पिछले अंक में सवालीराम ने पूछा था कि लोगों का रंग उजला (गोरा) और काला क्यों होता है। इस सवाल के दो जवाब पेश कर रहे हैं। पहला जवाब हमारे पाठक अभिषेक कुमार शुक्ल का है। दूसरा जवाब एकलव्य की प्रकाशन टीम के साथी रुद्राशीष ने तैयार किया है।
सवाल: लोगों का रंग उजला (गोरा) और काला क्यों होता है?

जवाब 1: लोगों का रंग गोरा या काला होना हमारी त्वचा में पाए जाने वाले मेलेनिन नामक वर्णक की मात्रा के आधार पर तय होता है। जिसके शरीर/त्वचा में मेलेनिन की मात्रा अधिक होती है, वह काला दिखता है व जिसकी त्वचा में मेलेनिन की मात्रा कम होती है, वह गोरा दिखता है। शरीर के अलग-अलग भाग में मेलेनिन की मात्रा अलग-अलग हो सकती है। हाल ही की एक घटना -- हम गाड़ी का पंचर बनाने पहुँचे तो पंचर वाला व्यक्ति कमर के ऊपरी भाग पर कोई वस्त्र नहीं पहना था फिर भी शरीर पर उजली रंग की बनियान स्पष्ट प्रतीत हो रही थी। चलो, इसका कारण सोचते हैं।
चूँकि शायद वह अधिकांश समय बनियान पहनकर काम करता है इसलिए उसके शरीर का जो हिस्सा बनियान से ढँका रहा, वहाँ सूर्य प्रकाश के कम सम्पर्क के कारण मेलेनिन कम बना और वह भाग उजला हो गया। जो भाग सूर्य के प्रकाश के अधिक सम्पर्क में आया, वहाँ मेलेनिन के अधिक संग्रह के कारण वो काला हो गया।

अब हम कह सकते हैं कि काला या गोरा होने के लिए बने कारक मेलेनिन को सूर्य प्रकाश प्रभावित करता है।
लेकिन इसके लिए सूर्य प्रकाश को पूरी तरह ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता क्योंकि नए पैदा होने वाले बच्चे भी काले-गोरे होते हैं। वे तो अभी सूर्य प्रकाश के सम्पर्क से बहुत दूर हैं। काले व गोरे होने के लिए कुछ तो आनुवंशिक कारण भी ज़िम्मेदार होते हैं।


अभिषेक कुमार शुक्ल: मिडिल स्कूल, भगवानटोला, ज़िला राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़ में शिक्षक हैं।


जवाब 2: संक्षेप में कहें तो हमारी त्वचा का रंग इस बात से तय होता है कि त्वचा के रंग के पिगमेंट (वर्णक/रंजक) बनाने वाले किस तरह के जीन्स हमने अपने माता-पिता से विरासत में प्राप्त किए हैं। जीन्स के प्रकार किसी स्थान-विशेष पर पड़ने वाले पराबैंगनी विकिरण की मात्रा द्वारा प्रभावित होते हैं। इस तथ्य को समझने के लिए आइए हम मनुष्यों की त्वचा के रंग के इतिहास पर एक नज़र डालते हैं।
इस कहानी की जड़ें बालों में हैं!

हालाँकि, मनुष्यों में बालों के फॉलिकल (रोमकूप) की संख्या और घनत्व काफी कुछ वानरों के जैसा ही होता है, लेकिन हमारे शरीर पर जो बाल होते हैं, वे न तो इतने मोटे होते हैं और न ही इतने लम्बे जितने कि हमारे कुछ सबसे नज़दीकी रिश्तेदारों, जैसे चिम्पांज़ियों, के बाल। लेकिन लगभग 50 लाख साल पहले तक हमारे पूर्वजों के शरीर के बाल इन वानरों जैसे ही थे। उस समय तक वे अपने पैरों से चलने लगे थे, और भोजन व पानी की तलाश में खुले और विस्तृत परिवेशों में अधिक समय बिताने लगे थे। ऐसे में उनके लिए एक बहुत बड़ा खतरा था -- शरीर के भीतरी तापमान का बहुत अधिक बढ़ना। प्रचलित सिद्धान्त के अनुसार प्राचीन मनुष्य के शरीर में जिन परिवर्तन के  विकास के कारण उनके शरीर का तापमान बहुत अधिक न बढ़ा, वे थे:
* शरीर पर बालों का कम होना, और
* स्वेद-ग्रन्थियों (पसीना निकालने की ग्रन्थियाँ) की संख्या में बढ़ोतरी।
हमारा ऐसा मानना है कि इन परिवर्तनों ने साथ में असर दिखाया होगा और हमारे पूर्वजों के शरीर पसीना बेहतर ढंग से निकल पाने और उसके वाष्पीकरण के कारण ठण्डे हो जाते थे।

इन सबका रंग से क्या वास्ता?
बात दरअसल यह है कि लगभग 15 लाख साल पहले, हमारे ग्रह के विस्तृत क्षेत्रों ने बहुत लम्बे समय तक अस्वाभाविक शुष्क जलवायु का सामना किया। ऐसी शुष्क परिस्थितियों में बहुत बड़ी संख्या में पेड़ मर गए, छाँव की बहुत कमी हो गई जिस वजह से होमो (आधुनिक मनुष्य या होमो सेपियन भी इसी वंश की प्रजाति हैं और ऐसी एकमात्र बची हुई प्रजाति है, बाकी सभी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं) वंश के प्रारम्भिक सदस्यों की बालों रहित त्वचा पर पहले की तुलना में सीधी धूप अधिक पड़ती थी और ज़्यादा लम्बे समय तक उसे पराबैंगनी विकिरण के ऊँचे स्तरों को झेलना पड़ता था।

यहाँ पर यह सवाल पूछा जा सकता है कि सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों का हमारी त्वचा पर क्या बुरा असर पड़ता है। हालाँकि, पराबैंगनी किरणें सूर्य के प्रकाश का बहुत छोटा अंश होती हैं, पर धूप से हमारे शरीर को होने वाला ज़्यादातर नुकसान इन्हीं की वजह से होता है। पराबैंगनी किरणें त्वचा के कैंसर का कारण बन सकती हैं क्योंकि ये हमारे शरीर की कोशिकाओं में मौजूद डीएनए को क्षति पहुँचा सकती हैं जिसके कारण वे असामान्य व्यवहार करने लगती हैं।1 और यही वजह है जिसके कारण हमें लगता है कि हमारे पूर्वजों की त्वचा धीरे-धीरे साँवली और काले रंग की होने लगी।
साँवली या काले रंग की त्वचा किस तरह हमारी रक्षा करती है?

साँवली या काली त्वचा वाले लोगों में मेलेनिन (अधिकांश जीवों की त्वचा की कोशिकाओं में पाए जाने वाले प्राकृतिक पिगमेंट के समूह के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द) अधिक होता है जो त्वचा की कोशिकाओं को पराबैंगनी किरणों के विकिरण से होने वाले नुकसान से बचाता है, और इस तरह कैंसर के खतरे को कम करता है। मनुष्यों में किस मात्रा में और किस प्रकार का मेलेनिन बनेगा, यह मुख्यत: मेलेनिन को बनाने वाली मेलैनोसाइट  नामक  त्वचा  की कोशिकाओं में मौजूद तमाम जीन्स और उनके प्रकारों द्वारा तय होता है। हमारी त्वचा की रंगत इस बात से तय होती है कि हमने अपनी माँ और पिता से मेलेनिन बनाने वाले कौन-से जीन्स  प्राप्त  किए,  और  हमारी कोशिकाओं पर उनका क्या संयुक्त प्रभाव पड़ सकता है। मनुष्य के इतिहास में सम्भवत: यह वह समय था जब मेलेनिन का ज़्यादा उत्पादन करने वाले जीन्स विभिन्न आबादियों में फैले। और सम्भवत: इसी तरह मनुष्यों में साँवली और काली त्वचा पाई जाने लगी।
पर इससे यह कहाँ स्पष्ट होता है कि कुछ लोग गोरे क्यों होते हैं?

करीब 1,00,000-70,000 साल पहले, शारीरिक रूप से आधुनिक, कुछ मनुष्यों (होमो सेपिएन्स) ने उष्ण-कटिबन्धों से निकलकर, उत्तर की ओर जाना शुरू कर दिया जहाँ उन्हें अपेक्षाकृत कम तेज़ धूप मिलती थी। शायद इन ऊँचे अक्षांशों की सर्द जलवायु से बचाव के लिए अपने शरीरों को ढाँकने के लिए ज़्यादा कपड़ों के इस्तेमाल ने भी उन्हें पराबैंगनी किरणों से और ज़्यादा बचाया होगा। इन परिस्थितियों में, प्राकृतिक चयन के नज़रिए से उजले रंग की त्वचा वाले जीन्स के प्रभाव किसी व्यक्ति में दिखने के बाद भी, उनके जीवित रहने की सम्भावना कम नहीं होती थी। इस तरह यहाँ के मनुष्यों में उजले रंग की त्वचा वाले जीन्स फैल गए।

हमारे विकसित होने के इतिहास में मनुष्यों के अलग-अलग समूह जब हमारे ग्रह के अलग-अलग हिस्सों में फैलने लगे तो न सिर्फ धूप की अलग-अलग तेज़ी से उनका सामना हुआ, बल्कि धीरे-धीरे मनुष्यों के अन्य समूहों से उनका सम्पर्क हुआ जो या तो पहले से वहाँ रह रहे थे या इन लोगों के बाद वहाँ पहुँचे थे। समय बीतने के साथ, इस समूह के सदस्यों ने आपस में यौन सम्बन्ध बनाना शुरू कर दिए और अलग-अलग प्रकार के पिगमेंट बनाने वाले उनके जो मूल जीन्स थे, उनके बच्चों के शरीरों में उन सबका मिश्रण हो गया। इसके साथ ही जिस तरह से पृथ्वी पर जलवायु दशाएँ बदलती रही हैं, उसके परिणामस्वरूप आज पूरे ग्रह पर हमें अपने चारों तरफ भिन्न-भिन्न प्रकार के त्वचा के रंग दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, वैज्ञानिक आजकल यह कहते हैं कि पराबैंगनी किरणों के विकिरण के अलग-अलग स्तरों वाले विभिन्न क्षेत्रों में स्थानान्तरित होने से पिछले 50,000 सालों में काली या साँवली त्वचा वाली आबादियाँ उजली त्वचा वाली, और उजली त्वचा वाली आबादियाँ साँवली या काली त्वचा वाली आबादियों में बदल गई हैं। और त्वचा के रंग में इतने बड़े परिवर्तन सम्भवत: सिर्फ पिछली 100 पीढ़ियों में ही हुए होंगे (करीब 2500 सालों में)।

मुझे लगता है कि अपने शरीरों पर लगाने के लिहाज़ से आज के अरबों रुपए वाले सौन्दर्य उद्योग के उत्पादों की तुलना में जीवविज्ञान और भूगोल का यह कहीं बेहतर और प्रमाणित मिश्रण बेहतरीन नतीजे देगा!


रुद्राशीष चक्रवर्ती: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।