7.    अन्त में इन सबको जमाकर गाय बना लीजिए।

इसमें तो कोई शक नहीं कि प्रकृति में विकास की प्रक्रिया एक लम्बा समय लेती है और यहाँ तो हमने एक अतिमहत्वपूर्ण कारक, वो समय जो गाय को एक प्रजाति के रूप में अन्य जीवों की ही तरह प्रजनन की शक्ति के साथ विकसित होने में लगा है, को तो छोड़ ही दिया है। लेकिन इस पर भी गाय को बनाने की हमारी ‘विधि’ बुनियादी स्तर पर गाय के अवयवों का एक सटीक निरूपण है। यहाँ तक कि यह इन्सानों के लिए भी सटीक है। संयोग से प्रजनन की प्रक्रिया की असाधारण विशेषता यह है कि अनुकूल परिस्थितियों में जीवित प्राणी अपने जैसे प्राणी को स्वतंत्र रूप से बना सकते हैं। मानो कि एक कम्प्यूटर अपने जैसा ही एक और कम्प्यूटर अपने प्रोग्राम से ही बना लेने में समर्थ हो।
लेकिन बुनियादी अवयव वही हैं ‘बिन्दु’ या ‘डॉट्स’ (इलेक्ट्रॉन और द्व व ड्ड क्वार्क) जो आज से तकरीबन 100 से 200 करोड़ साल पहले हुए ऊर्जा के संकेन्द्रण का परिणाम हैं व जिनसे मिलकर ये संसार और इसके सभी निवासी बने हुए हैं।

लेकिन फिर भी संसार का अस्तित्व है
सिद्धान्तों ने यह दिखाया है व सर्न जैसी प्रयोगशालाओं में किए गए प्रयोगों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि हर कण का एक परस्पर ‘विपरीत-कण’ होता है।
दोनों क्वार्क व इलेक्ट्रॉन इन तीनों के अपने-अपने ‘विपरीत-कण’ हैं। इस परिघटना का जो सबसे पहला रोचक पहलू है वो यह कि एक कण का सामना जब भी अपने विपरीत-कण से होता है तो दोनों एक-दूसरे को नष्ट कर देते हैं और उनमें निहित पदार्थ दोबारा से शुद्ध ऊर्जा में बदल जाता है (उदाहरण के तौर पर प्रकाश या फिर आम तौर पर एक्स-रे के रूप में)।
एक और पहलू जो इस परिघटना से जुड़ा हुआ है वो यह कि जब भी ऊर्जा संकेन्द्रित होकर पदार्थ में रूपान्तरित होती है तब बनने वाले कणों व विपरीत-कणों की संख्या हमेशा एक बराबर होती है। चूँकि दोनों तरह के कणों के गुण लगभग एक समान हैं तो ऐसे में एक ऐसे ‘विपरीत-संसार’ की कल्पना करना मुश्किल नहीं जिसमें ‘विपरीत-परमाणु’, ‘विपरीत-अणु’, ‘विपरीत-कोशिका’, ‘विपरीत-गाय’ और यहाँ तक कि ‘विपरीत-ग्रह’ हों व जो विपरीत-प्रोटॉन (दो u विपरीत-क्वार्क व एक d विपरीत-क्वार्क ), विपरीत-न्यूट्रॉन (एक u विपरीत-क्वार्क व दो d विपरीत-क्वार्क) और ‘विपरीत-इलेक्ट्रॉन’ से बने हों।

संक्षेप में सैद्धान्तिक तौर पर हम कह सकते हैं कि विपरीत-कणों को मिलकर विपरीत-पदार्थ (anti-matter) की रचना सम्भव है। क्या सृष्टि में ‘विपरीत-पदार्थ’ अस्तित्व में है? आज तक इस सवाल का कोई भी पुख्ता जवाब हमारे पास नहीं है। लेकिन, आम तौर पर यह समझ बन चुकी है कि अगर विपरीत-पदार्थ अस्तित्व में है तो उसकी मात्रा आम पदार्थ की तुलना में काफी कम है। ऐसा क्यों? यह अभी भी रहस्य ही है। यहाँ तक कि आम पदार्थ का अस्तित्व में होना भी रहस्य ही बना हुआ है क्यूँकि अगर जब भी कोई कण बनता है तो उसका विपरीत-कण भी बनता है और जब इन दोनों में एक-दूसरे को नष्ट कर देने की शक्ति है, तो सृष्टि की रचना के कुछ देर बाद ही सभी कणों व विपरीत-कणों को आपस में मिलकर एक-दूसरे को खत्म कर देना चाहिए था।
तो फिर बिना विपरीत-पदार्थ के पदार्थ के अस्तित्व में होने की व्याख्या क्या होगी? कण भौतिकी को इस सवाल का पुख्ता जवाब खोजना होगा कि आखिर हम और हमारा संसार क्यों अस्तित्व में है। शोध को आगे बढ़ाने के लिए यह लक्ष्य ही अपने आप में काफी है।
आखिर हम पहुँचे कहाँ तक?

जैसा कि हमने देखा, कण-भौतिकी में हुए अभी तक के शोध से सृष्टि की जो तस्वीर उभरती है वो मूल रूप से बहुत सरल है। लेकिन अभी भी हम उन प्रभावों या ‘बलों’ की एक व्यापक व्याख्या से दूर हैं जो ये कण एक-दूसरे पर डालते हैं। इनमें से विद्युत व चुम्बकीय तथा गुरुत्वाकर्षण सरीखे कुछ बल हैं जिनके बारे में हम अपने दैनिक जीवन में जानते हैं। अन्य बलों का प्रभाव-क्षेत्र इतना सीमित है कि उनके होने का आभास हमें अप्रत्यक्ष तौर से ही है। जैसे कि ‘मज़बूत’ बल (strong force) जो किसी प्रोटॉन या न्यूट्रॉन में क्वार्क को आपस में बाँधे रखता है व साथ ही किसी केन्द्रक में प्रोटॉन व न्यूट्रॉन को साथ में रखने का भी कारण है। इसी तरह का एक और बल है ‘कमज़ोर’ बल (weak force) जो अस्थाई कणों के अस्थिर होने का एक कारण है।
लेकिन ये बल किस तरह काम करते हैं? एक कण से दूसरे कण के बीच होने वाली खाली जगह से होकर ये बल कणों तक कैसे पहुँचते हैं? हमारी आज की समझ के मुताबिक कई तरह के ‘सन्देशवाहक’ का कणों के बीच में आदान-प्रदान होता है। देखा जाए तो बहुत कम समय के लिए जीवित रहने वाले इन ‘सन्देशवाहक’ को हकीकत में कण तो नहीं कहा जा सकता। थोड़ी कल्पना करके आप इन्हें ‘भँवर’ के रूप समझ सकते हैं। लेकिन इस तरह की व्याख्या के कुछ ज़्यादा मायने नहीं हैं। हाँ, इससे एक बात साफ ज़रूर हो जाती है कि अब हम एक ऐसे पड़ाव पर पहुँच चुके हैं जहाँ चीज़ों को रोज़मर्रा के उदाहरणों से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।

आखिर हम कितनी दूर तक जा सकते हैं?
जैसे कि हमने देखा, कण भौतिकी का मुख्य लक्ष्य उन अवधारणाओं, जिन्हें हमने ‘कण’, ‘बिन्दु’ और ‘सन्देशवाहक’ कहा, के ज़रिए सृष्टि की स्पष्ट, सुसंगत व व्यापक व्याख्या करना है। ‘मध्यम बोसॉन’ (intermediate boson) जैसी खोजें हमारी इस आशा को और भी मज़बूत बनाती हैं कि किसी दिन हम यह लक्ष्य पा सकते हैं। लेकिन क्या हम कभी भी पूरी तरह सफल हो पाएँगे? इस बिन्दु पर तमाम भौतिकशास्त्रियों के बीच भी मतभेद है।
* एक तरफ तो वो लोग हैं जिनका विश्वास है कि हमें सफलता ज़रूर मिलेगी और उसके बाद के वैज्ञानिक शोध मुख्यत: खगोलीय, प्राकृतिक व जैविक जगत की जटिल घटनाओं के अध्ययन की दिशा में होंगे। जैसे कि दिमाग कैसे काम करता है, इत्यादि।
* कुछ अन्य यह मानते हैं कि जैसा पहले होता आया है ठीक उसी तरह इस सूक्ष्म व मूलभूत संसार में भी हमेशा कुछ-न-कुछ ऐसा होगा जिसे खोजना बाकी रह जाएगा।
* इनके अलावा चन्द ऐसे भी भौतिकविद हैं जो ये मानते हैं कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब इन्सान का सामना अलंघ्य तकनीकी और शायद बौद्धिक बाधाओं से होगा जिनके चलते वो यह स्वीकारने के लिए बाध्य होगा कि आगे शोध अब सम्भव नहीं।
इनमें से कौन सही है, यह तो समय ही बताएगा। और इस दौरान शोध जारी रहेगा।


राफेल कर्रेरास् व गाय हैन्श: राफेल कर्रेरास् ने क्कङग़् के शैक्षिक विभाग में 1965 से तीस साल तक आउटरीच - विज्ञान को लोगों तक पहुँचाने का काम किया। उनके साप्ताहिक व मासिक व्याख्यान बहुत लोकप्रिय थे और इनमें आम जनता भी शामिल हुआ करती थी। वे खगोल भौतिकी से लेकर मनुष्य विज्ञान पर बात करते थे। इस लेख को अॅँग्रेज़ी में 1986 में उन्होंने गाय हैन्श के सहयोग से लिखा व डिज़ाइन किया। गाय हैन्श एक स्विस राजनयिक थे और उनकी पोस्टिंग सर्न के सलाहकार के रूप में थी। इनका सर्न के कई प्रकाशनों में योगदान रहा।
अनुवाद: विवेक मेहता: आई.आई.टी., कानपुर से मेकेनिकल इंजीनियरिंग में पीएच.डी. की है एवं तेज़पुर विश्वविद्यालय, असम में पढ़ा रहे हैं। एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के तहत वे हाईस्कूल की कक्षाओं के लिए गतिविधि आधारित मॉड्यूल तैयार कर रहे हैं। यह प्रयास, कनेक्ट्ड लर्निंग इनिशिएटिव, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान के समर्थन से संचालित है।
चूँकि यह लेख सन् 1986 में लिखा गया था, कण भौतिकी के क्षेत्र में उसके बाद जो कुछ डिवेलपमेंट हुए हैं, उनके लिए संदर्भ के अंक-66 (नवम्बर-दिसम्बर, 2009) में प्रकाशित अजय शर्मा का लेख स्टैण्डर्ड मॉडल - हर चीज़ का एक सिद्धान्त ज़रूर देखें।
लेख मुखपृष्ठ: द ग्लोब ऑफ साइंस एण्ड इनोवेशन, सर्न हेडक्वार्टर, स्विट्ज़रलैंड।