आजकल एक गुठली की चर्चा कुछ ज़्यादा ही हो रही है। इसके चमत्कारी प्रभाव का लाभ लेने के लिए इसे अभिमंत्रित कर मुफ्त में बांटा जा रहा है ताकि आमजन को विभिन्न व्याधियों से मुफ्त में मुक्ति दिलाई जा सके। आप समझ गए होंगे कि बात रुद्राक्ष की हो रही है।
इसी संदर्भ में हाल ही में रुद्राक्ष के औषधि महत्व पर आज तक जो शोध विभिन्न लोगों ने किए हैं उसका एक समीक्षा पर्चा मुझे पढ़ने में आया है। यह पंजाब युनिवर्सिटी विज्ञान शोध पत्रिका में 2018 में छपा था। यह महत्वपूर्ण सामयिक कार्य डी. वी. राय, शिव शर्मा और मनीषा रस्तोगी ने किया है। तीनों शोभित युनिवर्सिटी (मेरठ) में कार्यरत हैं।
क्या है रुद्राक्ष?
इसके चमत्कारिक औषधि प्रभाव के बारे में बात करने के पहले जरा यह जान लें कि रुद्राक्ष है क्या। रुद्राक्ष एक पेड़ (विज्ञान की भाषा में एलियोकार्पस गैनिट्र्स) का बीज है। इसके पेड़ 10 से 20 मीटर तक ऊंचे होते हैं और हिमालय की तलहटी में गंगा के मैदानों से लेकर चीन, दक्षिण पूर्वी एशिया, ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों और हवाई तक पाए जाते हैं। रुद्राक्ष नेपाल से लेकर जावा और सुमात्रा के पहाड़ी क्षेत्रों में बहुतायत में पाए जाते हैं।
दुनिया भर में एलियोकार्पस की 350 से ज़्यादा प्रजातियां पाई गई हैं। इनमें से 33 भारत में मिलती हैं। भारतीय अध्यात्म में रुद्राक्ष को पृथ्वी और सूर्य के बीच एक कड़ी के रूप में देखा जाता है।
रुद्राक्ष इस पेड़ के पके फलों (जिन्हें ब्लूबेरी कहा जाता है) की गुठली है। बीजों का अध्ययन बताता है कि इसके बीज की मध्य आंतरिक भित्ती नारियल की तरह कठोर होती है। इसके भीतर नारियल जैसा ही एक भ्रूणपोष (खोपरा) होता है जिसमें कैल्शियम ऑक्सलेट के ढेर सारे रवे पाए जाते हैं। रुद्राक्ष का फल बेर जैसा ही होता है। इसका गूदा नरम और उसके अंदर एक गुठली और गुठली के अंदर बीज। जिसे हम रुद्राक्ष का बीज कहते हैं वह तो इसकी गुठली ही है, ठीक वैसे ही जैसे बेर की गुठली।
रुद्राक्ष के फलों से गुठली प्राप्त करने के लिए इसे कई दिनों तक पानी में गला कर रखा जाता है। फिर गूदा साफ करके इन्हें चमका कर रोज़री अर्थात मालाएं बनाई जाती है। इन मनकों पर जो दरारें नजर आती हैं वे इसके अंडाशय में पाए जाने वाले प्रकोष्ठों की संख्या से जुड़ी हुई है। ये सामान्यत: पांच होती हैं परंतु एक से लेकर 21 तक भी देखी गई हैं। इन खड़ी लाइनों को ही मुख कहा जाता है। ज़्यादा मुखी होने पर उसका महत्व/कीमत बढ़ जाती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि असामान्य गुठलियों में ज़्यादा जादुई शक्ति होती है। इनकी गुठलियों का रंग सफेद, लाल, बादामी, पीला या गहरा काला भी हो सकता है। बादामी रुद्राक्ष सबसे आम है।
रुद्राक्ष के फलों का बाहरी छिलका नीला होता है इसलिए इन्हें ब्लूबेरी कहा जाता है। यह नीला रंग किसी रंजक की वजह से नहीं बल्कि इसके छिलकों की बनावट की वजह से होता। यानी रंग नज़र तो आता है किंतु मसलने पर हाथ नहीं आएगा।
पौराणिक उत्पत्ति
एक पौराणिक कथा के अनुसार रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसुओं से हुई थी। इसलिए इसे पवित्र माना जाता है और शिव भक्तों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। देवी भागवत पुराण के अनुसार त्रिपुरासुर का वध करने के लिए जब देवताओं ने शिव से आग्रह किया तो उन्होंने अपने नेत्र योग मुद्रा में बंद कर लिए और जब थोड़ी देर बाद आंखें खोली तो उनकी आंखों से आंसू टपके। मान्यता है कि जहां-जहां धरती पर उनके आंसू टपके वहां-वहां रुद्राक्ष के पेड़ उत्पन्न हुए।
अब बात करते हैं उस महत्वपूर्ण समीक्षा पर्चे की जिसमें अब तक प्रकाशित विभिन्न शोध पत्रों का पुनरावलोकन किया गया है। इन शोध पत्रों में रुद्राक्ष का उपयोग कई विकारों, जैसे तनाव, चिंता, अवसाद, घबराहट, तंत्रिका विकार, माइग्रेन, एकाग्रता की कमी, दमा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, गठिया, यकृत रोग और कैंसर आदि तक में करने की बात कही गई है। इन सबका सार पढ़कर तो लगेगा कि लाख दुखों की एक दवा है रुद्राक्ष। तो क्यों न आज़माएं?
इन शोध पत्रों के मुताबिक इन गुठलियों में कई औषधीय महत्व के रसायन भी पाए गए हैं जैसे अल्केलॉइड्स, फ्लेवोनॉइड्स, स्टेराड्स, कार्डिएक ग्लाइकोसाइड्स आदि। कहना न होगा कि किसी भी पेड़, बीज, गुठली का विश्लेषण करने पर कम-ज़्यादा मात्रा में इसी तरह के रसायन मिलने की उम्मीद की जा सकती है। रुद्राक्ष के संघटन की तुलना किसी अन्य से नहीं की गई है।
कुछ शोधार्थियों ने रुद्राक्ष की गुठलियों के विद्युत-चुंबकीय गुणों का अध्ययन किया है और बताया है कि इन मनकों का विद्युत-चुंबकीय गुण कई असाध्य रोगों (जैसे उच्च रक्तचाप, हृदय की गति, मधुमेह, स्त्री रोग, तंत्रिका सम्बंधी गड़बड़ी, नींद ना आना, गठिया) आदि को ठीक करता है। कहा गया है कि ये गुण इसकी माला धारण करने के असर का ‘वैज्ञानिक’ आधार हैं। लेकिन एक अहम बात यह देखने में आती है कि चुंबकीय गुणों के सारे परीक्षण रुद्राक्ष गुठली के चूर्ण पर किए गए हैं, साबुत गुठली पर नहीं।
इस संदर्भ में शिव शर्मा, डी. वी. राय और मनीषा रस्तोगी के एक पर्चे (इंटरनेशन जर्नल ऑफ साइन्टिफिक एंड टेक्नॉलॉजी रिसर्च) में रुद्राक्ष चूर्ण के तमाम मापन के आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं - जैसे कोएर्सिविटी, रिटेंटिविटी, रेमनेंस, मैग्नेटाइज़ेशन और चुंबकीय गुणों की तापमान पर निर्भरता। कई ग्राफ और तालिकाएं भी दी गई हैं। एक्सरे फ्लोरेसेंस के परिणाम प्रस्तुत किए गए हैं। लेकिन आईसर, पुणे के वैज्ञानिक डॉ. भास बापट के अनुसार, “यह तीन नमूनों के साथ विभिन्न तकनीकों से प्राप्त विविध चुंबकीय गुणधर्मों की सूची है और कोई कोशिश नहीं की गई है कि इन गुणों का आकलन जैविक या औषधीय प्रभावों की दृष्टि से किया जाए।” और तो और, जैसा कि ऊपर कहा गया है, ये सारे मापन चूर्ण के साथ किए गए हैं।
एस. त्रिपाठी व अन्य के शोध पत्र (2016) में बताया गया है कि दो तांबे के सिक्कों के बीच रुद्राक्ष का घूमना इसके विद्युत-चुंबकीय गुणों का स्पष्ट प्रमाण है परंतु समीक्षा पर्चे में इस पर सवाल उठाते हुए कहा गया है कि इस क्रिया के सत्यापन की ज़रूरत है; अर्थात यह संदिग्ध है।
इसी तरह एस. प्रजापति और अन्य (2016) के प्रयोगों को भी वनस्पति विज्ञान के शोधकर्ताओं द्वारा परखा जाना चाहिए। उन्होंने ड्रेसिना के कुछ पौधों को रुद्राक्ष माला पहनाकर और कुछ को ऐसी माला पहनाए बगैर उनका विद्युत विभव तने और पत्तियों के बीच नापा। इस प्रयोग के आधार पर उनका निष्कर्ष था कि रुद्राक्ष में केपेसिटिव, रेज़िस्टिव और इंडक्टिव गुण होते हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि शोधकर्ताओं ने यह प्रयोग कोई अन्य माला पहनाकर किया था या नहीं। वैसे भी उन्होंने पौधों को दो भागों में बांट दिया था - धनात्मक तना और ऋणात्मक पत्ती। यह सच है कि तने से पत्ती की ओर कई धनात्मक आयनों का प्रवाह पानी के माध्यम से होता है किंतु इस आधार पर उन्हें धनात्मक और ऋणात्मक क्षेत्रों में बांटने की बात बेमानी है। पत्तियों में तो सबसे ज़्यादा जैव रासायनिक क्रियाएं होती रहती है। अतः उसे ऋणात्मक मानना उचित नहीं होगा।
इसी तरह त्रिपाठी व साथियों (2016) ने रुद्राक्ष के बीजों के इम्यूनिटी सम्बंधी गुणों का अध्ययन किया। उन्होंने 15 लोगों को रुद्राक्ष की माला पहनाई और 15 को नहीं। उन्होंने पाया कि जो लोग नियमित रूप से रुद्राक्ष माला पहनते थे वे स्वस्थ थे। उनका सीबीसी व मूत्र परीक्षण किया गया तो उनका हिमोग्लोबिन, आरबीसी, डीएलसी अधिक था। सवाल यह है कि क्या उन दोनों समूहों का पूर्व परीक्षण किया गया था इन्हीं पैरामीटर्स के लिए। माला कितने दिनों तक पहनाई गई और क्या दोनों समूह को भोजन एक-सा दिया गया था और उनकी दिनचर्या भी क्या एक समान थी। ये सभी सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि छद्म विज्ञान और सच्चे विज्ञान में यही अंतर है। ऐसे ही एक अन्य अध्ययन (कुमावत व अन्य, 2022) में रुद्राक्ष की खुराक के साथ-साथ तमाम परहेज भी करवाए गए थे और तुलना के लिए कोई समूह नहीं था। तुलना का प्रावधान अर्थात कंट्रोल वैज्ञानिक प्रयोगों में एक महत्वपूर्ण घटक होता है जो प्रयोगों की सत्यता को प्रमाणित करता है।
रुद्राक्ष के प्रतिरक्षा तंत्र को प्रभावित करने की क्रिया पर भी कई लोगों ने कार्य किए हैं। यहां जयश्री और अन्य (2016) का ज़िक्र लाज़मी है। उन्होंने पत्ती, छाल तथा बीज के जलीय और एसीटोन निष्कर्ष की जांच की और पाया कि बीजों को पानी में रखकर उसका पानी पीना उतना उपयोगी नहीं है जितना कि अन्य रसायनों में बनाए गए आसव।
कुछ परीक्षण जीवों पर भी किए गए हैं। जैसे चूहों पर उच्च-रक्तचाप रोधी गुणों का पता लगाने के लिए बीजों को पीसकर उनका चूर्ण विभिन्न मात्रा में खिलाया गया। पता चला कि चूहों का रक्तचाप कम हुआ। इसी तरह अल्कोहल निष्कर्षण बीजों में अवसाद रोधी प्रभाव पाए गए हैं। चूहों के अलावा जैन और अन्य द्वारा 2016 एवं 2017 में खरगोश पर भी इसी तरह के प्रयोग किए गए हैं। जिनसे पता चला कि बीजों का अल्कोहल आसव उनके खून में कोलेस्ट्रॉल स्तर कम करने में सहायक पाया गया है। किडनी रोगों में भी प्रभावी पाया गया है।
राय व साथी अपने समीक्षा पर्चे के निष्कर्ष के तौर पर यही कहते हैं कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली में विविध विकारों के उपचार में रुद्राक्ष मनकों को जो महत्व दिया गया है, उसे देखते हुए, यही कहा जा सकता है कि मानक पद्धतियों से प्राप्त निष्कर्ष और इसकी कार्यविधि सम्बंधी नतीजे निहायत अपर्याप्त हैं। विभिन्न जीर्ण रोगों के कुप्रभावों से निपटने में एक समग्र तरीके के तौर पर इसकी प्रभाविता, लागत-क्षमता, उपयोगकर्ता के लिए सुविधा, आसानी से उपलब्धता और सुरक्षा को साबित करने के लिए गहन शोध अध्ययनों की ज़रूरत है ताकि सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे भवंतु निरामया के सूत्र के आधार पर समस्त मानव जाति को इसके चमत्कारिक विभिन्न स्वास्थ्य लाभों से वंचित ना रहना पड़े।
ऐसे अनुसंधान से कोई लाभ नहीं होगा जो पहले से मान लिए गए सत्य को प्रमाणित करने के लिए किया जाए। अनुसंधान तो सत्य के अन्वेषण के लिए होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - May 2023
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