कामाक्षी चौहान
अक्सर अपने आसपास कई शिक्षकों को कहते सुनती हूँ, “भई गणित-वणित में तो अपना हाथ तंग है, बाकी कुछ भी करवा लो”, या “गणित से मुझे बहुत डर लगता था तो मैं बच्चों को क्या गणित पढ़ा पाऊँगी।” इन चर्चाओं से एक सवाल जो मेरे ज़ेहन में आता है कि आखिर ये लोग गणित में कमज़ोर रह कैसे जाते हैं। जबकि शिक्षक तो सभी डिग्रीधारी हैं और यहाँ तक पहुँचने के लिए हाईस्कूल में तो गणित के पर्चे में अपनी निपुणता का प्रदर्शन किया ही होगा। तो गणित कमज़ोर क्यों और कैसे रह जाता है?
यहाँ यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि स्वयं कुछ जानकारी रखना और दूसरों को उसे समझा पाना, दो अलग कौशल हैं। वास्तविकता तो यह है कि मेरा स्वयं का गणित के साथ जुझारु और भयप्रद रिश्ता रहा है। अन्तर सिर्फ इतना है कि पटखनी खाने के बाद भी मैंने सवाल पूछना नहीं छोड़ा और इन जुझारु अनुभवों ने मेरे गणित के साथ रिश्ते को कमज़ोर नहीं अपितु और अधिक सशक्त ही किया है। इसी कारण मैं समझ पाती हूँ कि चूक आखिर होती कहाँ है, क्यों गणित एक दुश्मन-सा प्रतीत होता है। आज मुझे अहसास होता है कि गणित कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे 200-300 पन्नों में समेटकर घोल या रटा दिया जाए और परीक्षा में अंक हासिल करा दिए जाएँ।
गणित की अवधारणाएँ हमारे जीवन से अलग नहीं होतीं, वे तो हमारे आसपास सभी जगह मौजूद हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश गणित के साथ रिश्ता बनाने का यह पहलू स्कूली शिक्षा से अधिकांशत: नदारद रहता है। शायद पाठ्यक्रम पूरा करने की होड़ में या फिर गणित के साथ सहज रिश्ता कैसे बनाया जाए, इस समझ के अभाव में या अन्य कई कारणों से, मसलन गलत करार दिए जाने वाले जवाब सिर्फ गलती या कमज़ोरी नहीं होते बल्कि उनके पीछे शायद समझ का फेर या नज़रिए का अन्तर भी हो सकता है। यदि ये बातें समझी जाएँ तो गणित से शायद उतना डर न लगता, न दुश्मनी का भाव पनपता और न ही अपमानजनक अनुभव इससे जुड़ते।
गणित की कई अवधारणाएँ हमारे आसपास के वातावरण व हमारी रोज़ाना की गतिविधियों में शामिल होते हुए भी, हम उनसे अलग हटकर रटने की प्रक्रिया द्वारा उन्हें ग्रहण करते हैं। वो भी बिना उनका अर्थ या महत्व समझे। इन सभी का हल यही है कि शायद गणित को लेकर जो बुनियादी दृष्टिकोण है उसमें सुधार की आवश्यकता है, उसे जीवन से जोड़ने की आवश्यकता है। यहाँ बच्चों को मापन सिखाने का एक अनुभव साझा कर रही हूँ, शायद इससे कुछ मदद मिले।
कक्षा-3 हेतु पाठ्य-योजना बनाने के समय यह तय किया गया कि बच्चों को मापन सिखाया जाएगा जिसके लिए हम सभी ने इन प्रश्नों पर खूब विचार व चर्चा की कि आखिर इसे सीखना या सिखाया जाना क्यों ज़रूरी है। इसे सीखकर-सिखाकर हम किन उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहते हैं? हमारे जीवन में इसका क्या महत्व है? व रोज़ाना की ज़िन्दगी में कब और कहाँ इसका इस्तेमाल होता है? कैसे बच्चों के पूर्व-अनुभवों को कक्षा में लाया जा सकता है? आदि और इसी आधार पर अनुभवों को बुना।
पहला दिन
अगले दिन कक्षा में जाकर मैंने कक्षा की शुरुआत एक मनगढ़न्त किस्से से की। यह ध्यान दिलाना चाहूँगी कि बच्चों का किस्से, कहानियों व गीतों से अटूट रिश्ता होता है। उनके इस्तेमाल से गणित के साथ रिश्ते को थोड़ा-सा मित्रवत बनाया जा सकता है। किस्सा कुछ इस प्रकार था - ‘एक बार मेरे दादाजी, मेरे पापा के लिए एक पायजामा लेकर आए जिसे पहनने पर उनके पाँव ही दिखाई नहीं दे रहे थे। अब उसे ठीक करने का सोचा गया और सवेरा होते ही मेरे दादा दर्ज़ी की दुकान ढूँढ़ने निकल पड़े। रास्ते में लोगों ने कई तरीके से रास्ता बताया। किसी ने कहा - सीधे जाकर 100 कदम की दूरी पर दुकान है तो किसी ने कहा - 150 कदम और किसी ने 170 कदम। पर जब दादाजी वहाँ पहुँचे तो उन्होंने पाया कि उनके हिसाब से तो दुकान केवल 130 कदम की दूरी पर ही थी। खैर जैसे-तैसे जब वे वहाँ पहुँचे तो उन्होंने दर्ज़ी से पायजामे को 2 बित्ता छोटा करने को कहा। दर्ज़ी ने पायजामे को अपने 15 साल के बेटे से दो बित्ता छोटा करवा दिया। जब घर पर वो पायजामा देखा गया तो दादाजी ने पाया कि दर्ज़ी ने तो केवल डेढ़ बित्ता ही काटा है जबकि उन्होंने उसे 2 बित्ता काटने के लिए कहा था। ऐसा कैसे हुआ, वे यह सोच ही रहे थे कि तभी मेरे पापा वहाँ रोते हुए आए और उन्होंने बताया कि कैसे हमेशा घर में उनकी माँ दो मुट्ठी चावल बनाती थी और वो सबके लिए काफी रहते थे, पर आज जब उन्होंने दो मुट्ठी चावल लेकर बनाए तो वो कम रह गए।’ इसी प्रकार कहानी में कुछ अन्य घटनाएँ जोड़कर उन्हें सुनाया और बच्चों से पूछा गया कि आखिर ये गड़बड़ी क्यों और कैसे हो रही थी। उसके बाद बच्चों को 4-4 के समूह में बाँटकर, उनसे एक मेज़ की लम्बाई, बोर्ड की लम्बाई व कक्षा से शौचालय तक की दूरी आदि को अपने कदमों, बित्तों या भुजा की सहायता से मापने के लिए कहा और बच्चों के अलग-अलग परिणामों ने कक्षा में चर्चा को जन्म दिया। काफी चर्चा के बाद बच्चे स्वयं इस परिणाम पर पहुँचे कि सभी के हाथ, भुजा व पैर का आकार यानी साइज़ एक जैसा न होकर भिन्न है इसलिए कहानी में भी गड़बड़ हो रही थी और यहाँ भी।
एक समूह में बातचीत बच्चा 1 - कक्षा से शौचालय तक की दूरी 30 कदम आई है। |
अब उनसे इस गड़बड़ी से निपटने का उपाय सोचने को कहा गया और उनके द्वारा मानक इकाई के प्रयोग की ज़रूरत को समझा गया, साथ ही यह भी महसूस किया गया कि क्यों हमें लम्बाई, दूरी या वज़न नापने के लिए अलग-अलग मानक इकाइयों की आवश्यकता पड़ती है व कब कौन-सी इकाई का इस्तेमाल किया जाता होगा। उन्हें दैनिक जीवन से उदाहरण ढूँढ़कर बताने के लिए भी प्रेरित किया गया जहाँ वे उनका प्रयोग होते देखते हैं। बच्चों द्वारा कई उदाहरण बताए गए जैसे कि कपड़ों की दुकान पर कपड़ा नापने के लिए एक छड़ का इस्तेमाल किया जाता है, गाड़ियों के मीटर में दूरी ‘किलोमीटर’ में लिखी होती है, सब्ज़ी वाले तौलने के लिए अलग-अलग बट्टों का इस्तेमाल करते हैं, दूध के पैकेट पर ‘लीटर’ लिखा होता है आदि।
दूसरा दिन
अब अगले दिन की योजना थी - स्केल को लम्बाई नापने के मापक के रूप में इस्तेमाल करना। मुझे लगा बजाय सीधा निर्देश देकर सिखाने के, बच्चों को फुट्टे के साथ कुछ समय बिताने दिया जाए। उसे उलट-पलटकर देखने, मनचाहा इस्तेमाल करने के मौके दिए जाएँ जिससे उनकी समझ गहरी बन सके। बच्चों को 15 से.मी. वाले फुट्टे यानी स्केल दिए गए। जब बच्चों ने इस क्रिया में पर्याप्त समय बिता लिया तब उनसे फुट्टे के बारे में चर्चा की गई। किसी ने उस पर लिखे 0-15 तक के अंकों के बारे में बताया, किसी ने उसके आकार, रंग, उस पर लिखे नाम या अंकों के बीच खिंची महीन रेखाओं के बारे में, तो कुछ ने अपने फुट्टों को एक के ऊपर एक रख के देखा और पता लगाया कि हर अंक दोनों फुट्टों में बराबर दूरी पर है यानी सभी हिस्से बराबर हैं (यहाँ फुट्टों के ध्यानपूर्वक चयन की आवश्यकता है क्योंकि कई फुट्टों में सिरे से ही 0 लिखा होता है व कई में कुछ अन्तराल के बाद)। इसके बाद उन सभी के अवलोकन के आधार पर, उनके इस्तेमाल पर चर्चा की गई। इस प्रकार के शिक्षण में ज़रूरी यह है कि शिक्षक में सुनने का पर्याप्त सब्र हो व बच्चों में उनका विश्वास क्योंकि यह सब खुली चर्चा व अनुभवों पर आधारित है। इसी चर्चा के द्वारा बच्चों को बताया गया कि हर अंक के बीच जो दूरी है उसे 1 से.मी. कहते हैं और जैसा कि उन्होंने खुद करके जाना कि हर फुट्टे में यह दूरी लगभग समान होती है। इतना कहते ही कुछ बच्चों ने जोड़ा, “यानी हमारा फुट्टा 15 से.मी. का है।” कुछ बच्चों ने बात काटी और विरोध करते हुए कहा, “नहीं, इसमें 16 से.मी. होंगे क्योंकि 0 भी लिखा है।” अब बच्चों को सभी अंकों के बीच के हिस्सों को ध्यान से गिनने को कहा गया।
इस प्रकार सेंटीमीटर की समझ बनाई गई। बच्चों को 30 से.मी. का फुट्टा भी दिखाया गया। अब मैंने बच्चों को फुट्टे का इस्तेमाल कर कक्षा में मौजूद चीज़ों को नापने के लिए कहा जैसे - पेंसिल बॉक्स, किताब, कॉपी, बोतल आदि। नापने से पहले उसके नाप का अन्दाज़ा लगाने के लिए भी उन्हें प्रेरित किया। थोड़ी झिझकती शुरुआत के बाद वो ऐसे मग्न हुए कि उस गतिविधि को पूरा दिन भी कर सकते थे। समय का ध्यान रखते हुए उनसे अपने अनुभव बाँटने को कहा गया। इस प्रकार अन्दाज़ लगाना बच्चों को यह समझने का अवसर देता है कि उनका परिणाम कितना तर्कसंगत है। उनके इस रुझान व गणित से उनकी दोस्ती का फायदा बतौर शिक्षिका मैंने उनकी आगे की समझ बनाने के लिए उठाया।
अब उन्हें सामूहिक रूप से फुट्टे का इस्तेमाल करके दिखाया व विभिन्न वस्तुओं को नापा, बारीकियों पर भी चर्चा की गई कि क्यों फुट्टे से नापने पर भी कुछ लोगों के नाप अलग आ रहे थे। बच्चों से ही कारण भी आने लगे कि शायद हाथ हिल गया हो, या किसी ने 1 से मापना शु डिग्री किया हो और किसी ने 0 से। यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि अगर नापने में त्रुटि हुई भी तो उसे समझ व नज़रिए के फेर के तौर पर सकारात्मक तरीके से लिया गया जिससे बच्चों का रुझान गलत होने की वजह से कम न होकर और अधिक बढ़ गया क्योंकि वे बात की तह तक पहुँचकर अपनी जिज्ञासा शान्त करना चाहते थे।
तीसरा दिन
अगले दिन फिर कुछ नए, मज़ेदार अनुभव लेकर कक्षा में पहुँची और बच्चों को कुछ तस्वीरें दीं। बच्चों से कहा गया कि इन तस्वीरों को बनाते समय आर्टिस्ट इनकी लम्बाई, चौड़ाई लिखना भूल गया है और अब इस काम में बच्चों को उसकी मदद करनी होगी। बस, फिर क्या था, देखते ही देखते बच्चे जुट गए मदद करने में, अपने-अपने फुट्टे लेकर। मदद करने के बाद चेहरे पर जो एक आत्मसन्तुष्टि, खुशी और गर्व का भाव होता है, वैसा भाव उस दिन मैंने उनके चेहरों पर देखा। इसी प्रकार अगले दिन उन्होंने खुद आर्टिस्ट बनकर दिए गए माप का इस्तेमाल कर तस्वीरें बनाईं। इन गतिविधियों द्वारा बच्चों को अपने नापने के कौशल को सुदृढ़ करने का अवसर मिला। अब उन्हें अक्सर अपनी आसपास की वस्तुओं के नाप का अन्दाज़ा लगाते, उनके नाप-तोल पर ध्यान देते, उन पर चर्चा करते व उन्हें नापकर देखते हुए पाती हूँ तो एक सन्तुष्टि होती है कि शायद गणित से इनका रिश्ता अब मेरी तरह रट्टू व दुश्मनी का नहीं होगा।
एक समूह का अवलोकन बच्चों ने रस्सी को सीधा ज़मीन पर बिछाकर उसे 30 से.मी. के फुट्टे से नापना शुरु किया। एक बार फुट्टा रखा और 30 से.मी. पर एक निशान लगाया। फिर एक बार और फुट्टा रखा और 30 से.मी. पर निशान लगाया। फिर तीसरी बार फुट्टा रखा और 30 से.मी. पर निशान लगाया। अब फिर से फुट्टा रखने की कोशिश की पर पूरा फुट्टा रस्सी पर न आ पाया और 10 से.मी. तक ही रस्सा पहुँचा। बच्चों ने 10 से.मी. लिख दिया। अन्त में, सारे नाप को जोड़ा गया: 30 अ 30 अ 30 अ 10 से.मी. उ 100 से.मी.। |
मापन के कार्य के दौरान कुछ वस्तुओं की लम्बाई लिखे गए अंकों से आगे जाकर महीन रेखाओं तक भी पहुँच रही थी। जैसे एक चॉक की लम्बाई 5 से.मी से ज़्यादा पर 6 से.मी. से कम आई। बस फिर क्या था, महीन रेखाओं की फुट्टे पर आवश्यकता व उनके उपयोग पर उनकी समझ बननी शुरु हो गई थी। वे अब उनके प्रयोग के बारे में और बारीकी से जानने को उत्सुक थे और उनकी उत्सुकता को ध्यान में रखते हुए, उन बारीक रेखाओं का परिचय उन्हें मिलीमीटर के रूप में कराया गया (इस कक्षा की आयु अनुरूप मिलीमीटर पर अभी गहराई में कार्य नहीं करना था)।
इसके बाद बच्चों को अपनी लम्बाई व कुछ अधिक लम्बाई वाली वस्तुओं के बारे में जानने को उत्सुक पाया तो कक्षा में रस्सियों के कुछ बड़े टुकड़े रखे गए (एक-एक मीटर के) और बच्चों से फुट्टों का इस्तेमाल कर छोटे समूहों में, उनका नाप पता करने के लिए कहा गया।
इस गतिविधि द्वारा बच्चों को यह समझाने में मदद की गई कि 100 से.मी. मिलकर जो लम्बाई देते हैं, उसे 1 मीटर कहा जाता है। साथ ही, उन्हें स्वयं 1 मीटर की लम्बाई का एहसास भी हासिल कराया गया। बच्चों ने समझ बनाई कि अधिक लम्बाई वाली वस्तुओं को मीटर की सहायता से बेहतर तरीके से नापा जा सकता है क्योंकि 1 मीटर 100 से.मी. के बराबर होता है। बच्चों को अपने आसपास की ज़िन्दगी में 1 मीटर एवं 2 मीटर वाली वस्तुओं को ढूँढ़ने के लिए भी प्रेरित किया गया।
गतिविधि व अनुभव आधारित शिक्षण में जहाँ गलतियों को सीखने की नियत से देखा जाता है तो बच्चे स्वयं ज्ञान अर्जित करने की प्रक्रिया में सक्रिय हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चे इसलिए नहीं सीखेंगे क्योंकि कोई इन्हें सिखाना चाहता है बल्कि इसलिए सीखेंगे क्योंकि उनमें सीखने की भूख और रुचि जागृत हो रही है।
उनकी खुद करके सीखी गई, अर्जित की गई शिक्षा अब केवल परीक्षा के अंकों या किताबों तक सीमित न रहकर, दुनिया को जानने-परखने व जीवन को सरल बनाने के लिए इस्तेमाल की जाएगी। यही वास्तविक शिक्षा है और यही जीवन का गणित है।
कामाक्षी चौहान: जामिया मिलिया इस्लामिया से शिक्षा में स्नातकोत्तर कर रही हैं। शिक्षान्तर शाला, गुरुग्राम में पढ़ाती हैं। गाज़ियाबाद में निवास।
इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए बाल वैज्ञानिक, कक्षा-6 में दूरी नापना नामक पाठ पढ़ें।
सभी चित्र: अंकिता ठाकुर: राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान, अहमदाबाद से ग्राफिक डिज़ाइन में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही हैं। बाल साहित्य और चित्रों में दिलचस्पी रखती हैं।