पूनम मेध
यह पाँचवीं के पर्यावरण अध्ययन विषय की पाठ्यपुस्तक का विश्लेषण है। पाठ्यपुस्तक का यह संस्करण एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा 2008 में प्रकाशित किया गया था। इस किताब की जो वृहत संरचना है उसमें तो आमुख, आभार, पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति की सूची और विषय-सूची जैसे जाने-पहचाने अंश दिखाई देते हैं। लेकिन इसमें बाल अधिकार बिल जैसे अतिरिक्ति अंश भी हैं और शिक्षकों व माता-पिता के लिए एक विस्तृत टिप्पणी भी। इस चार पन्नों की विवरणात्मक टिप्पणी में किताब के उद्देश्य, उसकी विषय वस्तु और बच्चों के साथ शिक्षकों के काम करने के तरीकों का संक्षिप्त वर्णन है। यह टिप्पणी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह, इस विषय-विशेष को सीखने का रूप क्या होगा, इसे तय करती है।
इस किताब की संरचना और विषयवस्तु एनसीएफ 2005 के उन तत्वों को प्रतिबिम्बित करती है जिनका वर्णन पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक पर बने आधारपत्र में किया गया है। इसमें जो सबसे प्रासंगिक बदलाव देखा जा सकता है वह है पाठ्यपुस्तक से हटकर ‘सीखने-सिखाने की सामग्री’ को अपनाना जैसा कि इस लेख के बाद के हिस्से में दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट होता है। इस लेख में चर्चा की गई है कि आगे उल्लिखित इन मुद्दों को लेकर पाठ्यपुस्तक के क्या आशय हैं, जैसे कि सीखना कैसा होना चाहिए, सीखने के अन्तर्निहित सिद्धान्त और उद्देश्य, स्थानीय ज्ञान, पाठ्यचर्या का समाकलन (integration), शैक्षणिक स्थल (pedagogic sites) तथा शिक्षकों से अपेक्षाएँ। इनके अलावा, इस लेख में जाति, वर्ग, जेंडर और धर्म के वर्णन के सन्दर्भ में पाठ्यपुस्तक के समाजशास्त्रीय पहलुओं का भी विश्लेषण किया गया है।
पाठ्यपुस्तक में सीखना किस तरह से अन्तर्निहित है?
कुछ पाठों का विस्तार से अध्ययन करने तथा पूरी किताब को सरसरी तौर से देखने पर इसकी पाँच प्रमुख विशेषताएँ दिखाई देती हैं:
* रटने से बचाती है:
पाठ्यपुस्तक की विषयवस्तु में किसी भी तरह के रटने से बचा गया है। इसमें अगर तथ्यों और अवधारणाओं को जगह दी भी गई है तो बहुत ही कम। ऐसी अपेक्षा की गई है कि सीखने की विषयवस्तु को सिर्फ बच्चों की सोच के माध्यम से ‘निर्मित’ किया जाएगा। और इसी से इस किताब की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता निकलती है जिसे अगले बिन्दु में दर्शाया गया है।
* बच्चों के सोचने और सहजबोध को प्रेरित करती है:
पाठ्यपुस्तक बच्चों को चीज़ों और घटनाओं का अवलोकन करने और सोचने के लिए प्रेरित करती है, और रोज़मर्रा की सामान्य घटनाओं के बारे में शिक्षकों की मदद से उन्हें खुद अपने तर्क विकसित करने में सहयोग करती है। यह पाठ्यपुस्तक जटिल अवधारणाओं का अर्थ लगाने में बच्चों के सहजबोध को उपयोग करने का मौका देती है और उसमें मदद करती है। इसका एक उदाहरण है, ‘दक्षिणी गोलार्ध में लोग धरती की सतह से नीचे क्यों नहीं गिर जाते?’
* सामूहिक और व्यक्तिगत गतिविधियों के बीच सन्तुलन:
पाठ्यपुस्तक में सामूहिक और स्वयं करने वाली प्रायोगिक गतिविधियों के बीच सन्तुलन है। उदाहरण के लिए, एक गतिविधि में बच्चों को ध्यान से देखना है कि अगर खाने की कोई चीज़ गिर जाए तो उसे खाने के लिए चींटियाँ कितनी जल्दी आती हैं। लेकिन बैठकर किए जाने वाले व्यक्तिगत काम भी समान रूप से मौजूद हैं, उदाहरण के लिए, ‘ऐसे लोगों का संक्षिप्त विवरण लिखें जो अपनी आजीविका के लिए जानवरों पर निर्भर करते हैं, जैसे कि सपेरे’।
* अवधारणाओं की श्रेणीबद्ध जटिलता:
पाठ्यपुस्तक की शुरुआत उन साधारण, रोज़मर्रा की समस्याओं और घटनाओं से होती है जिनका सामना आम तौर पर सभी बच्चे करते हैं, जैसे कि अचानक होने वाली आवाज़ पर कुत्ते कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। फिर पाठ्य वस्तु धीरे-धीरे ज़्यादा जटिल, अपरिचित परिवेशों, जैसे कि कोई किला या अन्तरिक्ष तक भी जाती है।
* अवधारणाओं का नैतिक और भावात्मक स्वर:
गतिविधियाँ पूर्णत: नैदानिक (clinical) अवलोकन पर आधारित गतिविधियाँ नहीं हैं। वे बच्चे को किसी भाव को महसूस करने के लिए, न्याय के पहलुओं के बारे में सोचने के लिए इस ढंग से प्रेरित करती हैं जो इस पाठ्यचर्या को पढ़ने वाले बच्चों की उम्र के अनुकूल हों। उदाहरण के लिए, धान के खेत पर काम करने वाले गरीबी में जीने को बाध्य मज़दूर, जिसके पास धान के खेत में जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी खुद के खाने के लिए पर्याप्त नहीं है, पर चर्चा करने से मुझे लगता है बच्चों में सहानुभूति का एहसास पैदा होगा। साथ ही, उनका ध्यान इस स्थिति के नैतिक पक्षों की तरफ भी जाएगा।
ऊपर दी गई विशेषताएँ यह दर्शाती हैं कि ईवीएस की पाठ्यचर्या बच्चों को उनके परिवेश को समझने, उसके प्रति संवेदनशील होने, और उसके प्रति उत्सुकता भरी सजगता विकसित करने के लिए प्रेरित करती है। इसमें परिभाषाओं या अवधारणाओं को रटने पर कतई ज़ोर नहीं दिया गया है बल्कि इस बात की कोशिश की गई है कि बच्चे अवलोकन और सोचने की विचार प्रक्रियाओं के माध्यम से उनके चारों ओर के परिवेश को समझें। इस प्रक्रिया में उन्हें विविध प्रकार की गतिविधियों और/या प्रयोगों की मदद मिल सकती है।
पाठ्यपुस्तक की बनावट का समग्र दृष्टिकोण
इस पाठ्यपुस्तक में दिखाई देने वाले दृष्टिकोण (जिसका वर्णन ऊपर किया गया है) का आधार रोशैल मेयर और लॉरैन्स कोह्लबर्ग का प्रगतिवाद है, जो कहता है:
* बाहरी दुनिया, यानी समाज या प्राकृतिक परिवेश, के साथ बच्चों की ‘स्वाभाविक पारस्परिक क्रिया’ इस तरह से होना चाहिए जिसके द्वारा वास्तविक समस्याओं या संघर्षों को हल करने का प्रयास हो।
* शैक्षिक अनुभव के माध्यम से बच्चे सोचने लगते हैं, ऐसे तरीकों से जो संज्ञान और भाव, दोनों व्यवस्थित करते हैंैं।
विभिन्न प्रकार की विचारोत्तेजक कहानियों, गतिविधियों और अवलोकन कार्यों के माध्यम से यह पाठ्यपुस्तक प्रगतिवाद के पहलुओं को निरूपित करने के साथ ही उसमें इस विचार को आधार बनाकर संघर्ष की स्थितियों को भी शामिल करती है, कि ‘ऐसा शैक्षणिक परिवेश जो हल की जा सकने वाली लेकिन वास्तविक समस्याओं और संघर्षों को प्रस्तुत करता है, वह बच्चों के विकास को सक्रिय रूप से प्रेरित करता है’।
उदाहरण
पाठ 2 में आर्यनाथ की कहानी:
आर्यनाथ के दादा सपेरे थे जो साँपों को पालकर अपनी आजीविका चलाते थे। इस कहानी में सपेरों के पेशे, एक समय में समाज में उनकी उपयोगिता -- ज़िन्दगी बचाने के लिए भी और मनोरंजन के लिए भी -- तथा आधुनिकीकरण के परिणामस्वरूप हुए उनके पतन, इन सभी बातों की पड़ताल की कोशिश की गई है। पर्यावरण, स्थानीय ज्ञान (औषधि के रूप में साँप के विष का प्रयोग) और स्थानीय संस्कृति (कालबेलिया नृत्य, बीन) तथा जानवरों के संरक्षण के मुद्दे को एक ही कहानी में बड़े सुसंगत ढंग से पिरो दिया गया है। यह कहानी शिक्षक के लिए पर्यावरण से जुड़े कई सारे मुद्दों और समस्याओं को छूने का एक शुरुआती बिन्दु हो सकती है।
पाठ 6 में पानी की कमी की चर्चा:
इस किताब में प्रगतिवाद का समर्थन करने वाला एक और उदाहरण है जो वास्तविक जीवन में पानी की कमी और उसे रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से जोड़कर दिखाता है। पानी के उपयोग और उसकी आपूर्ति, साफ और पीने योग्य पानी उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका, गाँवों में इसकी अत्यधिक कमी को ‘समस्या’ के ढंग से पेश किया गया है। बच्चों से अपेक्षा की गई है कि वे पानी की समस्याओं पर चर्चा करें और इस विषय में गहरे उतरें। पाठ में राजस्थान की महिला दड़की माई की सफलता की कहानी भी बयान की गई है। अपने गाँव में पानी की कमी से जुड़े उसके संघर्र्षों और अन्त में मिली सफलताओं का उल्लेख किया गया है।
जहाँ प्रगतिवादी विचार इस पाठ्यपुस्तक का आधार है वहीं इसकी रूपरेखा में जॉन ड्यूई की यह मान्यता भी प्रतिबिम्बित होती है कि ‘बच्चे तो जन्मजात बहुत सक्रिय होते हैं, और उनके भीतर चीज़ों के बारे में पड़ताल करने की, उन्हें जो कुछ भी पता चलता है उसे दूसरों के साथ बाँटने की, व्यावहारिक चीज़ें बनाने की, और सृजन करने की ज़बरदस्त प्रेरणा होती है।’ जैसा लॉरेन टैनर ने कहा है, बच्चों की गतिविधियाँ अन्तत: ‘ऐसे तथ्यों और सिद्धान्तों तक ले जाएँगी जिन्हें विज्ञान, इतिहास और साहित्य कहा जाता है जो व्यवस्थित रूप में स्थापित ज्ञान की विधाएँ हैं।’ इस पाठ्यपुस्तक में दी गई गतिविधियों की संख्या से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
पाठ्यपुस्तक में समाकलन
इस पाठ्यपुस्तक में अलग-अलग थीम (मुद्दों) पर आधारित समाकलन के स्पष्ट संकेत देखने को मिलते हैं। ‘नोट फॉर टीचर्स एण्ड पैरेन्ट्स’ नामक खण्ड में अलग-अलग थीम पर आधारित पाठ्यपुस्तक की संरचना का वर्णन इस प्रकार किया गया है:
* परिवार एवं मित्र (उप-थीम समेत)
* भोजन
* पानी
* आवास
* यात्रा
* हम चीज़ें कैसे बनाते हैं
रिचर्ड प्रिंग पाठ्यचर्या के समाकलन के चार दार्शनिक तरीके बताते हैं। विषयवस्तु के माध्यम से, थीम-आधारित होने पर, व्यावहारिक सोच के माध्यम से और विद्यार्थियों की खुद की पूछताछ के माध्यम से। वैसे, इस पाठ्यपुस्तक में जो समाकलन दिखाई देता है वह पूर्ण रूप से तो प्रिंग द्वारा वर्णित किसी भी मॉडल के जैसा नहीं है। प्रिंग के थीम-आधारित समाकलन में एक अकेली थीम की बात की गई है जिसके इर्दगिर्द पूरी पाठ्यचर्या की रचना की जा सकती है -- उदाहरण के लिए, ‘क्रान्तियाँ’। इस पाठ्यपुस्तक में दिखने वाले थीम-आधारित समाकलन में कई थीम शामिल हैं, जो पर्यावरण अध्ययन के वृहत मुद्दे से जुड़ी हैं, और हर थीम के अन्तर्गत कुछ अध्याय हैं।
स्थानीय ज्ञान और बाहरी (कक्षा के बाहर का) ज्ञान का संयोजन
पाठ्यपुस्तक में स्थानीय और बाहरी, दोनों तरह के ज्ञान पर ध्यान दिया गया है। पर साथ ही यह ध्यान में रखना भी ज़रूरी है कि हमारे देश में विविधतापूर्ण और बहुत अधिक विषमताओं वाली आबादी के कारण, किसी एक राज्य या क्षेत्र का स्थानीय ज्ञान किसी अन्य क्षेत्र के लोगों को ‘विदेशी’ और विचित्र लग सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आँध्र प्रदेश के किसी बच्चे के लिए गोलकोण्डा के किले का अध्ययन (पाठ 10 -- बोलती इमारतें) स्थानीय ज्ञान हो सकता है, लेकिन असम के किसी विद्यार्थी के लिए यह ज़रूरी भले ही हो लेकिन बेगाना-सा हो सकता है। इस भिन्नता से निपटने के लिए पाठ्यपुस्तक में ज़्यादा-से-ज़्यादा राज्यों को शामिल करने की कोशिश की गई है।
पाठ्यपुस्तक में स्थानीय ज्ञान की मौजूदगी के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:
* पाठ 3 -- चखने से पचने तक: इमली का ज़िक्र किया जाना और यह बताना कि छोटे बच्चों को इमली खाना कितना अच्छा लगता है, कक्षा के बाहर ज्ञान की पहचान करने का अच्छा उदाहरण है। यह एक ऐसा अनुभव है जो अधिकांश बच्चों ने लिया होगा। पाठ को इस तरह की चर्चा से शु डिग्री करना कक्षा के बाहर के ज्ञान का अच्छा उदाहरण है।
* पाठ 4 -- खाएँ आम बारह महीने: इस पाठ में आमों की और उनके विभिन्न उपयोगों की चर्चा की गई है। यह बताया गया है कि किस तरह भारत के अलग-अलग राज्यों में आम से अचार, मुरब्बा इत्यादि बनाए जाते हैं। पाठ में आगे कहानी की शक्ल में आँध्र प्रदेश में लोकप्रिय ‘मामिडी ताण्ड्रा’ कहलाने वाले आम पापड़ों को बनाने की विधि का वर्णन है। इन बातों का वर्णन करके कि आम को किस तरह पकाया जाता है, सुखाया जाता है, और किस तरह उसे संरक्षित किया जाता है, उस पुराने ज्ञान से बच्चों को अवगत कराया गया है जिसका लिखित वर्णन और कहीं नहीं मिलता। यह भी स्थानीय ज्ञान का अच्छा उदाहरण है।
* पाठ 13 -- बसेरा ऊँचाई पर: इस पाठ में ऊँचाइयों पर जीवन कैसा होता है, इसके बारे में कहानी की शक्ल में अच्छी-खासी मात्रा में स्थानीय ज्ञान को शामिल किया गया है। इस कहानी में बताया गया है कि किस प्रकार याक के बालों का इस्तेमाल करके टेंट बनाए जाते हैं जिन्हें रेबो कहा जाता है। इनका ढाँचा ऐसा होता है जो उस परिवेश के अनुकूल है। रेबो की दीवारों का उपयोग, हर घर में कितने जानवर हैं इसका हिसाब रखने के खास तरीके, ये सभी स्थानीय ज्ञान का ही नमूना हैं।
पाठ्यपुस्तक में भारत के अलग-अलग हिस्सों के लोगों की कई कहानियाँ भी हैं -- चाहे उड़ीसा के कालाहाँडी में किसी धान के खेत में काम करने वाली गोमती हो, या फिर झारखण्ड की लड़की, सूर्यमणि, जिसने खूब मेहनत से पढ़ाई करके बी.ए. की डिग्री हासिल की। हालाँकि, इन कहानियों के सन्देश अलग-अलग हैं, लेकिन इनके सन्दर्भ ऐसे हैं कि उनमें उन इलाकों का स्थानीय ज्ञान प्रचुरता से दिखाई देता है।
शैक्षणिक स्थल
शिक्षा केवल कक्षा तक या पाठ्यपुस्तक की विषयवस्तु तक सीमित नहीं होती। बल्कि यह रोज़मर्रा के तमाम अनुभवों का योग होती है। इस मत के अनुरूप इस पाठ्यपुस्तक में इस तरह के अनुभवों के कई उल्लेख हैं, या तो चर्चाओं के माध्यम से, या कहानियों के माध्यम से या फिर गतिविधियों के माध्यम से।
हालाँकि, किताब में बच्चों को संग्रहालय ले जाने या भ्रमण पर ले जाने के विशिष्ट निर्देश नहीं दिए गए हैं, लेकिन चर्चाओं और गतिविधियों के माध्यम से उनके सीखने को बाहर की दुनिया से जोड़ा गया है। इस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि किताब में कई शैक्षणिक स्थलों का उल्लेख है। सबसे ज़्यादा उल्लेख तो बच्चों के घरों का ही है जिन्हें निश्चित ही शैक्षणिक स्थल कहा जा सकता है। एक शैक्षणिक स्थल के रूप में घर का बहुत महत्व है क्योंकि इससे बच्चों को यह समझने का मौका मिलता है कि ज्ञान तो अखण्ड है। स्कूल में जो कुछ भी सीखा जाता है वह कुछ इतना अलग नहीं होता जिससे अभिभूत हुआ जाए। उदाहरण के लिए:
* पाठ 19 -- किसानों की कहानी, बीज की ज़ुबानी: बीजों और अनाजों की चर्चा के माध्यम से, घर पर बच्चे क्या खाते हैं और पाठ में क्या पढ़ाया जा रहा है, इन दोनों बातों को शिक्षक जोड़ देते हैं। यहाँ घर (और रसोई) शैक्षणिक स्थल बन जाते हैं।
* पाठ 10 -- बोलती इमारतें: जैसा कि ऊपर कहा गया है, पाठ्यपुस्तक में शैक्षणिक भ्रमण के निर्देश नहीं दिए गए हैं, लेकिन अगर शिक्षक या स्कूल इसके लिए उपयुक्त व्यवस्थाएँ कर सकें तो पाठ्यपुस्तक में इसके लिए मौके दिए गए हैं। इस पाठ में बताया गया है कि बच्चों के एक छोटे समूह ने आँध्र प्रदेश स्थित गोलकोंडा किले के चमत्कार को जाना। इसके बाद जो चर्चाएँ होती हैं उनमें बच्चों को प्रेरित किया गया कि वे अपने स्थानीय परिवेश में स्मारकों की खोज करें। यह कक्षा का ही एक विस्तार है जहाँ पर बच्चों के आसपास के स्थानों को शैक्षणिक स्थल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
समाजशास्त्रीय चश्मा
यह पाठ्यपुस्तक पहले वाली पाठ्यपुस्तकों की तुलना में इस दृष्टि से बहुत अलग है कि इसमें भूगोल, वर्ग और जेंडर के सन्दर्भ में समाज का प्रतिनिधित्व मिलेजुले रूप में किया गया है। किताब में खुले ढंग से जाति का उल्लेख तब तक नहीं किया गया है जब तक कि बिलकुल ज़रूरी न हो, और ऐसा उल्लेख भी एकदम स्वाभाविक ढंग से किया गया है। पाठ्यपुस्तक में वर्ग और जेंडर से जुड़ी बँधी-बँधाई धारणाओं का सहारा भी नहीं लिया गया है। उदाहरण के लिए, इसमें कहीं भी शहर के लड़के को अच्छे कपड़े पहने हुए, या फिर गाँव के लड़के को एकदम दुबला-पतला नहीं दिखाया गया है। बल्कि, पाठ्यपुस्तक में ऐसी कहानियों और चर्चाओं को शामिल करने का प्रयास किया गया है जो समाज में महिलाओं की बदलती (या यह कहें कि बदल चुकी) भूमिका को दिखाती हैं, चाहे सुनीता विलियम्स की अन्तरिक्ष यात्रा की बात हो या फिर झारखण्ड की युवा महिला, सूर्यमणि की कहानी हो।
अच्छा होगा अगर शिक्षक बच्चों का ध्यान इस बात की ओर दिलाएँ कि भले ही सुनीता और सूर्यमणि बहुत अलग-अलग सामाजिक वर्ग से नाता रखती हैं, लेकिन समाज के विस्तृत दायरे के एक छोर से दूसरे छोर तक महिलाओं की स्वतंत्र निर्णय लेने और उन पर चलने की क्षमता समान होती है। यहाँ थोड़ी मुश्किल इसलिए है कि बच्चों (लड़कियों) को अपने आप को इस विस्तृत दायरे का हिस्सा मानना चाहिए, ना कि अपने आपको इसके इतर समझना चाहिए।
किताब में इसके कुछ बहुत अच्छे उदाहरण हैं, जैसे खेलों में लड़कियों की भागीदारी पर आधारित पाठ (पाठ 17 -- अक्रॉस द वॉल) और ‘गर्ल स्टार्स’ पर लिखा गया पाठ (पाठ 20 -- किसके जंगल?)।
धर्म और जाति पर:
पाठ्यपुस्तक में बच्चों के जो नाम हैं वे चारों प्रमुख धर्मों -- हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाइयत और सिख धर्म -- का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन पारसी समुदाय जैसे अन्य अल्पसंख्यकों का कोई ज़िक्र किताब में नहीं मिलता।
जेंडर पर:
किताब में जहाँ महिलाओं को अपने अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में सफल व्यक्तियों के रूप में दिखाया गया है, वहीं इसमें ऐसे अनेक चित्र भी हैं जो महिलाओं को खेतों में काम करते हुए, घर पर काम करते हुए (हमेशा ही खाना बनाते हुए), घर से बाहर काम करते हुए, और बच्चों की देखभाल करते हुए दिखाते हैं। पृष्ठ 149 पर एक बड़ा चित्र है जिसमें विभिन्न तरह के काम होते दिखाए गए हैं, और इनमें से ज़्यादातर काम साड़ी या कोई अन्य पारम्परिक परिधान पहने महिलाएँ कर रही हैं। इस चित्र में महिलाओं को सड़क पर झाड़ू लगाते हुए, खरीदारी करते हुए, खाना बनाते हुए, स्कूल में पढ़ाते हुए, सब्ज़ी बेचते हुए, डॉक्टर के रूप में, प्रयोगशालाओं में, तथा अन्य काम करते हुए दिखाया गया है। यहाँ पर अगर सन्तुलन दिखाया होता तो और अच्छा होता -- उदाहरण के लिए, ऐसा चित्र ज़्यादा समावेशी होता जहाँ किसी माँ की जगह पिता अपने बच्चे को गोद में लिए हुए है या उसे खाना खिला रहा है।
वर्ग पर:
हालाँकि, पाठ्यपुस्तक में ऐसे कोई भी उदाहरण या परिस्थितियों का उल्लेख नहीं किया गया है जो शहरी, उच्च वर्ग के लोगों की ओर इशारा करती हों, लेकिन फिर भी ऐसा कहीं नहीं लगता कि इसमें किसी खास आबादी का पक्ष लिया जा रहा है या उसका प्रतिनिधित्व किया जा रहा है।
किताबें व शिक्षकों से अपेक्षा
इस पाठ्यपुस्तक में ढेर सारी गतिविधियाँ और कहानियाँ/किस्से दिए गए हैं। यह तो स्पष्ट है कि बच्चों के समक्ष किन अवधारणाओं को रखना है, लेकिन इसके लिए अपनाया गया तरीका काफी लचीला रखा गया है जो कमज़ोर संरचना की निशानी है। किताब में दी गई गतिविधियाँ और कहानियाँ वह मुख्य सामग्री है जिसे शिक्षक को पूरा कराना है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें कराने की गति क्या होगी या उन्हें किस क्रम में इन्हें कराया जाएगा, यह चुनाव शिक्षक पर छोड़ा गया है। किताब की प्रकृति निर्देशात्मक नहीं है, यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षक को उन अवधारणाओं को छूने की ज़रूरत नहीं है जिनकी ‘परीक्षा’ अध्याय के अन्त में प्रश्नों के माध्यम से ली जाएगी।
किताब की संरचना का स्तर कमज़ोर है, यह गतिविधियों के प्रकार देखकर स्पष्ट हो जाता है। इनमें कुछ गतिविधियाँ ऐसी हैं जिनमें बहुत सरल-से प्रयोग करना हैं जैसे फर्श पर खाने की कोई चीज़ गिरने पर चींटियाँ किस तरह प्रकट हो जाती हैं। ऐसे में कक्षा की प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि इन चर्चाओं में बच्चों की प्रतिक्रिया क्या रहती है।
पाठ्यपुस्तक में हर अध्याय के बाद फुटनोट दिए गए हैं जिनमें शिक्षकों के लिए संकेत दिए गए हैं। इसके अलावा, किताब में निम्नलिखित आशय ज़रूर निहित हैं:
1. शिक्षक ध्यानपूर्वक और परिश्रम से काम करते हुए इन गतिविधियों को कराने में बच्चों की मदद करेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि गतिविधियों में और उसके बाद होने वाली चर्चाओं में हर एक बच्चा भाग ले।
2. यह ज़रूरी होगा कि शिक्षक विभिन्न विचारों को चर्चाओं में मौका दें और अगर बच्चों के सवाल हों तो उन सवालों पर ध्यान दें। हो सकता है कि बच्चे उनसे जो सवाल पूछें, उनका विश्लेषण करने के लिए विशेष कौशलों की ज़रूरत पड़े और उनका जवाब देते समय वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल करना पड़े। उदाहरण के लिए, उन्हें यह पता होना चाहिए कि चींटियाँ सर्दियों के लिए खाना क्यों इकट्ठा करती हैं, या फिर दक्षिणी गोलार्ध में लोग धरती की सतह पर से नीचे क्यों नहीं गिर जाते।
3. शिक्षकों से अपेक्षा है कि वे पाठ्यपुस्तक में उठाए गए कुछ विवादास्पद प्रश्नों का सन्तुलित और सामाजिक रूप से ज़िम्मेदारी भरा जवाब दे पाएँगे। जैसे, इन्द्रियों पर तैयार किए गए पाठ में एक उदाहरण है जहाँ एक महिला बहुत इतमीनान से अपने छ: महीने के बच्चे का डाइपर बदल रही है लेकिन जब उसे अपनी बहन के बच्चे का डाइपर बदलना पड़ा तो वह दुर्गन्ध के कारण अपनी नाक सिकोड़ लेती है। यह एक संवेदनशील मसला है और इस पर बात करने के लिए एक खास स्तर के विवेक और संवेदनशीलता की आवश्यकता है।
शिक्षकों को यह बात भी ध्यान में रखना होगी कि यह पाठ्यपुस्तक अगले साल की विज्ञान की पाठ्यचर्या की तैयारी भी कराती है। इसलिए यह ज़रूरी है कि अवधारणाओं के ज्ञान पर तथा वैज्ञानिक मिज़ाज के विकास पर ध्यान दिया जाए।
निष्कर्ष
पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों पर बने एनसीएफ 2005 के आधारपत्र में अन्य सिद्धान्तों के अलावा दो खास सिद्धान्तों पर तवज्जो दी गई है। एक, कि बच्चे खुद अपने ज्ञान का निर्माण करते हैं, और दूसरा, कि सीखने में अनुभव की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह पाठ्यपुस्तक इन दोनों सिद्धान्तों पर खरी उतरती है। इसमें बच्चों को प्रयोग करने, परिकल्पनाएँ बनाने, तार्किक ढंग से अनुमान लगाने, विचारों और खोज-कार्यों को साझा करने आदि के मौके दिए गए हैं।
तो यह कहा जा सकता है कि इस पाठ्यपुस्तक में वे सभी तत्व हैं जो अगली कक्षा में विज्ञान का विषय पढ़ने के लिए बच्चों की तैयारी कराएँगे।
पूनम मेध: टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़, मुम्बई से प्राथमिक शिक्षा में एम.ए.। आईडी यानी इंसट्रक्शनल डिज़ाइन (अनुदेशात्मक अभिकल्पना) विषय की सलाहकार। यह ऐसा विषय है जो संज्ञानात्मक सिद्धान्तों का इस्तेमाल करके सीखने की ऐसी रूपरेखा तैयार करता है कि सीखना प्रभावी होने के साथ-साथ आनन्ददायक भी बने। इन्होंने सर्व शिक्षा अभियान के तहत गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम करते हुए सीखने की डिजिटल सामग्री भी तैयार की है। पाठ के नियोजन तथा कहानियों की मदद से सीखने पर शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाएँ संचालित की हैं। बच्चों के साथ कहानी सुनाने के सत्र आयोजित करने और बच्चों द्वारा सुनाई जा रही कहानियों को सुनने में विशेष रुचि।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
लेख में आए उद्धरणों की जानकारी के लिए पाठक संदर्भ टीम या लेखक से सम्पर्क कर सकते हैं।
सभी चित्र एन.सी.ई.आर.टी. कक्षा-5 की पर्यावरण अध्ययन की किताब आस-पास से साभार।