लुडविक ग्रॉस
बीती सदियों में प्लेग ने शहर तो क्या, पूरे के पूरे देश उजाड़ कर रख दिए। पिछली सदी के अंतिम दशक में जब एशिया में इस विभीषिका का कहर ढहना शुरू हुआ उस समय कुछ वैज्ञानिक यह जानने की कोशिशों में लगे हुए थे कि प्लेगे किस तरह फैलता है और कौन-सा विषाणु इसके लिए जि़म्मेदार है- इस खतरे को जानते हुए भी कि वे खुद भी इसकी चपेट में आ सकते है।
आज अमेरिका में इंसानी प्लेग के फैलने की खबर कभी-कभार ही मिलती है। 1988 में वहां प्लेग से ग्रसत होने की सिर्फ चौदह घटनाएं ही दर्ज हुईं (इन सभी को बचा लिया गया), और 1990 में ऐसे लोगों की संख्या सिर्फ पांच थी। ये सभी मामले जंगली चूहे जैसे कुतरने वाले जीवों के संपर्क में आने का परिणाम थे, जिन पर प्लेग- बैक्टीरिया और पिस्सु पल रहे थे। ये घटनाएं अमेरिका के पश्चिमी राज्यों – कोलोरोडो, न्यू मैक्सिको, कैलीफोर्निया, एरिज़ोना और टेक्सास में घटी थी़। प्रभावित लोगों का एंटी- बायोटिक से इलाज हुआ और वे ठीक हो गए। हाल ही में 1994 में भारत का एक इलाका भी प्लेग की चपेट में आया था। इस दौरान करीब सात सौ लोग इससे ग्रस्त हुए थे।
यहां इस लेख का मकसद प्लेग के बैक्टीरिया- और किस तरह ये चूहों
प्लेग का तांडव: प्लेग न सिर्फ मौत लाता था बल्कि लोगों में बुरी तरह भय पैदा कर देता था। इसी विषय पर कई पेंटिंग बनाइ्र गई। 17 वीं सदी के मध्य में जब यह माहमारी नेपल्स (इटली में) अपना कहर ढा रही थी उस समय चित्रकार माइको स्पेडेरो वहीं था। इस पेंटिंग में उसने प्लेग की विभीषिका को चित्रित किया है। इस पेंटिंग में प्लेग की वजह से ताबूत लेकर जाते, लाशों का उठाते और मरते हुए लोगों को चित्रित किया गया है।
बार गया और इन दोनों वैज्ञानिकों के नोट्स ध्यान से पढ़े। दरअसल, यही वह प्रयोगशाला थी जिसमें चालीस साल पहले साइमड ने काम किया था। सन् 1938 में जब मैं उन कागज़ातों का अध्ययन कर रहा था जो प्लेग फैलने की गुत्थी को सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ते थे, उस वक्त साइमंड फ्रांस में फ्रांसीसी फौज की चिकित्सा पलटन के रिटायर्ड जनरल के रूप में रह रहे थे। इस खोजबीन में एडमंड ब्यूमेट्ज़ ने मेरी बहुत मदद की। एडमंड, यरसिन के पुराने दोस्त थे और प्लेग प्रयोगशाला में काम करते थे।
रूचि की शुरूआत
पिछली कई शताब्दियों में प्लेग ने न केवल शहरों बल्कि पूरे-के-पूरे देशों को उजाड़ कर रख दिया था। लाखों लोग मारे गए, जनसंख्या का काफी बढ़ा हिससा इसकी चपेट में आया। कई बार तो मारे गए लोगों को दफनाने के लिए भी कम ही लोग बचते थे।
लोग बुरी तरह आतंकित थे। चिकित्सा व्यवस्था और चर्च से जुड़े लोग किसी दैवीय या अलौकिक शक्ति को इस महामारी का कारण मानने लगे थे। उनका सोचना था कि जनसंख्या के किसी हिस्से द्वारा किए पापों के बदले में उन्हें यह दैवीय प्रकोप झेलना पड़ रहा है। कई बेगुनाह समूहों को इस बीमारी को फैलाने का दोषी ठहराया गया, उन्हें यातनाएं दी गईं और मार डाला गया। उस समय न तो इस विपत्ति का कोई इलाज था और न ही इसे रोकने का कोई तरीका नज़र आ रहा था।
एक अपेक्षाकृत आसान इलाज के ज़रिए इस विनाशकारी बीमारी की रोकथाम तक पहुंचने का रास्ता इस सदी की शुरूआत में खोजा गया। इन खोजों के लिए किसी जटिल तरीके या तकनीक की ज़रूरत नहीं थी। ज़रूरी थे तो बस कुछ समझदार, कर्मठ लोग, जिनके पास सामान्य ज्ञान और अच्छी अवलोकन क्षमता के साथ सदइच्छा थी ओर उतना ही महत्वपूर्ण एक सूक्ष्मदर्शी भी; साथ ही लुईस पास्चर और उनके सहकर्मी एमिले रॉक्स का सिफारशी खत भी। इन खतों के कारण उन्हें ‘भारत-चीन’ के अधिकारियों की मदद मिलने में सहूलियत हुई, जहां उस समय यह बीमारी भयंकर तबाही मचाए हुए थी। यरसिन और साइमंड न सिर्फ पास्चर संस्थान से प्रशिक्षित थे, अपितु उन्हें इस बीमारी के पीदे पड़ जाने और इसका इलाज ढूंढने के लिए पास्चर से तगड़ा प्रोत्साहन मिला था। संक्षेप में इस मूलभूत खोज की कहानी कुछ इस तरह है।
स्विट्ज़रलैण्ड में पैदा हुए यरसिन, फ्रांसीसी अप्रवासियों के वंशज थे। उनकी पढ़ाई फ्रांस में हुई। उन्होंने पेरिस के एक अस्पताल में काम किया। इसी बीच पास्चर ने रेबीज़ का टीका खोज निकाला था। उसी दौरान यरसिन एक ऐसे व्यक्ति की रीढ़ की हड्डी की चीर-फाड़ कर रहे थे जिसकी मौत रेबीज़ ग्रसत कुत्ते के काटने से हुई थी। चीर-फाड़ के दौरान यरसिन की उंगली कट गई। वे जल्दी से पास्चर प्रयोगशाला पहुंचे। पास्चर ने अपने सहायक एमिले रॉक्स से कहा कि वे यरसिन को रेबीज़ का टीका लगा दें। इस तरह यरसिन, पास्चर और रॉक्स के बीच एक लम्बी दोस्ती की शुरूआत हुई। तत्पश्चात यरसिन की जीवाणु विज्ञान में कुछ रूचि जागृत हुई और वे अक्सर पास्चर और वे अक्सर पास्चर और रॉक्स की प्रयोगशाला मं अपना समय गुज़ारने लगे। रॉक्स ने शोध थीसिस में भी यरसिन की काफी मदद की।
काफी जद्दोजहद के बाद
हां, तो जब प्लेग हांगकांग में तबाही मचा रहा था तो पास्चर ने यरसिन को वहां पहुंचकर इसे समझने और उसके लिए जि़म्मेदार जीवाणु (सूक्ष्मजीवी) को ढूंढ निकालने का सुझाव दिया। यरसिन ने इस सुझाव को उत्साहपूर्वक स्वीकार किया।
पास्चर ने फ्रांस के अधिकारियों से यरसिन को हांगकांग भेजने का आग्रह किया। ऑर्डर मिलने में ज़रा भी देरी नहीं हुई और यरसिन हांगकांग के लिए रवारा हो गए। पर समस्या इतनी आसान नहीं थी जितनी कि नज़र आ रही थी। बेशक महामारी अपने पूरे ज़ोर पर थी। लोग हज़ारों की संख्या में मर रहे थे। शहर के अस्पताल बीमार ओर मरते मरीजों से भरे पड़े थे। पर यरसिन की पहुंच शवगृह तक संभव नहीं हो पा रही थी। अस्पताल के निदेशक ने उन्हें इसकी आज्ञा नहीं दी। तरह-तरह के प्रयासों के बाद (यहां तक कि गवर्नर से भी) आखिरकार यरसिन को अस्पताल के अंधेरे गलियारे के एक कोने में छोटा-सा मेज़ रखने की जाज़त मिली।
मरीजों का जो कमरा था यह जगह बिल्कुल उसके पास थी। यहां यरसिन अपना सूक्ष्मदर्शी, नोटबुक और कुछ पिंजरे रख सकते थे। पिंजरे में गिनी पिग और चूहे रखे जा सकते थे। पर शवगृह अभी भी उसकी पहुंच से दूर था, जहां वह प्लेग से मरे मरीजों की बढ़ी हुई लसिका गठानों को छेद कर इस बीमारी के लिए जि़म्मेदार बैक्टीरिया को पहचानने की उम्मीद कर रहा था। इसी बीच हताश यरसिन की एक अंग्रेज़ पादरी से दोस्ती हो गई। पादरी ने उसे अस्पताल के बाहर, पर करीब ही एक छोटी सी झोंपड़ी बनाने में मदद की। यहां यरसिन एक छोटा-सा पलंग जमा सकता था और अस्थाई प्रयोगशाला बना सकता था। एक अन्य पादरी की सलाह पर यरसिन ने दो अंग्रेज़ नाविकों को कुछ डॉलर दिए जो अस्पताल में शवगृह की देखभाल करने में मदद कर रहे थे। अब यरसिन के लिए इन दो नाविकों के साथ कुछ मिनटों के लिए शवगृह में दाखिल हो पाना संभव हो पाया। इस तरह वह एक ऐसे शव के पास पहुंचा जिसने प्लेग की वजह से हाल ही में दम तोड़ा था। यरसिन ने मरीज की फूली लसिका गठान का कांच की एक कीटाणु रहित पतली नली से बेधा और अपनी छोटी-सी प्रयोगशाला की तरहफ दौड़ पड़ा। वहां उसने उस द्रव के एक हिस्से को तो सूक्ष्मदर्शी के नीचे रखा, कुछ सिस्सा गिनी-पिग के शरीर में प्रविष्ट कराया और शेष बचे द्रव को नाव के ज़रिए तुरंत पास्चर संस्थान में रॉक्स क पास, पेरसि भेजने का इंतज़ाम किया।
यरसिन उस द्रव को सूक्ष्मदर्शी से देखकर बहुत उत्तेजित हो गया; उसने अपनी नोट बुक में लिखा- ‘’जून 20, 1894 – यह सैम्पल जीवाणुओं से भरा है। सब एक जैसे लग रहे हैं . . . यह बिलाशक प्लेग के ही जीवाणु हैं।‘’ एक दूसरा नोट एक या दो दिन बाद लिखा गया था- ‘6प्लेग वाल ब्यूबोनिक द्रव को जिन गिनी-पिग में प्रविष्ट कराया था वे सब मर गए। उनका खून और अन्य अंग उसी जीवाणु से भरे पड़े थे।‘’ उसने अस्पताल के निदेशक को अपने इस अवलोकन के बारे में बताया। इसके बाद यरसिन को शवगृह में आने-जाने की इजाज़त मिल गई। इसके कुछ ही समय बाद एक नया और बहुत ही महत्वपूर्ण अवलोकन सामने आने वाला था। यरसिन ने देखा कि बहुत बड़ी तादाद में चूहे सड़कों पर और शवगृह, अस्पताल आदि के पस मरे पड़े थे। उसने इन चूहों के खून, लसिका गठानों और अन्य अंगों को सूक्ष्मदर्शी से देखा और पाया कि सभी में वैसे ही बैक्टीरिया भरे पड़े थे जैसे कि उसने प्लेग से मरे लोगों मे पाए थे। तब उसे अहसास हुआ कि प्लेग न सिर्फ मनुष्य बल्कि शायद प्रमुख रूप से चूहों को भी होता है।
यरसिन ने इस तथ्य को रिकॉर्ड किया, ‘’लोगों को यह बात काफी पहले से मालूम है कि न सिर्फ प्लेग व्यापक रूप से फैलने के समय, बल्कि उसके पहले चूहे इससे संक्रमित होते हैं। पुराने लोग इस बाबत जानकारी रखते थे; चीन के पहाड़ी इलाकों मे रहने वाले ग्रामवासी, भारत के पहाड़ी गांवों के लोग, फॉरमोसा द्वीप के निवासी जानते थे कि जब हज़ारों की तादाद में चूहे सड़कों और घरों के आसपास मरते दिखें तो यह निाशकारी महामारी के इंसानों के बीच फैलने की सूचना है। दरअसल प्लेग को स्थानीय भाषा में ‘चूहों की बीमारी’ के रूप में जाना जाता था।‘’
इन महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक अवलोकनों से 1894 की गर्मियों में यह स्पष्ट हो गया था कि चूहों और इंसानों में होने वाले प्लेग का कारक वही बैक्टीरिया है जिसे यरसिन ने खोजा था। परन्तु यह अब भी स्पष्ट नहीं था कि यह बीमारी आदमी से आदमी, चूहों से चूहों या चूहों से आदमी तक कैसे फैलती है। हवा, भोजन ओर धूल में मिले मल पर शक था, लेकिन कोई प्रमाण नहीं था।
प्लेग का कारण : प्रयोगशाला में पनपता घतक बैक्टीरिया पैसट्युरेला पेस्टिस प्लेग का कारक यह बैक्टीरिया काफी तेजी से वृद्धि करता है और गुंबदनुमा आकर में इकट्ठा हो जाता है।
यरसिन द्वारा रॉक्स और अल्बर्ट कैलमेट को भेजे गए ये आधारभूत निरीक्षण उसी साल पास्चर संस्थान की शोध पत्रिका में प्रकाशित हुए।
चूहे, प्लेग और इंसान
चूहों से चूहों या चूहों से इंसानों में प्लेग फैलने का राज़ कुछ सालों बाद साइमंड ने खोला। साइमंड उस समय सेना में चिकित्सक थे। उन्हें पास्चर ने ‘इंडो-चीन (कम्बोडिया)’ भेजा था जिससे कि वे प्रलयकारी प्लेग पर होने वाली शोध को सम्हालें और साथ ही यरसिन द्वारा किए गए अवलोकनों को औरआगे बढ़ाएं। उनहोंने पास्चर संस्थान की उस प्रयोगशाला में काम किया था जिसमें 40 साल बाद मुझे काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। रॉक्स ने साइमंड को इंडो-चीन जाकर यरसिन के काम को आगे बढ़ाने का सुझाव दिया, खासतौर पर वहां जाकर प्लेगग्रस्त लोगों का इलाज एक खास ‘सीरम’ से करने की कोशिश करना। इस सीरम को यरसिन द्वारा पहचान कर अलग किए गए पलेग के बैक्टीरिया को घोड़ों में प्रविष्ट कर तैयार किया गया था। साइमंड ने इस नए मिशन को बहुत उत्साह से स्वीकार किया। उस समय ‘इंडो-चीन’ में प्लेग तबाही मचाए हुए था।
हालांकि साइमंड ज़्यादातर समय तो ‘सीरम’ से लोगों का इलाज करने में व्यस्त रहता पर शायद उसके विचार कहीं और ही ही घूमते रहते। वह यह सोच-ससोचकर हैरान और परेशान था कि एक मरीज़ से एक स्वस्थ व्यक्ति तक यह रोग फैलता कैसे है; पर्याप्त दूरी में रहने वाले और आपस में कोई प्रत्यक्ष संपर्क न रखने वालों में भी यह रोग फैल जाता था। जहां प्लेग फैलता वहां से आधा मील दूर रहने वाले लोगों में भी आममौर पर इस रोग के लक्षण पैदा हो जाते, जबकि उनके बीच कोई आपसी संपर्क नहीं था।
साइमड को अंदेशा था कि इस बीमारी से ग्रस्त चूहे ही इसका संचरण आदमियों के बीच करते हैं। उसे याद आया कि चीन के चुनान हिस्से के निवासी मरे हुए चूहे देखते ही घरों से दूर निकलते थे।
इसके अतिरिक्त फोर्मोसा द्वीप (ताइवान) के बाशिंदे बीमार तथा मरे हुए चूहों से किसी भी तरह के संपर्क को प्लेग के संक्रमण की विभीषिका से जोड़ देते थे। उसने अपनी नोट बुक में लिखा कि प्लेग महामारी के दौरान बम्बई के एक घर में मरे हुए 75 चूहे पाए गए थे। उसने कुछ चूहां को गलियों में भागते भी देखा, वे घिसट रहे थे, एक-दूसरे पर गिर रहे थे और मर रहे थे। एक अन्य घटना साइमंड ने अपनी नोटबुक में दर्ज की, ‘’ऊन की एक फैक्टरी में जब सुबह कर्मचारी काम पर आए तो उन्होंने देखा कि फर्श पर बहुत सारे मरे हुए चूहे पड़े थे। बीस मज़दूरों को फर्श साफ करने का हुक्म दिया गया। तीन दिन के भीतर ही उनमें से दस को प्लेग हो गया। जबकि शेष काम करने वालों में से कोई भी इससे बीमार नहीं हुआ।‘’ एक अन्य घटना चक-कलाल में अप्रैल 1898 में घटी। वहां भारी संख्या में मरे चूहे पाए गए। इसके आधार पर वहां के निवासियों ने अनुमान लगाया कि प्लेग उन तक पहुंचने वाला है, इसलिए वे अपने घरों से भाग खड़े हुए और उनहोंने दूर एक कैम्प में शरण ली। दो हफ्ते बाद एक मां-बेटी को इजाज़त दी गई कि वे घर जाकर कपड़े ले आएं। जब वे घर पहुंचे तो बहुत सारे चूहे मरे पड़े थे। उनहांने पूंछ से पकड़कर उनहें बाहर फेंक दिया, और कपड़े लेकर वापस कैम्प लौट आईं। दो दिन बाद दोनों को प्लेग हो गया।
एक और अवलोकन- ‘’13 मई 1898 को बंबई में क व्यक्ति अपने घेड़ों को देखने अस्तबल गया। उसे फर्श पर एक मरा हुआ चूहा दिखा। उसने पूंछ से पकड़कर उसे बाहर फेंक दिया। तीन नि बाद ही उसे प्लेग ने जकड़ लिया।‘’ साइमंड को संदेह होना शुरू हुआ कि इंसानों को प्लेग तभी होता है जब वे कुछ ही मिनट पहले प्लेग से मरे हुए चूहे के संपर्क में आते हैं। अगर चूहे को मरे एक-दो दिन बीत चुके हों और वह ठंडा पड़ चुका हो तो ऐसे चूहे के संपर्क में आने से प्लेग नहीं फैलता। साइमंड ने निष्कर्ष निकाला, ‘’हमें मानना ही होगा कि मरे हुए चूहे और इंसान के बीच में कोई रहस्यमय चीज़ ज़रूर है। यह चीज़ पिस्सु हो सकती है। साइमंड ने सोचा कि उसे पिस्सु के साथ कम-से-कम एक प्रयोग करना चाहिए।
‘’. . . मेरी प्रयोगशाला काफी बदहाल अवस्था में थी। जिस समय बारिश के मौसम में बंबई में प्लेग फैला मेरे पास सिर्फ एक तंबू था। तंबू में मेरे पास सिर्फ एक माइक्रोस्कोप और चूहे रखने के लिए कुछ पिंजरे थे। हालांकि अपनी प्रयोगशाला की इस खस्ता हालत में मैं ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता था लेकिन मुझे यकीन था कि यह पिस्सु ही है जिससे प्लेग इंसान में संचारित होता है, और इसे मैंने सिद्ध भी कर दिया।‘’ (साइमंड द्वारा लेखक को लिखे गए खत से लिए गए अंश)
‘’स्वस्थ चूहों में या तो पिस्सु होते ही नहीं या फिर उनकी संख्या बहुत कम होती है। अगर होते हैं तो वे बहुत जल्दी ही उनसे निजात पा लेते हैं क्योंकि वे अपनी त्वचा और बालों की देखभाल और रखरखाव को लेकर बेहद सचेत होते हैं, और उनहें हमेशा साफ रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। लेकिन बीमार चूहे अपनी त्वचा को लेकर बेहद उदासीन होते हैं। इसी वजह से पिस्सुओं को उनके ऊपर बसेरा करने की छूट-सी मिल जाती है। जब चूहा मरता है और उसका शरीर ठंडा पड़ने लगता है तब पिस्सु कूद कर दूसरे चूरे पर चले जाते हैं और अगर चूहा न मिले तो वे इंसानों के ऊपर कूद जाते हैं।
‘’इस तरह इन स्थ्िातियों की व्याख्या की जा सकती है जब प्लेग ग्रस्त रोगी के संपर्क में आए बगैर ही दूसरे लोग प्लेग से ग्रसित हो गए- एक स्वस्थ व्यक्ति हाल ही में प्लेग से मरा चूहा पूंछ पकड़ फेंकता है और तीन से चार दिन के भीतर उसे प्लेग हो जाता है।
गर्म चूहा, ठंडा चूहा
साइमंड को यकीन था कि चूहे का पिस्सु ही बीमारी को फैलाता है लेकिन अभी उसे प्रायोगिक रूप से इसे सिद्ध करना था कि जो वह मान के चल रहा है वो सही है। उसे इस खतरे का अहसास था कि वह कभी भी संक्रमित पिस्सु के संपर्क में आ सकता है। उसने कच्छ मांडवी इलाके में अपने तंबू में प्रयोग करने की योजना बनाई। यह इलाका तब के इंडो-चीन मे स्थित था। यही वह जगह थी जहां उसे भेजा गया था। उसके प्रयोग का प्रसतावित तरीका इस तरह था। वह प्लेग से ताज़े-ताज़े मरे एक चूहे को चिमटे से पकड़कर कागज़ की एक थैली में डाल देगा। जिसे बाद में साबुन घुले हुए गुनगुने पानी में डालना था। कागज़ की थैली को पानी में ही एक तेज़ धार वाली कैंची से काटा जाना था। इस व्यवस्था में पिससु हिलडुल ही नहीं पाएंगे और मरे चूहे की खाल से ही चिपके रहेंगे। साइमंड ने ऐसे ही कुछ पिस्सुओं को चूहे को खाल में से निकाला और उन्हें सूक्ष्मदर्शी के नीचे रखा। उसने देखा कि उनके आंतरिक अंगों में प्लेग के बैक्टीरिया भरे पड़े थे।
तुलना के लिए उसने एक स्वस्थ चूहे के शरीर से पिस्सु लेकर उनका भी अवलोकन किया और पाया कि ये पिस्सु प्लेग के बैक्टीरिया से विहीन थे। साथ ही साइमंड को यह अहसास भी हुआ कि पिस्सुओं के चूहों से कूदने का खतरा सिर्फ कुछ ही समय के लिए होता है, जबकि कुछ ही देर पहले मरे चूहे का शरीर ठंडा पड़ रहा होता है। पिस्सु ठंड सहन नहीं कर सकते और दूसरे गर्म शरीर पर कूदने की कोशिश करते हैं- अगर दूसरा चूहा मिला तो ठीक, नहीं तो इंसान के शरीर पर ही कूद जाते हैं।
चार इंच की कुदान
कच्छ- मांडवी की अत्यधिक गर्मी ने प्लेग फैलने पर कुछ समय के लिए विराम लगा दिया था। साइमंड वहां से बंबई और कराची गया जहां उसे कुछ महत्वपूर्ण प्रयोग करने थे। वह एक बहुत बढ़े कांच के जार की तली में थेड़ी-सी मिट्टी और प्लेग से संक्रमित एक चूहा पड़ा हुआ था। जार का मुंह एक बहुत ही महीन जाली से ढंका हुआ था। चौबीस घंटे बाद जब चूहा मरने लगा तो उसने जार का ढक्कन उठा दिया और बहुत ध्यान से उसमें एक छोटा-सा पिंजरा घुसा दिया। इसमें एक स्वस्थ चुहा था। धागों की सहायता से पिंजरे को जार के ढक्कन से बांध दिया गया। यानी जार के अंदर पिंजरा हवा में लटक रहा था और लटकते पिंजरे के कुछ ही नीचे बीमार चूहा मरा पड़ा था। इस लटक रहे पिंजरे का तला काफी बड़े छेदों वाली जाली से बनाया गया था। इस तरह स्वस्थ चूहे का बीमार चूहे से कोई सीधा संपर्क नहीं था लेकिन पिस्सु चाहें तो बीमार चूहे से स्वस्थ चूहे पर कूद सकते थे। एक अन्य प्रयोग से साइमंड ने अवलोकनों से यह निर्धारित किया कि पिस्सु चार इंच की ऊंचाई तक कूद सकते थे। उन्हें जार में लटक रहे स्वस्थ चूहे तक पहुंचने में कोई परेशानी नहीं हुई।
जब जार के तले में रखा प्लेग से ग्रसित चूहा मर गया तो उसे सावधानीपूर्वक अलग कर दिया गया। पांच दिन बाद लटक रहे चूहे को भी पलेग हो गया। यह तारीख थी दो जून 1898 इस तरह प्लेग के संक्रमण की गुत्थी सुलझ गई। साइमंड ने अपने सभी अवलोकनों की संक्षिप्त रिपोर्ट पेरिस में रॉक्स को भेजी। अक्टूबर 1898 में यह पास्चर संस्थान की एक शोध पत्रिका में छपी।
बैक्टीरिया का वाहक: प्लेग के बैक्टीरिया को फैलाने वाला पिससु। चित्र में इसे मूल आकार से कई गुना बढ़ा करके दिखायापिस्सु खुद हमेशा इस बीमारी को साथ-साथ लिए नहीं फिरता बल्कि पहले यह प्लेग से संक्रमित जीव के संपर्क में आता है और फिर दूसरे जीव से चिपककर बैक्टीरिया उस तक पहुंचाता है।
तुलना के लिए ऐसे ह एक प्रयोग में प्लेग-ग्रस्त पिस्सु रहित चूहे को स्वस्थ चूहों के साथ जार में रखा गया। किसी को भी संक्रमण नहीं हुआ। लेकिन बाहर से जैसे ही पिस्सुओं को जार में दाखिल करवाया गया, स्वस्थ चूहे प्लेग ग्रसित हो गए।
पिस्सु का वाहक: पिस्सु आमतौर पर काले चूहे के शरीर पर चिपका रहता है। और अगर पिस्सु पहेले ही प्लेग के बैक्टीरिया से संग्रमित हो चुका है तो जिस नए शरीर के साथ पिस्सु चिपकता है वह भी पलेग से संक्रमित हो जाता है।
इस तरह लंबे समय से चली आ रही प्लेग से जुड़ी गुत्थी सुलझ गई। साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया कि प्लेग फैलने के समय क्यों एक सुव्यवस्थित अस्पताल सुरक्षित जगह होती है। वहां चिकित्सकों, नर्सो आदि में प्लेग का संचरण नहीं होता, सिवाय फेफड़ों के प्लेग वाले बिरले मामलों के जिनमें मरीज से सीधे ही प्लेग स्वस्थ व्यक्ति को लग सकता है। दूसरी तरफ ‘ब्यूबोनिक प्लेग’ सिर्फ पिस्सुओं के माध्यम से ही फैलता है। पिस्सु एक बार संक्रमित हो जाने के बाद काफी लंबे समय तक संक्रमित बने रहते हैं, शायद हफ्तों या महीनों तक।
यह आंकड़े उस जानकारी पर आधारित हैं जो सन् 1938 में मुझे साइमंड से मिली थी। ये सारे हस्तलिखित पत्र पास्चर संस्थान की प्रयोगशाला को संबोधित थे जहां उस समय में शोधार्थी था। मेरे शोध का विषय था प्रयोगशाला जीवों में कैंसर का संचरण।
दूसरे आंकड़े जो कि खासकर यरसिन द्वारा प्लेग के जीवाणु की खोज आदि से संबंधित हैं मैंने यरसिन के निजी नोट्स और रिकॉर्ड्स से प्राप्त किए। ये कागज़ात पास्चर इंस्टीट्यूट में रखे हैं। इनके अलावाब्यूमेट्ज़ से बातचीत करके भी मैंने कुछ जानकारी इक्ट्ठी की। यरसिन द्वारा खेजे गए ब्यूबोनिक प्लेग के जीवाणु के समान ही एक अन्य जीवाणु को एक अन्य वैज्ञानिक किटेसाटो ने उसी वर्ष (1894) में खोज निकाला था।
जब मुर्गी भागी
अब एक और दिलचस्प कहानी। ब्यूमेट्ज़ ने मुझे एक परखनल दिखाई, जिसमें प्लेग के जीवाणु भेर हुए थे। उन्होंने मुझे बतया कि न सिर्फ इंसान और चूहे बल्कि बंदर, गिनी-पिग और कई अन्य जीव भी प्लेग को लेकर संवेदनशील होते हैं। लेकिन मुर्गियां में प्लेग प्रतिरोधी क्षमता होती है। उन्होंने एक दूसरी छोटी-सी परखनली निकाली जिसमें लाल रंग की पेंसिल से लिखा हुआ था औार कहा कि इसमें जितने प्लेग के बैक्टीरिया हैं उनसे पेरिस का एक पूरा का पूरा जि़ला खत्म हो सकता है। उन्होंने कहना जारी रख, ‘’एक बार इंजेक्शन के माध्यम से हमने कुछ बैक्टीरिया प्रयोगशाला की एक मुर्गी के भीतर डाल दिए। इसके बाद मुर्गी स्वस्थ बनी रही। और तो ओर अगले दिन उसने एक अंडा भी दे दिया। एक दिन अचानक मुर्गी गायब हो गई।
शायद प्रयोगशाला की खिड़की से होकर उड़ गई थी। हम घबराए से उसे यहां-वहां ढूंढने लगे क्योंकि यह मुर्गी शायद इस भयंकर महामारी को फैला सकती थी। लेकिन हमें वो कहीं भी नहीं मिली।
कई दिनों बाद मालूम पड़ा कि संस्थान से लगी गली में रहने वाले एक सुप्रिटेन्डेन्ट ने उसे पकड़ लिया था। इस बात से बेखबर कि वह मुर्गी हमारी प्रयोगशाला से आई थी, उसका परिवार उसे पकाकर खा गया। संभवत: पकाने के दौरान प्लेग क जीवाणु नष्ट हो गए थे। किसी को भी कुछ नहीं हुआ, सभी स्वस्थ और जि़ंदा रहे।
अब तो प्लेग पर अच्छी तरह से काबू पाया जा चुका है। बीमारी फैलाने वाले चूहे मुख्यत: काले वाले कभी कभार ही आसपास दिखते हैं। इसी तरह प्लेग फैलाने वाले पिस्सु भी चूहों तक सीमित हो कर रह गए हैं। अन्य पिस्सु इसे कभी-कभार ही फैलाते हैं। आजकल अगर ज़रूरत पड़े तो हमारे पास एंटीबायोटिक्स हैं, प्लेग के उपचार के लिए।
दरअसल इंसानों और जानवरों में कभी-कभार होने वाले प्लेग का यही सामान्य इलाज है। सल्फा समूह जैसे अन्य रोगणुरोधी एजेन्ट भी प्रभावी हैं। और आज तो हमारे पास प्लेग से बचने का टीका भी है।
लुडविक ग्रॉस: इस समय अमेरिका में एक मेडिकल सेंटर से संबद्ध हैं।
यह लेख इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज, बेंगलौर द्वारा प्रकाशित रिसर्च जर्नल करेन्ट साइंस के 25 जून 1996 के अंक में प्रकाशित हुआ था।
अनुवाद: शशि सबलोक: एकव्लय द्वारा प्रकाशित विज्ञान एंव टेक्नोलॉजी फीचर सर्विस स्रोत से संबद्ध, भोपाल सेंटर में कार्यरत।