जॉन होल्ट
भावानुवाद: अरविन्द गुप्ता
यह एक किताब की समीक्षा है या यूं कहें कि किताब पर टिप्पणी है- जॉन होल्ट द्वारा की गई। किताब को नाम है ‘माइ कन्ट्री सकूल डायरी’। इसे लिखा है जूलिया वेबर गॉर्डन ने। जूलिया वेबर 1930 में अमेरिका के एक अंदर के गांव में स्कूल शिक्षक थीं। वे एक बहुत लगनशील शिक्षक थीं। इस किताब में उन्होंने अपने अनुभवों को प्रस्तुत किया था।
1930 में लिखी यह किताब आज भी हमारे लिए बहुत मायने रखती है। हम गरीब, ग्रामीण और अल्पसंख्यक बच्चों की शिक्षा के नाम पर बहुत पैसा खर्च कर रहे हैं। मंशा अच्छी होने के बावजूद हम कुछ खास भला नही कर पा रहे हैं। अच्छे की जगह कुछ बुरा नह हो जाए इस बात की संभावना अधिक है। मिस वेबर के अनुभवों से तो यही नज़र आता है।
समय-समय पर शिक्षा विभाग नवाचार के नाम पर एक नया शगूफा छोड़ता है। पुराने कार्यक्रम क्यों ठप्प हुए इसकी परवाह किसे। नया कार्यक्रम वैसे तो काफी वैज्ञानिक और समझ बूझ से बना दिखता है। समें शिक्षाविद् अलग-अलग तरीकों से प्रयोग करेंगे। वे शिक्षा और विकास की अलग-अलग प्रणालियां अपनाएंगे। कुद समय बाद इन कार्यक्रमों का मूल्यांकन होगा और उनमें से एक कार्यक्रम को सरकारी तौर पर ‘सफल’ घोषित किया जाएगा। इसके बाद सैकड़ों स्कूलों के हजारों शिक्षकों को इस कार्यक्रम को लागू करने के आदेश दिए जाएंगे।
सब कुछ ठीक-ठाक होगा इस बात की संभावना बहुत कम है। हो सकता है कि हमें फिर से एक महंगी निराशा का शिकार होना पड़े। ऐसा पहले कई बार हो चुका है। क्यों? ऐसी निराशाओं से बचने का क्या कोई तरीका है?
अगर हम ईमानदारी से पिछले कार्यक्रमों की जांच करें तो हम पाएंगे कि कुछ छोटी-छोटी बातें कार्यक्रम के नतीजे पर बड़ा असर डालती हैं। कार्यक्रम की सफलता कुछ ऐसे घटकों पर निर्भर है जिन्हें बिल्कुल नज़रअंदाज़ किया गया है – प्रिंसिपल का रवैया, माता-पिता की अपेक्षाएं, एक-दो महत्वपूर्ण व्यक्तिों की कमज़ोरी या ताकत, बच्चों की सीखने की क्षमता का अनुमान, ये घटक अकेले अथवा मिलकर कार्यक्रम के परिणामों पर बड़ा असर डाल सकते हैं। नए कार्यक्रम, नवीन पाठ्यक्रम और नई व्यवस्था का शिक्षा पर कुछ लाभकारी असर हो ही, यह ज़रूरी नहीं। एक गतिशील शैक्षणिक माहौल तभी पैदा होगा जब हम स्वप्रेरित शिखकों की मदद कर पाएंगे। जो शिक्षक आगे बढ़ने को तैयार हैं उन्हें नवाचार करने की छोट मिले और उसे अमल में लाने के लिए सहयता दी जाए। अंतत: हमें ऐसे शिक्षकों की पहल और क्षमताओं पर ही विश्वास करना चाहिए। ऊपर से थोपे गए सरकारी आदेशों द्वारा शिक्षकों को कभी भी प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता है।
प्राथमिक विज्ञान शिखण कार्यक्रम में हमारे यहां विविध प्रकार की सामग्री है। इसमें कुछ उपकरण तो काफी अच्छे और महंगे हैं। इस सब के बावजूद स्कूलों में तब तक विज्ञान की अच्छी पढ़ाई नहीं होगी, जब तक कुछ बुनियादी परिवर्तन न हों। इसके लिए हमें बच्चों की स्वत: स्फूर्ति और उनकी क्षमताओं को प्रोत्साहित करना होगा। डंडे के डर से काम करने वाले आज्ञाकारी बच्चों से अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती है।
स्कूल में स्थाई और महत्वपूर्ण बदलाव तभी आएगा जब वह कक्षा में शिक्षकों के अपने प्रयासों द्वारा उपजा हो। जो शिक्षक स्वयं सृजशील होते हैं और अपनी जिन्दगी को संपूर्णता से जीते हैं, वे ही अपने बच्चों को मौलिकता और सृजनात्मकता का सबक सिखा सकते हैं। बड़े पैमाने पर बदलाव लाने का एक ही अच्छा तरीका है – हम केवल उन् शिक्षकों की सहायता करें जो आगे बढ़ने को खुद तैयार हैं। जो शिखक निठल्ले हैं उन पर ऊर्जा व्यय करने से कुछ लाभ न होगा। इस तरह के बदलाव के प्रसार में वे अड़चने नहीं आती जो सरकारी आदेशों द्वारा लागू कार्यक्रमों में आती हैं।
किसी भी सही और स्थाई शैक्षणिक बदलाव का केन्द्र-बिन्दु शिक्षक ही हो सकता है। ‘ग्रामीण सकूल की डायरी’ नामक दस्तावेज इस बात का सच्चा प्रमाण है। मिस वेबर को जब मौका मिला और थोड़ी मदद मिली तो वे क्या कुछ कर पाई, यह उसी की दास्तां है। सचमुच मिस वेबर की परिस्थिति काफी कठिन और निराशाजनक थी। वे 1930 में अमरीका के एक दूर- दराज़ के गांव में काम करती थी। उनका स्कूल एक छोटे कमरे का ग्रामीण स्कूल था। गांव की हालत भी काफी बदहाल और खस्ता थी। धन के अभाव में अधिकतर शैक्षणिक साधन या तो बच्चों ने खुद बनाए थे, या फिर उन्हें अलग-अलग संस्थाओं से मांगकर लाया गया था।
मिस वेबर एक कमरे में कक्षा एक से लेकर आठवीं के बच्चों को पढ़ाती थीं। उनकी क्लास में 5 साल से लेकर 16 वर्ष तक की उम्र के करीब 30 बच्चे थे। तीसरी कक्षा का एक बच्चा न केवल पढ़ाई में कमजोर था बल्कि मानसिक रूप से भी पिछड़ा हुआ था। मिस वेबर ने उसकी मदद का भरसक प्रयास किया। बहुत कम शिखक अपनी क्लास में इतनी अलग-अलग अग्र क बचों दाखिले का इजाज़त देंगे। मिस वेबर ने इस चुनौती को सहर्ष स्वीकारा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि वे एक कक्षा नहीं बल्कि आठों कक्षाओं को अकेले पढ़ाती थीं। मिस वेबर के लिए स्कूल का प्रत्येक बच्चा महत्वपूर्ण था। उनकी कक्षा में हरेक बच्चा सीखता था और आगे बढ़ता था।
मिस वेबर का अुभव हमें कुछ और भी सिखाता है। अच्छी शिक्षा के लिए बड़े-विशाल और केन्द्रीय स्कूलों की ज़रूरत नहीं है। ऐसे महंगे स्कूलों का फार्मूला बड़े कारगर तरीके से हमारे ज़ेहन में घुसा दिया गया है। पूरे देश में छोटे-छोटे स्थानीय स्कूलों का लगभग खात्मा हो गया है। यही वे सकूल थे जहां मिस वेबर जैसे शिक्षक अपने प्रयोग कर सकते थे। इन छोटे स्कूलों के बदले हमने विशालकाय फैक्ट्रियों जैसे स्कूल बनाए हैं। इन बड़े स्कूलों को केवल फौज या जेल के नियम कानूनों के हिसाब से ही चलया जा सकता है। स्कूलों के केन्द्रीकरण के पीछे दलील यह थी कि महंगे और उन्नत तकनीक से बने शैक्षणिक साधन और वैज्ञानिक उपकरण छोटे-छोटे स्कूलों को देना संभव नहीं है। छोटे स्कूलों में विशेषज्ञ टीचरों को नियुक्त करना भी सम्भव नहीं है। मिस वेबर ने हमें दिखाया कि पढ़ाई में रोचकता और गहराई लाने के लिए अधिक धन और विशालकाय इमारतों की आवश्यकता नहीं है। एक महीने में ही मिस वेबर और उनके छात्रों ने अपने गरीब ग्रामीण स्कूल को एक सुन्दर, संपन्न सीखने के केन्द्र में बदल डाला।
आज तो हम मिस वेबर से कहीं अधिक बेहतर करने की परिस्थिति में हैं। हम विभिन्न प्रकार के उपकरणों को बिना पैसे खर्च किए कबाड़ में से जुगाड़ सकते हैं। भौतिक विज्ञान समिति ने हमें संवेदनशील उपकरण व मीटर भी सस्ते और स्थानीय सामान से बनाना सिखाया है। विज्ञान क प्रयोगों में लगने वाले सामान की एक बीस पन्ने की सूची तैयार की गई थी। इस सूची में दर्ज लगभग आधे सामान का मुफ्त में इकट्ठा किया जा सकता है। एक बढ़े शहर की सबसे गरीब बस्ती में मैंने ‘लर्निंग लेबोरेटरी’ देखी। यहां कूड़े-करकट के ढेर में से तमाम रोचक सामान इकट्ठा किया गया था। अगर हमें कुछ महंगे सामान और उपकरणों की ज़रूरत हो भी तो उनके लिए हम ऐसा केन्द्र खोल सकत हैं जहां से बच्चे उन्हें उधार ला सकें। जिस तरह से कुछ चलित पुस्तकालय स्कूल-दर-सकूल जाते हैं, उसी तरह से चलित प्रयोग-शालाएं भी छोटे स्कूलों में भेजी जा सकती हैं।
मिस वेबर ने एक रोचक सीख्ने का माहौल रचा। यह सब उन्होंने बहुतविषम परिस्थितियों में किया। आज हमें ऐसा करने के लिए बहुत सहायता मिल सकती है। जब उन्हें या उनके बच्चों को किसी पुस्तक अथवा सिी उपकरण की आवश्यकता पढ़ती, तो सबसे पहले वे यह मालूम करते कि वह वस्तु किस व्यक्ति के पास है, और फिर उससे उधार मांग लाते। उन्होंने अन्य स्कूल- कॉलेजों के साथ-साथ, कृषि प्रायोगिक केन्द्र और अन्य स्थानीय संसथाओं से भी चीज़े मांगी। गांव के एक अनुभवी बढ़ई ने बच्चों को गुड्डे-गुड्डियों घर बनाना सिखाया। एक वर्ष में मिस वेबर के लगभग 30 बच्चों ने स्थानीय पुस्तकालय से 700 किताबें लेकर पढ़ीं। ‘फैन्सी स्कूलों’ के पुस्तकालयों को इस तरह के पाठक कम ही मिलते होंगे। अधिकतर पुस्तकालयों में इतने नियम-कानून और इतनी रोक-टोक होती है कि बच्चे उनका उपयोग ही नहीं कर पाते।
शिक्षा में हम हमेशा पैसे के अभाव का रोना ही रोते रहते हैं। कुछ और पैसा मिलने से हमे अवश्य कुछ आसानी होती। परन्तु मिस वेबर के जैसे अच्छे स्कूलों में औसत स्कूल से कहीं कम खर्चा आता है। पैसों का दुरूपयोग हम कब रोकेंगे? हम आलीशान इमारतों और अनुत्पादक शिखा-व्यवस्था पर पैसा फूंकते हैं। हम विशेषज्ञों और महंगे उपकरणों पर- जिनकी आवश्यकता ही नहीं है – पैसा खर्च करते हैं। उबाऊ पुस्तकों की छपाई पर सैकड़ों टन कागज़ और पैसा बरबाद होता है। अगर हम लोग समण्दारी से खर्च करें तो हम भी मिस वेबर की तरह अपनी कक्षाओं में सीखने का माहौल कहीं बेहतर बना सकते हैं। अगर हम पैसों का समुचित उपयोग करेंगे तो स्थानीय लोग भी हमारी सहायता करेंगे।
‘माई कंट्री स्कूल डायरी’ में एक और महत्वपूर्ण सबक है। बच्चों का सही विकास तभी होता है जब वे सभी उम्र के लोगों के साथ मिलते-जुलते हैं। इस तरह बच्चों को अपने समुदाय के बारे में सोचने-समण्ने का मौका मिलता है। जब स्कूल की पढ़ाई समुदाय की जि़न्दगी को छूती है और स्कूल के बाहर लोगों की समस्याओं को सुलझाती है तभी वह असली सीख बनती है। मिस वेबर का स्कूल वास्तविक दुनिया का एक अभिन्न अंग था। वहां बच्चे एक कृत्रिम पाठ्क्रम की बजाए जि़न्दगी की असली उलझनों से जूझते। मिस वेबर ने यह सब कुछ कहां से सीखा? क्या वे उन मुट्ठी भर लोगों में से एक थीं जिन्होंने सही मायने में अमरीकी शिक्षाविद् ‘जॉन डुई’ को समझा था? क्या यह सब मिस वेबर की अपनी सोच पर आधारित था? फिलहाल, उनके स्कूलों में बहुत से बच्चे आए और हरेक के दिल में स्कूल ने एक अमिट छाप छोड़ी।
मिस वेबर के स्कूल का बच्चों के जीवन और उनके समुदाय पर क्या असर पड़ा इसका हम सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं। इस पुस्तक को पढ़कर मुझे ‘इलियट शैपिरो’ की याद आती है। उन्होंने इसके कई वर्ष बाद ‘हारलेम’ नाम की एक गरीब बस्ती में काम किया। उन्होंने हारलेग के प्राथमिक स्कूल को बस्ती का सामुदायिक केन्द्र बनाकर उसमें नई जान फूंकी। यहां पर बस्ती की तमाम समस्याओं पर चर्चा होती और उनके हल खोजे जाते।
समुदाय उन्मुखी स्कूलों और शिक्षकों के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसके परिणाम स्वरूप स्कूल और समुदाय के बीच का रिश्ता टूटा है। उजड़े गांवों में समुदाय का पुनर्निर्माण आज का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक कार्य है। इससे लोगों का आत्मविश्वास जागेगा। लोग सोचेंगे ‘मैं हूं। यह मेरी जगह है। यहां जो कुछ होगा मेरी राय से होगा। मैं इसमें मदद दे सकता हूं और अन्य लोगों की सहायता ले सकता हूं। मैं इसे जिन्दगी जीने की एक बेहतर जगह बनाऊंगा।‘ इस प्रकार की सामुदायिक भावना जगाने के लिए मिस वेबर जैसे स्कूलों का होना अनिवार्य होगा।
मिस वेबर की पुस्तक में टीचर ट्रेनिंग को लेकर भी कुछ महत्वपूर्ण संदेश हैं। कुछ लोगों का कहना है ‘पढ़ाना एक कला है जिसमें तमाम तकनीकें हैं। विषयवस्तु जानने के बावजूद जब तक शिक्षक को पढ़ाने की कुशलता नही आती, तब तक वह पढ़ा नहीं सकता।‘ अन्य लोगों के अनुसार ‘तकनीकों में क्या धरा है। कोई भी समझदार व्यक्ति इन्हें जल्द ही सीख सकता है। ज़रूरी यह है कि शिखक को अपने विषय का अच्छा ज्ञान हो।‘ इस तरह ‘तकनीक’ समर्थक और ‘जानू’ समर्थक आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। मेरी राय में दोनों ही असली बिन्दु को खो बैठे हैं। दक्षता चीजों को कर पाने की क्षमता ही बच्चों को बड़ों की ओर आकर्षित करती है। मिस वेबर असाधारण गुणों से लैस थीं। वे बहुत सारे गुर और हुनर जानती थीं। वे तरह-तरह की चीजें बनाने में बचें की मदद करतीं। वे किसी एक विषय की विशेषज्ञ न थीं, परनतु वे हर विषय में बच्चों की रूचि जगाने लायक जानकारी अवश्य रखती थीं। जब बच्चों का किसी विषय में कौतूहल जाग उठता और वे काम में लग जाते, तो उनकी भरसक मदद करतीं।
जो कुछ मिस वेबर जानती थीं अगर उसकी सूची बनाई जाए तो वह बहुत लम्बी होगी। वे हारमोनिका ओर पियानो जैसे वाद्य यंत्र बजातीं, लोकनृत्य करतीं, गाने गातीं, बचचों के खेलघर डिज़ाइन करतीं, कठपुतलियां बनातीं-नाचातीं, तरह-तरह के खेल खेलती खासकर ऐसे ससते खेल जिन्हें सभी उम्र के बच्चे सीमित जगह में खेल सकें। वे कागज़ की फिरकी बनातीं और चित्रकारी करतीं। वे विभिनन पेड़-पौधों को पहचान सकती थीं। वे क्यारियों में फूल उगातीं और ‘रॉक’ गार्डन बनातीं। वे भू-विज्ञान की कुछ जानकारी भी रखती थीं और आसपास के पत्थरों की पहचान कर सकती थीं। वे पौराणिक किस्से कहानियां जानती थीं। वे सिलाई-कढ़ाई और खाना तो पकाती ही थीं, साथ-साथ नमक के क्रिसटल भी बनातीं। वे पुराने चिथड़ों को बुनकर गमलोंके हैंगर बनातीं। वे गुडि़या घर का फर्नीचर, मिट्टी के बर्तन ओर खिलौने बनातीं। वे जानवरों के पद चिन्हों के प्लास्टर कास्ट बनातीं। वे तकली पर सूत काततीं और खड्डी पर कपड़ा बुनतीं। इसके अलावा भी वे ओर बहुत कुछ कर सकती थीं।
बच्चों के साथ काम करने वाले गोलों को इस तरह की तमाम कुशलताएं आनी चाहिए। यह ज़रूरी नहीं कि सभी लोगों को एक जैसे हुनर आएं। मेरी अपनी सूची, जो मिस वेबर की तुलना में कहीं छोटी है, एकदम भिन्न है। पर अच्छी बात यह है कि मैं जो पहले कर पाता था अब उससे कुछ अधिक कर पाता हूं। समय के साथ-साथ मेरी कुशलताओं की सूची भी बढेंगी।महत्व की बात यह है कि मैं बच्चों के साथ-साथ नई चीज़ों को सीखने का इच्छुक हूं। मैं सिी भी कुशलव्यक्ति से नए हुनर सीखने को आतुर हूं। अगर मैं किसी काम को बहुत अच्छी तरह नहीं भी कर पाता हूं तो भी मुझे उससे डर नहीं लगता। अहम बात तो यह है कि व्यक्ति काम में लगा रहे।
कल ही मुझे एक नौजवान युवक मिला जो बॉस्टन के एक स्कूल में पढ़ाना चाहता है। प्रगतिशील स्कूल बच्चों को सीखने की अधिक छूट प्रदान करता है। मैंने उससे पूछा, ‘’तुम्हारी विशेष रूचियां क्या हैं? तुम बच्चों को क्या हुनर सिखा सकते हो? क्या तुम कोई खिलौना बना सकते हो?’’
मेरे प्रश्न से यह नवयुवक थेड़ी उलझन में पड़ गया। मैंने कहा, ‘’क्या तुम गाना गा सकते हो, कोई बाजा बजा सकते हो, अथवा कोई विदेशी भाषा सिखा सकते हो?’’ उसका उत्तर ‘न’ में था। मैंने उसे आश्वस्त किया कि उसका किसी खास कुशलता में विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है। परन्तु उसका पक्का मानना था कि वह कुछ नहीं कर पाएगा। उसकी मंशा अच्छी थी परन्तु उसके पास केवल कुछ किताबी ज्ञान था। यह बहुत दुख की बात है कि शिक्षक के पेशे में लगे तमाम लोग पढ़ाने के अलावा कुछ और नहीं कर सकते हैं। मिस वेबर बहुत-सी कुशलताओं से सम्पनन थीं। साथ-साथ दुनिया की तमाम बातों को समझने में उनकी रूचि थी। जो शिक्षक केवल स्कूल और कक्षा को ही जानते हैं वे भला बच्चों को दूनिया के बारे में कैसे पढ़ा पाएंगे?
मिस वेबर ने पाया कि बच्चों को क्लास की अपेक्षा जंगल में पिकनिक, समुद्र तट की सैर आदि में कहीं अधिक मज़ा आता है। मिस वेबर के स्कूल में बच्चे जो प्रश्न पूछते, उन्हीं पर आगे खोजबीन ओर पढ़ाई होती थी। बच्चे अपने आसपास की दुनिया को समझना चाहते थे। यही चाह उन्हें उत्तर और हल खोजने के लिए प्रेरित करती। मिस वेबर बच्चों की रूचियों और सोच के अनुरूप ही पाठ्यक्रम बनातीं। वे बच्चों को अनेकों सुझाव और विकल्प देतीं। अधिकतर सुझावों को बच्चे ‘रिजेक्ट’ कर देते। परन्तु कुछ बच्चों को पसन्द आ जाते और उन्हे वह अपना लेते। इस कारण मिस वेबर साल-दर साल वही उबाऊ पाठ्यक्रम पढ़ाने से बच जातीं।
जॉन होल्ट: दुनिया के प्रसिद्ध शिक्षाविद्। होल्ट सारी जिंदगी एक ऐसे स्कूल की तलाश में रहे जहां बच्चों की प्राकृतिक प्रतिभाओं को फलने-फूलने का मौका मिलता हो। 1975 में होल्ट स्कूल में बदलाव लाने की बजाए ‘स्कूल बंद करों’ के पक्षधर हो गए। उन्होंने कई किताबें लिखीं। 14 दिसंबर 1985 को जॉन होल्ट का देहांत हो गया। (जॉन होल्ट की जीवनी संदर्भ के दसवें अंक में प्रकाशित।)
अरविंद गुप्ता: स्वतंत्र लेखन; नई दिल्ली में रहते हैं।
इस बार का सवाल
सवाल: इन्द्रधनुष, धनुष के आकार का ही क्यों होता है, सीधा या तिरछा क्यों नही होता?
राजकुमार, कक्षा आठवीं
द्वारा, मिश्रीलाल ओनकर
छिपानेर रोड, हरदा ज़िला होशंगाबाद, म.प्र.