बंदरों को जब पहली बार दर्पण दिखाया जाता है तो वे उसमें दिख रहे प्रतिबिंब को देखकर ऐसी मुद्रा बनाते हैं जैसे किसी के प्रति शत्रुता दिखा रहे हों – वे अपने दांत दिखाते हैं और लड़ने जैसी मुद्रा बना लेते हैं। हम मनुष्य दर्पण में अपने प्रतिबंब को इस रूप में पहचानते हैं कि यह तो ‘मैं’ ही हूं। वैसे, यह क्षमता सिर्फ मनुष्यों का विशिष्ट गुण नहीं है। चिम्पैंज़ी, डॉल्फिन, हाथी, कुछ पक्षी और यहां तक कि कुछ मछलियां भी ‘मिरर टेस्ट’ (दर्पण परीक्षण) में उत्तीर्ण रही हैं।
छवि (या प्रतिबिंब) को स्वयं के रूप में पहचानने का परीक्षण काफी सरल है। चुपके से व्यक्ति (या जंतु) के चेहरे पर किसी ऐसी जगह एक चिन्ह (मसलन, एक बड़ा लाल बिंदु) बना दिया जाता है कि वह चिन्ह उसे दिखाई न दे। जब किसी शिशु या छोटे बच्चे के माथे पर लाल बिंदी बनाई जाती है तो दर्पण में यह बच्चे का ध्यान खींचती ही है। लगभग 18 महीने तक की उम्र तक बच्चे आईने के प्रतिबिंब में इस अपरिचित बिंदी को दर्पण में छूने की कोशिश करते हैं। 18 महीने की उम्र के बाद बच्चों की दर्पण प्रतिबिंब पर प्रतिक्रिया यह होती है कि वे खुद अपने माथे पर उस बिंदी को छूने की कोशिश करते हैं। लगता है कि जैसे वे खुद से पूछ रहे हों, “यह बिंदी मेरे चेहरे पर कैसे आ गई?”
बड़े बच्चों की हरकत यकीनन स्वयं को पहचानने का संकेत है। लेकिन क्या यह आत्म-भान होने का भी संकेत है? आखिरकार, वयस्क लोग तक दर्पण के प्रति तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देते हैं। कुछ लोग दर्पण दिखने पर उसके सामने ठहरे बिना मानते नहीं, और कुछ लोग उस पर ध्यान दिए बिना सामने से गुज़र जाते हैं।
आत्म-पहचान
हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में जापानी शोधकर्ताओं ने दर्पण में स्वयं को पहचानने को लेकर कुछ नए निष्कर्ष प्रकाशित किए हैं। उन्होंने ये नतीजे ब्लूस्ट्रीक क्लीनर रासे मछली पर अध्ययन कर निकाले हैं; यह दर्पण में स्वयं को पहचानने के लिए जानी जाती है। उष्णकटिबंधीय महासागरों में इस छोटी मछली का बड़ी मछलियों से एक परस्पर सम्बंध होता है। इनका भोजन बड़ी मछली के शरीर पर चिपके परजीवी होते हैं। क्लीनर मछलियां नियत स्थानों पर बड़ी मछलियों का इंतज़ार करती हैं, और परजीवी-ग्रस्त मछलियां परजीवियों को हटवाने के लिए उनके पास जाती हैं। यहां तक कि परजीवी-ग्रस्त मछलियां अपने शरीर की अजीब-अजीब मुद्राएं बनाती हैं ताकि क्लीनर मछलियां परजीवियों तक पहुंच सकें। यह कुछ वैसे ही दिखता है जैसे किसी हज्जाम की दुकान पर दाढ़ी या बगलों की हजामत करवाने बैठा व्यक्ति ठोढ़ी या बांह ऊपर करके बैठा होता है ताकि हज्जाम अपना काम कर सके।
अध्ययन में एक्वैरियम में, एक बार में एक क्लीनर मछली के साथ प्रयोग किए गए। पहले पानी में एक दर्पण रखा गया, या स्क्रीन पर मछली की तस्वीर दिखाई गई। शुरुआती कुछ दफा जब मछली ने दर्पण में अपनी छवि या तस्वीर देखी तो उनकी प्रतिक्रिया आक्रामक रही। लेकिन समय के साथ उनमें स्वयं की छवि की पहचान आ गई, और इन मछलियों ने दर्पण-टेस्ट पास कर लिया। अब वे केवल अजनबी की छवियों के प्रति आक्रामक थीं। और तो और, वे अपने शरीर पर बनाए गए चमकीले निशानों को भी पहचानने लगीं और पास की किसी भी सतह पर रगड़कर उन्हें मिटाने की कोशिश करने लगीं।
और जब तस्वीर में फेरबदल करके, उनका चेहरा किसी अन्य मछली के शरीर पर लगाकर, तस्वीर दिखाई गई तो भी मछलियों ने आक्रामक व्यवहार नहीं दर्शाया। लेकिन जब मछली के स्वयं के शरीर पर किसी अजनबी मछली के चेहरे वाली तस्वीर दिखाई गई तो उन्होंने शत्रुता का व्यवहार दर्शाया। इससे ऐसा लगता है कि क्लीनर मछली अपने चेहरे की याद रखती है।
मनुष्यों के बच्चों की बात पर वापिस आते हैं, हमने देखा है कि बच्चे जैसे-जैसे बड़े होने लगते हैं उनमें आत्म-भान आने लगता है। दर्पण में प्रतिबिंब को देखकर पूरी तरह से ये ‘मैं' हूं की समझ 18 महीने की उम्र में आती है। यह वह उम्र भी है जिस पर बच्चे अपने बारे में बात करना शुरू करते हैं, और पिछली घटनाओं को याद करते हैं, जैसे “मैंने इसे खा लिया”) । क्या इसे आत्म-भान कहा जा सकता है? (स्रोत फीचर्स)
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Srote - May 2023
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