आमोद कारखानिस
प्लेट टेक्टोनिक्स -2
. . . यूं तो भूकंप कहीं भी आ सकते हैं लेकिन अधिकतर इनका फैलाव एक सीमित दायरे में होता है। उसी तरह दुनिया के ज़्यादा सक्रिय ज्वालामुखी अधिकतर ऐसे महाद्वीपीय तटों पर हैं जिनके नीचे के महासागर मे गहरी-गहरी खाइयां हैं . . .
हमारे पैरों के नीचे जो धरती है वो बिल्कुल शांत है, स्थिर है- अगर इस धारणा को तोड़ना हो तो किसी ऐसे क्षेत्र में जाइए जहां भूकंप और ज्वालामुखी लोगों की रोज़मर्रा की जि़ंदगी का अंग बन चुके हैं। जैसे कि जापान, तुर्की, ईरान, इंडोनेशिया आदि; लेकिन यह ध्यान रखते हुए कि ज्वालामुखी और भूकंप जैसी घटनाएं सुनने में तो रोमांचक लग सकती हैं लेकिन हकीकत में इनका अनुभव दिल दहला देने वाला होता है।
चलिए समस्या को ज़रा दूसरी ओर से पकड़ने की कोशिश करते हैं। सारे-के-सारे महासागर कहीं-न कहीं महाद्वीपों से मिल रहे हैं। या यूं कहें कि सभी महाद्वीप चारों ओर से महासागरों से घिरे हुए हैं। क्या होता है इन तटीय किनारों पर?
भारत के तट पर, जहां हिंद महासागर इससे मिलता है, कुछ नहीं होता; इसी तरह अटलांटिक महासागर जहां दक्षिण अमेरिका के तट से मिलता है वहां दक्षिण अमेरिका के तट से मिलता है वहां भी कुछ नहीं होता- कोई भूकंप नहीं है, कोई ज्वालामुखी नहीं है। लेकिन यही हिंद महासागर जहां इंडोनेशिया द्वीप समूह से मिलता है तो महासागर का तल नीचे की ओर झुकना क्यों शुरू हो जाता ळै और जो महाद्वीप के तट से मिलने से पहले गहरी खाई में परिवर्तित हो जाता है? ऐसे तटीय किनारों पर ज्वालामुखियों की कतारें क्यों हैं जो खाई के समानान्तर फैली हैं? (देखिए पृष्ठ 38 पर दिया गया नक्शा) ज़रा प्रशान्त महासागर के चारों ओर निगाह दौड़ाइए – फिलीपींस, जापान, एल्युटिन द्वीप समूह, ग्वाटेमाला, मेक्सिको, पेरू- चिली सभी के तटीय किनारों के नीचे इसी तरह सागर तल झुकता है, गहरी खाइयां बनाता है। और ऐसे तटों पर ऊपर ज्वालामुखियों की, खाई के समानान्तर, फैली कतारें हैं। इसीलिए प्रशान्त महासागर को आग का गोला कहा जाता है कि अगर कभी सारे ज्वालामुखी एक साथ फल पड़ें तो लगेगा कि चारों ओर आग की दीवार बन गई है।
खैर, तो उलझन सिर्फ खाइयों और ज्वालामुखियों के बीच क्या संबंध है इसको लेकर ही नहीं है बल्कि सवाल यह भी है कि इन इलाकों में लगातार भूकंप क्यों आते रहते हैं? वैसे भूकंप सिर्फ तटीय किनारों से नहीं जुड़े हैं बल्कि महाद्वीप के अंदर भी झटके देकर अपनी उपस्थिति का अहसास कराते रहते हैं। लेकिन लोगों को ऐसा लगता रहा है कि ये पूरी दुनिया में समान रूप से नहीं बिखरे हैं बल्कि एक दायरे में बार-बार आते रहते हैं? तो सवाल दो हैं- एक तो यह कि जिन तटों के नीचे गहरी-गहरी खाइयां हैं वहां ज्वालामुखी की समानान्तर कतारें क्यों हैं और इन इलाकों में भूकंप के झटके लगातार क्यों आते रहते हैं? और दूसरा सवाल कि महाद्वीपों के ऊपर भूकंपीय घटनाएं हर जगह समान रूप से क्यों नहीं घटित होतीं और अगर ऐसा लगता है कि ये एक सीमित दायरे में घटते हैं तो क्या ये अवलोकन सही है, और अगर हैं तो भूकंपों के एक दायरे में सीमित होने का कारण क्या है?
महाद्वीप और प्लेट
दरअसल ये लेख पिछले अंक में छपे ‘नया बनता समुद्र और खिसकते महाद्वीप’ की अगली कड़ी है। तब सवाल था महाद्वीप के खिसकने को लेकर- कि इतने भारी महाद्वीप खिसके कैसे होंगे?
इसको लेकर कुछ वैज्ञानिकों ने परिकल्पना दी थी कि लिथोस्फियर (धरती की ऊपरी कड़ी परत) में कई जगह दरारें हैं। ये दरारे इसे कई टुकड़ों में बांटती हैं। इन टुकड़ों को हम प्लेट कह सकते हैं। महाद्वीप इन्हीं प्लेटों में धंसे हुए हैं। महाद्वीप खुद नहीं खिसकते बल्कि प्लेट खिसकती है इसलिए उन्हें भी चलना ही पड़ता है. . .। इस थ्योरी का दूसरा पहलू था कि पलेटों की सीमाएं सक्रिय हैं- नया निर्माण या विनाश इन प्लेटों की सीमाओं पर होता है।
इस प्लटों वाली थ्योरी को मज़बूत आधार मिला महासागरों की नई तली बनने की खोज के बाद। फिर खोज शुरू हुई पलेटों की सीमाओं की। महासागरों के भीतर तो सीमाएं साफ थीं- जहां-जहां रिज है वही है प्लेट का किनारा। लेकिन महाद्वीपो के ऊपर ये सीमाएं कहां मिलती हैं?
इस दिशा में खोज का पूरा का पूरा श्रेय भूकंपमापी यंत्र को जाता है। इसके विकास के बाद ही हमें मालूम पड़ा कि पृथ्वी पर रोज़ाना हज़ारों की संख्या में भूकंप हैं। लेकिन अधिकतर इतने कमज़ोर होते हैं कि हम उन्हें महसूस ही नहीं कर सकते लेकिन संवेदनशील सीसमोग्राफ उनहें रिकॉर्ड कर लेता है।
पूरी दुनिया में सीसमोग्राफ लगाने की दिशा में साठ के दशक के आसपास काफी प्रगति हुई। और जब इन भूकंपों के केद्रों को दुनिया के नक्शे पर रखना शुरू किया गया तो इस महत्वपूर्ण अवलोकन की पुष्टि हुई कि भूकंप सारी दुनिया में यूं ही कहीं भी नही बिखरे हुए हैं; बल्कि एक बेल्ट में लगातार सक्रिय रहते हैं। ये बेल्ट आपस में जुड़ी हुई हैं; और मिलकर एक बड़े क्षेत्र को घेर लेती हैं (देखिए नक्शा)। इस बेल्ट के सिरे महाद्वीप से निकलकर रिज की पट्टी से मिलते हैं। रिज भी भूकंपीय बेल्ट का हिस्सा है। इन सक्रिय बेल्टों के बीच का हिस्सा प्लेट है। इस बीच के हिस्से में नहीं के बराबर भूकंपीय गतिविधियां होती हैं।
कुछ प्लेटें तो इतनी बड़ी हैं कि महाद्वीपों के साथ महासागर का एक बहुत बड़ा हिस्सा भी इनमें शामिल रहता है। जैसे कि इंडो-ऑस्ट्रेलियन प्लेट –जिसमें भारत और ऑस्ट्रेलिया सवार हैं ही, हिंद महासागर का काफी बड़ा हिस्सा भी इसका भाग है। दूसरी तरफ कुछ प्लेटें बिल्कुल महासागरीय हैं जैसे कि नाज़का प्लेट।
लगभग सारी की सारी ज्वालामुखी और भूंकपीय गतिविधियां प्लटों की सीमाओं पर होती हैं। ओर नई बनती हैं या एक दूसरे के सापेक्ष खिसकती हैं।
जहां प्लेट बनती है . . .
प्लेटों के निर्माण के केद्र,रिज आमतौर पर महासागरों के भीतर ही छुपे हुए हैं। लेकिन आइसलैंड इसका अपवाद है। यह अटलांटिक महासागर की रिज के बिल्कुल ऊपर बसा हुआ है। या यूं कहें कि ‘अटलांटिक रिज’ ही आइसलैंड के रूप में बिल्कुल ऊपर तक उठ गया है। ‘अटलांटिक रिज’ उत्तरी अमेरिकी प्लेट को यूरोपीय प्लेट से अलग करता है। नीचे महासागर में तो रिज में (जहां प्लेटों का निर्माण होता है) दरार होती है, जा कई किलोमीटर गहरी होती है। लेकिन आइसलैंड मे ऊपर ऐसी काई गहरी दारा घाटी नहीं दिखाई देगी। बल्कि घंसी हुई ज़मीन की एक पट्टी दिखाई देगी जिसके दोनों तरु की ज़मीन उसकी तुलना मे ऊंची है। यह नीची ज़मीनी पट्टी आसलैंड को दो भागों में बांटती है। इस तरह आइसलैंड का एक हिस्सा तो अमेरिकन प्लेट से जुड़ा है और दूसरा यूरोपियन प्लेट से।
प्लेट और उसकी सीमाएं : ऊपर का चित्र दुनिया में फैली भूकंपीय बैल्ट का है – काले बिन्दु भूकंपों के ---- को प्रदर्शित करते हैं। गौर कीजिए भूकपीय बैल्ट महासागर में काफी हल्की है, वहीं कुछ तटीय किनारों पर जैसे प्रशानत महासागर के चारों ओर भूकंपीय रेखा काफी घनी है।
नीचे के चित्र में प्लेटों की सीमाएं दर्शाइ गई हें, इस नक्शे को भूकंपीय बैल्टों के आधार पर तैयार किया गया है।
दोनों चित्रों की तुलना कीजिए। जहा-जहां समुद्री रिज हैं आमतौर पर वहां उथले भूकंप आते हैं। परन्तु वहां समुद्री खाइयां हैं – जहां प्लेट नष्ट हो रही है – वे दुनिया के सबसे सक्रिय भूकंपीय क्षेत्र हैं। भूकंपीय तरंगों के अययन से प्लेटों की गति की दिशा के बारे में भी पता चलता है।
आइसलैंड की दरार घटी : धंसी हुई जमीन की पट्टी इस देश को दो भागों मे बांटती है। एक यूरोपियन प्लेट है तो दूसरी अमेरिकी प्लेट। चित्र इस घटी के पश्चिमी सिरे का हवाई फोटो है। दरार के पास उठा हुआ हिस्सा धंसे हुए हिस्से से करीब 40 मीटर ऊंचा है।
वैज्ञानिकों ने इस ध्धंसी हुई ज़मीन के दोनों ओर खंभे लगाकर साल-दा-साल उनके बीच की दूरी को नापा और पाया कि इस क्षेत्र मे प्लेट बनने की दर करीब चौथाई इंच प्रतिवर्ष है। हो सकता है कि अब आप सोचें कि इासलैंड वाले कितने खुशनसीब हैं जो प्लेटों का बनना देख पाते हैं। लेकिन ऐन रिज पर बसे होने का खामियाजा़ यह है कि ज्वालामुखी का विध्वंस उन्हें कभी भी अचानक झेलना पड़ता है। इस धंसी हुई ज़मीन वाले हिस्से में कई ज्वालामुखी हैं, जो लगातार अहसास कराते रहते हैं कि अटलांटिक रिज सक्रिय हैं।
रिज के साथ–साथ भूकंपीय पट्टी भी जुड़ी होती है। लेकिन इन भूकंपी केंद्र काफी उथला होता है।
लेकन अगर प्लेटों का नया निर्माण जारी है और धरती का आकार भी बिल्कुल उतना ही है तो इसका सीधा सा मतलब है कि जिस दर से नया पदार्थ बन रहा है उसी दर से पुराना पदार्थ कहीं नष्ट भी हो रहा है। कहां है वो जगह?
जहां प्लेट डूबती है . . .
सवाल था जापान, इंडोनेशिया, फिलीपींस, पेरू-चिली आदि देशों के तटीय किनारों को लेकर कि ज्वालामुखी, भूकंप और खाई का क्या संबंध?
यह वो जगह हैं जाहां एक पलेट नष्ट हो रही है। प्लेट का पुराना हिस्सा इन्हीं खाइयों से होकर धरती में गहरे उतर जाता है और ‘मेन्टल’ में मिल जाता है। लेकिन प्लेट इतनी आसानी से नीचे नहीं उतरती बल्कि नीचे जाते हुए झटके देती रहती है। नीचे मेन्टल में मिलने तक यह करीब 700 किलोमीटर का लंबा रास्ता तय करती है। दुनिया में सबसे अधिक गहराई वाले भूकंप इन्हीं क्षेत्रों में रिकॉर्ड किए जाते हैं।
बेनिऑफ ज़ोन: प्लेट इतनी आसानी से नीचे की ओर नहीं जाती। बल्कि महाद्वीप से टकराते हुए नीचे उतरती है। इस प्रक्रिया में डूबती प्लेट की ऊपरी सतह और महाद्वीप के बीच तीव्र घर्षण होता है। इस वजह से इन क्षेत्रों में भूकंप के झटके लगातार आते रहते हैं। इन भूकंपों का केंद्र 60-70 किलोमीटर गहराई से लेकर 700 किलोमीटर की गहराई तक होता है।
अगर इन केंद्रों को इनकी गहराई के अनुसार ग्राफ पर रखें तो प्लेट की ऊपरी सतह के अंदर उतरने का रास्ता या ज़ोन समझ में आता है (देखिए तालिका और चित्र)। अमेरिकन भूकंप विज्ञानी हयूगो बेनिऑफ ने सबसे पहले इस बात पर गौर किया और आंकड़ों को इकट्ठा किया। उन्हीं के नाम पर इन्हें ‘बेनिऑफ ज़ोन’ कहा जाता है।
लेकन तटीय किनारों पर खइयों के समानान्तर ज्वालामुखी पट्टी क्यों? तटीय किनारों से इस पट्टी की दूरी नीचे जाने वाली प्लेट के कोण पर निर्भर करती है। तट से यह दूरी 200 से लेकर 500 कि.मी. तक भी हो सकती है – बस ज़रूरी यह है कि डूबने वाली प्लेट तकरीबन 100-120 कि.मी. गहरे उतर चुकी हो। ऐसा क्यों?
बंद खदानो में काम रकने वालों को इस बात का अच्छा अनुभव होता है कि ज़मीन में नीचे जाने पर गर्मी बढ़ती जाती है यानी कि ताप बढ़ता जाता है। तो जैसे-जैसे प्लेट नीचे, और नीचे घुसमी है वह धीरे-धीरे गर्म होना शुरू होती है। करीब 100 किलोमीटर की गहराई पर ये थोड़ी-सी पिघलेने लगती है, इसके साथ महाद्वीपीय प्लेट के निचले हिस्से का कुछ भाग भी पिघलता है। ये पिघला हुआ पदार्थ ऊपर की ओर उठता है और ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ता है। इसी कारण खाइयों से लगे तटीय किनारों पर सक्रिय ज्वालामुखियों की वक्राकार पट्टियां मिलती हैं।
विभिन्न प्लेटें किस कोण से नीचे की ओर धंस रही हैं यह खाइयों से जुड़े इलाके में आ रहे भूकंपों केंद्र द्वारा बनाए जा रहे कोण से पता चलता है। कुछ खइयों के नीचे प्लेटों क कोणीय स्थिति इस तालिका में दिखाई गई है। नीये के चित्र में कुरिल- कामचेटक खाई की भूकंपीय गतिविधियों के आधार पर इस क्षेत्र का नक्शा तैयार किया गया है।
कुरिल-कामचेटक आर्क की बेनिऑफ ज़ोन: इस क्षेत्र में आने वाले भूकंपों के केद्रों के आधार पर तैयार किया गया नीचे जाती हुई प्लेट का नक्शा। उथले भूकंपों को खाली गोल घेरे से, और सबसे अधिक गहराई वाले भूकंपों को काले भरे हुए त्रिभुजों से बदखाया गया है। A' और B' नक्शे के A और B लाइन पर खाई की खड़ी काट हैं।
इन भूकंपों के केद्रों की गइराई के आधार पर कामचेटक(CC) से लेकर उत्तरी जापान(DD) तक फैली खाई के नीचे धंसती प्लेट के ऊपरी सिरे का रास्ता (C'D') या बेनिऑफ जोन।
खाई, भूकंप और ज्वालामुखी : इंडोनेशिया द्वीप समूह हिंद महासागर में मौजूद खाई के ऊपर स्थित है। इस द्वीप समूह में ज्वालामुखियों की कतारें हैं जो महासागर में मौजूद खाई के फैलाव के आकार के अनुसार ऊपर जमीन पर मौजूद हैं। यह इलाका भूकंपीय क्षेत्र में आता है। ज़मीन से अंदर की ओर जो लाइनें है वे क्रमश: ओर गहरे भू कंपों को दर्शा रही हैं। ज्वालामुखिों की कतार मध्यम गहराई के भूकंपों की लाइन के बिल्कुल ऊपर से निकल रही है।
भारत: भारत के करीब स्थित एक ओर खाई- सुंडा। यही खाई आगे बढ़कर जावा खाई से मिल जाती है। इस पूरी खाई के ऊपर ज़मीन के किनारो पर सक्रिय ज्वालामुखियों की आर्कनुमा बेल्ट है। ऊपर ज्वालामुखी की कतार और खाई का एक काल्पनिक चित्र।
जहां प्लेट खिसकती है . . .
फायदों के अलावा नई जानकारी से कुछ घाटा भी हो सकता है, जैसे कि अमेरिका के एक राज्य कैलिफोर्निया में हुआ। यहां के निवासियों को मकान का बीमा करवाने के लिए दूसरे राज्यों के मुकाबले अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं। क्यों? क्योंकि यह इलाका भूकंपीय पट्टी में आता है।
दरअसल सेन एंड्रीऑस फॉल्ट कैलिफोर्निया से होकर गुज़रता है। यह फॉल्ट पैसीफिक प्लेट और अमेरिकन प्लेट की सीमा रेखा पर पड़ता है। फॉल्ट दरअसल प्लेट की सीमाओं का एक प्रकार है जहां प्लेट बनती नहीं, नष्ट नहीं होती बल्कि एक-दूसरे के सापेक्ष विपरीत दिशाओं में खिसकती हैं। फॉल्ट के कारण इन क्षेत्रों में भूकंप आते रहते हैं, जिनके केंद्र तो काफी उथले होते हैं लेकिन फैलाव काफी अधिक होता है।
गौर करें तो पाएंगे कि भूकंपीय और ज्वालामुखी गतिविधियां अधिकतर प्लेट की सीमाओं पर ही सीमित होती है। भूकंप से पैदा होने वाली तरंगों के विश्लेषण से हमें यह भी पता चलता है कि कौन-सी प्लेट किस दिशा में गति कर रही है। लेकिन फिर भी अभी हम इतना अधिक नहीं जानते कि बता सकें कि भूकंप कब ओर कहां आएगा और कब, कहां ज्वालामुखी फटेगा। हो सकता है कि आने वाले समय में यह भी बताने की स्थिति में आ जाएं।
सेन एंड्रीऑस फॉल्ट: पैसिफिक प्लेट के साथ उत्तर अमेरिका का एक बहुत छोटा- सा टुकड़ा जुड़ा हुआ है, जो पैसिफिक प्लेट के साथ उत्तर-पूर्वी दिशा (पेरे महाद्वीप के सापेक्ष) करीब ढाई इंच प्रति की दर से गति कर रहा है। दोनों प्लेटों क सीमा अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य से गुजरा है। इसी फॉट के कारण यह इलाका भूकंपीय पट्टी में आता है। कोई भी व्यक्ति यदि धैर्य के साथ पूरी जिंदगी किसी एक प्लेट पर खड़ा होकर देखे फॉल्ट के दूसरी ओर के घर उसकी दाहिनी दिशा करीब चौदह फीट दूर खिसक चुके होंगें। बाई ओर का चित्र इस फॉल्ट का फोटो है। जिसमें धरती के इस स्सिे में पैदा तनाव दिख रहा है।
जैसे कि आज हम यह बताने की स्थिति में हैं कि प्लेटें कैसे चलती हैं और महाद्वीप कैसे खिसकते हैं और भूतकाल में कैसे खिसके होंगे।
बीस करोड़ साल पहले
तर्क हों और पर्याप्त सबूत हों तो थ्योरी की मान्यता मिलती ही है। एक बार प्लेटों के नया बनकर आगे खिसकने और खाइयों में धंसकर नष्ट होने की प्रक्रिया समझ आ गई तो फिर महाद्वीपों के खिसकने को लेकर कोई संदेह नहीं रहा। दुनिया भर के भू-वैज्ञानिक महासागरों में चट्टानों के चुंबकत्व, चुंबकीय पट्टियों की दिशा और अलग-अलग पलेटों के नया बनने की दर, महाद्वीपों के तटीय आकार आदि के आधार पर दुनिया का पुराना नक्शा बनाने में जुट गए। जो नक्शा बना उसमें 20 करोड़ साल पहले सारे महाद्वीप आपस में मिलकर एक भूभाग बनाते थे। यह सुपर महाद्वीप था पेंजिआ। इस नक्शे को बनाने में कम्प्यूटर से बड़ी मदद मिली।
इस नक्शे में अंग्रेजी के अक्षर ‘वी’ (v) के समान एक बढ़ा खाली आकार दिख रहा है। यह टेथिस महासागर था। इसकी ऊपर वाली बाजू अंटार्कटिका और ऑस्ट्रेलियया के साथ भारत पड़ा हुआ है। इस पेंजिआ के ऊपर वाले हिस्से में एशिया, उत्तरी अमेरिका आदि मिलकर लॉरेशिया बनाते हैं और नीचे वाला हिस्सा जिसमें भारत भी शामिल है गौंडवाना लैंड कहलाता है। यह नाम भारत के ही एक भू भाग के आधार पर रखा गया है।
नया समुद्र और समुद्री रिज : नया समुद्र और समुद्री रिज का अस्तित्व महाद्वीपों के ऊपर तब शुरू होता जब कोई ऐसी दरार पड़ती है जो लगातार फैलती जाती है। स वजह से दरार के आसपास की ज़मीन वे धसकनी शुरू हो जाती है; और महाद्वीप दो हिस्सों में टूटता जाता है। इधर इस दरार को भरने के लिए नीचे से गर्म पदार्थ भी ऊर आना शुरू होता है। धीरे-धीरे महाद्वीप के टुकड़े एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। बीच की जगह में पानी भर जाता है और इस तरह एक नया उथला समुद्र बन जाता है। जैसे-जैसे ये टुकड़े और दूर होते हैं समुद्र और चौड़ा होता जाता है। इस तरह जहां पहले महाद्वीप था वहा एक लंबा चौड़ा समुद्र बन जाता है। और बीच समुद्र में होती है वो दरार (रिज) जिसका जन्म महाद्वीप में हुआ था।
ज़ाहिर है कि सुपर महाद्वीप तभी टूटेगा जब उसमें कोई दरार पड़े। और जब भी कोई दरार पड़ती है उसके साथ लावा नीचे से ऊपर आता है। लावा के आधार पर पृथ्वी पर घटी पिछली घटनाओं की उम्र और समय निकालने में बड़ी मदद मिलती है।
इन्हीं सारे तथ्यों के आधार पर अनुमान लगाया है कि करीब 19 करोड़ साल पहले यह दरार पड़ी मेक्सिको की खाड़ी के साथ उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका के बीच। इसके बाद एक-एक करके महाद्वीप पेंजिआ से अलग होते गए। दक्षिण अमेरिका अफ्रीका के एक तरु से अलग हुआ तो अंटार्कटिका दूसरी तरफ से। टूटन की सबसे आखिरी कड़ी थी उत्तरी अमेरिका का यूरोप से अलजग होना और नीचे ऑसट्रेलिया का अंटार्कटिका से अलग होना।
भारत की गति
इस पूरे दौर में भारत की यात्रा काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। सारे महाद्वीपों की तुलना में इसी ने सबसे लंबी यात्रा की – करीब सात हज़ार किलोमीटर की। कहां यह नीचे अंटार्कटिका क्षेत्र में पड़ा हुआ था और आज कहां भूमध्य रेखा के थेड़ा- सा ऊपर है। इस यात्रा में इसने टेथिस माहसागर को पार किया। जैसे-जैसे भारत आगे बढ़ता गया टेथिस महासागर का तल नष्ट होता गया और पीछे हिंद महासागर खुलता गया।
भारत ओर यूरेशिया की टक्कर: पेंजिआ से अलग होने को बाद समय के साथ भारत की बदलती सिथतियां। (समय करोड़ साल में)
करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले दोनो महाद्वीपों की टक्कर हुई। यह बड़ी ज़ोरदार थी। इसी का परिणाम है दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला हिमालय, और उसके पीछे स्थित दुनिया का सबसे ऊंचा पठार- तिब्बत। ये टक्कर अभी खत्म नहीं हुई है। भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि भारत की तरु से अभी भी दबाव बना हुआ है। इस तरह प्लेट टेक्टोनिक्स थ्योरी की बदौलत तलछटी चट्टानों का ऊपर डठना समझाया जा सकता है। वैसे गोंडवाना के अलग-अलग टुकड़ों क यूरेशिया के टक्कर का काफी ज़ोरदार रही है। इसके कारण पहाड़ी श्रृंखलाओं का निर्माण हुआ जो स्पेन से लेकर चीन तक फैली हुई हैं।
तो ये थी महाद्वीपों के खिसकने की कहानी। लेकिन इस पूरे इतिहास में यह सवाल तो छूट ही गया कि प्लेटें चलती क्यों हैं? हालांकि उलझनें तो अभी भी कई हैं लेकिन एक सिद्धांत का लेकर वैज्ञानिकों के बीच सर्वमान्यता है। वो है ‘संवहन धाराओं का चलना’।
सरल भाषा मं कहें तो इस सिद्धांत के अनुसार पदार्थ का वितरण कन्वेयर बेल्ट जैसी संवहन धाराओं के द्वारा हो रहा है- जिसमें गर्म पदार्थ ऊपर उठ रहा है, महासागरों सतह के समानान्तर फैल रहा है, ठंडा हो रहा है। और फिर वापस नीचे की ओर उतर रहा है।
तो प्लेटों के खिसकने के साथ ही मैं इस पन्ने से खिसकूं, इसके पहले आइए यूं ही एक नज़र देख लें प्लेट टेक्टोनिक्स का फिर से, चंद लाइनों में . . .।
टेक्टोनिक्स चलते-चलते . .
पृथ्वी का करीब चालीस मील मोटा बाहरी आवरण काफी कड़ा है। यह कई जगह से चटका हुआ है। चटके हुए भाग प्लेट की सीमा रेखाएं हैं। लगभग सारी-की सारी भूकंपीय गतिविधियां प्लेटों की सीमाओं पर सिमटी हैं। ये प्लेटें गतिशील हैं। महाद्वीप इन प्लेटों पर सवारी करते हैं।
प्लेटों के बीच बिल्कुल भी खाली जगह नहीं रह सकती। पृथ्वी पर कोई भी ऐसी गहरी दरार नहीं है जो चालीस मील गहरी हो। ये प्लेटें आपस में फंसी हुई हैं।
कोई भी प्लेट एक-दूसरे के सापेक्ष खिसकना शुरू कर सकती है। ऐसी स्थिति में पृथ्वी के भीतर से पिघला पदार्थ आकर तुरंत इस बीच की खाली जगह को भर देता है। जैसा कि ‘समुद्री रिज’ में होता है। कोई भी प्लेट दूसरी प्लेट पर बहुत अधिक चढ़ाई नहीं कर सकती इसलिए जब भी विपरीत दिशा में गति करती दो प्लेटें मिलती हैं या टकराती हैं तो एक नीचे मुड़कर गर्भ में समा जाती है।
ऐसी जगहों पर गहरी खाइयां बन जाती हैं। अगर किसी एक प्लेट पर माद्वीप सवार हो तो नीचे जाने वाली प्लेट हमेशा महासागरीय ही होगी; क्योंकि महाद्वीप का पदार्थ मासागरीय प्लेट के मुकाबले हलका है इसलिए डूब नहीं सकता। इसीलिए अगर दोनों प्लेटों पर महाद्वीप सवार है तो भिड़ंत के बाद माद्वीपीय पदार्थ ऊपर उठकर पर्वत श्रृंखलाएं बना लेता है।
इस प्रक्रिया में ये अपने समुद्र में जमा तलछट और अन्य पदार्थो को भी ऊपर ले जाता है। प्लेटें नई बनती ओर टकराती ही नहीं बल्कि एक-दूसरे के सापेक्ष विपरीत दिशा में भी खिसकती हैं। इन सीमाओं को ‘फॉल्ट जोन’ कहते हैं।
माहद्वीपों की टक्कर की बात बार-बार सुनकर कहीं ऐसा लता है न कि दो कारें या ट्रक आपस में टकरा रहे हों।
कल्पना कीजिए लेकिन अत्यंत स्लो मोशन में। जब प्लेटों पर सवार माद्वीप टकराते हैं तो पूरा दृश्य कुछ इस प्रकार होता है कि पहले तो वे आपस में मिलते हैं, बहुत ही हल्के से। लेकिन वे यहां रूकते नहीं बल्कि बढ़ते जाते हैं आगे, और बीच का समुद्र पूरी तरह निचुड़-सा जाता है और इसका अस्तित्व खत्म हो जाता है। जैसे कि भारत औार यूरेशिया की टक्कर में टेथिस का हुआ। और ये पूरी प्रक्रिया खत्म होती है करोड़ों साल में। इतनी धीमी प्रक्रिया की बस सोचते जाइए।
आमोद करखानिस: कम्प्युटर विज्ञानी; शौकिया चित्रकार; बम्बई में रहते हैं।